Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 273.

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ट्रेक-२७३ (audio) (View topics)

समाधानः- गुरुदेव तो अनेक प्रकार-से सब स्पष्ट करके कहते थे। मुक्तिका मार्ग गुरुदेवने कोई अपूर्व रीत-से सबको समझाया है और उनकी वाणी अपूर्व थी। कितनों जीवोंको तैयार कर दिये हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेव-से लाभ हुआ तो फिर एकत्व हो गया।

समाधानः- गुरुदेव-से लाभ हुआ उसमें एकत्व नहीं होता है। एकत्व परिणति एकत्व दृष्टि हो तो होता है, ऐसे एकत्व नहीं होता है। भेदज्ञानपूर्वककी परिणति हो वहाँ एकत्व होता ही नहीं। एकत्वबुद्धि हो वहाँ एकत्व होता है। गुरुदेव-से लाभ हुआ ऐसा माने इसलिये उसकी एकत्व परिणति नहीं है। वह बोले ऐसा और वह कहे भी ऐसा कि गुरुदेव-से लाभ हुआ, गुरुदेव आप-से लाभ हुआ, आपने ही सब किया, आप-से ही सब प्राप्त किया है, ऐसा कहे।

मुमुक्षुः- शब्द एक ही हों, फिर भी दृष्टिमें फर्क होने-से अभिप्रायमें फर्क है।

समाधानः- दृष्टिमें फर्क होने-से पूरा फर्क है। एकत्वबुद्धि-से कहे और भेदज्ञान- से कहे उसमें फर्क है।

मुमुक्षुः- एकत्वबुद्धिवाले-से भी ज्यादा विनय करे।

समाधानः- हाँ, ज्यादा विनय करे, ज्यादा विनय करे।

मुमुक्षुः- भाषामें तो अनन्त तीर्थंकरों-से अधिक है, ऐसा कहे।

समाधानः- हाँ, आपने यहाँ जन्म नहीं धारण किया होता तो हम जैसोंका क्या होता? ऐसा कहे। ज्यादा विनय करे। क्योंकि अंतरमें स्वयंको जो स्वभाव प्रगट हुआ है, उस स्वभावकी उसे इतनी महिमा है कि जो स्वभाव जिसने प्रगट किया और समझाया, उस पर उसे महिमा आती है। अंतरमें जो शुभभाव वर्तता है, उसके साथ भेदज्ञान वर्तता है और शुभ भावनामें जो आता है, उसमें उसे उछाला आता है कि मेरी परिणति प्रगट करनेमें गुरुदेवने ऐसा उपदेश देकर जो गुरुदेव मौजूद थे, उन पर उसे उछाला आता है। अतः दूसरे-से ज्यादा उत्साह आकर भक्ति आती है। उसका ऐसा दिखे कि दूसरे-से कितनी (भक्ति है)। बाहर-से ऐसा लगे मानों एकत्वबुद्धि-से करता हो ऐसा दिखे। परन्तु शुभभावनामें उसे भेदज्ञान वर्तता है, उस शुभभावों-से और शुभभावमें जो


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उसे उछाला आता है, वह अलग प्रकारका आता है।

मुमुक्षुः- कितना विचित्र लगे। अन्दर उसी भाव-से भेदज्ञान करता है।

समाधानः- अन्दर उसी भाव-से भेदज्ञान है और उस भावमें उछाला ऐसा है कि मानों गुरुदेवने ही सब कर दिया, ऐसा बोले। और ऐसी भावना उसे होती है। जूठ नहीं बोलते हैं, भाव आता है। उसके साथ भेदज्ञान है और उछाला ऐसा आता है।

