Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 259.

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ट्रेक-२५९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- वह लीनता तो चौबीसों घण्टे चलती होगी। उग्रता बढ जाय..

समाधानः- चौबीसों घण्टें उनकी भूमिका अनुसार होता है। जो उनकी सम्यग्दर्शन सम्बन्धित लीनता हो वह चौबीसों घण्टे (होती है)। उनकी विशेष लीनता, तारतम्यता उनके पुरुषार्थ अनुसार होती है। भूमिका पलटे वह लीनता विशेष होती है। पाँचवा, छठवाँ, सातवाँ वह लीनता उनकी अलग होती है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें प्रवेश करते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें विकल्प छूटकर स्वानुभूतिमें जाते हैं। उसकी लीनता एकदम उग्र होती है। खाते-पीते, निद्रामें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें प्रवेश हो जाता है। बाहर रह नहीं सकते हैं। अंतर्मुहूर्त-से ज्यादा बाहर रह ही नहीं सकते हैं। इतना अपने स्वरूपमें एकदम प्रवेश हो जाता है। लीनताका प्रवेश हो जाता है।

दृष्टि एवं ज्ञान तो प्रगट है ही, परन्तु ये लीनता-चारित्र दशा बढती है छठवें- सातवें गुणस्थानमें। चतुर्थ गुणस्थानमें स्वरूपाचरण चारित्र होता है। पाँचवें गुणस्थानमें उससे विशेष होती है। पाँचवे गुणस्थानकी भूमिकाके स्टेज अमुक-अमुक बढते जाते हैं। उसमें उसे स्वरूपकी लीनता बढती जाती है। उस अनुसार उसके शुभ परिणाममें बाहरके स्टेजमें भी फेरफार होता जाता है। अंतरमें स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है।

मुमुक्षुः- मुनि महाराजको खाते-पीते, चलते-फिरते ऐसी दशा हो जाय, वैसे चतुर्थ गुणस्थानमें कोई बार होती होगी?

समाधानः- कोई बार हो, उसका नियम नहीं है। छठवें-सातवेंमें तो नियमसे होती है। स्वरूपाचरण चारित्रमें ऐसा हो, परन्तु वह नियमित नहीं होती। इन्हें तो अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें नियमित होती है। चतुर्थ गुणस्थानकी लीनता कब विशेष बढ जाय, होती ही नहीं ऐसा नहीं है, लेकिन उसका नियम नहीं है।

मुमुक्षुः- ध्यानमें बैठे तभी निर्विकल्प दशा हो, ऐसा नहीं होता चतुर्त गुणस्थानमें?

समाधानः- ध्यानमें बाहर-से बैठे या न बैठे। कोई बार बाहर-से बैठे और हो। कोई बार न बैठे तो अंतरमें अमुक प्रकारका ध्यान तो उसे प्रगट हो ही गया है। जो ज्ञाताका अस्तित्व उसने ग्रहण किया है, ज्ञायककी धारा वर्तती है, उतनी एकाग्रता तो उसे चालू ही है। इसलिये उस प्रकारका ध्यान तो उसे है ही। ध्यान अर्थात एकाग्रता।


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उस जातकी एकाग्रता उसे छूटती ही नहीं। अमुक प्रकारकी एकाग्रता तो उसे है। उस एकाग्रतामें कुछ विशेषता हो जाय तो उसे बाहर-से ध्यानमें बैठे तो ही हो, ऐसा नियम लागू नहीं पडता।

मुमुक्षुः- ऐसा बन्धन नहीं है।

समाधानः- ऐसा बन्धन नहीं है कि बाहर-से शरीर ध्यानमें बैठे, ऐसा बन्धन नहीं है। शरीर बैठ जाय ऐसा बन्धन नहीं है। अंतरमें एकाग्रता (होती है)। अमुक एकाग्रता तो है ही, परन्तु विशेष एकाग्रता कब बढ जाय, शरीर बैठा हो ऐसा हो तो ही बढे ऐसा न्याय नहीं है। मुनिको तो है ही नहीं, परन्तु चतुर्थ गुणस्थानमें ऐसा नियम नहीं है। सब बार ऐसा नियम नहीं होता। कोई बार ऐसा भी बनता है कि ध्यानमें बैठा हो तब हो। बाहर-से ध्यानमें बैठा हो। कोई बार कोई भी स्थितिमें शरीर हो और ध्यान हो जाय। बाहरका बन्धन नहीं है। अमुक प्रकार-से सहज दशा हो जाती है।

