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मुमुक्षुः- परम उपकारी, परम पवित्र आत्मा, परम पूज्य भगवती मातानी पवित्र सेवामां। हे भगवती माता! आ भरत सदाय आपना दर्शन करवा खूब-खूब उत्सुक रहता है। यह जीव आपके मुख-से धर्मके दो शब्द सुननेके लिये अत्यंत तरसता रहता है। आपकी मुलाकातके वक्त खडे होनेका मन नहीं होता। हमारा प्रेम अति भावावेशमें आपको दर्शा नहीं सकते। नेत्र अश्रु-से भर जाते हैं। इसलिये आज अत्यंत गदगदित होकर मेरे भावावेशको इस पत्र द्वारा दर्शाये बिना रह नहीं सकता।
पूज्य गुरुदेव द्वारा जो अपूर्व प्रेम ज्ञानी भगवंतोंके प्रति प्रगट हुआ है, वह अब हृदयके पातालको तोडकर बाहर आया है। लाचार हूँ, भगवंत! मैं लाचार हूँ। मैं कोई अवज्ञा, अविनय करता होऊँ तो हाथ जोडकर प्रथम ही क्षमायाचना करता हूँ।
ऐसे तो आश्चर्य जैसा है कि मन-से तो सदा ही आपको साक्षात दंडवत प्रणाम ही होते हैं। पूज्य गुरुदेवकी सातिशयता युक्त वाणी-से मोहकी केलेके वृक्षकी पुष्ट हुयी गाँठ इतनी कमजोर होने लगी है कि अहंकार, अभिमान, घमंड इत्यादि सब मेरेमें चूर-चूर हो रहे हैं। इसलिये तनकर चलनेकी शक्ति वहाँ सोनगढमें कहाँ है? ज्ञानियोंके चरणोंमें छोटे पिल्लकी भाँति लोट लूँ, ऐसे भाव निरंतर वेदनमें आते हैं। कमाल है, माता!
धन्य हो माता! चौदह ब्रह्माण्डके अनन्ता अनन्त जीव सुखके नाम पर जो सरासर दुःख भोगते हैं, ऐसेमें आप स्व ब्रह्माण्डमें आनन्दकी घूंट पी रहे हो। जो अनन्त जीव नहीं कर सके, उस कार्यको आपने सहज साध्य किया। पूज्य गुरुदेव तो कहते थे कि आपको ऐसी स्वरूपधारा वर्तती है कि यदि आपका पुरुषका देह होता तो भावलिंगी सन्त बनकर वनमें विचरते होते। अहो..! आपकी यह स्वानुभव दशाके प्रेमी, हमें अत्यंत प्रेम प्रगट होता है।
एक स्त्री पर्याय होनेके बावजूद गजब पुरुषार्थका प्रारंभ किया है। पुरुष नाम धारण करनेवाले हमको अत्यंत-अत्यंत धिक्कार उत्पन्न होता है कि ऐसा नाम धारण करनेके लायक हम वास्तवमें नहीं है। जगतकी रचना भी, माता! अहो! भगवती माता! कितनी विचित्र है कि जिन्हें अणुमात्र नहीं चाहिये, उनके आँगनमें पुदगलोंके ठाठकी रचना
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हो गयी है। त्रेसठ शलाका पुरुषोंको जगतका अलभ्य वैभव सहज ही प्राप्त होता है कि जो नियम-से मोक्ष जानेवाले हैं।
