Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 255.

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ट्रेक-२५५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... एक-एक शक्ति अनन्त शक्तियोंमें व्यापक ... एक-एक शक्ति अनन्त शक्तियोंमें निमित्त है। तो .. स्पष्ट समझाईये।

समाधानः- आत्मा अखण्ड है तो उसमें अनन्त शक्ति एकदूसरेमें व्यापक है। आत्माकी शक्ति है। आत्मा अखण्ड एक द्रव्य, एक द्रव्य आत्मा है एक द्रव्य है, उसमें अनन्त शक्ति है। तो प्रत्येक शक्तिका स्वभाव भिन्न-भिन्न है। इसलिये भिन्न-भिन्न कहनेमें आता है। परन्तु प्रत्येक आत्मामें है। भिन्न-भिन्न, जुदा-जुदा द्रव्य नहीं है। प्रत्येक शक्ति, अनन्त शक्ति एक आत्मामें है। इसलिये अभिन्न है। प्रत्येक शक्ति प्रत्येकमें व्यापक है। एक द्रव्यमें सब है। एकमें अनन्त शक्ति है। इसलिये अनन्त धर्मात्मक वस्तु, अनन्त शक्तियों-से भरपूर आत्मा अखण्ड अभिन्न है।

प्रत्येक शक्तिका स्वभाव भिन्न-भिन्न है। इसलिये भिन्न-भिन्न कहनेमें आता है। अपेक्षा- से भिन्न और अपेक्षा-से अभिन्न है। ज्ञान ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब। ज्ञप्ति, दर्शि शक्ति आदि आती है न? सब एकदूसरेमें व्यापक है। तो भी सबका स्वभाव भिन्न- भिन्न है। इसलिये स्वभाव अपेक्षा-से भिन्न-भिन्न हैं। एक द्रव्यकी अपेक्षा-से अभिन्न है।

दृष्टि अखण्ड पर जाय तो एक अखण्ड आत्माको ग्रहण करती है। उसमें अनन्त शक्ति आ जाती है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु एक चैतन्य ज्ञायकको ग्रहण करे तो उसमें अनन्त शक्ति आ जाती है। भिन्न-भिन्न दृष्टि नहीं करनी पडती है। आत्मा अनन्त स्वभाव- से भरपूर है। ऐसी महिमा ज्ञान सब जान लेता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव ऐसा भी लेते थे कि एक गुणमें अनन्त गुणका रूप है।

समाधानः- वह तो चैतन्य अखण्ड है, इसलिये एकदूसरेका एकदूसरेमें रूप है। बाकी वह चर्चा तो बहुत बार गुरुदेव समक्ष चलती थी।

मुमुक्षुः- ज्ञानमें सत-अस्तित्वपना, ज्ञानमें अस्तिपना ऐसा कहकर अस्तित्वगुणका रूप उसमें है।

समाधानः- हाँ, उसमें है। एक अस्तित्व गुण है तो ज्ञान अस्तित्व, चारित्र अस्तित्व इस प्रकार परस्पर एकदूसरेमें रूप है। ज्ञान भी अस्तित्वरूप है, चारित्र अस्तित्वरूप है, बल भी अस्तित्वरूप है। ज्ञान भी बलवान है, ज्ञान भी सामान्य, विशेष है। इस प्रकार


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ज्ञानमें, दर्शनमें। अभेद है इसलिये एकदूसरेका एकदूसरेमें रूप है। ज्ञानमें आनन्द है, ज्ञान आनन्दरूप है। आनन्द गुण भिन्न भी है, परन्तु ज्ञानमें आनन्द है। आनन्दमें ज्ञान है।

मुमुक्षुः- अमुक स्पष्टीकरण गुरुदेव करते थे और अमुक स्पष्टीकरण करनेमें ऐसा कहते थे, ऐसा .. घटित होता है, परन्तु ऐसे नहीं घटता है। ऐसे दोनों प्रकार-से बात करते थे।

