Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 237.

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ट्रेक-२३७ (audio) (View topics)

समाधानः- ... ज्ञात हो जाय तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव योग्य लगे तो कहे, अन्यथा नहीं भी कहे। स्वयं समझ ले।

मुमुक्षुः- ज्ञानी कहते ही नहीं है न। ज्ञानिओं कहते नहीं है।

समाधानः- जिसमें लाभ दिखे उसमें कहे, न दिखे (तो नहीं कहे)। .. तो कुछ कहे भी, प्रसंग न दिखे तो न कहे। पुण्यकी कचास कहो, जो भी कहो, करना स्वयंको है। वह मालूम पडे या न पडे, स्वयंको तो स्वयंकी तैयारी करनी है। मालूम पडे तो भी स्वयंको पुरुषार्थ-से करना है। मालूम पडे तो भी स्वयंको पुरुषार्थ करना है और न मालूम पडे तो भी स्वयंको पुरुषार्थ करना है।

मुमुक्षुः- उसमें थोडा जोर आये।

समाधानः- तो भी पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। मालूम पडे तो बैठे नहीं रहना है। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। पुरुषार्थ करनेका है, ऐसा कोई कहे तो भी भले और उस वक्त ... बाकी पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- .. सबके लिये सुगम पंथ तैयार कर दिया है। उस पंथ पर चलने- से सब मोक्षपुरीमें जा सके, ऐसा पंथ सबको प्रकाशित कर दिया है, ऐसा पंथ गुरुदेवने बता दिया है। उस पंथ पर जाने-से सब मोक्षपुरीमें जा सकते हैं। तबियत ऐसी है, लेकिन सब मन्दिरके दर्शन.. गुरुदेव विराजते थे, वह बात अलग थी।

मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! हमारे प्रश्न तो वही हैं, परन्तु आप जब उत्तर देते हो तब हमें वह सब उत्तर नये-नये लगते हैं। हमारा यह प्रश्न है कि आबालगोपाल सर्वको सदा काल स्वयं ही स्वयंको अनुभवमें आ रहा है, ऐसा समयसारकी १७-१८ गाथाकी टीकामें आचार्यदेव कहते हैं। वहाँ आचार्यदेवका आशय क्या है? वहाँ ज्ञानका स्वपरप्रकाशक स्वभाव बताना चाहते हैं या शिष्यकी जो दृष्टिकी भूल है, वह समझाना चाहते हैं?

समाधानः- उसमें तो दृष्टिकी भूल कहते हैं। आबालगोपालको अनुभवमें आ रहा है, उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह अनुभूति, उसे आनन्दकी अनुभूति हो रही है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसका अर्थ ऐसा है कि आत्मा स्वयं अस्तित्व रूप-से,


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अपना ज्ञायकका अस्तित्व छोडा नहीं है और ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता है। लेकिन उसे उसका ज्ञान और श्रद्धान नहीं है। उसकी दृष्टि बाहर है।

वह ऐसा है कि, जैसे जड अपने स्वरूपको छोडता नहीं है, वैसे चैतन्य अपने स्वरूपको छोडता नहीं है। स्वयं अनुभूतिस्वरूप ही है। ज्ञान असाधारण लक्षण है कि ज्ञान ज्ञानस्वरूप स्वयं परिणमता है। लेकिन उसे उसकी अनुभूति नहीं है। अनुभूति अर्थात उसे आनन्दकी अनुभूति नहीं है। परन्तु स्वयं अपने अनुभूतिस्वरूप अर्थात चैतन्य चैतन्यरूप परिणमता है। अर्थात ज्ञान ज्ञानरूप-से अनुभवमें आ रहा है। लेकिन उसको स्वयंको वह मालूम नहीं है कि मैं चैतन्य स्वयं अस्तित्व स्वरूप हूँ। उसका अस्तित्व उसने ग्रहण नहीं किया है, लेकिन अस्तित्वका नाश नहीं हुआ है। वह अनुभूतिस्वरूप ही है। आत्मा स्वयं अनुभूतिस्वरूप है। लेकिन उस अनुभूतिका स्वयंने अनुभव नहीं किया है। ऐसा उसका अर्थ है।

