Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 249.

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ट्रेक-२४९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. वह स्वरूप सुननेको हम बहुत उत्सुक हुए हैं। तो कृपा करके विस्तार-से वह स्वरूप समझाइये।

समाधानः- आचार्यदेवने तो बहुत बताया है। आचार्यदेवकी तो क्या बात करनी। गुरुदेवने उसका रहस्य खोला। गुरुदेवने तो महान उपकार किया है। गुरुदेवने जो स्वानुभूतिकी बात प्रगट करी, पूरे हिन्दुस्तानके-भारतके जीवोंको जागृत किया है। गुरुदेवका परम- परम उपकार है। मैं तो गुरुदेवका दास हूँ। गुरुदेवने बहुत समझाया है। गुरुदेवने तो इस भरतक्षेत्रमें आकर महा-महा उपकार किया है। गुरुदेव तो कोई... उनकी वाणी अपूर्व थी। उनकी वाणीमें अकेला आत्मा ही दिखता था। वे आत्माका स्वरूप ही बताते थे। गुरुदेवका द्रव्य तीर्थंकरका द्रव्य था। और इस भरतक्षेत्रमें आकर महान-महान उपकार किया है।

आचार्यदेवकी तो क्या बात करनी? एकत्व-विभक्त आत्माका स्वरूप, आत्माका एकत्व और परसे विभक्त, ऐसे आत्माको जानना वही मुक्तिका मार्ग है। स्वरूप-से एकत्व है और विभाव-से विभक्त है, ऐसे आत्माको पहचानना। ऐसे आत्माको पहचाननेका जीवने प्रयत्न नहीं किया है। और आत्मामें ही सर्वस्व है। और जगतमें कोई वस्तु आश्चर्यभूत नहीं है। आश्चर्यभूत एक आत्मा ही है। अतः एक आत्माको ही ग्रहण करना। और उसे ही ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वही जीवनमें कर्तव्य है।

आत्मा एकत्व शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। प्रत्येक कार्यमें शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? एक शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वह शुद्धात्मा ऐसा है। छः द्रव्यमें भी एक शुद्धात्मा, नव तत्त्वमें एक शुद्धात्मा, दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें एक शुद्धात्मा, हर जगह एक शुद्धात्माको ही ग्रहण करना। और वह पर-से विभक्ति, विभाव- से विभक्त है। भेदभावों-से भी वह भिन्न है। तो भी उसमें बीचमें साधकदशाकी पर्यायें आये बिना नहीं रहती। उसका ज्ञान करना।

शुद्धात्माको ग्रहण करके यथार्थ प्रतीति करनी। उसमें लीनता करने-से स्वानुभूति प्रगट होती है। और वह स्वानुभूति आत्माका निज वैभव है। और वह वैभव पहले आंशिकरूपसे प्राप्त होता है, बादमें पूर्ण वीतराग दशा हो तब पूर्ण वैभव प्रगट होता है।


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आत्मा अनन्त-अनन्त शक्तियों-से भरा है। उसमें कोई अदभुत वैभव भरा है। वह वैभव तो जब स्वानुभूति होती है तब प्राप्त होता है। पहले बारंबार शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वही कर्तव्य है। आचार्यदेव कहते हैं कि भेदज्ञान ऐसे भाना कि अविच्छिन्न धारा-से भाना, ऐसा भेदज्ञान। शुद्धात्माका एकत्व और पर-से विभक्त। ऐसी भेदविज्ञानकी धारा स्वयंको ग्रहण करके, परसे विभक्त, ऐसी भेदज्ञानकी धारा ग्रहण करने-से अंतरमें आत्माका वैभव प्रगट होता है।

पहले सम्यग्दर्शन हो तो भी अभी लीनता करनी बाकी रहती है। चारित्रदशा बाकी रहती है। चारित्रदशामें तो मुनिराज क्षण-क्षणमें अंतर स्वानुभूतिमें बारंबार लीन होते हैं और लीनता बढते-बढते केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्माकी विभूति कोई अदभुत है। आत्मा एक समयमें पहुँचनेवाला, स्वयं अपने क्षेत्रमें रहकर पूर्ण लोकालोकका ज्ञान, उस ओर उपयोग नहीं रखता, परन्तु सहज ज्ञात हो जाता है। ऐसा आत्माका वैभव अनन्त ज्ञानसागर, अनन्त आनन्दसागर-से भरा हुआ, ऐसी अनन्त शक्तियोंसे भरा हुआ आत्मा (है)। उस आत्माको ग्रहण करना, शुद्धात्माको ग्रहण करना। वही जीवनका कर्तव्य है। और गुरुदेवने वही बताया है। वही करनेका है।