समाधानः- हाँ, ऐसा कहते थे। उसमें साधनामें तो दृष्टि एक आत्मा पर करे, उसमें सब आ जाता है। आत्मा कैसा शक्तिवान? कैसा अनन्त महिमावंत, अनन्त धर्मात्मक कैसा है, वह जाननेके लिये (आता है)। उसकी महिमा, आत्मा कैसा महिमावंत है, वह जाननेके लिये है। अनन्त गुणों-से भरा हुआ, अनन्तमें अनन्तका रूप है। अनन्त अनन्तरूप परिणमता है। उसकी महिमा कैसी है (वह जाननेके लिये है)।

वह पुस्तकमें आता है। एकदूसरेका एकदूसरेमें रूप है। एक प्रदेश इस रूप, इस रूप, ऐसे उसकी महिमा, एक चैतन्यकी महिमा (करनी है)।

मुमुक्षुः- चिदविलासमें दीपचन्दजी (कहते हैं)।

समाधानः- हाँ, चिदविलासमें आता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव बारंबार आधार देते थे।

समाधानः- अचिंत्य शक्तिवान आत्मा, कैसा चैतन्य द्रव्य है। उसमें बुद्धि-से काम करने जाय तो अमुक युक्ति-से बैठे, बाकी तो स्वानुभव गम्य है। अमुक युक्ति-से बैठे कि अनन्त गुणमें अनन्तका रूप है। अनन्तमें एक आनन्दरस वेदे, यह वेदे, वह वेदे, ऐसा करके कितने प्रकार लिये हैं।

अचिंत्य द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप है। और चेतनका स्वरूप कैसा महिमावंत है, वह उसमें जानना है। अपूर्वता भासे कि आत्मा कैसा महिमावंत है। अगुरुलघुकी बातमें ऐसा है। वह अगुरुलघु स्वभाव कैसा है! हानिवृद्धि रूप परिणमता होने पर भी ज्योंका त्यों है। वास्तविक हानिवृद्धि नहीं होती, उसमें तारतम्यतामें ज्योंका त्यों रहता है, उसकी परिणमन शक्ति कैसी है! अनन्त अनन्तरूप परिणमे फिर भी ज्योंका त्यों। तो भी उसमें कुछ कम नहीं होता, कुछ बढता नहीं। फिर भी परिणमन उस प्रकार हानि-वृद्धिरूप होता है।

मुमुक्षुः- वह भी गुरुदेव बादमें केवलीगम्य कहकर निकाल देते थे।

समाधानः- हाँ, केवलीगम्य कहते थे। तत्त्वका स्वरूप कैसा सूक्ष्म स्वरूप है! केवलीके केवलज्ञानमें आये। चेतनागुणमें ज्ञान-दर्शन कोई अपेक्षा-से कहनेमें आता है। और ज्ञान-दर्शन गुणको अलग भी कहते हैं। चेतनागुणके अन्दर सामान्य और विशेष दोनों साथमें (कहते हैं)। कोई अपेक्षा-से ज्ञान, दर्शनको अलग कहनेमें आता है।


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मुमुक्षुः- निर्णय यथार्थ है, वह कैसे मालूम करना? यथार्थ निर्णयमें ऐसा क्या होता है कि जो अनुभवको लाता है?

समाधानः- पहले जो बुद्धिपूर्वक निर्णय होता है, वह गुरुदेवने जो अपूर्व मार्ग बताया, उसका निर्णय वह रुचि-से स्थूलता-से करता है वह अलग है। अंतर-से जो निर्णय करता है, वह निर्णय स्वयंको ही ख्यालमें आ जाता है कि यह निर्णय ऐसा यथार्थ है कि उसके पीछे अवश्य स्वानुभूति होगी। वह स्वभावको पहचानकर अंतरमें निर्णय होता है कि ये जो चैतन्य स्वभाव है वह मैं हूँ, यह ज्ञायक स्वभाव है वह मैं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ।

उसका स्वभाव, अन्दर-से अपना भाव-स्वभाव पहचानकर निर्णय होता है। वह निर्णय ऐसा होता है कि उसे ख्याल आता है कि यह कारण ऐसा है कि अवश्य कार्य आनेवाला है। विकल्प-से अंशतः भिन्न होकर, स्वानुभूतिकी बात अलग है, परन्तु उसे अंतर-से ऐसी प्रतीत होती है कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। यह विभाव मैं नहीं हूँ। ये जो शाश्वत चैतन्य स्वभाव, उसका अस्तित्व उसे यथार्थपने अंतरमें-से ग्रहण हो जाता है। वह भले ही अभी निर्विकल्प नहीं है, तो भी बुद्धिमें उसे ऐसा ग्रहण हो जाता है।