मुमुक्षुः- दृष्टिकी भूल है, यह बताना है।

समाधानः- दृष्टिकी भूल है, यह बताना है। उसकी दृष्टिकी भूल है। उसकी दृष्टि बाहर है। जैसे दूसरोंकी गिनती करता है कि यह आदमी है, यह आदमी है, लेकिन स्वयंको गिनना भूल जाता है। ऐसे स्वयं सब बाहर देख रहा है। बाहरका है, लेकिन मैं स्वयं चैतन्य हूँ, उसके अस्तित्वका नाश नहीं हुआ है, लेकिन वह स्वयंको भूल गया है। अपना अस्तित्व अनुभवमें आ रहा है। परन्तु उस अस्तित्वकी आनन्दकी अनुभूति नहीं है।

अनुभूतिस्वरूप स्वयं होने पर भी उसे आनन्दकी अनुभूति नहीं है। ज्ञान असाधारण लक्षण है कि जिस लक्षण-से स्वयं अपनेको पहचान सके ऐसा है। वह ज्ञान-ज्ञायकताका नाश नहीं हुआ है, ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। लेकिन स्वयं उस ज्ञायकतारूप नहीं हुआ है। इसलिये उसकी ओर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसका आचरण करे तो उसे आनन्दकी अनुभूति प्रगट होती है। उसकी श्रद्धा नहीं करता है, स्वयं स्वयंका यथार्थ ज्ञान नहीं करता है।

यदि प्रतीति निःशंक हो तो उसका आचरणका बल भी बढ जाता है। तो उसका आचरण भी जोरदार अपनी ओर होता है। लेकिन निःशंकता नहीं है। दृष्टि बाहर है, इसलिये स्वयं स्वयंको भूल गया है। देखे तो ज्ञान असाधारण लक्षण है। उसका नाश नहीं हुआ है। तो भी स्वयं स्वयंको देखता नहीं। वह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्माका स्वयं आनन्दरूप अनुभव नहीं करता है। अतः अनुभवमें तो आ रहा है, परन्तु वह आनन्दरूप अनुभवमें नहीं आ रहा है। ज्ञान ज्ञानरूप, उसका अस्तित्व अस्तित्वरूप परिणमता है। ऐसा उसका अर्थ है।


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मुमुक्षुः- मतलब वहाँ अस्तित्व .. कहना है और अपना ध्यान नहीं रहता है और अपना आनन्दका अनुभव नहीं कर रहा है, ऐसा ही न?

समाधानः- आनन्दकी अनुभूति नहीं है। वहाँ अनुभवका अर्थ ऐसा नहीं है कि उसे स्वानुभव है। ऐसा अर्थ नहीं है। स्वयं अपने स्वभावरूप परिणमता है। बस! ऐसा उसका अर्थ है। आनन्दकी अनुभूतिका अर्थ नहीं है। ज्ञानका नाश नहीं हुआ है, परन्तु ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। उसका अस्तित्व अस्तित्वरूप है। परन्तु उस अस्तित्वकी उसे प्रतीति नहीं है। अस्तित्व ज्ञान ज्ञानरूप है, परन्तु उस अस्तित्वकी उसे स्वयंको प्रतीति नहीं है। अपनी तरफ यदि लक्ष्य करे तो स्वयंको अस्तित्व ग्रहण हो ऐसा है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है, लेकिन वह देखता नहीं है। उसका स्वभाव ही अनुभूतिस्वरूप है। वह स्वयं वेदनस्वरूप आत्मा है। परन्तु उसे वह प्रगटरूपसे वेदता नहीं है।

मुमुक्षुः- वहाँ तो प्रथम आत्माको जानना ऐसा कहा है, श्रद्धान बादमें, ऐसा लिया है।

समाधानः- जब वह स्वयं अपनी तरफ जाय (उसमें) पहले स्वयंको ज्ञान-से पहचाने। वस्तु स्वरूप-से उसे प्रतीत यथार्थ नहीं है। पहले ज्ञान यथार्थ करना, फिर प्रतीत करनी, फिर आचरण करना, क्रम ऐसा लिया है। अनादि-से स्वयंको सच्ची समझ ही नहीं है। इसलिये व्यवहारमें ऐसा कहे कि स्वयंने अपना ज्ञान यथार्थ नहीं किया है, इसलिये तू यथार्थ कर तो श्रद्धा यथार्थ होगी, ऐसा कहनेमें आता है।

बाकी वास्तवमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणी मोक्षमार्ग (है)। यथार्थ प्रतीत हो तो ही मोक्षमार्गका प्रारंभ होता है। लेकिन उसे पहले ज्ञान करना चाहिये। उसके मार्गमें ऐसा आता है कि तू यथार्थ ज्ञान कर, फिर श्रद्धा होती है। इसलिये प्रथम ज्ञान करनेका आता है। अनादिका अनजाना..

