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मुमुक्षुः- ज्ञानीको जो वास्तवमें पहचानता है, वह ज्ञानी हुए बिना नहीं रहता।
समाधानः- वास्तवमें उनका अंतर पहिचाने तो वह स्वयं ज्ञानी हुए बिना नहीं रहता। अंतर परिणतिको पहिचाने तो अपनी परिणति भी वैसी ही हो जाती है।
मुमुक्षुः- अंतर परिणति यही न? अभी जो अपनी बात हुयी, बाहरमें इस प्रकार राग होने पर भी अंतर ज्ञान तो ऐसा ही काम करता रहता है, दो द्रव्यकी भिन्नता है इसलिये रागका कुछ कार्य बाहरमें आवे या परद्रव्य अपनेमें कुछ करवाये ऐसा नहीं बनता।
समाधानः- परद्रव्यका कोई कार्य रागके कारण नहीं होता है। उससे भिन्न, शरीर- से भिन्न परिणमन वर्तता है और विभाव अपना स्वभाव नहीं है, उससे भी उनका परिणमन भिन्न वर्तता है। राग हो, उस रागके कारण बाहर होता नहीं है और रागके कारण शरीरका कुछ नहीं होता है। और वह राग अपना स्वभाव नहीं है, इसलिये राग-से भी स्वयं भिन्न परिणमता है। रागका भी उन्हें स्वामीत्व नहीं है। उससे भी भिन्न परिणमता है, उसका उन्हें स्वामीत्व नहीं है।
उसकी ज्ञायककी धारा क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें भिन्न परिणमती है। उसे वह भूलता नहीं है। वह उनका अंतर परिणमन है। राग-से बाहरका तो कुछ होता नहीं, परन्तु राग-से भी स्वयं भिन्न परिणमता है। ऐसा करुँ, वैसा करुँ, ऐसा राग आये, फिर भी वह राग होता है, उस समय भी स्वयं भिन्न परिणमते हैं। रागरूप वे नहीं परिणमते।
मुुमुक्षुः- उस वक्त उसका स्वामीत्व नहीं है। समाधानः- उस वक्त उस रागका स्वामीत्व भी उसे नहीं है। ऐसी क्षण-क्षणमें ज्ञायककी भिन्न धारा, ज्ञाताधारा (वर्तती है)। कर्ताबुद्धि नहीं है और ज्ञाताधारा वर्तती है। आंशिक शान्ति धारा, ज्ञाता धारा क्षण-क्षणमें वर्तती ही रहती है।
मुमुक्षुः- ये तो ज्ञानीका अलौकिक अंतर परिणमन है, कि जो अज्ञानी जीवोंको ख्यालमें नहीं आता है और कर्ताबुद्धिका सेवन करता है।
समाधानः- बाहर-से ऐसा लगे कि मानों करते हों। मानों सब करते हो ऐसा लगे। अंतर-से उसका भिन्न ज्ञायकरूप परिणमन है। ज्ञाता है, बाकी दिखे ऐसा, बोले
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ऐसा। परन्तु उसका परिणमन अन्दर भिन्न है।
मुमुक्षुः- इसीलिये अज्ञानीको भ्रम हो जाता है।
समाधानः- इसीलिये अज्ञानीको भ्रम हो जाता है।
मुमुक्षुः- .. उसकी कर्ताबुद्धि छूट जाय, ऐसी यह बात है। अन्यथा ऐसी शंका हो कि इतनी शरीरकी क्रिया (होती है), उसी वक्त समय-समयमें भेदज्ञान चलता होगा?