मुमुक्षुः- दोनों एकसाथ है।

समाधानः- दोनों एकसाथ है। भिन्नता होने पर भी उछाला ऐसा आता है, मानों दूसरे-से उसकी भक्ति ज्यादा हो। इसलिये शास्त्रोंमें आता है न कि उस शुभभावनामें उसकी स्थिति कम पडती है, रस ज्यादा होता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीको सब मंजूरी दी गयी है। अज्ञानी वही शब्द बोले तो कहे तेरी एकताबुद्धि है।

मुमुक्षुः- मुफ्त है? भेदज्ञान चलता है।

मुमुक्षुः- फावाभाई कहते थे कि आप सम्यग्दृष्टिका पक्ष करते हो।

समाधानः- एकत्वबुद्धि है उसे कहते हैं।

मुमुक्षुः- भक्ति और भेदज्ञान दोनोंका मेल होता है, ऐसा है?

समाधानः- हाँ, दोनोंका मेल है। भेदज्ञानके साथ भक्तिका मेल है। और स्वभावकी महिमा जहाँ आयी है, स्वभावकी परिणति (हुयी है), शाश्वत आत्मा, उसकी स्वानुभूति, उसकी महिमा आयी। वह पूरा अन्दर स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये बाहर जो शुभभावना आये, उस भावमें उसके सामने जो जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र, जो साधक और पूर्ण हो गये, उन पर (भाव आता है कि) अहो! ऐसी पूर्णता, ऐसी साधक दशाको देखकर उसे एकदम उल्लास और उछाला आता है। और जिन्होंने उपदेश दिया और उपकार किया, उन पर एकदम उछाला आता है। भेदज्ञान और भक्ति दोनों साथमें होते हैं।

मुमुक्षुः- दो विषय कहे-एक तो पूर्णता देखी और एक तो जिन्होंने उपकार किया। उन दोनों पर उछाला आता है।

समाधानः- दोनों पर उछाला आता है। साधक दशा, उपकार किया, उपदेश दिया और पूर्णता, उन सब पर। और शास्त्र जो सब दर्शाते हैं, उन सब पर उछाला आता है। जितने साधकके और पूर्णताके बाहर जितने साधन हो, उन सब पर उसे उल्लास आता है। फिर भी उसी क्षण भेदज्ञान वर्तता है। दोनों परिणति भिन्न-भिन्न काम करती है। ज्ञायककी और शुभभाव दोनों परिणति।

मुमुक्षुः- पहले प्रश्नके जवाबमें आपने ऐसा कहा कि पर्याय बीचमें आती है।


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बीचमें आती है उसका अर्थ क्या? प्रगट पर्यायको ज्ञानमें जानता है और उस पर- से ज्ञायकको ग्रहण करता है, ऐसा आपको कहना है? पर्याय बीचमें आती है माने क्या?

समाधानः- बीचमें पर्याय द्रव्यको ग्रहण करती है। द्रव्यको ग्रहण करनेमें पर्याय साथमें होती है। सीधा द्रव्य ग्रहण नहीं होता। ग्रहण करनेमें पर्याय साथमें होती है।

मुमुक्षुः- द्रव्यको ग्रहण करनेमें पर्याय साथमें होती है।

समाधानः- पर्याय साथमें होती है।

मुमुक्षुः- और पर्याय ग्रहण करती है।

समाधानः- हाँ, पर्याय द्रव्यको ग्रहण करती है। द्रव्यको ग्रहण करे अर्थात वह सम्यक पर्याय प्रगट हुयी। पर्याय होती है। तो ही उसने द्रव्यको ग्रहण किया कहा जाय। यदि उसे सम्यक पर्याय प्रगट हो तो।

अनादि-से द्रव्य तो है, परन्तु उसने ग्रहण नहीं किया है। स्वयं उस रूप प्रगटरूप- से परिणमा नहीं है। द्रव्य तो अनादि-से स्वभावरूप है, परन्तु उसने उस रूप परिणति प्रगट नहीं की है। इसलिये पर्याय उसे ग्रहण करती है और पर्याय उस रूप प्रगटरूप- से परिणमती है। इसलिये पर्याय साथमें होती है। पर्याय उसके साथ प्रगट होती है, सम्यक रूप-से।