मुमुक्षुः- उसका अर्थ यह है कि प्रथम श्रद्धा करनी तो ही ज्ञान हुआ ऐसा कहनेमें आये।

समाधानः- हाँ, श्रद्धा यथार्थ हो तो ही यथार्थ ज्ञान होता है। परन्तु प्रथम समझ जूठी है, इसलिये प्रथम समझन यथार्थ कर। व्यवहार-से ऐसा आता है। कथन ऐसा है कि व्यवहारमें पहले ज्ञान यथार्थ कर। सिर्फ कथन है ऐसा नहीं, पहले उसे जाननेका बीचमें आता है। प्रतीति बादमें यथार्थ होती है। ज्ञान यथार्थ न हो तो प्रतीति यथार्थ नहीं होती है। परन्तु प्रतीति यथार्थ हो तो ही ज्ञानको यथार्थ कहनेमें आता है। निश्चय दृष्टि-से ऐसा है।

मुमुक्षुः- दो बात आती है।

समाधानः- दो बात है, दो बात ऐसी है।


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मुमुक्षुः- दो बातमें हमें गडबड बहुत होती है। एक कह तो हमें ठीक रहता है। श्रद्धा करनी है तो श्रद्धा पर जोर दें।

समाधानः- सच्ची समझ बिना श्रद्धा यथार्थ होती नहीं और यथार्थ श्रद्धा बिना ज्ञान यथार्थ होता नहीं।

मुमुक्षुः- दोनों संलग्न है ऐसे लेना?

समाधानः- दोनों साथमें संलग्न है।

मुमुक्षुः- तो हमें ज्ञान भी करना और श्रद्धा भी करनी।

समाधानः- ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथ ही है। यथार्थ श्रद्धा हो उसे यथार्थ ज्ञान हुए बिना रहता नहीं और जिसे यथार्थ ज्ञान हो उसे श्रद्धा यथार्थ होती ही है।

मुमुक्षुः- पात्र शिष्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करने हेतु कैसा चिंतवन, मनन करे कि जिससे उसे प्रयोजनकी शीघ्र सिद्धि हो? चिंतवन, मनन कैसा होना चाहिये?

समाधानः- निरंतर ज्ञायकका चिंतवन होना चाहिये कि मुझे ज्ञायक ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। सब शुभाशुभ भाव जो विभावभाव है, विभावभावमें जिसे शान्ति नहीं लगती, मेरा स्वभाव ज्ञायक स्वरूप आत्मा ही सुखरूप और आनन्दरूप है। उसका चिंतवन, उसका मनन, उसके लिये उसे बारंबार उसीका अभ्यास, उस जातके श्रुतका चिंतवन, द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्माका द्रव्य क्या? गुण क्या? और पर्याय क्या? उस जातका चिंतवन, मनन (चलना चाहिये)। अनेक प्रकार-से जो प्रयोजनभूत तत्त्व है, उसके विचार, निमित्त-उपादान आदि अनेक प्रकार-से उस तरफका चिंतवन मनन होता है।

मैं ज्ञायक हूँ, परपदार्थका कर्ता नहीं हूँ, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं, अनेक जातका चिंतवन (चले)। लेकिन (वह सब) एक ज्ञायककी सिद्धिके लिये (होता है)। मेरा ज्ञायक चैतन्यतत्त्व, ज्ञायक ज्ञायकरूप कैसे परिणमे, ऐसी भावना उसे निरंतर होती है। चिंतवन, मनन बारंबार उसीका होता है। क्षण-क्षणमें उसका चिंतवन, मनन कैसे रहे, ऐसा उसका प्रयत्न होता है। उसमें वह थकता नहीं है। बारंबार उसीका चिंतवन, मनन होता है।

मुमुक्षुः- मैं एक ज्ञायक हूँ, ऐसा हमें बारंबार विचार करना?

