PDF/HTML Page 1560 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- आंशिक आचरण हो...
समाधानः- आंशिक आचरण पहले नहीं होता है। पहले श्रद्धान-ज्ञान हो तो ही आचरण होता है। तो ही आचरण यथार्थ होता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धान-ज्ञान पूर्वक।
समाधानः- श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक आचरण यथार्थ होता है। आंशिक आचरण होता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाकी प्रधानता, ऐसा? जैनदर्शनमें श्रद्धान मुख्य तत्त्व है।
समाधानः- श्रद्धानकी प्रधानता है।
मुमुक्षुः- भले ज्ञान द्वारा श्रद्धान होता है।
समाधानः- ज्ञान बीचमें आता है। बीचमें आता है, इसलिये प्रथम ज्ञान करना, ऐसा आता है। श्रद्धा करता है, उसमें ज्ञान बीचमें आता है। अतः प्रथम ज्ञान करना, ऐसा कहनेमें आये। परन्तु श्रद्धा यथार्थ हो तो ही मुक्ति मार्गका प्रारंभ होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान करना, वह भी समकिती-ज्ञानीके समीप रहकर यथार्थ ज्ञान हो सके। धर्मात्माका योग हो तो ही उसको उस जातके संस्कार दृढ हो सके।
समाधानः- गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस मार्गको स्वयं ग्रहण करे। गुरुदेवका आशय समझे, उस आशयको ग्रहण करे, वैसी स्वयं तैयारी करे तो उसे मार्ग प्रगट होता है। उसकी समीपता अर्थात समीपता यानी अंतरमें उनकी समीपताको ग्रहण करनी। ऐसा अर्थ है।
मुमुक्षुः- भावकी निकटता।
समाधानः- हाँ, भाव-से निकटता ग्रहण करनी। अनादि कालसे देव-गुरु सच्चे नहीं मिले हैं। इसलिये उसे यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ है। परन्तु उपादान तैयार हो तो निमित्त मौजूद होता ही है।
मुमुक्षुः- निमित्तको खोजना, ऐसा नहीं?
समाधानः- निमित्त उसे प्राप्त हो ही जाता है, उनका सान्निध्य प्राप्त हो ही जाता है। समीपता यानी उनका सान्निध्य, समीपता प्राप्त हो जाती है। मुमुक्षुको ऐसे भाव आये बिना रहते ही नहीं। देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता कैसे प्राप्त हो? उनका सान्निध्य
PDF/HTML Page 1561 of 1906
single page version
कैसे प्राप्त हो? मेरा पुरुषार्थ कैसे हो? मुझे मार्ग कैसे ग्रहण हो? उनका सान्निध्य तो, निश्चय और व्यवहार दोनों सान्निध्यकी उसे भावना होती ही है।
मुमुक्षुः- व्यवहार भी बीचमें आवश्यक है सही।
समाधानः- हाँ, व्यवहार बीचमें आता है। उसे भावना होती है। फिर बाहर- से योग कितना बने, वह अलग बात है। परन्तु उसे भावना होती है। सान्निध्यकी, समीपताकी सब भावना होती है।
मुमुक्षुः- रागकी भूमिकामें ऐसे ही भाव आये।
समाधानः- ऐसे भाव आये। मुुमुक्षुकी भूमिकामें ऐसे भाव आये। सम्यग्दर्शन होनेके बाद मुक्तिका मार्ग प्रारंभ हो तो भी, चारित्र दशा हो तो भी देव-गुरु-शास्त्रके शुभ विकल्प तो साथमें होते ही हैं। जबतक वीतराग दशा नहीं हुयी है तबतक। मुमुक्षुको तो ऐसा होता है कि देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता हो, उनका श्रवण, मनन आदिकी भावना होती है। परन्तु सम्यग्दृष्टिको, चारित्रवान मुनिको सबको देव-गुरु-शास्त्र तरफकी शुभभावना आये बिना नहीं रहती। बीचमें साथमें होता है। अणुव्रत, महाव्रतके शुभ परिणाम आते हैं। साथमें देव-गुरु-शास्त्रके शुभ परिणाम आते हैं।
मुमुक्षुः- भावनका अर्थ आपने यह किया कि ऐसे विकल्प आते हैं।
