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समाधानः- ... गुरुदेवने धोध बरसाया है। इस पंचमकालमें इतना उपदेशका धोध इतने साल तक बरसाया, वह तो कोई महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- सबको उस मार्ग पर ले आये। नानालालभाईको तो गुरुदेवका कितना था। उनके साथ ही रहते थे। यहाँ सब ऐसे ही आते हैं। गुरुदेवके प्रताप-से। सब बचपन-से ही ऐसे हैं। छोटे थे तब-से। वे कहते हैं, मुझे ऐसा लगता है। पूर्व और भविष्यके विशिष्ट व्यक्ति। गुरुदेवके प्रताप-से सब ऐसा ही है, समझ लेना। गुरुदेव स्वयं भगवानके पास-से आये। कोई विशिष्ट, गुरुदेव स्वयं ही विशिष्ट (थे)। तो उनके शिष्य विशिष्ट हों।
ये सब पूछते हैं। गुरुदेवकी वह सजावट की थी न? चित्र आदि देखने गयी थी। फिर वहाँ-से आकर पूरी रात (भाव हो रहे थे कि), यह सब सजावट की है, लेकिन गुरुदेव विराजते हों तो कैसा लगे! ऐसे विचार आते थे, ऐसे ही रटन चलता रहा। गुरुदेव हो, गुरुदेव हो तो यह सब शोभता है। फिर प्रातःकालमें स्वप्न आया, गुरुदेव देवके रूपमें ही थे। देवके रूपमें पधारे। फिर देवके वस्त्र, देवका रत्नमय पहनावट (था)। मुझे (ऐसे) हाथ करके कहा, बहिन! मैं तो यहीं हूँ, ऐसा मानना। तीन बार कहा। मैं तो यहीं हूँ, ऐसे ही मानना। तीन बार कहा। गुरुदेव देवके वस्त्रमें थे।
मैंने कहा, गुरुदेव! मुझे आपकी आज्ञा है ऐसा रखूँ, लेकिन ये सब दुःखी हो रहे हैं। गुरुदेव तब मौन रहे। फिर मैंने किसीको कुछ कहा नहीं था। परन्तु दूजके दिन वातावरण ही ऐसा हो गया था। सब आनन्दमय वातावरण हो गया था। गुरुदेव मानों विराजते हों, ऐसा वातावरण हो गया था। फिर कहा। ... गुरुदेव हैं, ऐसे पहचान ले। ज्ञानमें ऐसा होता है न कि गुरुदेव है, ऐसे देवके रूपमें पहचाने जाय। सब कहते थे, मुझे लगा कौन जाने? उसमें (विडीयोमें) ऊतरा उसमें ऐसा लगता था। मुझे लगा विडीयोमें ऐसा साक्षात जैसे क्यों लगता है? ऐसा होता था। विडीयोमें ऐसा लगता था। मानों साक्षात विराजते हों! ऐसा लगता था। परन्तु विडीयोमें मुझे कोई विचार नहीं था, ऐसे ही देखते-देखते गुरुदेवके फोटो आ रहे थे। उसमें एक फोटो ऐसा आया
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तो, मानों साक्षात गुरुदेव हैं! ऐसा विकल्प एकदम आ गया।
मुमुक्षुः- आपका विकल्प भी...
समाधानः- ऐसा हो गया। यहाँ आये, परन्तु इस पंंचमकालमें दर्शन दुर्लभ है, ऐसा है।
समाधानः- ... विशिष्ट व्यक्ति हो, कुछ विशेषतावाली हो ऐसा समझ लेना। उसमें जो विशिष्टता है, उसमें कुछ विशिष्टता भरी है, भविष्यकी और भूतकालकी सब विशिष्टता है। ... पूर्व भवके संस्कार लेकर ही आये हैं। .. गुरुदेवके सान्निध्यमें ऐसी विशिष्टता उनमें रही है। गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य, महान समर्थ गुरुदेव हैं, उनके सान्निध्यमें जो विशिष्ट व्यक्तिके रूपमें है, तो उनमें कुछ विशिष्टता है ही, ऐसा आपको समझ लेना। गुरुदेव...