समाधानः- विचारना नहीं, ज्ञायकका स्वभाव पहचानकर विचार करना। ऐसे रटनमात्र- से नहीं होता। परन्तु अंतरमें स्वभावको ग्रहण करने-से होता है। प्रज्ञा-से भिन्न किया, प्रज्ञा-से ग्रहण किया। अंतरमें-से ग्रहण करने-से उसकी सूक्ष्म सन्धिमें-से चैतन्यको भिन्न करनेका बारंबार प्रयत्न करे तो वह भिन्न पड जाता है। उसकी प्रज्ञाछैनी-से भिन्न पडता है। बारंबार उसीका प्रयत्न करे। उसकी पूरी दिशा बदल जाय, ज्ञायक तरफ (हो जाती है)। जो दृष्टि बाहर जाती थी, उस दृष्टिको बारंबर ज्ञायक तरफ, ज्ञायक ओर ही उसकी


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परिणति बारंबार मुडती रहे, अभ्यास रूप-से, यथार्थ तो बादमें होता है।

मुमुक्षुः- प्रत्येक विचारका बहाव ज्ञायक-ओर ही होता है।

समाधानः- ज्ञायक तरफका ही होता है। ज्ञायककी सिद्धि कैसे हो? ज्ञायककी प्रसिद्धि कैसे हो? उस ओर ही (प्रयत्न रहता है)।

मुमुक्षुः- प्रज्ञाछैनी अर्थात भेदज्ञान करना?

समाधानः- हाँ। भेदज्ञान करना। प्रज्ञा-से चैतन्यको ग्रहण करना और प्रज्ञा-से भिन्न करना। विभाव-से भिन्न और स्वभावका ग्रहण करना। एकत्व और विभक्त। पर- से विभक्त, विभाव-से विभक्त और स्वभावमें एकत्व।

मुमुक्षुः- पर-से विभक्त ऐसा चिंतवन करे तो भी उसका स्व तरफ जानेका प्रयत्न है।

समाधानः- पर-से विभक्त चिंतवन करे, यथार्थपने विभक्त चिंतवे तो उसमें स्वकी एकत्वता आ जाती है। लेकिन स्व-तरफका, अस्तित्व तरफके ग्रहणका लक्ष्य नहीं है, और बाहर यह सब अनित्य है, यह सब दुःखरूप है, ऐसा करता रहे (और) अपने अस्तित्वका ग्रहण नहीं है तो वह विभक्तपना भी यथार्थ नहीं है। एकत्व अस्तित्व ग्रहण किये बिनाका विभक्तपना यथार्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- एकत्व-विभक्त कहनेमें आता है, लेकिन शुरूआत एकत्व-से ही होती है।

समाधानः- शुरूआत एकत्व-से ही होती है।

मुमुक्षुः- उसमें विभक्त आ जाता है।

समाधानः- उसमें विभक्त आ जाता है।

मुमुक्षुः- एक द्रव्य-से दूसरे द्रव्यकी भिन्नता, ये तो गुरुदेवके और आपके प्रताप- से थोडा-थोडा मुमुक्षुओंको ख्यालमें आता है कि यह द्रव्य भिन्न और यह द्रव्य भिन्न है। परन्तु द्रव्य-गुण और पर्याय, उसमें किस प्रकार भिन्नता करके अनुभव करना, इस विषयमें हमें मार्गदर्शन दीजिये।

समाधानः- एक द्रव्य और दूसरा द्रव्य अत्यंत भिन्न हैं, उन्हें प्रदेशभेद है। वह तो भिन्न है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। शास्त्रमें भेदज्ञान करनेका आता है, विभाव- से विभक्त हो। गुण-पर्यायसे भेदज्ञान करनेका नहीं आता है। भेदज्ञान तो विभाव-से करना है। गुण और पर्यायके लक्षण पहचानकर और आत्मामें अनन्त गुण और पर्याय क्या है, उसका ज्ञान करके, उसके भेदमें अटकना नहीं। उसके भेद विकल्पमें नहीं रुककर, एक अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि रखने-से उसमें जो उसके अनन्त गुण और शुद्ध पर्याय है, वह प्रगट होती है।

उसका-गुण-पर्यायका-भेदज्ञान नहीं करना है, अपितु उसका ज्ञान करना है कि अनन्त गुण आत्मामें (हैं)। आत्मा अनन्त गुणोँ-से गुँथा हुआ अभेद तत्त्व है। उसमें


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अनन्त गुण किस तरह है? ज्ञानका ज्ञान लक्षण, आनन्दका आनन्द लक्षण, चारित्र चारित्ररूप है, (ज्ञान) जाननेका कार्य करे, आनन्द आनन्दका कार्य करे। उसके कार्य पर-से, उसके लक्षण पर-से पहचान सकता है। उसे पहचानकर गुणभेदमें रुकना वह तो विकल्प और रागमिश्रित है। वह तो बीचमें आये रहता नहीं। इसलिये एक चैतन्य पर अखण्ड दृष्टि करके और उस दृष्टिमें स्वयं स्थिर हो तो उसमें-से उसे स्वानुभूति प्रगट होती है। विकल्प टूटकर मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ऐसे सामान्य अस्तित्व पर, निज ज्ञायकके अस्तित्व पर दृष्टिको निःशंक करके उसमें यदि स्थिरता, लीनता, आचरण करे तो स्वानुभूति होती है।