समाधानः- अंतर दृष्टि-से देख, ऐसा श्रीमदमें आता है न? स्वयंको उस जातका ख्याल नहीं है, स्वयं एकत्वबुद्धिमें परिणमता है। इसलिये देखनेके लिये दृष्टि कहाँ-से लाये? इसलिये उसे ऐसा होता है कि एकत्वबुद्धिमें तो यह मैं करुँ, यह मैं करुँ। वैसा ही वे कहते हैं। उनके अभिप्रायमें क्या फर्क है, उनकी परिणतिमें वह कैसे पकडना? उसको स्वयंको उस जातका अनुभव ही नहीं है कि भिन्नता कैसे रहे? ये सब बोलते हैं, परन्तु अन्दर परिणति भिन्न कैसे रहती है? उस जातका उसे अनुभव नहीं है, इसलिये उसे पकडना मुश्किल पडता है।
मुमुक्षुः- जबतक अनुभव नहीं होता, तबतक धारणाज्ञानमें स्पष्टरूप-से ऐसा विचार किया होता है। फिर भी शंका पडे कि ज्ञानीको ऐसा निरंतर रहता होगा?
समाधानः- हाँ, निरंतर रहता होगा? ऐसा होता है। जैसे उसे एकत्वबुद्धि निरंतर रहती है, अज्ञान दशामें एक क्षण भी खण्ड नहीं पडता। एकत्वबुद्धि, क्षण-क्षणमें जो- जो रागकी धारा, विभावकी धारा, विकल्पकी धारामें एकत्वबुद्धि उसे निरंतर रहती है। उसमें-से वह भिन्न नहीं पडता है, शरीर-से एकत्वबुद्धि-से। कोई भी विकल्पमें एकमेक एकत्वबुद्धि जैसे उसकी रहती है, वैसे ही भेदज्ञानकी परिणति (ज्ञानीकी) रहती है। उसमें उसे खण्ड नहीं पडता। उसमें उसे विभावके साथ एकत्वबुद्धि नहीं होती। जैसे (अज्ञान दशामें) एकत्व रहता है, वैसे ही वह भिन्न रहता है। भिन्न रहने-से जो रागकी परिणति होती है, उससे भिन्न रहता है।
रागमें जो भाव आये, उसमें वह तन्मय नहीं हो जाता। परन्तु अमुक प्रकारके भाव उसे आते हैं, इसलिये वह बोलता है, इसका ऐसा करना, उसका वैरा करना। ऐसा बोले। जो गृहस्थाश्रममें हो वह उस सम्बन्धित बोले और जो देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंग हो, उसमें ऐसा बोले, भगवानका ऐसा करो, गुरुका ऐसा करो, ऐसा शास्त्रका करो। ऐसा बोले। इसलिये उसे ऐसा लगता है कि एकत्वपने (बोलते हैं)। परन्तु उनकी एकत्वबुद्धि नहीं है। जैसी उसे रागकी एकत्वबुद्धि चलती है, वैसे उनकी भेदज्ञानकी परिणति भिन्न है। परन्तु बीचमें जो राग आता है, उस रागमें वैसे भाव आते हैं। उस भावके कारण उस प्रकारका बोलना होता है। परन्तु उसी क्षण वह भिन्न रहता है।
मुमुक्षुः- अंतर दृष्टि-से, आपने कहा कि, श्रीमदजीने कहा है कि अंतर दृष्टि-
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से देख। अंतर दृष्टि-से देखना तो किस प्रकार-से देखनेका प्रयत्न करना?