अनादिका सर्व प्रथम हो उसे पलटनेमें थोडी मुश्किली होती है, किसीको अंतर्मुहूर्तमें भी हो जाता है। उसमें भी अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है। फिर तो उसकी दशा सहज है। इसलिये बाहरमें अमुक प्रकार-से बैठे तो ही हो, ऐसा बन्धन नहीं है।

मुमुक्षुः- एक बार निर्विकल्प दशा हो गयी इसलिये अमुक काल राह देखनी पडे ऐसा नहीं होता न? फिरसे तुरन्त भी हो सकती है।

समाधानः- राह देखनी नहीं पडती। जिसकी अंतर दशा चालू है, जिसे भेदज्ञानकी दशा चालू है, उसे अमुक समयमें हुए बिना रहती ही नहीं। उसे समयका बन्धन नहीं है। उसे अमुक समयमें हुए बिना नहीं रहती। जिसे अंतरकी दशा है, भेदज्ञानकी धारा वर्तती ही है, उसे हुए बिना नहीं रहती।

जो अंतर-से भिन्न पड गया, जिसका उपयोग बाहर गया, वह अमुक समयमें अंतरमें आये बिना नहीं रहता। उस उपयोगमें बाहर कुछ सर्वस्व नहीं है। भेदज्ञानकी धारा तो वर्तती ही है। स्वयं जुदा-न्यारा वर्तता है, क्षण-क्षणमें न्यारा वर्तता है। न्यारी परिणति तो है ही। उपयोग तो पलट जाता है। जैसी परिणति है वैसा उपयोग वापस हुए बिना नहीं रहता। परिणति अलग काम करती है, उपयोग बाहर जाता है।

परिणतिकी डोर उसे-उपयोगको वापस लाये बिना नहीं रहती। परिणति तो न्यारी है। भेदज्ञानरूप भेदज्ञानकी धारा निरंतर क्षण-क्षणमें विकल्पके बीच उसकी न्यारी डोर क्षण-क्षणमें सहजरूप है। परिणतिकी डोर न्यारी है, वह उपयोगको वहाँ टिकने नहीं देती। अमुक समयमें उपयोग वापस आ ही जाता है। स्वरूपमें लीन हुए बिना, निर्विकल्प दशा हुए बिना उसे नहीं रहती। परिणति उपयोगको वापस अपनेमें लाती है।


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मुमुक्षुः- ज्ञानीकी सविकल्प दशा इतनी मजबूत है कि निर्विकल्प उपयोगकी लाचारी करनी नहीं पडती, वह अपनेआप होता है।

समाधानः- उसकी लाचारी नहीं करनी पडती। उसकी दशा ही ऐसी है। उसे शान्ति और हूँफ है ही। अपनी दशा ही ऐसी है। स्वयं कहीं एकत्वबुद्धि-से वर्तता नहीं है। भिन्न ही वर्तता है। उसकी न्यारी परिणति ही उस उपयोगको वापस लाती है। वह उपयोग बाहर लंबे समय बाहर टिक नहीं पाता। वह उपयोग अपने स्वरूपमें फिर-से लीन हुए बिना नहीं रहता। उसकी न्यारी परिणति ही उसे वापस लाती है। उसकी लाचारी नहीं करनी पडती।

स्वयंको अपनी हूँफ है। अपनी परिणति ही उस उपयोगको वापस लाती है। उसे ऐसा नहीं है कि निर्विकल्प दशा कब आयेगी? उसकी राह देखकर बैठना नहीं है। उसकी उसे कोई शंका नहीं होती। परिणति ही उस उपयोगको वापस खीँचकर लाती है।

समाधानः- परिणति जोरदार होती है तो निर्विकल्प दशा हो जाती है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीको तो चौबीसों घण्टे अवलम्बन होता है।

समाधानः- चौबीसों घण्टे आत्म स्वभावका अवलम्बन है। उसका उपयोग बाहर एकमेक होता ही नहीं। उपयोग बाहर जाये तो भी भिन्न ही है। वह वापस स्वरूपमें जमे बिना नहीं रहता। उसकी रुचि उसे वापस (ले आती है), उसकी परिणति उसे वापस लाती है। ऐसा सहजपने है।

मुमुक्षुः- च्यूत हो जाता है, उसका क्या कारण?