दो द्रव्य भिन्न हैं, ये तो दिखता है। परन्तु भेदज्ञान तो विभाव-से करना है। ये तो ज्ञान करना है। आत्मा अनन्त-अनन्त शक्तिओं-से भरपूर, अनन्त द्रव्य उसके पास आये तो भी अपना अस्तित्व रखता है, ऐसी अनन्त शक्ति है। इससे अतिरिक्त उसमें अनन्त गुण है, अनन्त धर्म हैं, उन सबका ज्ञान करनेके लिये, उसका लक्षण और कार्य पर-से पहचान सकता है। फिर उसके भेद विकल्पमें रुकना नहीं है। वह गुण तो अपना स्वरूप है। अपने स्वरूपसे गुण भिन्न नहीं है। इसलिये उसका ज्ञान करके, गुणभेदमें नहीं रुककर, पर्यायभेदमें नहीं रुककर स्वयं निज चैतन्य पर दृष्टि रखे। मात्र जान ले कि यह गुण है, यह पर्याय है। गुणभेदमें रुकनेका कोई प्रयोजन नहीं है। उसे जाननेका प्रयोजन है। स्वयं अपनेमें स्थिर हो तो स्वानुभूति प्रगट होती है।

जो विभाव है, शुभभाव ऊँचे-से ऊँचा हो तो भी अपना स्वरूप नहीं है। उससे स्वयंको भिन्न करता है। लेकिन इसे तो वह जानता है कि यह पर्याय एक अंश है, ये गुण हैं वे स्वयं एक-एक भेद है, उसे जान लेता है। चैतन्य पर अखण्ड दृष्टि करे, सामान्य पर दृष्टि करे। उसमें जो विशेष पर्याय है वह प्रगट होती है। उसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र उसमें सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन, सर्व गुणके अंश प्रगट होते हैं। और उसमें विशेष लीनता हो, लीनता होने-से मुनिदशा आये। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें स्वयं निर्विकल्प दशामें बारंबार जमता है, उसमें-से वीतराग दशा होती है। उन सबमें भिन्न-भिन्न प्रकार-से अटकनेकी आवश्यकता नहीं है। उसका प्रयोजनभूत जान ले, फिर स्वयं अपनी निःशंक प्रतीति-से लीनता करके आगे बढे तो उसमें-से उसे सम्यग्दर्शन (होता है)। सम्यग्दर्शनके बिना तो कुछ होता नहीं। आगे बढकर लीनता और वीतराग दशा उसीमें प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात आपने कही। एक तो ऐसा कहा कि राग-से भिन्नता (करनी है)। भेदज्ञान राग-से करनेका है। द्रव्य-गुण और पर्यायके भेदको जानकर अवलम्बन ज्ञायकका करने-से भेदका सहज ज्ञान रह जायगा, उसमें अटकना नहीं है।

समाधानः- उसमें अटकना नहीं है। उसका भेदज्ञान नहीं करनेका है। उसका


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ज्ञान, उसका लक्षण पहचानकर (कि) वह अंश है, मैं अंशी हूँ। वह अंश चैतन्यके अंश हैं। उसका ज्ञान करके स्वयं अपनेमें दृष्टिको स्थापित करके उसमें लीनता करनेका प्रयोजन है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान अर्थात विभाव-से बारंबार भिन्न करना।

समाधानः- विभाव-से भिन्न करना वह भेदज्ञान है।

मुमुक्षुः- प्रज्ञाछैन उसी पर पटकनी है न? विभाव और चैतन्यके बीच।

समाधानः- चैतन्य और विभावके बीच प्रज्ञाछैनी (पटकनी नहीं है)।

मुमुक्षुः- गुण और द्रव्यके बीच नहीं पटकनी है।

समाधानः- गुणके बीच प्रज्ञाछैनी नहीं पटकनी है।

मुमुक्षुः- पर्याय और द्रव्यके बीच..