मुमुक्षुः- पर्याय सम्यक रूप-से साथमें प्रगट होती है, इसलिये पर्याय बीचमें होती है।

समाधानः- पर्याय बीचमें होती है।

समाधानः- .. प्रत्येक विजयमें तीर्थंकर भगवान विराजते हैं, अच्छे कालमें। वर्तमानमें वीस विहरमान भगवान विराजते हैं। जब चारों ओर तीर्थंकर होते हैं, जितने विजय है, विदेहक्षेत्रके ३२ विजय हैं। सबमें एक-एक विजयमें तीर्थंकर भगवान विराजते हैं। उतने तीर्थंकर विराजते हैं।

मुमुक्षुः- ... लाखों, उसकी संख्याका तो पार नहीं है।

समाधानः- वह तो संख्यातीत है। अच्छे कालमें तो केवलज्ञानीका समूह, मुनिओंका समूह (होता है)। वर्तमानमें महाविदेह क्षेत्रमें भगवान विराजते हैं। केवलज्ञानीका समूह, मुनिओंका समूह, सब समूह है। विदेहक्षेत्रमें तो चतुर्थ काल वर्तता है। श्रावक, श्राविकाएँ, सम्यग्दृष्टि अनेक होते हैं। यहाँ तो भावलिंगी मुनि दिखना मुश्किल है। सम्यग्दृष्टिकी भी दुर्लभता है। इस भरतक्षेत्रमें तो ऐसा पंचमकालमें हो गया है।

मुमुक्षुः- ऐरावतमें भी लगभग ऐसा ही होगा?

समाधानः- ऐरावतमें भी ऐसा ही है। जैसा भरतमें, वैसा ऐरावतमें। दोनों आमनेसामने है। सदा चतुर्थ काल, मोक्ष और केवलज्ञान सदा रहता है। भावलिंगी मुनि, सब ज्ञान चतुर्थ कालमें महाविदेह क्षेत्रमें सब है। वहाँ कितना है और यहाँ उसमें-से कुछ भी


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नहीं है, थोडा रहा है। ऐसा है।

मुमुक्षुः- कल्पना करनी भी मुश्किल पडे ऐसा हो गया है।

समाधानः- हाँ, थोडा रहा है। ये तो गुरुदेवके प्रताप-से इतना प्रचार हो गया। और सबको ऐसा हो गया कि अंतरमें कुछ अलग करना है, ऐसी सबकी दृष्टि हुयी कि करना अंतरमें है। चारों ओर हिन्दुस्तानमें इतना प्रचार हो गया। नहीं तो एकदम (क्षीण) हो गया था। बाह्य क्रियामें धर्म मनाते थे। ...

समाधानः- .. प्रयत्न और भावना तो रहते ही हैं, अंतरमें जबतक नहीं हो तबतक।

मुमुक्षुः- बहुत बार विचार आता है कि गहरी जिज्ञासा, आप कहते हो, गहरी जिज्ञासा चाहिये। तो गहरी जिज्ञासा किस प्रकारकी होगी? वैसी गहरी जिज्ञासा अपनेमें क्यों प्रगट नहीं होती है?

समाधानः- (उसके बिना) उसे चैन पडे नहीं। अंतरमें उसकी परिणति वहाँ जाकर ही छूटकारा हो, ऐसी अंतरमें-से उग्र परिणति प्रगट हो तो हो।

मुमुक्षुः- वह निरंतर अखण्ड रहनी चाहिये।

समाधानः- निरंतर अखण्ड रहे तो प्रगट होता है। एक अंतर्मुहूर्तमें किसीको प्रगट हो वह बात अलग है। बाकी अभ्यास करते-करते बहुभाग होता है।