बाकी स्थूलता-से निर्णय करे वह अलग बात है। स्वयंको रुचि हो कि मार्ग यही है, दूसरा मार्ग नहीं है, यह वस्तु कोई अपूर्व है। ऐसी रुचि हो वह अलग बात है। परन्तु अंतरमें-से जो निर्णय होता है वह स्वभावको पहिचानकर होता है कि ये जो चैतन्य ज्ञायक है, जितना यह ज्ञान है उतना ही मैं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा अंतरमें-से उसे निर्णय होता है। और बारंबार उसे उसकी दृढता होती है। बारंबार उसकी परिणति उस तरफ मुडती है कि यह है वही मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार उसे स्वभावको पहचानकर निर्णय होता है।

जो स्वभावको पहचानकर निर्णय होता है, उसके पीछे उसे अवश्य स्वानुभूति हुए बिना नहीं रहती। उसका अंतर ही कह देता है कि यह निर्णय ऐसा है कि यह स्वभाव- ज्ञायक स्वभाव ही मैं हूँ, दूसरा कुछ मैं नहीं हूँ। ये निर्विकल्प स्वभाव है वही मैं हूँ। उसकी लीनताकी क्षतिके कारण अभी निर्विकल्प होनेमें देर लगती है। तो भी वह निर्णय ऐसा होता है कि अवश्य उसमें उसे स्वानुभूति हुए बिना नहीं रहती।

मति-श्रुतज्ञानकी बुद्धि जो बाहर जा रही थी। वह स्वयं अपना निर्णय करता है कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय करके फिक्षर अपनी तरफ, उपयोग अपनी तरफ मुडकर उसमें लीनता करे तो स्वानुभूति होती है। पहले ज्ञानस्वभावको पहचानकर निर्णय करे कि यह जो ज्ञान है वही मैं हूँ।


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शास्त्रमें ऐसा आता है, गुरुदेव भी ऐसा ही कहते थे कि यथार्थ निर्णय, यथार्थ कारण हो तो यथार्थ कार्य आये बिना नहीं रहता। ऐसा शुद्धात्माका अंतरमें-से उसे निर्णय होता है। उसका अंतर ही कह देता है कि इसमें अवश्य स्वानुभूति होगी ही।

मुमुक्षुः- माताजी! आपका वजन स्वभावको पहिचानकर निर्णय हो, वह यथार्थ निर्णय है। ऐसा आपका वजन आया है।

समाधानः- हाँ, स्वभावको पहिचानकर निर्णय होता है कि यह ज्ञान है वही मैं हूँ। ये विभाव है वह मैं नहीं हूँ। ऐसा बुद्धि-से स्थूलता-से हो वह अलग है, परन्तु अंतरमें-से उसे ग्रहण करके निर्णय होता है कि यह स्वभाव है वही मैं हूँ। अंतरमें-से भाव ग्रहण करता है।

मुमुक्षुः- ऐसा यथार्थ निर्णय हो, उसे अनुभूति उसके पीछे आती ही है?

समाधानः- उसके पीछे आती ही है। फिर उसमें कितना काल लगे उसका नियम नहीं है, परन्तु अवश्य होती ही है। (क्योंकि) उसका कारण यथार्थ है।

मुमुक्षुः- स्वभावको पहचानकर निर्णय हो, वह यथार्थ निर्णय है। यह बात आपने बहुत सुन्दर कही।

समाधानः- स्वभावको पहचानकर निर्णय होता है कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। मति और श्रुत द्वारा वह निर्णय करता है। फिक्षर मति- श्रुतका उपयोग जो बाहर प्रवर्तता है, उसे अंतरमें लाये और लीनता हो तो निर्विकल्प होता है। परन्तु पहले उसका यथार्थ निर्णय होता है।

मुमुक्षुः- स्वभावका यथार्थ निर्णय होने-से पहले क्या होता होगा?