समाधानः- अमुक जातकी युक्ति, दलील-से नक्की कर सके। बाकी तो कर नहीं सकता। बाकी उनके परिचय-से, उनकी बात-से ऐसे नक्की करे। युक्ति, दलील, न्याय- से, सिद्धान्त-से नक्की करे। बाकी उसे उस जातका ख्याल नहीं है इसलिये उसे नक्की करना मुश्किल पडता है।
परन्तु विचार करे तो उसे ख्याल आये कि भेदज्ञानकी परिणति हो सकती है। भेदज्ञानमें प्रतिक्षण अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो भेदज्ञानकी परिणति प्रगट हो सके ऐसा है। यदि न हो तो वह भिन्न ही नहीं पड सकता। वह भिन्न पडता है, स्वानुभूति होती है। जो सिद्ध होते हैं, वे भेदविज्ञान-से ही होते हैं। अतः भेदविज्ञान अंतरमें हो सकता है। उसकी भावना ऐसी होती है कि दूसरेको शंका पडे कि ये सब भावना ऐसी दिखे कि मानों कर्ताबुद्धि जैसी दिखती है।
मुमुक्षुः- इसीलिये आज विचार आया कि आपको ही पूछ लूँ।
समाधानः- हाँ, दिखे वैसा। पूजामें ऐसा दिखे, देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगमें ऐसा दिखे तो भी प्रतिक्षण वह क्षण-क्षणमें न्यारा ही होता है। जैसे मक्खन भिन्न पड जाता है, फिर-से वह पहलेकी भाँति एकमेक नहीं हो जाता। छाछके साथ रहे तो भी वह मक्खन भिन्न ही तैरता है।
मुमुक्षुः- एक बार भिन्न पडनेके बाद एकमेक नहीं होता।
समाधानः- एकमेक नहीं होता। .. ज्ञान जो है, उस ज्ञानको-ज्ञायकको भिन्न किया। अनादि-से ज्ञान तरफ देखता नहीं है और विभाव तरफ देखता रहता है। ज्ञान- ज्ञायक तरफ दृष्टि और परिणति है। इसलिये वह उसी तरफ देखता है। विभाव तरफ उसका अल्प हो गया है। उसकी परिणति ज्ञायक तरफ, पूरा चक्र ज्ञायक तरफ हो गया है। अल्प विभाव तरफ थोडा रहा है।
मुमुक्षुः- अज्ञानीको स्थूल ज्ञान है इसलिये उसे राग ही दिखता है, ज्ञान दिखाई नहीं देता।
समाधानः- राग दिखता है, ज्ञान नहीं दिखाई देता।
मुमुक्षुः- हमें दुःख हो ऐसी बात है। परन्तु गुरुदेवका इतना सुना है कि उसीसे समाधान करते हैं। फिर भी आपके शब्द सुनने हैं।
समाधानः- अचानक हो जाय और छोटी उम्र हो इसलिये ऐसा लगे। गुरुदेवने कहा है, शान्ति रखने अलावा उपाय नहीं है। संसारका स्वरूप (ऐसा ही है)। जहाँ कोई उपाय नहीं है, वहाँ शान्ति रखनी ही श्रेयरूप है।
अनन्त जन्म-मरण, जन्म-मरण करते-करते भवका अभाव हो ऐसा मार्ग गुरुदेवने
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बताया। कितनोंके साथ सम्बन्ध करके स्वयं आया, स्वयंको छोडकर कितने ही चले गये और स्वयं किसीको छोडकर आया है। ऐसे जन्म-मरण (किये हैं)। कभी लम्बा आयुष्य, कभी छोटा आयुष्य, ऐसे अनेक जातके जन्म जीवने धारण किये हैं। उसमें यह मनुष्यभव मिला। इस मनुष्यभवके अन्दर एक आत्माकी पहिचान हो वह नवीन है। बाकी जन्म-मरण, जन्म-मरण जगतमें चलते रहते हैं।
राग हो उतना दुःख हो, तो भी बदलकर अन्दरमें समाधान करना वही श्रेयरूप है। उसका दूसरा कोई उपाय नहीं है। संसार ऐसा है, संसारका स्वरूप ऐसा है। जीवने इतने जन्म-मरण किये हैं कि जितने जगतके परमाणु है, उसे स्वयंने ग्रहण करके छोडे हैं। इतने जगतके परमाणुको (ग्रहा है)।