समाधानः- उसकी परिणतिमें दिक्कत है, उसका पुरुषार्थ छूट जाता है, उसकी न्यारी परिणति छूट जाती है। एकत्वबुद्धि हो जाती है। ज्ञायक भिन्न, विभाव भिन्न वह परिणति जो ज्ञाताकी धारा क्षण-क्षणमें आंशिक ज्ञाताधारा, आंशिक शान्तिधारा (चलती रहती है)। आत्माकी स्वानुभूतिका आनन्द अलग है। बाकी अंतरमें जो न्यारी शान्तिधारा और ज्ञायकधारा थी, उसकी परिणति छूट जाती है। उसकी परिणति एकमेक हो जाती है। इसलिये स्वानुभूति चली जाती है। वर्तमान परिणति छूटकर एकत्वबुद्धि हो जाती है। परिणति पलट जाती है।

समाधानः- ज्ञान-से रचित एक चैतन्य वस्तु ही है। ज्ञान बाहर-से नहीं आता है। वह जाननेवाली पूरी वस्तु ही है। द्रव्य जाननेवाला, उसका गुण जाननेवाला, उसकी पर्यायमें जाननेवाला, सर्व प्रकार-से वह जाननेवाला ही है, ऐसी एक वस्तु ही है। जैसे यह जड है, वह जड कुछ जानता नहीं। वह स्वयं जानता ही नहीं है। तब एक जाननेवाली वस्तु है कि सर्व प्रकार-से जाननेवाली ही है।


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उष्णता बाहर-से नहीं आती है, अग्नि स्वयं ही उष्ण है। बर्फ स्वयं ही ठण्डा है। उसकी ठण्डक बाहर-से नहीं आती। वैसे जानना बाहर-से नहीं आता है, जाननेवाली वस्तु ही स्वयं है। उसमें बाहरके सब निमित्त हैं। इसे जाना, उसे जाना। जाननेवाली वस्तु स्वयं है।

समाधानः- ... आत्माको ज्ञानके साथ एकमेक सम्बन्ध है। ज्ञान बिनाका आत्मा नहीं है, आत्मा बिनाका ज्ञान नहीं है। तादात्म्य सम्बन्ध है। ऐसे अनन्त गुण हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अस्तित्व, वस्तुत्व सबके साथ, द्रव्यको सबके साथ ऐसा तादात्म्य सम्बन्ध है। अनन्त गुण-से भरा हुआ, अनन्त गुणस्वरूप ही द्रव्य है। अनन्त गुण आत्मामें एकमेक हैं। जडमें भी वैसे अस्तित्व, वस्तुत्व इत्यादि जो जडके-पुदगलके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सब एकमेक तादात्म्य है। उसमें-से कुछ अलग नहीं पडता। एकमेेक है।

मुमुक्षुः- द्रव्यको और गुणोंको एकमेक सम्बन्ध है न? गुणको और गुणको भी ऐसा सम्बन्ध है? जैसे आपने कहा कि द्रव्य और गुणका तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध ङै। वैसे एक गुणको बाकीके अनन्त गुण जो हैं, उसके साथ तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध नहीं है?