श्री तीर्थंकरके जन्मके समय रत्नोंकी वृष्टि सहज ही बरसती है। गजबका सिद्धान्त हुआ कि ये पुदगल जिन्हें नहीं चाहिये, वह उनके पास ही है। उनके सच्चे स्वामी तो समकिती भगवंत ही हैं। माता! हमारे पास जो धन-दौलत, वैभव जो कुछ भी है, वह सब आपका ही है, आपका ही है। हम पापी इस बातको समझते नहीं है और झहरीले नागकी भाँति धन-दौलतको हमारा समझकर, उसके मालिक बनकर रक्षा करनेकी कोशिष करते हैं। अरे..! पश्चातापसे भरे नेत्र-से आपके समक्ष क्षमा चाहता हूँ, क्षमा चाहता हूँ। इस बालकका सर्वस्व आपका है।
इसलिये मुमुक्षु जन आपको हीरे-रत्नसे वधाते हैं। अरेरे..! मैं तो आपको अनन्त कोहिनूर हीरे-से वधाऊँ तो भी कम है। मेरी शक्ति होती तो आपकी वाणी जहाँ भी खीरे वहाँ रत्नोंकी वृष्टि सदा करता रहता। ऐसे भाव आये बिना नहीं रहते। परन्तु पूज्य गुरुदेव द्वारा जाना है कि मेरी सम्यक रत्नकी पर्याय प्रगट करुं, तभी आपको सत्यरूपसे वधाने जैसा आनन्द होगा। अदभुत अदभुत बातें हैं।
इस सुवर्णपुरीकी ... निश्चय-व्यवहारकी परिपूर्ण सिद्धि है। सूक्ष्म भेदरूप बातें तो यहीं सुनने मिली है। जिसने भगवान आत्माको उपादेय माना है, लक्ष्यमें लिया है, जिसे संपूर्ण वीतरागता अपना ध्येय लगता है, उस मुमुक्षुको वीतरागके ऐसे प्रतिकोंके प्रति अदभुत प्रेम उत्पन्न होता है। अरे..! पागल हो जाते हैं।
नंदीश्वर द्वीपमें समकिती पैरमें घुँघरुं बान्धकर भगवान समक्ष नाच उठते हैं। हमें तो इस घोर कलिकालमें, गहनतम अन्धकारमें आप ही एक दीपक समान हों। भारतके एक कोने-से दूसरे कोने-में जाओ, अरे..! पूरी दुनिया फिर लो, आप जैसे ज्ञानी भगवन्त कहीं मिले ऐसा नहीं है। निमित्तकी इतनी विरलतामें आपको देखकर हम पागल- पागल हो जाते हैं। कोई अबूध जीव उसे व्यक्तिमोह भी कहते हैं। परन्तु हमारी यह परिणति विद्वत्तासे पारको प्राप्त हो ऐसा नहीं है। अनुभवप्रधान परिणति है। जो समझेगा वह भाग्यशाली होगा।
अरे..! ऐसे तो माता! समाजमें सिद्धान्तके भेद भी उत्पन्न होने लगे हैं। वस्तुको विपरीत रूपसे प्ररूपित की जाती है। हम सब मान छोडकर आप जैसे श्रुतकेवलीके समक्ष बैठें तो क्षणमात्रमें सब समझमें आ जाय। परन्तु प्रतिष्ठाका मोह और क्षयोपशमके अभिमानमें इस तरह सबका इकट्ठा होना मुश्किल है। परन्तु हमें तो यह बात समझमें आ गयी है कि सूईकी नोंक पर रहे .... असंख्यात शरीरमें-से मात्र एक शरीरके जीव भी मोक्षको प्राप्त नहीं होनेवाले हैं, ऐसेमें आपने अभूतपूर्व विरल ऐसे मोक्षमार्गको
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टिकाया है, यह कोई कम आश्चर्यकी बात है?