प्रत्येक आकाश प्रदेशमें एक-एक आकाश प्रदेश पर अनन्त बार जन्म-मरण किये। जितने विभावके अध्यवसाय हैं, सब हो गये। उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी कालके जितने समय हैं, उतनी बार स्वयं अनन्त बार जन्म-मरण कर चूका। अनन्त बार निगोदमें गया, अनन्त बार देवलोकके देवके भव किये। नर्कमें अनन्त भव किये, तिर्यंके अनन्त भव, मनुष्यके अनन्त भव किये। इतने भव जीवने किये हैं। उसमें कितनोंके साथ सम्बन्ध जोडा है और छोडा है। जीवको ऐसे अनन्त जन्म-मरण हुए हैं।
उसमें इस पंचम कालमें यह मनुष्यभव मिला, उसमें गुरुदेवकी वाणी मिली और गुरुदेवने जो यह मार्ग बताया, उस मार्गको ग्रहण करना वही उपाय है। वही शान्ति और सुखका उपाय है। इस जीवनमें कुछ अपूर्वता प्रगट हो और भवका अभाव हो, ऐसे संस्कार डले तो वह श्रेयरूप है। बाकी जीवने अनेक जन्म-मरण किये हैं। नटुभाईको बहुत रुचि थी। अंतरमें वह रुचि लेकर गये हैं। आप सबको रुचि है। गुरुदेवने कहा है वही ग्रहण करना है।
जगतमें कुछ अपूर्व नहीं है, कोई पदवी अपूर्व नहीं है। एक सम्यग्दर्शनकी पदवी (प्राप्त नहीं की)। जिनवरस्वामी जीवको मिले हैं, परन्तु उसने पहचाना नहीं है। इसलिये मिले हैं वह नहीं मिलने बराबर है। एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। एक वह अपूर्व है। इसलिये उसे प्राप्त करनेके लिये जीवको भेदज्ञान कैसे हो, आत्माकी पहिचान कैसे हो (उसका प्रयत्न करना चाहिये)।
इस जगतमें शाश्वत आत्मा है। यह शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न, दोनों भिन्न- भिन्न वस्तु है। आत्मा तो शाश्वत है। एक देह छोडकर दूसरा देह धारण करता है। आत्माका तो कहीं मरण होता नहीं। जन्म-मरण आत्माके नहीं है। नटुभाईका आत्मा तो शाश्वत है। आत्माका मरण नहीं होता, आत्मा तो शाश्वत है। आत्मा भिन्न शाश्वत है, उसे ग्रहण कर लेना। वही सच्चा है।
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जीवनमें भेदज्ञान कैसे हो? कि यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, ये विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको पहिचान लेना। एक ज्ञायक आत्माको पहिचानना वही श्रेयरूप है। उसीमें आनन्द है, उसीमें सुख है। आत्मा शाश्वत है। उसे ग्रहण करने- से वह शाश्वत स्वयं ही है। आत्माका सम्बन्ध ही सच्चा सम्बन्ध है। जगतके अन्ेदर दूसरे सम्बन्धमें फेरफार होते रहते हैं।
बडे मुनिश्वर और राजेश्वरोंके आयुष्य पूर्ण होता है। चक्रवर्ती राजा भी अंतमें मुनिपद धारण करके इस मार्गको ग्रहण करते हैं। उनकी पदवीमें ऋद्धिका पार नहीं था, फिर भी छोडकर चले जाते हैं। संसारका स्वरूप ऐसा है। इसलिये एक आत्माको ग्रहण करना वही श्रेयरूप है। और गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। कोई क्रियामें पडे थे, कोई कहाँ पडे थे। उसमें-से आत्माका सुख कैसे प्राप्त हो और आत्मा कैसे प्रगट हो, वह गुरुदेवने बताया है।