समाधानः- .. पुरुषार्थ हो न। स्वभावको जाने बिना कहाँ-से हो? स्वभाव क्या है यह जानना चाहिये। .. प्रत्येकमें अपना प्रयोजन होना चाहिये। ओघे ओघे बहुत बार किया है। परन्तु आत्माका ध्येय प्रत्येकमें होना चाहिये। प्रयोजन बिना सब किया है। आत्माका प्रयोजन होना चाहिये।
जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा अपना आत्मा है। अपना स्वभाव जैसा भगवानका है, वैसा अपना है। ऐसा समझनेका प्रयोजन होना चाहिये। महिमावंत उन्होंने सब प्रगट किया-वीतराग दशा, केवलज्ञान (आदि)। भगवान महिमावंत हैं, ऐसा शक्ति-से अपना स्वभाव है, वह कैसे पहचाना जाय? शास्त्रमें द्रव्य-गुण-पर्यायकी बात आये। मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। मेरेमें अनन्त गुण हैं, मेरेमें पर्याय हैं, वह किस तरह है? ऐसे अपना चैतन्यद्रव्य पहचाननेका प्रयोजन होना चाहिये।
चैतन्य भगवान, तू भगवान आत्मा है। तू तुझे देख, तू भगवान आत्मा है। शास्त्रमें आता है न कि आओ, यहाँ आओ। यह अपद है, तुम्हारा पद नहीं है। यह चैतन्यपद आत्माका है, उसे पहचानो।
मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके बिना स्वयंको चले नहीं, यह तो आपने गजबा बात कही।
समाधानः- मार्ग पर चलता हो, दूसरे गाँव जाता हो, चलता है अपने-से, परन्तु साथीको साथमें रखता है। ऐसे मैं भले ही मेरे-से प्रयत्न करुँ, परन्तु पंच परमेष्ठी भगवंत मेरे साथ पधारिये, मैं आपको साथमें रखता हूँ। आप जिस मार्ग पर चले उस मार्ग पर मुझे चलना है। मार्ग दर्शानेवालेको साथमें रखता है।
जिनेन्द्र भगवान, जिन्होंने मार्ग देखा है, गुरु जो मार्ग बता रहे हैं, आचार्य, उपाध्याय आदि सब साधना करते हैं, उन सबको मैं साथमें रखता हूँ। मैं मार्ग पर जाऊँ, मार्ग
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दर्शानेवाले सबको मैं साथमें रखता हूँ। उनके बिना मुझे नहीं चलेगा। कोई कर नहीं देता, फिर भी मैं सबको साथमें रखता हूँ, आपके बिना नहीं चलेगा। जिनेन्द्र देव, गुरु मार्ग बताते हैं। आचार्य साधना करते हैं। मैं उन सबको साथमें रखता हूँ। मेरे हृदयमें विराजमान करके मैं मार्गको साधता हूँ।
(चैतन्य) द्रव्य शाश्वत है, उसे लक्ष्यमें लेकर उसकी प्रतीत, ज्ञान और चारित्रकी लीनता (हो), उन सबमें मैं देव-गुरु-शास्त्र भगवानको साथमें रखता हूँ। पहले सम्यग्दर्शन- से लेकर आखीर तक पंच परमेष्ठी भगवंत अपनी भावनामें साथमें होते हैं। सम्यग्दृष्टिको होते हैं, मुनिओं भी पंच परमेष्ठी भगवंतोंका स्मरण करते हैं। आचार्यदेव कहते हैं न कि, मैं दीक्षा लेने जा रहा हूँ, मैं सबको निमंत्रण देता हूँ। आचार्य, मुनिवर सब देव-गुरु-शास्त्रको साथमें ही रखते हैं।