ऐसे निकृष्ट कालमें भावलिंगी संतोंके दर्शन भी जहाँ नहीं होते हैं, वहाँ आप एकमात्र ऐसे समकिती भगवंतको हम कैसे छोड सकते हैं? हम तो आपके चरणोंमें ही आयुष्य पूर्ण करनेकी इच्छा रखते हैं।
पूज्य गुरुदेवने कहा है कि तू तेरे भगवान आत्माकी शरण ले ले। वह भगवान आत्मा फिर एक समयमात्र भी विरह नहीं करवायेंगे। माता! वह भगवान आत्मा ग्रहण नहीं हो रहा है और हमारी उलझनका कोई पार नहीं है। कहीं रुचता नहीं है, हर जगह जहर-जहर लगता है। अरे..! महा भावलिंगी सन्त गजसुकुमाल पर तो अंगारेकी सिगडी मात्र चार-छः घण्टेके लिये होगी, हमारे सर पर तो इन विकल्पोंकी भट्ठी जल रही है, जलाती है, हैरान-परेशान करती है। हम वह गजसुकुमालकी सिगडी इच्छते हैं, परन्तु यह भट्ठी नहीं चाहिये, नहीं चाहिये। बचाओ उसके त्राससे, माता! बचाओ। ज्ञानी भगवंतके प्रति अपूर्व प्रेम प्रगट हुए बिना इस भट्ठीसे बचनेका उपाय प्राप्त नहीं होगा।
हमारी यह पामर दशा ही ऐसी सूचित करती है कि हमें आपके प्रति सच्ची भक्ति उत्पन्न नहीं हुयी है। धन्य हो वीतराग मार्ग! धन्य हो! शास्त्रमें मार्ग है परन्तु मर्म तो आप ज्ञानियोंके हृदयकमलमें विराजता है। सुवर्णपुरीके मुमुक्षु आप द्वारा प्रकाशित मर्मको प्राप्त हों, ऐसी भावना होती है। सन्त बिना अंतकी बातका अंत प्राप्त नहीं होता।
पूज्य गुरुदेव द्वारा मार्ग समझमें आनेके बाद यह मस्तक आप समकिती भगवंतको अर्पण हो गया। सच्चे देव-गुरु और धर्मके सिवाय प्राणान्त होने पर भी कहीं नमन हो सके ऐसा नहीं है। अरे..रे..! ऊपरका ३१ सागरोपमवाला देव आकर चक्रवर्ती जैसी ऋद्धि-सिद्ध दे तो भी कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि आपके चरणोंमें नमा हुआ मस्तक कहीं और नहीं नमेगा।
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यको आप मिले थे। भगवान त्रिलोकीना। सीमंधर भगवानकी भी आपने भेंट की थी। इन सब बातों-से नेत्र अश्रान्वित हो उठते हैं। इसलिये समयसार आदि शास्त्रोंके प्रति अपूर्व-अपूर्व प्रेम आता है। ऐसे अभूतपूर्व कर्ताका प्रमाण देकर हम पर जो अनन्त उपकार हुआ है, पूज्य गुरुदेवकी पहचान भी आपने ही करवायी कि यह तीर्थंकर द्रव्य है। हम पामर आपके अलावा यह बात कैसे जान पाते?