मुमुक्षुः- जितनी गहराईमें जाये, उसका गहरा भाव ग्रहण होकर परिणमन हो जाना चाहिये, उसमें अभी बहुत देर लगती है।

समाधानः- जितनी अन्दर भावना हो उस अनुसार उसका पुरुषार्थ (चलता है)। और वह सहजरूप-से अन्दर हो जाय तो उसे हुए बिना रहे नहीं। जैसे दूसरा सब सहज हो गया है, वैसे अपनी तरफका पुरुषार्थ भी उसे सहज एकदम उग्ररूप-से हो तो हो। बार-बार उसे छूट जाय और करना पडे, उसके बजाय उसे सहज उस तरफकी उग्रता, भावना, उस ओर तीखा पुरुषार्थ रहा ही करे तो होता है।

दूसरा सब सहज अभ्यास जैसा हो गया है, विभावका तो। वैसे यह उसे सहज (हो जाना चाहिये)। मैं ज्ञान-ज्ञायकमूर्ति हूँ, वैसा सहज अंतरमें-से उस जातकी परिणति बन जाय, भले अभ्यासरूप हो, तो उसे अंतरमें आगे बढनेका कुछ हो सकता है।

मुमुक्षुः- वेदन ऐसा होना चाहिये कि जिससे वह प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे।

समाधानः-हाँ, चैन न पडे, ऐसा वेदन उसे अन्दर-से आना चाहिये। अपना स्वभाव ग्रहण करे, परन्तु वह मन्द-मन्द नहीं होकरके ऐसा वेदन अन्दर-से प्रगट हो कि वह प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे। ऐसा हो तो उसे अन्दर-से उग्र आलम्बन और उग्र परिणति अपनी तरफ जाय तो वह प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। आकुलतारूप नहीं,


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परन्तु उसे अन्दर-से वेदन ही ऐसा होता है कि परिणति बाहर टिकनेके बजाय, एकत्वबुद्धि टूटकर अंतरमें ज्ञायक परिणति हो, ऐसी उग्रता होनी चाहिये। फिर विशेष लीनताकी बात बादमें रहती है। परन्तु ये ज्ञायककी परिणति उसे भिन्न होकर एकदम परिणमनरूप हो, ऐसा उग्र वेदन उसे अन्दर-से आना चाहिये।

मुमुक्षुः- उतना हो तो भी बहुत है। उतना हो। फिर आगे चारित्रकी एकाग्रता अलग बात है।

समाधानः- उसका अंतरमें बार-बार अभ्यास करता रहे। वह उग्र कैसे हो, ऐसी भावना करते-करते उग्र हो तो काम आये। परन्तु अभ्यास करनेमें थकना नहीं। अभ्यास तो करते ही रहना। उसे छोडना नहीं। उसकी सन्मुखता तरफका प्रयत्न छोडना नहीं।

मुमुक्षुः- सन्मुखतामें थोडा ख्याल आये, माताजी! फिर तो छूटे नहीं। परन्तु मूलमें जो भावभानसरूप-से ज्ञायक लक्ष्यमें आना चाहिये, वह कोई बार आये, फिर तो कितने ही समय तक ऐसा लगे कि ये तो जो ख्याल आता था वह भी नहीं आता है, ऐसा भी हो जाता है। वह ग्रहण होकर टिका रहे तो-तो उल्लास बढे, सब हो और आगे बढना हो। परन्तु ऐसी परिस्थिति कभी-कभी हो जाती है कि कभी दो-चार- छः महिनेमें थोडा ख्याल आया...