शास्त्रमें आता है, मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे, कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणु मात्र नहीं अरे! ३८. कोई परमाणुमात्र अपना नहीं है। स्वयं शुद्ध स्वरूप अरूपी आत्मा है। शरीर अपना नहीं है। एक शुद्ध सदा ज्ञान-दर्शनसे भरा हुआ आत्मा है, कोई परमाणु मात्र अपना नहीं है। किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। जितना राग हो, वह स्वयंको याद आता है। राग आये तो उसे बदलकर शान्ति रखनेके अलावा कोई उपाय नहीं है। ऐसा प्रसंग बने इसलिये एकदम सदमा लगे तो भी शान्ति रखनेके अलावा कोई उपाय नहीं है।
मुमुक्षुः- इतनी सारी ऋद्धि और ऐसा मिलता हो तो भी उन्हें ऐसा कौन- सा बन्धन आ गया कि उन्हें रास्तेमें ऐसा हो गया। न धर्मका कुछ सुन सके, ना और कुछ कर सके।
समाधानः- ऐसा है कि आयुष्य कैसे पूर्ण हो वह तो पूर्वका होता है। वर्तमान जो रुचि हो वह तो इस भवमें प्रगट की। और आयुष्यका बन्ध हुआ वह तो पूर्वका है। इसलिये पूर्वका आयुष्य बन्धका उदय ऐसा ही था कि इसी तरह-से आयुष्य पूर्ण हो। अतः उसमें तो कुछ (हो नहीं सकता)। आयुष्यका बन्ध कैसा पडा हो, उसमें जीव फेरफार नहीं कर सकता। अपने भावको बदल सकता है। भावमें अन्दर राग- द्वेषकी एकत्वबुद्धि तोड सकता है। बाकी बाहरके संयोग बदल नहीं सकता। बाहरका, शरीरका, रोगका या आयुष्य कैसे पूर्ण हो, कोई जीव उसको नहीं बदल सकता। पूर्वका जो उदय हो वह उदय आते ही रहते हैं। बाहरका कोई कार्य बदल नहीं सकता, वह तो उदय अनुसार होता है।
PDF/HTML Page 1740 of 1906
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अंतरमें कैसे साधना करनी, आत्माको पहचानना, अन्दर-से भेदज्ञान करना, वह सब अपने हाथकी बात है। बाहरका कुछ अपने (हाथमें नहीं है)। उनको जो रुचि थी वह उनके साथ लेकर गये। बाकी आयुष्य कैसे पूर्ण हो, वह तो किसीके हाथकी बात नहीं है। आपके घरमें तो सबको पहले-से संस्कार है और उनको भी संस्कार थे। वे तो संस्कार लेकर गये। आयुष्य उसी प्रकार पूरा होनेवाला था, वैसे ही होता है।
मुमुक्षुः- ऐसी कोई आशातना की हो या दूसरा कुछ हुआ हो, इसलिये आखिरमें ऐसा होता है?
समाधानः- नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। वह तो पूर्वमें आयुष्यका बन्ध वैसे पडा होता है। आयुष्य अमुक प्रकार-से, अमुक जातका बँधा हो उस प्रकार-से आयुष्य पूरा होता है। कोई ऐेसे परिणाम-से आयुष्यका बँध पडा हो। छोटा आयुष्य, लंबा आयुष्य वह सब आयुष्यका बँध है, पूर्वका है। वर्तमानका कुछ नहीं होता।
ऐसा है कि कितनोंको सम्यग्दर्शन होता है। आयुष्यका बन्ध जुगलियाका आयुष्यका बन्ध पड गया हो तो जुगलियामें जाता है। इसलिये आयुष्यका बन्ध है उसको बदला नहीं जाता। ऐसा कहते हैं कि आयुष्यका बन्ध ऐसा पडा? उनको इतनी रुचि थी तो भी इस तरह देह छूटा? कहा, उसमें कोई वर्तमानका कारण नहीं है। वह तो पूर्वमें आयुष्यका बन्ध उस प्रकारका पडा होता है।
मुमुक्षुः- ....रास्तेमें हो गया। कोई संयोग नहीं मिले।
मुमुक्षुः- कोई सुनाये तो ही भाव रहता है?
समाधानः- कोई सुनाये तो ही भाव रह सके ऐसा नहीं है, स्वयं खुद रख सकता है। अन्दर याद आ जाय। जिसे रुचि हो उसे अंतरमें याद ही आ जाता है, वेदना आये इसलिये।
मुमुक्षुः- इतना प्रेम था...