श्री तीर्थंकरके गमनमें देव एकके बाद एक कमलकी रचना करते हैं। हम मुमुक्षु आपके उपकारके बदलेमें आपके गमनके समय एकके बाद एक ... मुलायम पंथ बनाये तो भी कम है।
माता! लिखनेमात्र यह शब्द नहीं है। आपके परम उपकार-से भीगे हुये ये शब्द
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हैं। बहुत लिख लिया। हमारी उलझन चाहे जितनी भी हो, परन्तु परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना चैन-से बैठ सके ऐसा नहीं है। इसलिये हम कहीं भी संतुष्ट हो ऐसा नहीं है। आपका दिलासा शान्ति देता है। परन्तु भगवान त्रिलोकीनाथको वश किये बिना चैन-से बैठ सके ऐसा नहीं है। इस संसार-से अब बस होओ, बस होओ। पूज्य श्रीमदजी लिखते हैं कि प्राणियोंको मृत्युकालमें यम जितना दुःखदायक लगता है, उससे भी अधिक दुःखदायक हमें संग लगता है।
यह भावना भाकर मुझ-से हुआ अविनय, अशातना, अभक्ति हुयी हो तो उसके लिये सच्चे हृदय-से आपकी क्षमा चाहता हूँ। आपकी दीर्घायु इच्छता हूँ।
समाधानः- ... अंतरमें ज्ञायकदेव प्रगट न हो तबतक उसे संतोष नहीं होता। परन्तु शान्ति रखकर प्रयत्न करे। स्वयं बारंबार ज्ञायकदेवको ग्रहण करके उसका ही अभ्यास (करे)। उसका स्वभाव अंतरमें-से कैसे ग्रहण हो? बारंबार उसका अभ्यास करे। उलझनमें आकर ऐसी उलझनमें न आ जाय कि एकदम उलझ जाय। एकत्वबुद्धि तोडनेका शान्ति रखकर प्रयत्न करना। प्रयत्न स्वयंको ही करनेका है।
अपनी भूल-से स्वयं विभावमें दौड जाता है। अपनी मन्दता-से। स्वयं पुरुषार्थ करे तो अपनी ओर आता है। इसलिये बारंबार गहराईमें जाकर स्वभावको ग्रहण करनेका बारंबार प्रयत्न करे। जैसे अनादिका अभ्यास सहज हो गया है, वैसे चैतन्यका अभ्यास उसे सहज जैसा, बारंबार सहज जैसा हो जाय ऐसा करे तो अंतरमें-से ज्ञायक प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
यथार्थ बादमें होता है, परन्तु पहले उसे दुष्कर पडे ऐसे नहीं परन्तु बारंबार करे तो सहजपने पहचान होती है। ये अनादिका अभ्यास उसे सहज हो गया है। परन्तु चैतन्य तो अपना सहज स्वभाव है, परन्तु वह दुष्कर हो गया है। अपना सहज अपनेमें- से प्रगट हो ऐसा है, तो भी उसे दुष्कर हो गया है। परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता। उसका अभ्यास, उसका परिचय बारंबार ज्ञायकका करे तो प्रगट हुए बिना नहीं रहता। बाहर-से देव-गुरु-शास्त्रका परिचय और अंतरमें चैतन्यका परिचय।
मुमुक्षुः- ज्ञानीको भी मार्गके क्रमका सेवन करना पडता है। तो मुमुक्षुओंको ऐसे क्रमका सेवन करना पडता होगा? या शीघ्र प्राप्त हो जाय ऐसा भी है?
समाधानः- शीघ्र प्राप्त हो सकता है, लेकिन उसके पुरुषार्थकी मन्दता है। एक ही उपाय है-भेदज्ञानका। जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे, चैतन्य ज्ञायक मैं भिन्न हूँ और यह भिन्न है। विभाव और स्वभाव दोनोंको भिन्न-भिन्न करना। उसमें यथार्थ रुचि, यथार्थ महिमा, लगन लगनी चाहिये। अंतरमें तत्त्व विचार करके स्वयंको स्वभाव ग्रहण
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करनेकी ऐसी शक्ति अन्दर-से परीक्षक शक्ति प्रगट करनी चाहिये कि यह स्वभाव है, यह विभाव है। लेकिन वह हुये बिना नहीं रहता, अन्दर लगन लगे तो।