समाधानः- पहले तो उसे स्वभाव तरफ मुडनेकी रुचि होती है कि आत्माका स्वभाव कोई अपूर्व है। करने जैसा यही है। ये सब विभाव है। ऐसी रुचि अंतरमें रहती है कि मार्ग यही है। गुरुदेवने बताया वह एक ही मार्ग है, दूसरा नहीं है। ऐसा उसने स्थूल बुद्धि-से स्थूलता-से निर्णय किया होता है। परन्तु स्वभावको पहिचानकर अंतरमें-से निर्णय होता है, वह निर्णय अभी नहीं होता, परन्तु रुचि उस तरफकी होती है। मार्गकी रुचि होती है। उसके पहले भी कोई अपूर्व रुचि होती है। परन्तु वह रुचि होती है।

मुमुक्षुः- जबतक स्वभावकी पहिचान नहीं होती है तबतकका निर्णय सच्चा निर्णय ही नहीं है। स्वभावको पहिचानकर जबतक निर्णय होता, तबतक तो वह निर्णय निर्णय नहीं है।

समाधानः- वह निर्णय नहीं है। यथार्थ कारण प्रगट नहीं हुआ है। .. ऐसा है कि जिसे कोई अपूर्व रुचि हो तो अवश्य वह रुचि उस तरफ जाती


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है। अपूर्व रुचि हो तो। परन्तु उसे वर्तमानमें कोई संतुष्टता हो जाय, ऐसा वह निर्णय नहीं है। वर्तमान संतोष कब आवे? स्वभावको पहिचानकर निर्णय हो तो। बाकी रुचि होती है उसे। अंतरमें-से अपूर्व रुचि होती है कि मार्ग यही है। यह पुरुषार्थ करने पर ही छूटकारा है और यही करना है। ऐसी रुचि होती है।

मुमुक्षुः- ... ऐसा पुदगल और अमूर्त ऐसा जीव, उसका संयोग कैसा है?

समाधानः- अनादिका है। रूपी और अरूपी। आता है न? ग्रहे अरूपी रूपीने ए अचरजनी वात। आत्मा तो अरूपी है। ये तो रूपी है। परन्तु विभावपर्याय ऐसी होती है कि जिस कारण रूपी और अरूपीका सम्बन्ध होता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है। दोनों विरोधी स्वभाव होने पर भी अनादिका उसका सम्बन्ध है। विरूद्ध स्वभाव होने पर भी अनादि-से उसका सम्बन्ध चला आ रहा है। उसे विभाविक भावके कारण वह सम्बन्ध होता है।

मुमुक्षुः- उसे कम करनेके लिये कुछ...?

समाधानः- अनादिका वह है।

मुमुक्षुः- उसे कम कैसे करना? अभाव कैसे करना?

समाधानः- उसका उपाय यह है कि स्वयं अपने स्वभावको पहचानना, तो वह सम्बन्ध छूटे। अपने स्वभाव तरफ जाय, अरूपीको ग्रहण करे और रूपी तरफकी दृष्टि, रूपी तरफ जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे तोड दे और अरूपी जो चैतन्यस्वभाव है, उस ओर उसकी प्रीति, उसकी रुचि हो तब हो।

गुरुदेव तो बारंबार कहते थे कि तू भिन्न है, यह शरीर भिन्न है, ये विभाव तेरा स्वभाव नहीं है, तू अन्दर शाश्वत है। कोई भेदभाव भी तेरा मूल स्वरूप नहीं है। ऐसा बारंबार कहते थे। उनका उपदेश तो अन्दर जमावट हो जाय ऐसा उपदेश था, परन्तु परिणति तो स्वयंको पलटनी है, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। स्वयं दिशा न बदले तो क्या हो? दिशा बाह्य दृष्टि वह स्वयं ही रखता है। अन्दर अपूर्वता लगे, रुचि करे तो भी परिणति तो स्वयंको पलटनी है। स्वयंको ही करना पडता है।

मुमुक्षुः- रुचि तो स्वयं करे, फिर भी परिणति पलटे नहीं तो रुचि...? समाधानः- उसे अपनी मन्दता है। रुचिकी मन्दता। उग्र रुचि हो तो परिणति पलटे बिना रहे नहीं। परन्तु रुचिकी मन्दता है। ऐसी रुचि हो कि बाहरमें उसे कहीं चैन पडे नहीं। ऐसी रुचि अन्दर उग्र हो तो स्वयं पुरुषार्थ किये बिना नहीं रहता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!