समाधानः- सबको देखा था न, इसलिये अपनेको ऐसा लगे कि ये चुनिभाईके पुत्र है। ऐसा हो न। वहाँ प्राणभाईके घर आते-जाते थे, इसलिये देखा था। वहाँ जामनगर जाते थे तब इन सबको छोटे थे उस वक्त देखा था। सबको रुचि। चुनिभाईको उतनी रुचि थी, इसलिये सब लडकोंको भी (रुचि हुयी)।
मुमुक्षुः- बुद्धिवान थे। बराबर परख करे।
समाधानः- जन्म-से यह रुचि, क्योंकि चुनिभाईको रुचि थी इसलिये घरमें सबको वही रुचि।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- पूर्वका हो उस अनुसार। पूर्व उदयका कारण है। ऐसे ही कोई संयोग
PDF/HTML Page 1741 of 1906
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बँधे थे। जीवने अनन्त जन्म-मरण किये। उसमें कितने जातके कर्मबन्ध पडा होता है। किसीका कोई समयमें उदय आता है। अनेक जातके उदय आते हैं। अंतर आत्माकी रुचि रखनी वह एक अलग बात है और बाहरके उदय एक अलग बात है। दोनों वस्तु भिन्न-भिन्न हैं। अन्दर दुःख लगे, परन्तु समाधान किये बिना कोई उपाय नहीं है।
मुमुक्षुः- उनकी रुचि तो बहुत थी। कभी-कभी मेरे साथ बात करते थे। तब कहती थी, अचानक कुछ हो जायगा तो नटवर कैसे करेंगे? हमें कौन सुनायेगा? तो ऐसा कहते थे, ऐसी ढीली बातें क्यों करते हो? जागृति तो अपनी है न, ऐसी ढीली बातें नहीं करनी।
समाधानः- ऐसी बात करते थे?
मुमुक्षुः- हाँ, ऐसी बात करते थे। मैं कभी कहती थी..
समाधानः- स्वयंको अन्दर याद आ गया हो। अन्दर दबाव बढता है न, इसलिये याद आ जाय।
मुमुक्षुः- तत्त्व समझे, प्रमोदवाले थे।
समाधानः- कितने जन्म-मरण किये। कितनोंके साथ सम्बन्ध बाँधे, छोडे। मनुष्य जीवनमें आत्माका कर लेना। ऐसे प्रसंग देखकर वैराग्य उत्पन्न हो ऐसा है। कैसे प्रसंग बनते हैं। वैराग्य आये ऐसी बात है। सुनकर ऐसा हुआ, ये क्या अचानक हो गया?
मुमुक्षुः- मामाका पत्र आया..
समाधानः- अन्दर अपनी रुचि और संस्कार हो। आत्माकी पहचान कैसे हो, ऐसी गहरी रुचि हुयी हो, उतनी अंतरमें गहरी भावना हो, तो उसे भविष्यमें पुरुषार्थ उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। यदि अन्दरमें गहरी रुचि हो तो। शास्त्रमें आता है कि तत्प्रति प्रीति चित्तेन वार्तापि ही श्रुताः। भावि निर्वाण भाजनम, ऐसा आता है। प्रीति- से यदि इस तत्त्वकी बात सुनता है तो भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। प्रीति-से बात सुनता है उसका मतलब उसे अन्दर अपूर्वता लगे। गुरुदेव ऐसी बात बतायी, उसे अपूर्व रीते-से सुनकर जिसने ग्रहण की हो, उसे अंतरमें वर्तमानमें पुरुषार्थ न कर सके तो भी भविष्यमें उसका पुरुषार्थ चालू होता है। जिसने अंतरमें ऐसे संस्कार डाले हैं कि मुझे एक आत्मा ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक आत्मा तरफकी ही जिसे रुचि है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र और अन्दर आत्मा, उसकी जिसे रुचि है, उसे भविष्यमें पुरुषार्थ उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। सबको रुचि है। आयुष्यके आगे किसीका कुछ नहीं चलता। समाधान किये बिना कोई उपाय नहीं है। देव-गुरु-शास्त्रको हृदयमें रखकर आत्मा ज्ञायककी पहचान कैसे हो, वह करने जैसा है। चक्रवर्ती और राजा भी संसार छोडकर आत्माका शरण ग्रहण करते हैं। आत्माका शरण ही सच्चा है।
PDF/HTML Page 1742 of 1906
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चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।