शुभभावनामें पंच परमेष्ठी भगवंत। स्वरूपमें लीन हो जाय निर्विकल्प दशामें, बाहर आये तो उन्हें ऐसी भावना होती ही है। लीनता होती है, परन्तु शुभभावनामें यह होता है। पूरी दिशा बदल गयी है। अंतरमें चैतन्य तरफ दिशा हो गयी है, बाहरमें देव- गुरु-शास्त्र तरफ उसकी दृष्टि बदल गयी है। लौकिक पर-से दृष्टि छूटकर देव-गुरु-शास्त्र पर उसकी शुभभावना उस ओर आ गयी है। अंतरमें चैतन्य तरफ दिशा बदल गयी है।
मुमुक्षुः- विचार करते हैं तब ऐसा लगता है कि आप कुछ नयी बात करते हो, अलग ही बात लगती है। हमें ऐसा लगता है कि आपका अनन्त उपकार है।
समाधानः- जो पहचानता है, वह उसे भिन्न करता है। क्षयोपशम ज्ञानमें ऐसी शक्ति है कि वह भिन्न कर ले। उसमें क्या फर्क पडा, उसका विस्तार नहीं कर सकता है। लेकिन उसे (लगता है कि), यह बराबर ही है। यह आदमी अलग ही है, ऐसा कह देता है। अन्दर सब विकल्प आये, उसमें मैं जाननेवाला हूँ, उस जाननेवालेको पहचान ले। बाहर कैसे पहचान लेता है। वैसे अंतर तरफ दृष्टि करके तू तेरे ज्ञायक स्वभावको उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले। ज्ञायकको पहचान ले। ज्ञानमें ऐसी पहचाननेकी शक्ति है। बाहर रूपीको पहचाने तो अरूपी स्वयं ही है, स्वयंको क्यों नहीं पहचाने?
जैसे कोई परिचयमें आये मनुष्यको कितने समय बाद देखे तो भी उसे पहचान लेता है। उसमें थोडा बदलाव आया हो तो अमुक जातके लक्षण पर-से ज्ञान उसे पकड लेता है कि यह वही मनुष्य है। किस लक्षण-से पहचाना वह कह नहीं सकता. उसकी मुद्रा परसे मैं पहचानता हूँ। उसके मुद्रामें क्या फर्क पडा? वह तो सब मनुष्यकी मुद्रामें थोडा-थोडा, बारीक-बारीक कुछ न कुछ फर्क तो होता ही है। लेकिन वह ग्रहण कर लेता है।
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वैसे क्षयोपशम ज्ञान स्थूल है कि वह आश्रयवाला है। तो भी इसप्रकार सूक्ष्मता- से ग्रहण करनेकी ज्ञानमें शक्ति है। मनवाला है, इन्द्रियोंका आधार लेता है। तो फिर जो ज्ञान बाहर-से ग्रहण करता है, वैसे अपने ज्ञान लक्षणको क्यों नहीं पहचान सके? कितने जातके विकल्प है, यह ज्ञान है और मैं ज्ञायकस्वभावी आत्मा हूँ। स्वयंको पहचाननेकी शक्ति है, लेकिन वह सूक्ष्म होकर देखता ही नहीं है।
मुमुक्षुः- दृष्टान्त इतना सरल लगता है। मनुष्यकी पहचान होती है। क्यों पहचानता है, उसे कह नहीं सकते। फिर भी वह निश्चितरूप-से पहचानमें आता है।
समाधानः- निश्चितरूप-से, निःशंकपने बिना तर्कके पहचानमें आता है। कोई दूसरा कहे कि यह नहीं है, तो भी माने नहीं। उतना निःशंकपने पहचानता है। वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है, परन्तु वह पहचानता नहीं है।
मुमुक्षुः- वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है।
समाधानः- वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है। फिर कोई कुछ भी कहे तो भी उसमें उसे तर्क या और कुछ नहीं आता। ऐसे निःशंकपने आत्माकी पहचान हो सकती है, परन्तु वह पहचानता नहीं है। ऐसे ही लक्षण द्वारा वह आत्माकी (पहचान कर सकता है)। स्वयं ही है, इस तरह पहचान सकता है। उसके अस्तित्व-से, ज्ञायकता- से पहचान सकता है। वह पहचानता नहीं है, प्रयत्न नहीं करता है। सूक्ष्म उपयोग करके अन्दर देखता नहीं है।