देव-गुरु-शास्त्र, गुरुदेव क्या कहते हैं, उस आशयको ग्रहण करनेके लिये स्वयं अन्दर तैयारी करे और अंतरमें चैतन्यका स्वभाव ग्रहण करनेकी ऐसी अपनी तीक्ष्ण तैयारी करे तो हुए बिना नहीं रहता। उपाय तो एक ही है। ज्ञायक तत्त्व भिन्न और यह विभाव स्वभाव भिन्न। मैं अखण्ड ज्ञायक हूँ। उसमें गुणभेद, पर्यायभेदका ज्ञान उसमें समा जाता है। यथार्थ दृष्टि हो तो उसमें सब ज्ञान समा जाता है। वह भेद, वास्तविक भेद गुणभेद, पर्यायभेदका ज्ञान करता है। बाकी विभाव है वह अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न पड जाता है।
मैं चैतन्यतत्त्व भिन्न हूँ। उसमें अनन्त गुण-से भरा हुआ अखण्ड चैतन्य हूँ। उसमें कोई भेदभाव नहीं है। परन्तु वह लक्षणभेद और पर्यायभेदका ज्ञान करता है। मार्ग तो एक ही है-भेदज्ञान करनेका उपाय। परन्तु उसके लिये उसे तैयारी और अपनी पात्रता तैयार करनी पडती है।
एक आत्मार्थका प्रयोजन है। बाकी सब लौकिक प्रयोजन उसके आगे गौण हो जाते हैं, छूट जाते हैं। एक आत्मार्थका प्रयोजन रहता है।
मुमुक्षुः- .. इस कालमें आपकी बात ऐसी है। लेकिन परिणमन नहीं हो रहा है।
समाधानः- स्वयंको करना है। बारंबार उसका घोलन, मनन आदि करना है।
मुमुक्षुः- ऐसे पूजा करनी चाहिये, ऐसा ही करना चाहिये। सर्व प्रथम दृष्टिका विषय ही ग्रहण करना?
समाधानः- रुचि तो स्वभावको ग्रहण करनेकी होती है। परन्तु जबतक नहीं होता है, तबतक बाहरमें अशुभभाव-से बचनेके लिये शुभभाव आये बिना रहते नहीं। वह कहाँ खडा रहेगा? अंतरमें तो स्थिर होता नहीं, दृष्टि भी प्रगट नहीं हुयी है, तो लीनताकी बात तो बादकी है। दृष्टि अथवा लीनता अंतरमें जानेका कुछ प्रगट नहीं हुआ है, मात्र रुचि करता है। रुचि स्वभावको ग्रहण करनेकी है, परन्तु उसका उपयोग कहाँ स्थिर रहेगा? इसमें नहीं रहेगा तो अशुभमें जायेगा। शुभभावमें वह खडा रहता है।
स्वयंको प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु जिसने प्रगट किया है (ऐसे) जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र पर उसे महिमा और भक्ति आये बिना नहीं रहती। महिमा और भक्ति आये इसलिये (कहता है कि) मैं किस तरह आपकी पूजा करुँ? किस तरह मैं भक्ति, सेवा करुँ? मैं मेरेमें तो कुछ प्रगट नहीं कर सकता हूँ, परन्तु आपने जो किया उसका मुझे आदर है। इसलिये उसे बीचमें पूजा, भक्ति आदि आता है। अमुक ऐसा करना ही चाहिये, ऐसा नहीं, परन्तु उसे ऐसी भावना आती है। उसे अशुभकी रुचि नहीं
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है, इसलिये शुभभावमें आता है। उसे शुद्धात्माका ध्येय होता है। शुभको सर्वस्व मान ले तो वह गलत है। उसे श्रद्धा (हो जाय कि) शुभमें सब आ गया और उसमें मेरा धर्म हो गया। ऐसा माने तो गलत है। परन्तु अन्दर शुद्धात्मा प्रगट करनेका (ध्येय है)। शुभभाव-से भी मैं भिन्न हूँ। श्रद्धा तो ऐसी है, परन्तु उसमें वह टिक नहीं पाता, इसलिये शुभभावमें, जिस पर स्वयंको प्रेम है, जिसने प्रगट किया, भगवानने संपूर्ण प्रगट किया, गुरुदेव साधना करते हैं और शास्त्रोंमें उसकी-आत्माकी सब बातें आती हैं। उनके लिये मैं क्या करुँ? क्या करुँ और क्या न करुँ? इसलिये उसे पूजा, भक्ति, सेवा इत्यादि सब आता है। गुरु-सेवा, जिनेन्द्र पूजा आदि आता है। स्वाध्यायादि आता है। वह खडा रहे तो कहाँ खडा रहेगा?