समाधानः- फिर-से स्थूल हो जाता है न, इसलिये बाहर स्थूलतामें चला जाता है। इसलिये उसे सूक्ष्मता होनेमें देर लगती है। ऐसा हो जाय। वैसा उसे अंतरमें-से फिर-से लगनी लगे तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- सत्पुरुषोंको धन्य है कि उन्होंने ऐसी परिणतिको धारावाही टिकाकर अपना कार्य कर लिया।

समाधानः- .. वह अंतरमें-से आगे जाता है। धारावाही परिणति तो बादमें होती है, परन्तु ये उसका अभ्यास।

मुुमुक्षुः- अभ्यासमें धारावाही। समाधानः- धारावाही। खण्ड पड जाय और स्थूल हो जाय, इसलिये फिर-से सूक्ष्म होनेमें और ज्ञायकको ग्रहण करनेमें देर लगती है। ऐसे बार-बार चलता है। परन्तु ऐसे ही बारंबार ऐसा उग्र अभ्यास करे तो उसे हो।

मुमुक्षुः- परिणति संयोगाधीन हो जाती है। मुमुक्षुः- .. श्रद्धागुण और ज्ञानगुण दोनोंका साथमें होना वह श्रद्धा है? वह पक्का निर्णय?

समाधानः- प्रतीतकी श्रद्धा भी कहते हैं और ज्ञानमें दृढता, दोनों कहते हैं। विचार करके निर्णय करे। ज्ञानकी दृढता और श्रद्धाकी दृढता, दोनों। दोनों कहनेमें आता है।


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पक्का निर्णय, लेकिन अन्दर विचार-से निर्णय करे वह अलग है। अन्दर स्वभाव परिणतिमें- से निर्णय आवे वह अलग है। ये तो विकल्पात्मक निर्णय है। धारणा अर्थात रटा हुआ, स्मरणमें रखा हुआ, गुरुदेवके उपदेश-से ग्रहण किया हुआ, विचार-से नक्की करे कि बराबर ऐसा ही है, वह पक्का निर्णय। वह निर्णय ज्ञान-से भी होता है और प्रतीतमें भी होता है।

मुमुक्षुः- फिर तो अनुभूति हो तभी पक्का निर्णय कहा जायेगा न?

समाधानः- अनुभूति हो तब कहा जाय। परन्तु अनुभूति होने पूर्व उसे यथार्थ कारण प्रगट हो तब भी निर्णय होता है। परन्तु ये तो अभी विकल्पात्मक, पहलेका निर्णय है वह स्थूल है। उसके बाद जो अनुभूतिपूर्वकका निर्णय होता है वह यथार्थ है।

मुमुक्षुः- और जिनवाणीमें सबमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों गुणकी मुख्यता- से ज्ञायकको कैसे प्राप्त करना वह आता है, तो ज्ञायकमें अनन्त गुण है, जीवमें तो अनन्त गुण है तो फिर ये तीन गुण ही विभाव परिणतियुक्त हैं? कि उनकी शुद्धता- से ज्ञायककी प्राप्ति होती है?

समाधानः- अनन्त गुण विभावरूप नहीं परिणमे हैं। साधक दशामें तीन आते हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र। दर्शन यथार्थ होता है तो ज्ञान भी यथार्थ होता है। फिर चारित्र बाकी रहता है। फिर लीनता होती है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन हो तो सब शुद्ध होता है। अनन्त गुण सब अशुद्ध नहीं हुए हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी.... एक सम्यग्दर्शन होता है तो सर्व गुणोंकी परिणति सम्यकरूप हो जाती है। एक चक्र फिरे, दिशा पर तरफ है, स्व तरफ आये तो पूरा चक्र स्व तरफ होता है।

मुमुक्षुः- थोडा कठिन लगता है।

समाधानः- न हो तबतक... छोड देनेसे (क्या होगा)? रुचि करते रहना, भावना करते रहना, करना तो एक ही है-आत्माको ग्रहण करना वही है।

मुमुक्षुः- मुनिराजको तीन कषायकी चौकडी (गयी है), उतनी शुद्धता होती है और थोडी अशुद्धता होती है, तो चारित्रगुणकी एक पर्यायमें शुद्धता-अशुद्धता दोनों साथमें रहती है?