बाह्य क्रियाकाण्डमें जीव अनन्त काल-से रुक गये हैं। गुरुदेवने अंतर दृष्टि बतायी। अंतर दृष्टि प्रगट करनी। एक शुद्धात्माको ग्रहण करना। ज्ञान सबका करना। और चारित्र- लीनता करनेका प्रयत्न (करना)। दृढ प्रतीति करके (उसमें लीनता करनी)। आत्मा स्वयं स्वरूपमें लीन हो जाय तो अशरण नहीं है, वह तो शरणरूप है। आचार्य देव कहते हैं कि बाहर-से सब छूट जाय तो अंतरमें किसका शरण है? आत्मा शरणरूप है। आत्मामें अनन्त विभूति भरी है। वह विभूति तुझे प्रगट शरणरूप, आश्चर्य करनेरूप, जगतमें आश्चर्य करनेरूप हो तो आत्मा ही है। बाकी बाहरका सब आश्यर्च छूट जाना चाहिये।

"रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' वैमानिक देवकी ऋद्धि भी पुदगलका स्वभाव है। जगतमें कोई भी वस्तु आश्चर्यभूत नहीं है। अदभुत वस्तु हो तो एक आत्मा ही है। ऐसी स्वभावकी महिमा, स्वभावका ज्ञान कर। पर- से विभक्त और स्व-से एकत्व, ऐसा यथार्थ ज्ञान करके, चारों पहलू-से ज्ञान करके ्र प्रतीति करनी। उसकी लीनता करनेका प्रयत्न करना, उसका अभ्यास करना। वही जीवनका कर्तव्य है और वही करने जैसा है। गुरुदेवने बताया है और वही बताया है। गुरुदेवका परम उपकार है। गुरुदेवने चारों तरफ-से स्पष्ट करके बताया। निज वैभव, अन्दरमें जाय तब निर्विकल्प स्वरूपमें निर्विकल्प परिणति जो प्रगट होती है, उसमें आत्माकी अनन्त विभूति है वह प्रगट होती है।


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मुमुक्षुः- ... और आपके मुख-से स्पष्टता भी बहुत हुयी। फिर भी बहुभागको ऐसा लगे कि करने जैसा है वह सरल भाषामें हमें समझमें ऐसी कोई बात कहीए, तो हम हमारा काम कर सके।

समाधानः- गुरुदेवने बहुत स्पष्ट और सरल करके बताया है। बहुत सूक्ष्मरूपसे भेद कर-करके बहुत स्पष्ट किया है। किसीको कहीं कोई भूल रहे ऐसा (नहीं है)। बरसों तक वाणी बरसायी है। गुरुदेवका तो अपूर्व उपकार है। उनका उपकार तो... उसकी अवेजमें कुछ देना महा असंभव है। उनका उपकार तो परम उपकार है।

गुरुदेवने कहा है कि एक आत्मतत्त्व चैतन्यतत्त्व भिन्न है उसे पहचानना। यह चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त शाश्वत है। अनन्त जन्म-मरण करते-करते जन्म-मरण हुए तो भी आत्मा तो ज्योंका त्यों शाश्वत ही है। वह आत्मा कैसे पहचानना, वह मार्ग गुरुदेवने बताया। सर्व-से भिन्न आत्मा (है)। शरीर-से भिन्न, विभावस्वभाव-विभावसे भिन्न, अन्दर जो चैतन्यतत्त्व है उसका स्वभाव भिन्न है। विभाव-से चैतन्यका स्वभाव भिन्न है। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना और वह कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। जगतमें कोई अनुपम नहीं है, एक आत्मा ही अनुपम है। उस अनुपम तत्त्वकी अंतरमें अपूर्वता लगे और गुरुदेवने ऐसी अपूर्व वाणी बरसायी है कि वह अपूर्व तत्त्व एकदम ग्रहण हो जाय।

उस अपूर्व तत्त्वके लिये रुचि, लगन, महिमा आदि सब करने जैसा है। वह कैसे पहचानमें आये उसके लिये। अंतर चैतन्य पर दृष्टि करके, गुणके भेद, पर्यायके भेद पडे लेकिन उसमें नहीं रुककर, एक शाश्वत चैतन्य पर दृष्टि करनी। सबका ज्ञान रखना। ज्ञान आत्मामें-से प्रगट होता है, सम्यग्दर्शन आत्मामें-से प्रगट होता है, चारित्र आत्मामें- से प्रगट होता है। आत्माका जो स्वभाव है उसहीमें-से प्रगट होता है, बाहर-से कुछ आता नहीं।