मुमुक्षुः- अशुभमें चला जायगा।
समाधानः- अशुभमें चला जायगा। इसलिये वह महिमामें खडा रहता है। जिनेन्द्रकी महिमा, गुरुकी महिमा। स्वयंको चैतन्यकी महिमाके पोषणके लिये उसमें खडा रहता है। उस राग-से अंतर कुछ प्रगट होता है, ऐसी उसकी श्रद्धा नहीं है। परन्तु वह बीचमें आता ही है, आये बिना नहीं रहता। उसे ऐसे तीव्र कषाय नहीं होते, मन्द पड जाते हैं। इसलिये जिनेन्द्र पूजा, गुरु-सेवा आदि सब आता है। जिसे गृद्धि नहीं होती। जो सब विभाव छोडनेके लिये तैयार होता है, उसे वह सब मन्द पड जाता है। मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? ऐसी रुचि है। मैं शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व हूँ, मुझे कोई विकल्प नहीं चाहिये। निर्विकल्प तत्त्व कैसे प्रगट हो? वह प्रगट नहीं हुआ है। उसकी श्रद्धा यथार्थ रूप-से जो होनी चाहिये, वह भी नहीं है। मात्र बुद्धि-से (नक्की) किया है। तो उसे शुभभावमें जिनेन्द्र पूजा या गुरु-सेवा आदि सब आता है। स्वाध्याय।
शास्त्रमें आता है न? श्रावकके कर्तव्य। स्वाध्याय, ध्यान आदि। परन्तु वह ध्यान यथार्थ ध्यान नहीं होता। शुभभावरूप होता है। (शुभभाव-से) धर्म होता है ऐसा वह नहीं मानता। परन्तु श्रावक बहुभाग पूजा, भक्ति, सेवा आदिमें जुडते हैं।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको तो सुवर्णपुरीके प्रति बहुत प्रेम था। तो आपके पास तो देवके भवमें-से आते होंगे। हमें तो बहुत विरह लगता है कि गजब हो गया। तीर्थंकरका द्रव्य इस कालमें हमारे नसीबमें कहाँ? हमारे भाग्यमें कहाँ?
समाधानः- महाभाग्य भरतक्षेत्रका। गुरुदेवका यहाँ अवतार हुआ। इतना उपदेश उनका आया, कोई अपूर्व वाणी बरसी। उनका तीर्थंकरका कोई अपूर्व द्रव्य था। कितने लाखों, क्रोडो जीवोंको मार्ग बताया। गुजराती, हिन्दी सबको। (कितनोंका) निवास यहाँ सुवर्णपुरीमें हो गया। बरसों तक यहाँ ४५-४५ साल (वाणी बरसायी)। विहार हर जगह करते थे।
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मुमुक्षुः- देवके भवमें रागकी भूमिकामें उन्हें हमारा स्मरण नहीं आता होगा? समाधानः- वह तो उपयोग रखे तो देखे कि ये सब भक्त यहाँ भरतक्षेत्रमें थे। ... गुरुदेव देवके रूपमें ही थे। पहनावट देवके रूपमें थी। देवके रूपमें पहचान सके कि ये गुरुदेव ही हैं। और गुरुदेवने कहा। ऐसी भावना हो कि गुरुदेव.. चित्र आदि.. स्वाध्याय मन्दिर गयी थी। गुरुदेव यहाँ नहीं है। गुरुदेव कैसे आये? गुरुदेव मानों देवके रूपमें स्वप्नमें यहाँ पधारे। भाव ऐसा हुआ कि गुरुदेव! पधारो, पधारो। गुरुदेवने ऐसा कहा कि, ऐसा कुछ नहीं रखना, मैं तो यहीं हूँ। गुरुदेवने कहा, बहिन! मैं तो यहीं हूँ, ऐसा कुछ नहीं रखना।