समाधानः- हाँ, ऐसे विकल्प आते हैं। स्वयं आगे जाय, वहाँ देव-गुरु-शास्त्र मुझे सान्निध्यतामें हो, मुझे उनकी समीपता हो, ऐसी भावना उसे आये बिना नहीं रहती। बाहरका योग कितना बने वह अलग बात है, लेकिन उसकी भावना ऐसी होती है।
समाधानः- ...देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अन्दर शुद्धात्मा, मेरा चैतन्य स्वरूप कैसा है, उसकी पहचान करनी। गुरुदेव बारंबार वही कहते थे। गुरुदेवके प्रवचनमें तो गुरुदेवने बहुत मार्ग बताया है, वाणी बरसायी है। वह करना है। स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने बताया। अंतरमें स्वानुभूति होती है, बाहरमें कहीं नहीं है। बाहर-से कुछ नहीं मिलता, अंतरमें है, सब आत्मामें भरा है उसमें-से प्रगट होता है।
अनन्त काल-से जन्म-मरण करते-करते मनुष्यभव मिला। इस मनुष्य भवमें ऐसे गुरुदेव मिले, उन्होंने मार्ग बताया तो वह एक ही करने जैसा है। आत्म स्वरूपकी पहचान कैसे हो? वह।
समाधानः- ...लेकिन वह व्यवहार है। वास्तविक रूपसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शन-से शुरूआत होती है।
मुमुक्षुः- वहाँ तकका जो ज्ञान है, वह विकल्पवाला कहा जाय, व्यवहारवाला कहा जाय। प्रयोजनभूत वस्तु तबतक प्राप्त नहीं होती, श्रद्धा होनेके बाद ही प्राप्त होती है।
समाधानः- मूल अपनी परिणति, भेदज्ञानकी धारा, निर्विकल्प स्वानुभूति सम्यग्दर्शन
PDF/HTML Page 1562 of 1906
single page version
हो तो... उसके पहले जो ज्ञान है, उसे यथार्थ नाम नहीं दे सकते। सम्यग्दर्शन हो तब उस ज्ञानको यथार्थ कहते हैं। उसके पहले व्यवहार बीचमें आता है। जाननेके लिये ज्ञान आता है, परन्तु प्रतीति यथार्थ हो, तभी ज्ञानको सम्यकज्ञान नाम कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- सर्व गुणोंकी शुद्धि होती ही जाती है। शुद्धिकी वृद्धि होती जाती है। ऐसी बात आये, वह कैसे होती है?
समाधानः- केवलज्ञान होनेके बाद नहीं। केवलज्ञान तो पूर्ण हो गया।
मुमुक्षुः- ज्ञानगुण तो होता है। आज जैसा गुण है, उससे कल ज्यादा हो।
समाधानः- केवलज्ञानमें ऐसा नहीं होता। वह तो साधक दशामें है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद शुद्धिकी वृद्धि होती है। उसकी भूमिका बढती जाय। उसे चतुर्थ गुणस्थान हो, फिर पाँचवा होता है, लीनता बढती जाय, ऐसे-ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी निर्मलता, अनन्त गुणोंकी निर्मलता बढती जाती है। सम्यग्दर्शन-यथार्थ दृष्टि हुयी इसलिये उसमें जब चारित्र प्रगट होता है, फिर सर्व गुणोंकी शुद्धि होती है। सम्यग्दर्शन-से ही शुद्धि होती है।
सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। उसे शुद्धि हुयी। फिर विशेष आगे बढता है तो चारित्र दशा आती है। पाँचवी भूमिका, छठ्ठी-सातवीं मुनिदशा आये। इसलिये उसकी अधिक शुद्धि हुयी। उसे वीतराग दशाकी प्राप्ति (हुयी)। पूर्ण वीतराग नहीं है, वीतरागताकी वृद्धि हुयी। फिर मोहका, रागका क्षय होकर अंतर वीतराग दशा पूर्ण वीतराग हो, तब उसे संपूर्ण होता है। केवलज्ञान होता है। वीतराग होता है इसलिये केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान होता है, इसलिये सर्व गुण संपूर्णरूपसे प्रगट हो गये। फिर समय-समयमें उसकी जो परिणति होती है, उस परिणतिमें वृद्धि-वृद्धि होती है, ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- केवलज्ञान होने पर सर्व गुण खील गये न?