हजारों लोगोंके तर्कके बीचमें भी वह स्वयं निःशंकपने कोई तर्कको माने नहीं इस प्रकार निःशंकपने स्वयंको पहचान सकता है। सब बताते हैं, परन्तु देखना स्वयंको है कि इस लक्षण-से पहचान। उसका लक्षण बताते हैं। तेरा ज्ञान लक्षण है, उस लक्षणमें पूरा ज्ञायक है उसे पहचान। परन्तु स्वयं देखता नहीं है।
सम्यग्दर्शन होनेके बाद पूरा ब्रह्माण्ड फिर जाय तो भी वह फिरता नहीं, ऐसी निःशंकता उसे अन्दर (होती है)। चैतन्यकी स्वानुभूतिमें उसे ऐसी निःशंकता आ जाती है। ज्ञायक लक्षणको पहचाने। प्रतीतमात्रमें भी उतनी निःशंकता होती है, तो स्वानुभूतिमें तो अलग ही हो जाता है। ग्रहण करनेमें भी उसे कितनी शक्ति (होती है)। ये तो अरूपी आत्मा स्वयं ही है। स्वयंको ग्रहण कर सकता है।
मुमुक्षुः- अपनी है इसलिये। विचार करने पर ऐसा ही लगता है कि रुचिकी क्षतिके कारण नहीं होता है, बाकी तो निश्चितपने काम हो सकता है।
समाधानः- रुचिकी ही क्षति है। रुचि बाहर जाती है। अन्दर रुचि इतनी लगे, इतनी लगन लगे तो स्वयं स्वयंको पहचाने बिना रह नहीं सकता। चैन पडे नहीं, चैतन्यका स्वभाव प्रगट हुए बिना तो स्वयं अपनेको ग्रहण किये बिना रहता ही नहीं। रुचिकी
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मन्दता, पुरुषार्थकी मन्दता।
जबतक अंतरमें उसकी पहचान नहीं होती, तबतक उसकी रुचिकी तीव्रता करे, भावना रखे। शुभभावनामें मेरे हृदयमें जिनेन्द्र देव होओ, मुझे दर्शन जिनेन्द्र देवके, मुझे दर्शन गुरुके, मेरे हृदयमें गुरु, हृदयमें शास्त्र, मेरी वाणीमें वह होओ, ऐसी भावना उसे होती है। दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक आत्मा और देव-गुरु-शास्त्र। जबतक आगे नहीं बढता है तबतक।
आत्माका ध्येय (हो), तबतक शुभभावनामें खडा रहे। परन्तु उसे शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो, ऐसी लगनी तरफ उसका प्रयत्न होता है। ऐसी रुचि बढाने तरफ उसका प्रयत्न होता है। ज्ञानमात्र ज्ञायकमें ही सब भरा है। ज्ञानमें उसे ऐसा लगता है कि ज्ञानमें सब भरा है? ज्ञानके अन्दर ही सब भरा है। वह ज्ञायक वस्तु है पूरी। और अनन्त शक्तियों-से भरी वस्तु है। अनन्त महिमाका भण्डार और अनन्त सुखका, आनन्दका और अनन्त ज्ञानका भण्डार है। ज्ञानमात्रमें ही सब भरा है। ज्ञानमात्र अर्थात पूरी ज्ञायक वस्तु है। ज्ञान अर्थात कोई एक गुण ऐसा नहीं है। ज्ञान अर्थात पूरी वस्तु ज्ञायक है। उसे पहचान और उस तरफ जा। उसमें सब भरा है। अनन्त शक्तियाँ भरपूर भरी है।
मुमुक्षुः- पूरे ज्ञायकका ग्रहण (हो जाता है)। समाधानः- पूरे ज्ञायकका ग्रहण करना। ज्ञान अर्थात सिर्फ जाननामात्र नहीं, पूरी अखण्ड वस्तु ग्रहण करनी।