बाहर-से उसका साधन देव-गुरु-शास्त्र उसके साधन हैं। परन्तु गुरुदेवने बताया, तेरे चैतन्य पर दृष्टि कर तो उसमें-से सब प्रगट होता है। उसमें अनन्त भरा है। आत्माका ज्ञान स्वभाव अनन्त है। वह अनन्त, जिसका नाश न हो, ऐसा अनन्त स्वभाव, अपार स्वभाव आत्मामें है। आत्माका जो स्वभाव-ज्ञायक स्वभाव है, उसे पहचान। आनन्द उसमें भरा है। सब उसमें ही भरा है और उसमें-से ही प्रगट हो ऐसा है। बारंबार उसीका अभ्यास करने जैसा है। उसका रटन, उसका मनन, सब वही करने जैसा है।

एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये? जागते-सोते, स्वप्नमें एक चैतन्य-चैतन्यकी पहचान कैसे हो? ऐसी भावना और बारंबार वही करने जैसा है। बाकी जगतमें कुछ भी सर्वस्व नहीं है। शुभभावनामें एक देव-गुरु-शास्त्र और अन्दर शुद्धात्माका ध्येय। वही जीवनमें होना चाहिये, बाकी सबकुछ गौण है। उसके साथ कोई प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन एक


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आत्माके साथ होता है, अन्य किसीके साथ प्रयोजन नहीं है। एक देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन और अन्दर शुद्धात्माका प्रयोजन, यह एक प्रयोजन रखने जैसा है, बाकी कुछ रखने जैसा नहीं है।

गुरुदेवने जो उपाय है वह एकदम सरल करके बताया है। बाह्य क्रियामें बाहरमें कहीं भी धर्म नहीं है। धर्म जिसमें है उसमें-से ही प्रगट होता है। स्वभावमें-से स्वभाव प्रगट होता है। बाहर विभावमें-से नहीं आता है, स्वभावमें-से स्वभाव आता है। जिसका जो स्वभाव हो, उसमें-से ही प्रगट होता है।

पानी स्वभाव-से शीतल है, परन्तु अग्निके निमित्त-से उसमें उष्णता दिखती है। परन्तु निमित्तके संंयोग-से उसमें ऐसी उष्णताकी परिणति होती है। वैसे आत्मा स्वयं स्वभाव-से शीतल चैतन्य शीतलता-से भरा है। विभावके निमित्त-से, परका निमित्त है इसलिये उसमें अनेक जातकी राग-द्वेष आदि कालिमा दिखती है। परन्तु अंतर दृष्टि करे तो वह शीतल स्वभाव-से भरा है।

जितना ज्ञानस्वभाव आत्मा है उतना ही स्वयं है। उसके अलावा सबकुछ उससे भिन्न है। ऐसा आत्माका स्वभाव, चैतन्यका स्वभाव ग्रहण कर लेना। सूक्ष्म उपयोग करके आत्माको ग्रहण करना, वही करने जैसा है। उसमें ही आनन्द, उसमें ही सुख, सब उसमें ही भरा है।

मुमुक्षुः- अन्दरमें जाय तो अकेला शुद्धात्मा और बाहर आये तो देव-शास्त्र- गुरु, दोनोंको खडा रखा।

समाधानः- हाँ, बस, दोको खडा रखा। बाकी किसीके साथ कुछ प्रयोजन नहीं है। दूसरा सब तो लौकिक है, लौकिक चलता रहे। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र। जिनेन्द्र जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। गुरुदेव सर्वोत्कृष्ट और शास्त्र सर्वोत्कृष्ट हैं। वह श्रुतका चिंतवन। बाकी अंतरमें एक शुद्धात्मा सर्वोत्कृष्ट, वह सर्वोत्कृष्ट है। बाकी किसीके साथ कोई प्रयोजन नहीं है।