समाधानः- केवलज्ञान होता है तो सर्व गुण परिपूर्ण हो गये। फिर जो परिणमन होता है, वह एकके बाद एक, अनन्त गुण स्वयं शुद्धिरूप परिणमते ही रहते हैं। वीतरागरूप परिणमते रहते हैं। उसका स्वभाव ऐसा है कि पारिणामिक स्वभाव है। इसलिये वह अनन्त काल पर्यंत परिणमता रहता है आनन्दरूप, ज्ञानरूप, परन्तु उसका नाश नहीं होता है या कम नहीं हो जाता। वह परिणमता रहता है, एकरूप परिणमता रहता है। उसमें तारतम्यता अगुरुलघु स्वभावके कारण हो, परन्तु वह एकरूप है। उसमें व- वृद्धि नहीं कहते। केवलज्ञान हुआ इसलिये पूर्ण हो गया।
मुमुक्षुः- तो फिर उसे अगुरुलघुकी दृष्टि-से कैसे कहते हैं?
समाधानः- उसे वृद्धि नहीं होती। वह तो एकरूप परिणमता है। तारतम्यता (होती है)। वह तो पारिणामिकभाव है। उसकी वृद्धि-हानि तो उसका स्वभाव है। जैसे हीरामें
PDF/HTML Page 1563 of 1906
single page version
चमक होती है, अनेक प्रकारसे जो चमक होती है, वैसे उसे पारिणामिकभावकी हानि- वृद्धि कहते हैैं। उसकी वृद्धि, वस्तु स्थिति-से वृद्धि, वीतरागताकी वृद्धि, केवलज्ञानकी वृद्धि नहीं कह सकते।
मुमुक्षुः- .. परन्तु पारिणामिकभावकी दृष्टि-से अगुरुलघुत्वकी..
समाधानः- अगुरुलघुका स्वभाव ही ऐसा है। पानीमें जैसेे तरंग उठते हैं, वैसे उसे पारिणामिकभाव परिणमता रहता है। हानि-वृद्धि...
मुमुक्षुः- वह तो उस भावका ही है न?
समाधानः- पारिणामिकभावका ही है। वृद्धि-हानि नहीं कह सकते, पूर्ण हो गया। एकरूप परिणमन रहता है। उसे वृद्धि-हानि नहीं कहते। ... वृद्धि होती है। साधक सीढी चढता है। पूर्ण वीतरागता हो, केवलज्ञान हो तो कृतकृत्य हो गया। जो करना था वह कर लिया, अब कुछ करना बाकी नहीं रहा। पुरुषार्थकी पूर्णता हो गयी। करना कुछ नहीं है। सहज स्वभावरूप द्रव्य परिणमता रहता है। फिर करना कुछ नहीं है। करना कुछ नहीं है, वह तो निज स्वभावरूप परिणमता रहता है।
मुमुक्षुः- कलकी चर्चामें ऐसा आया कि भेदज्ञान राग और स्वभावके बीच करना है। द्रव्य और पर्यायके बीच नहीं। समयसार गाथा-३८में ऐसा आता है कि नौ तत्त्व- से आत्मा अत्यंत भिन्न होने-से शुद्ध है, ऐसा कहा। तो उसमें तो संवर, निर्जरा और मोक्ष भी आ गये। द्रव्यदृष्टि करनी और पर्यायदृष्टि छोडनी, उसमें भी द्रव्य और पर्यायके बीच भेदज्ञानका प्रसंग आया। वैसे ही ध्रुव और उत्पाद रूप चलित भाव, निष्क्रिय और सक्रिय भाव। इन सबमें द्रव्य और पर्यायके बीच तफावत करना पडता है। तो राग और स्वभावके बीचके भेदज्ञानको क्यों प्राधान्यता दी जाती है?