समाधानः- उसमें प्रज्ञाछैनी नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञान करना।

समाधानः- उसका तो ज्ञान करनेका है।

मुमुक्षुः- पर्याय क्षणिक है, द्रव्य ध्रुव त्रिकाल है ऐसा ज्ञान करना।

समाधानः- ज्ञान करना। पर्याय प्रगट होती है, अंश-अंशमें परिणमति है। आत्मामें अनन्त गुण हैं। सबका ज्ञान करना। उससे भेदज्ञान नहीं करना है।

मुमुक्षुः- सब नया लगता है।

मुमुक्षुः- सत्य है। जैसा कहना हो वैसा कहो।

मुमुक्षुः- परम सत्य। परन्तु इस तरह गुण-पर्याय... भेदज्ञान तो राग-से करना है।

मुमुक्षुः- विभाव यानी उसमें राग और इन्द्रिय ज्ञान दोनों ले सकते हैं?

समाधानः- इन्द्रिय ज्ञान अर्थात उसमें रागमिश्रित ज्ञान आ गया। रागमिश्रित ज्ञान। ज्ञानगुण अपना स्वभाव है। अधूरा ज्ञान है वह रागमिश्रित है। वह उसमें आ जाता है। उसमें ज्ञानका भाग इस ओर लो तो इस ओर आ जाता है, रागका भाग उसे चला जाता है। ज्ञानका भाग चैतन्यकी ओर आ जाता है, रागका भाग विभाव ओर चला जाता है।

मुमुक्षुः- इस ओर, उस ओरमें कुछ...

समाधानः- ज्ञानका भाग चैतन्य तरफ आ जाता है। रागका भाग विभाव तरफ जाता है, पर तरफ जाता है। रागका भाग पर तरफ जाता है, ज्ञानका भाग स्व तरफ आ जाता है। उसमें अपूर्ण या पूर्णका लक्ष्य नहीं रखकर, मैं ज्ञायक ही हूँ। वैसे ज्ञान सो ज्ञान ही है और विभाव सो विभाव ही है। पर तरफ विभावका भाग जाता है।

मुमुक्षुः- रागमिश्रितमें वास्तवमें रागपना है उससे भिन्न पडना है। ज्ञान तो मूल


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तो स्वभावका अंश है।

समाधानः- ज्ञान तो स्वभावका अंश है।

मुमुक्षुः- ये तो ज्ञान-से भी भिन्न करता है। भूल हमारी ऐसी होती है। ज्ञान- से भिन्न ज्ञायक।

समाधानः- अपूर्ण ज्ञान जितना मैं नहीं हूँ। पूर्ण शाश्वत हूँ। ये क्षयोपशम ज्ञान, मति-श्रुत पर्याय, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान आदि जो भेद पडते हैं, वह भेद जो अपूर्ण पडते हैं वह मेरा पूर्ण स्वभाव नहीं है। पूर्णको ग्रहण करना, अपूर्णको ग्रहण नहीं करना। जिसमें रागके कारण, निमित्तके कारण अपूर्ण पर्याय है, उसे ग्रहण नहीं करके स्वयंका पूर्ण स्वरूप, जिसे स्वयंका चैतन्यका स्वरूप ग्रहण करना है, उसे पूर्ण स्वरूप ग्रहण करना चाहिये। अपूर्ण ग्रहण करे तो भी पूर्ण स्वरूप ग्रहण नहीं किया है। इसलिये पूर्ण स्वरूप ग्रहण करना। फिर ये सब तो अपूर्ण पर्यायें हैं। केवलज्ञान होता है वह पूर्ण पर्याय है। परन्तु पर्याय है, ऐसा उसका ज्ञान करना। पर्याय है, लेकिन वह चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्याय है, उसका ज्ञान करना। परन्तु है पर्याय, उसका ज्ञान करना। उससे कहीं भेदज्ञान नहीं करना है।

मुमुक्षुः- चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्यायें हैं।

समाधानः- चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्याय केवलज्ञान है।

मुमुक्षुः- फिर भी उस अपूर्णका आश्रय नहीं करना है, आश्रय तो एकका ही करना है।

समाधानः- आश्रय तो पूर्णका करना है। आश्रय अनादिअनन्त द्रव्यका आश्रय है। आश्रय करने-से उसमें शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं।

मुमुक्षुः- स्वभावकी ही महिमा। समाधानः- स्वभावकी महिमा, पूर्णकी महिमा। अपूर्णकी महिमा नहीं, पूर्ण स्वभावकी महिमा।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!