समाधानः- उसका लक्षणभेद-से भेद है। सबका लक्षण भिन्न पडता है। बाकी वस्तुतः सब एक है। परन्तु उसके लक्षण अलग हैं। ज्ञानका लक्षण जानना, दर्शनका देखनेका, प्रतीत करना, चारित्रका लक्षण लीनताका, आनन्दका आनन्द स्वरूप, इसप्रकार सबके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। द्रव्य अपेक्षा-से सब एकमेक हैं। बाकी एकदूसरेके लक्षण अपेक्षा-से उसके भेद हैं। वस्तुभेद नहीं है, परन्तु लक्षण अपेक्षा-से भेद हैं। उसके लक्षण अलग, उसके कार्य अलग। ज्ञानका जाननेका कार्य, दर्शनका देखनेका, चारित्रका लीनताका, सबका कार्य कार्य अपेक्षा-से भिन्न-भिन्न है। वस्तु अपेक्षा-से एक है।

मुमुक्षुः- जब ज्ञानगुण ज्ञानगुणका काम करे, उस वक्त कर्ता गुण क्या करता है? (जैसे) ज्ञान करता है, वैसे कर्ता नामका गुण है, वह क्या करता होगा?

समाधानः- वह कर्ता स्वयं कार्य करता है। ज्ञान जाननेका कार्य करे तो कर्तागुण उस रूप परिणमन करके उसका कार्य लानेका काम करता है। ज्ञान जानता है तो उसमें परिणमन करके जो जाननेका कार्य होता है, वह जाननेका कार्य वह कर्तागुण कहलाता है। कार्य करता है। कर्तागुणमें.. कर्ता, क्रिया और कर्म। वह कर्ताकी परिणति है।

मुमुक्षुः- ये जो आपने सम्बन्ध कहा, वह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नही है? एकरूपता रूप सम्बन्ध है।

समाधानः- हाँ, एकरूप सम्बन्ध है, परन्तु उसमें लक्षणभेद है, कार्यभेद है। निमित्त- नैमित्तिक नहीं है। निमित्त-नैमित्तिक तो दो द्रव्यमें होता है, ये तो एक ही द्रव्य है।


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एक द्रव्यके अन्दर लक्षणभेद और कार्यभेद आदि है।

मुमुक्षुः- ... रखनेके लिये कहा होगा या ... न हो जाय इसलिये गुण इसप्रकार है? स्वतंत्रता बतानेके लिये।

समाधानः- प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र ही हैं। परन्तु गुणोंकी स्वतंत्रता है। परन्तु वस्तु- से एक है। उसमें अन्यत्व भेद है, परन्तु उसमें वस्तुभेद नहीं है। परस्पर एकदूसरे- से लक्षण-से भिन्न पडते हैं, परन्तु वस्तु अपेक्षा-से एक हैं। वह स्वतंत्रता ऐसा नहीं है, एक द्रव्य जैसे दूसरे द्रव्य-से स्वतंत्र है, जैसे पुदगल और चैतन्य स्वतंत्र है, दो द्रव्य अत्यंत भिन्न हैं, वैसे गुण और द्रव्य, प्रत्येक गुण-गुण उस प्रकार-से अत्यंत भिन्न नहीं हैं। वस्तु-से एक है और लक्षण-से भिन्न हैं। उसकी भिन्नता अत्यंत भिन्नता नहीं है। प्रत्येक गुणोंकी अत्यंत भिन्नता नहीं है। वस्तु अपेक्षा-से एक है, परन्तु लक्षण- से भिन्न हैं।

मुमुक्षुः- अन्योन्य भेद हुआ?

समाधानः- अन्योन्य अर्थात लक्षण-से भिन्न हैं। उसकी स्वतंत्रता... एक द्रव्य- से दूसरा द्रव्य स्वतंत्र है, वैसे प्रत्येक गण उस प्रकार-से स्वतंत्र नहीं हैं। उसकी स्वतंत्रता लक्षण तक है और कार्य तक है। बाकी वस्तु अपेक्षा-से वह सब एक है। एक ही वस्तुके सब गुण हैं। अनन्त गुण-से बनी एक वस्तु है। अनन्त गुणस्वरूप ही एक वस्तु है। वस्तु अपेक्षा-से एक है, लक्षण अपेक्षा-से भिन्न-भिन्न है। एक द्रव्यके अन्दर अनन्त शक्तियाँ-अनन्त गुण हैं। सबके कार्य सब करते हैं और सबके लक्षण, कार्य एवं प्रयोजन भिन्न-भिन्न है। वह स्वतंत्रता उस जातकी है कि द्रव्यकी स्वतंत्रता है ऐसी स्वतंत्रता नहीं है।