समाधानः- राग और स्वभाव दो हैं (उसमें) विभाव है और यह स्वभाव है, इसलिये उसकी प्राधान्यता है। गुण-पर्यायका भेद भी दृष्टिकी अपेक्षा-से कहनेमें आता है। सर्व अपेक्षा-से (नहीं)। गुण और पर्याय जो है वह अंश-अंश है। लेकिन वह अंश है वह द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से... जैसे साधकदशा। जो-जो भेद पडे गुणस्थान,... उन सब भागको द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से सबको गौण करके ... द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा- से। कारण आश्रय तो द्रव्यका लेना है। पर्यायका आश्रय या गुणका आश्रय नहीं लेना है। कारण कि उन सबको ... आता है। लेकिन वह भिन्न ऐसा नहीं है कि जैसा राग-से भिन्न है, वैसा यह भिन्न नहीं है। भिन्नता-भिन्नतामें फर्क है। इसलिये उस अपेक्षा- से कहा था कि राग-से भेदज्ञान (करना है)। क्योंकि स्वभाव और विभावका भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान है, वह अपेक्षा अलग है। उसमें आश्रय चैतन्य पूर्ण ऐश्वर्यशाली है उसका आश्रय लेना है। पर्याय और गुण एक अंश है। उसका आश्रय नहीं लेना है।
PDF/HTML Page 1564 of 1906
single page version
द्रव्य पर दृष्टि करने-से उसका आश्रय होता है और गुण एवं पर्याय गौण हो जाते हैं। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से। इसलिये उसमें सब साधक दशा और सब उसमें गौण हो जाता है। जैसे एक राजा पूर्ण शक्तिशाली राजा हो।.. कोई अपेक्षा-से भिन्न है। राजा पूर्ण ऐश्वर्यशाली है, यह तो एक अंश है। परन्तु जैसा उसके दुश्मन-से भिन्न पडता है, उस तरह उसके रिश्तेदारों-से उस जातकी भिन्नता नहीं है। भले राजा और प्रधान आदि सब भिन्न वस्तुएँ ही हैं। परन्तु वह भिन्न और उसके दुश्मन-से भिन्नता, उस भेदज्ञानमें फर्क है। इसलिये दृष्टिके बलकी अपेक्षा-से...
दृष्टि सब भिन्न करती है। मैं कृतकृत्य पूर्ण हूँ। वह साधकदशाको भी गौण करती है कि मैं पूर्ण हूँ। कृतकृत्य हूँ। मेरे द्रव्यमें कुछ भी अशुद्धता नहीं हुयी है। मैं तो पूर्ण हूँ और यह विभाव मुझ-से अत्यंत भिन्न है। ऐसे भिन्नता करता है। बीचमें जो साधकदशा, अपूर्ण पर्याय, पूर्ण पर्याय सबको गौण करती है। तो भी ज्ञान है वह उसे लक्ष्यमें रखता है कि ये गुण और पर्याय है, वह चैतन्यके लक्षण हैं। चैतन्यकी अवस्थाएँ हैं। उसकी शुद्ध पर्याय उसे वेदनमें आती है और ज्ञान उसका विवेक करता है। उस अपेक्षा-से भेदज्ञान राग-से करना है। क्योंकि गुण और पर्यायका भेदज्ञान वह भेद ऐसा है कि दृष्टिका आश्रय द्रव्य पर जाता है, इसलिये उन सबका भेद करना है।
परन्तु जैसा भेद राग-से करना है, वैसा भेद गुण-पर्यायका, वैसा भेद नहीं है। भेद-भेदमें फर्क है। इसलिये राग-से भेदज्ञान करना है। वह भेद है, परन्तु भेद-भेदमें फर्क है। उसका विवेक करना है। चैतन्यके गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र वह सब एक- एक अंश हैं। चैतन्य तो अखण्ड पूर्ण शक्तिवान है। एक-एक अंश वैसे नहीं है, अतः उसका आश्रय नहीं करना है। वह अंश है। इसलिये उन सबको गौण करना है। और दृष्टि तो उन सबको निकाल देती है। निमित्तकी अपेक्षा-से अपूर्ण-पूर्ण पर्याय हुयी, इसलिये दृष्टि सबको भिन्न करती है। मैं तो एक पूर्ण हूँ, कृतकृत्य हूँ। इस तरह दृष्टिके बलमें सब निकल जाता है। मैं पूर्ण हूँ।