आचार्यदेव कहते हैं न? मुझे किसीके साथ प्रयोजन ना रहे। एक आत्मा और मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ वहाँ देव-गुरु-शास्त्र। आलोचना पाठमें (कहते हैं कि), मेरे गुरुने मेरे हृदयमें जो उपदेशकी जमावट की है, उस जमावटके आगे इस पृथ्वीका राज मुझे प्रिय नहीं है। पृथ्वीका राज तो नहीं है, परन्तु तीन लोकका राज मुझे प्रिय नहीं है। एक गुरुका उपदेश। वही मेरे हृदयमें, उपदेशकी जमावट है। उस उपदेश अनुसार मेरी परिणति हो जाय, बस। गुरुदेवने ऐसी उपदेशकी जमावट (की है), उतनी वाणी बरसायी है। उस उपदेशकी जमावटको स्वयं परिणतिमें प्रगट करे तो उसमें सब आ जाता है। उसके आगे पृथ्वीका राज या तीन लोकका राज, आचार्यदेव कहते हैं कि, मुझे कुछ


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नहीं चाहिये।

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रका विवेक कौन-से गुणस्थान तक रहता होगा?

समाधानः- आखिर तक रहता है। मुनिओंको देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन रहता है। बुद्धिपूर्वकमें छठवें (तक और) सातवें गुणस्थानमें अबुद्धिपूर्वक हो जाता है। सातवें- से आठवें, नौंवेमें अबुद्धिपूर्वक (होता है)। वीतराग दशा होती है बादमें छूट जाता है। तबतक रहता है।

देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन, जिसे आत्माकी रुचि हो, रुचिवालेको देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। सम्यग्दर्शनमें भी देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। और चारित्र दशा मुनिको प्रगट हो तो भी उसे देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। महाव्रत और अणुव्रत, श्रावकोंको अणुव्रत और मुनिओंको महाव्रत (होते हैं)। तो उसके साथ भी देव-गुरु- शास्त्रका प्रयोजन होता है।

आचार्यदेव प्रवचनसारमें कहते हैं, मैं जो दीक्षा लूँ, उसके साथ पंच परमेष्ठी भगवंत मेरे साथ रहना। मैं आप सबको बुलाता हूँ, आप मेरे साथ रहना। आचार्य भी ऐसा ही कहते हैं। मुनिओं और आचार्य भी देव-गुरु-शास्त्रको साथ ही रखते हैं। अंतर छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुले तो भी उन्हें शुभभावनामें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। उनकी भावनामें होते हैं। बाहरका संयोग (न भी हो, परन्तु) उनकी भावनामें ऐसा होता है कि देव-गुरु-शास्त्र मेरे साथ रहना। ऐसा कहते हैं। तो सम्यग्दर्शनमें तो होते ही हैं और रुचिवालेको भी होते हैं।

मुमुक्षुः- सब परमात्माको युगपद और एक-एकको, प्रत्येकको-प्रत्येकको नमस्कार किये हैं।

समाधानः- हाँ, प्रत्येक-प्रत्येकको, युगपदको। प्रत्येक-प्रत्येक, भिन्न-भिन्न। सबको साथमें और सबको भिन्न-भिन्न नमस्कार करता हूँ। ऐसी आचार्यदेवको अंतरमें भक्ति आ गयी है। छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं तो भी।

मुमुक्षुः- साधककी भूमिकामें, आपके बोलमें तो लिया है कि ज्ञान एवं वैराग्य साथमें होते हैं। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि सब साथमें लेते हो।

समाधानः- सब साथमें होता है।

मुमुक्षुः- सब साधकोंको सब साथमें होता है?

समाधानः- प्रत्येक साधकको साथमें होता है। प्रारंभमें ज्ञान, वैराग्य, विभाव- से विरक्ति, स्वभावका यथार्थ ज्ञान करके ग्रहण करना। दृष्टि, ज्ञान और विरक्ति, उसके साथ भक्ति भी होती है। शुभभावनामें उसे भक्ति होती है। जिसने जो प्रगट किया, सर्वोत्कृष्टि जिसने वीतराग दशा प्रगट की, उसका स्वयंको आदर है। उन पर उसे आदर


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आता है। गुरु जो साधना करते हैं, उन पर उसे आदर है। और शास्त्रमें जो मार्ग बताया है, उन सब पर उसे आदर रहता है। उसे शुभभावनामें रहता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी साधना, गुरुदेवकी साधनाभूमि..?