वह तो, जैसे सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शनका गुण प्रगट हो, दृष्टि विभाव तरफ, दृष्टि पर तरफ थी और स्व तरफ दृष्टि जाती है (तो) सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होता है। तो उन सबका अविनाभावी सम्बन्ध ऐसा है कि एक सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो उसके साथ सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन (होता है)। सर्व गुणकी शुद्धि आंशिक होती है। सर्व गुणकी दिशा बदलकर अपनी तरफ परिणति होती है। अनन्त गुणकी दिशा बदलकर शुद्धरूप परिणति होती है। एककी शुद्ध होती है सब शुद्धतारूप परिणमते हैं। ऐसा सम्बन्ध है। क्योंकि वस्तु एक है इसलिये।

एक सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ तो उसमें ज्ञान भी सम्यक हुआ। चारित्र भी, मिथ्याचारित्र था तो चारित्र भी सम्यक हुआ। सब गुणकी दिशा बदल गयी। क्योंकि एक वस्तुके सब गुण है। ऐसा उसका हो तो दूसरे गुणकी परिणति बदल जाती है। ऐसा अविनाभावी एकदूसरेके साथ सम्बन्ध है।


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समाधानः- ... पच्चीस साल होनेमें कहाँ देर लगेगी? क्यों अन्दर कुछ होता नहीं? क्यों परिभ्रमणकी थकान लगती नहीं? क्यों कपकपी होती नहीं? ऐसा होता था। अनेक जातका होता था। अन्दरमें जो स्वयंने किया है, वह अपना है, बाकी काल तो चला जा रहा है। देवलोकका सागरोपमका काल भी पूरा हो जाता है, तो इस मनुष्य भवका काल तो क्या हिसाबमें है?

इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले और गुरुदेवने जो उपदेशकी जमावट की, वही याद करने जैसा है और उसमें-से ग्रहण करने जैसा है। उपदेश क्या? गुरुदेवने इतना उपदेश बरसाया। जिसे ग्रहण करके अंतरमें जमावट करनी, ऐसा उपदेश दिया है। जैसे भगवानकी दिव्यध्वनिकी वर्षा होती है, वैसे गुरुदेवकी (वाणीकी) वर्षा हुयी है। दोनों वक्त नियमरूप से।

जहाँ गाँव-गाँवमें सौराष्ट्रमें कहीं मन्दिर नहीं था, हर जगह मन्दिर बन गये। शास्त्र उतने प्रकाशित हुए। कितने ही भण्डारमें थे सब बाहर आ गये।

मुमुक्षुः- टेप भर गयी।

समाधानः- टेप भर गयी।

मुमुक्षुः- यहाँ सुनते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों गुरुदेव साक्षात विराजते हों ऐसा ही लगता है।

समाधानः- गुरुदेवका यह क्षेत्र, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और टेप सब ऐसा है। वह स्थान और वह टेप यहाँ बजती है वह अलग है, वह स्थान, गुरुदेव जहाँ बैठते थे वह पाट, क्षेत्र आदि सब वह, इसलिये मानों गुरुदेव बोलते हो ऐसा लगे। टेप बोले उसके साथ ....

कैसे समझमें आये, ऐसा विचार आये न। सहज जो अन्दरमें लगता हो वह सहज आता है। कुछ शास्त्रका हो, लेकिन गुरुदेवने शास्त्रोंका अर्थ करनेमें कहाँ कुछ बाकी रखा है। गुरुदेवने बहुत दिया है।

मुमुक्षुः- ... समाधानः- पद्मनंदी जब पढते थे, तब ऐसा ही पढते थे। पद्मनंदीमें जिनेन्द्र भगवानका अधिकार जब आवे, तब ऐसा ही पढते थे। दानका अधिकार आये तब ऐसा पढते। हे जिनेन्द्र! ऐसा कहकर पढते थे। टेपमें आया था न? माता! आपका पुत्र हमारा स्वामी है। माता! जतन करके रखना। ... इन्द्राणी भगवानको लेने आती है, तब वह बात आती थी। हृदय-से बोलते थे। सबका कलेजा काँप ऊठे, ऐसे कहते थे। वह भक्ति अधिकार पढे, दान अधिकार पढे.... (तब ऐसा ही आता था)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!