लेकिन यदि पूर्ण ही हो तो बीचमें साधकदशा नहीं रहती। उसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि सब अवस्थाएँ तो होती हैं। अतः ज्ञान उसका विवेक करता है कि कोई अपेक्षासे ये गुण हैं, वह चैतन्यके हैं। चारित्रकी पर्याय प्रगट होती है वह चैतन्यमें (प्रगट होती है)। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब चैतन्यमें प्रगट होती है। परन्तु द्रव्य पर दृष्टि करने-से प्रगट होती है। इसलिये मैं नौ तत्त्वकी परिपाटी छोडकर मुझे एक आत्मा प्राप्त होओ। नौ तत्त्वकी परिपाटी पर दृष्टि नहीं रखनी है, दृष्टि एक आत्मा पर रखनी है। आत्मा पर दृष्टि करने-से सब निर्मल पर्याय प्रगट होती है। परन्तु उसका आश्रय नहीं लेना है। परन्तु वह पर्याय, जैसे विभाव भिन्न है, वैसे पर्याय उस तरह (भिन्न)
PDF/HTML Page 1565 of 1906
single page version
नहीं है। उसका वेदन चैतन्यमें होता है, उसकी स्वानुभूतिका वेदन होता है, उसकी वीतराग दशाका वेदन होता है। इसलिये उस विभाव-से (जैसे) भिन्न पडना है, वैसे इससे भिन्न नहीं पडना है। इस अपेक्षा-से कहा था।
मुमुक्षुः- राग है वह भिन्न होकर चला जाता है और इसकी अन्दरमें अधिक- अधिक वृद्धि होती है।
समाधानः- वृद्धि होती है। अन्दर चैतन्यमें शुद्धात्मामें पर्याय प्रगट होती है। परन्तु उस पर दृष्टि देने-से या उसका आश्रय करने-से वह प्रगट नहीं होता। आश्रय द्रव्यका ले तो ही वह शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट होती है। इसलिये दृष्टि तो एक पूर्ण पर ही रखनी है। पर्याय पर या गुण पर या उसमें रुकना, उस पर दृष्टि नहीं रखनी है। परन्तु ज्ञानमें रखना है कि ये पर्याय चैतन्यके आश्रय-से प्रगट होती है। वह कहीं जडकी है ऐसा (नहीं है)। ज्ञान यथार्थ करना। दृष्टि पूर्ण पर रखनी, परन्तु ज्ञान यथार्थ हो तो उसकी साधकदशाकी पर्याय यथार्थपने प्रगट होती है।
ज्ञान भी वैसा ही हो सर्व अपेक्षा-से, उसकी दृष्टिमें ऐसा ही हो कि मैं पूर्ण ही हूँ, अब कुछ करना नहीं है, तो उसमें भूल पडती है। दृष्टि पूर्ण पर होती है, द्रव्य पर, परन्तु ज्ञानमें ऐसा होता है कि मेरी पर्याय अभी अधूरी है। वह सब ज्ञानमें हो तो साधक दशा प्रगट होती है। नहीं तो उसकी दृष्टि जूठी होती है। सर्व अपेक्षा- से पूर्ण ही हूँ और राग एवं अपूर्ण पर्याय, वह राग तो मुझ-से भिन्न है, परन्तु होता है चैतन्यकी पुरुषार्थकी कमजोरी-से। वह सब ख्यालमें रखे तो पुरुषार्थ उठता है। उसमें आनन्द दशा, वीतराग दशा सब प्रगट होता है। पहले दृष्टिकी अपेक्षा-से दो भाग होते हैं। ज्ञान उसका विवेक करता है। गुरुदेवने अनेक प्रकार-से समझाया है। गुरुदेवने परम उपकार किया है। सब अपेक्षाएँ गुरुदेवने समझायी हैं।
मुमुक्षुः- दूसरा प्रश्नः- आत्मा ज्ञानस्वरूप है और उसका लक्षण ज्ञान। तथा आत्मा अनुभूतिमात्र है। उसमें तो मात्र वेदनरूप लक्षणसे पहचान करवायी है। तो पहचान करनेके लिये कौन-सी पद्धति सरल है?
समाधानः- अनुभूति लक्षण यानी उसमें ज्ञान लक्षण कहना चाहते हैं। अनुभूति अर्थात वेदनकी अपेक्षा यहाँ नहीं है। वह तो ज्ञान लक्षण है। ज्ञान लक्षण है वह असाधारण है। ज्ञान लक्षण-से ही पहचान होती है। अनुभूति अर्थात ज्ञान लक्षण कहना चाहते हैं। ज्ञान लक्षण-से ही उसकी पहचान होती है। ज्ञान लक्षण उसका ऐसा असाधारण लक्षण है कि उससे चैतन्यकी पहचान होती है। इसलिये अनुभूतिमें वेदन अपेक्षा नहीं लेनी है। वेदन तो वर्तमानमें उसकी दृष्टि विभाव तरफ है। वहाँ-से स्व-ओर मुडना। ज्ञान लक्षण-से पहचान होती है।