समाधानः- सब पर भाव रहता है। भगवंतोंने जो साधना करी, वह साधना। भगवान, गुरु और शास्त्र सब पर (भाव रहता है)। जहाँ वे रहे, जहाँ उन्होंने साधना की, उन सब पर भाव रहता है। जैसे तीर्थक्षेत्र हैं, जहाँ-से तीर्थंकर मोक्ष पधारे, उसे तीर्थक्षेत्र कहते हैं कि जहाँ उन्होंने केवलज्ञान प्रगट किया, जहाँ-से निर्वाणको प्राप्त हुए, वह सब तीर्थक्षेत्र सम्मेदशीखर आदि कहनेमें आते हैं।

इस पंचमकालमें गुरुदेव सर्वस्व थे। गुरुदेवने इस पंचमकालमें पधारकर उन्होंने जो मार्ग बताया, वे गुरु जहाँ विराजे, उन्होंने जहाँ साधना करी, वह भूमि भी वंदनीय है। वह भी आदरने योग्य है। वह सब। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सबका उसे आदर होता है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनके बिना सब (शून्य है), तो सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? और उसे गृहस्थ दशामें संसारमें मग्न जीव क्या सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं?

समाधानः- सम्यग्दर्शनके बिना बाहरका बहुत किया। क्रियाएँ करे, बाहरका आत्माको पहचाने बिना सब करे, बिना अंकके शून्य हैं। मूलको पहचानता नहीं है। वस्तु कौन है? आत्मा कौन है? मोक्ष किसका करनेका है? क्या है? सबको पहचाने बिना बाहरका अनन्त काल बहुत किया। व्रत लिये, मुनिपना लिया, सब लिया परन्तु अंतर आत्माको पहचाना नहीं तो बाहरकी क्रिया, मात्र शुभभाव किये तो पुण्यबन्ध हुआ। परन्तु आत्माको पहचाने बिना आत्माकी मुक्ति नहीं होती और स्वानुभूति सम्यग्दर्शन बिना सब व्यर्थ है।

मुक्ति तो अंतर आत्मामें ही होती है। कहीं बाहर जाय इसलिये मोक्ष हो, ऐसा नहीं है। अंतर आत्मा मुक्त स्वभाव है उसे पहचाने, उसे भिन्न करे। उसका भेदज्ञान करे तो उसकी मुक्ति होती है। और सम्यग्दर्शन भी वही है। भेदज्ञान करके आत्माकी स्वानुभूति हो वही सम्यग्दर्शन है। स्थूलपने माने कि नौ तत्त्वकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। नौ तत्त्वकी श्रद्धा अर्थात आत्माकी पहचान करनी चाहिये। ऐसे भेद-भेद करके विकल्प- से आत्माको पहचाने ऐसा नहीं। ये जीव, ये अजीव, आस्रव, संवर, बन्ध (ऐसे नहीं)। मूल आत्माका स्वभाव पहचानना चाहिये।

आत्मा कौन है? एक अभेद चैतन्यतत्त्व है। अनन्त गुण-से भरा आत्मा, उसे विभाव- से भिन्न, शरीर-से भिन्न, सब-से भिन्न एक आत्मा है। विभाव, विकल्प जो है वह भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भी आत्मा भिन्न है। वह ज्ञानस्वभाव-ज्ञायक स्वभाव आत्मा है, उसे भिन्न करके उसका भेदज्ञान करे। और अंतरमें विकल्प रहित निर्विकल्प


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तत्त्व आत्मा है, उसकी स्वानुभूति हो वह सम्यग्दर्शन है। और वह सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा, सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा उतना ही नहीं परन्तु उसकी स्वानुभूति-आत्माकी स्वानुभूति वह सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन हो, फिर उसमें लीनता बढती जाय तो उसमें केवलज्ञान प्रगट होता है।

सम्यग्दर्शन अर्थात आत्माकी स्वानुभूति। जैसा आत्मा है वैसा अनुभव हो, स्वानुभूति हो, आत्मदर्शन हो उसका नाम सम्यग्दर्शन। आत्मदर्शन बिना बाहरका सब करे उसमें पुण्यबन्ध होता है, देवलोक हो, परन्तु भवका अभाव नहीं होता। इसलिये सम्यग्दर्शन ही मुक्तिका उपाय है। आत्माकी स्वानुभूति हो, आत्माका दर्शन हो, वह प्रगट हो तो ही मुक्ति हो, अन्यथा आत्माको पहचाने बिना मुक्ति होती नहीं।

भेदज्ञान करे कि मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्य भिन्न हूँ, ये सब मेरे-से भिन्न है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा भेदज्ञान करके अंतरमें जो स्वानुभूति हो वही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन बिना जीव अनन्त काल रखडा है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!