समाधानः- दोनों साथ रहते हैं। उसके अमुक अंश शुद्ध होते हैं और थोडी अशुद्धता है। मुनिराजको वीतराग दशा नहीं हुयी है, इसलिये थोडा संज्वलनका कषाय है। चारित्र बहुत प्रगट हुआ है। थोडी अशुद्धता रहती है।

मुमुक्षुः- और वह शुद्धिकी वृद्धि शुद्धोपयोग होता जाय तभी होती है?

समाधानः- हाँ, शुद्धोपयोग (होने-से) अन्दर शुद्धिकी परिणति होती जाती है। विरक्त दशा, अंतर-से विशेष-विशेष अंतरमें लीनता होती जाती है, लीनता बढती जाती


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है। इसलिये आगे जाते हैं।

मुमुक्षुः- ज्ञान सो आत्मा। भेद पडा इसलिये ११वीं गाथा अनुसार सदभुत व्यवहारनय हुआ, अभूतार्थ यानी परद्रव्य जैसा हुआ, तो ज्ञानकी पर्याय पूरा आत्मा स्वद्रव्य ज्ञात होता है? अनुभूति होती है?

समाधानः- गुण-गुणीका भेद पडता है इसलिये सदभुत व्यवहार है। अभूतार्थ यानी उसमें आप जैसे कहते हो वह नयका स्वरूप है, ऐसा नहीं है। द्रव्यदृष्टि-से पर कहनेमें आता है। वह पर्याय अपनी ही है। उसे द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से भेद आत्मामें नहीं है, आत्मा तो अखण्ड है। अखण्ड वस्तु है। उसमें भेद करना, पूर्ण और अपूर्णका भेद पडे उस अपेक्षा-से उसे पर कहनेमें आता है। वास्तविक रूप-से वह जड है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। वह जड नहीं है, चैतन्यकी पर्याय है।

मुमुक्षुः- अपनी?

समाधानः- है अपनी पर्याय, परन्तु उसमें भेद पडता है इसलिये द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा- से उसे पर कहनेमें आता है। वह आपने क्या कहा अभूतार्थ? ... बाकी उस अशुद्ध पर्यायको कोई अपेक्षा-से अपनी कहनेमें आती है। इसलिये उसे असदभुत व्यवहार कहनेमें आता है। व्यवहारके बहुत भंग है।

... कोई अपेक्षा-से अपनी कहनेमें आती है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से उसे पर कहनेमें आता है और भेद पडे, अपनी पर्याय है इसलिये अपनी कहनेमें आती है।

मुमुक्षुः- और जिस समय अनुभूति हो, उस वक्त तो पर्याय रहित द्रव्य ज्ञायक, एकरूप ज्ञायक ही...

समाधानः- पर्याय रहित द्रव्य नहीं हो जाता। मुमुक्षुः- नहीं, वर्तमान पर्याय तो बाहर रह जाती है न? समाधानः- पलट जाती है। अशुद्ध पर्याय पलटकर शुद्ध पर्याय होती है। द्रव्य पर दृष्टि देने-से शुद्ध परिणति प्रगट होती है। पर्याय रहित द्रव्य नहीं हो जाता, पर्यायकी शुद्ध परिणति होती है। ... परन्तु ज्ञानमें सब ध्यान रखना। पर्याय रहित कोई द्रव्य होता नहीं। परन्तु उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसका भेद पडता है, उसे लक्ष्यमें लेने- से विकल्प आता है। इसलिये उसे लक्ष्यमें नहीं लिया जाता। परन्तु उसकी परिणति तो होती है। उसकी स्वानुभूति प्रगट होती है, वही पर्याय है। परिणति तो होती है। द्रव्य स्वयं पर्यायरूप परिणमता है, परन्तु उस पर लक्ष्य नहीं रखना है। पर्याय उसमें- से निकल नहीं जाती, पर्याय परिणमती है। द्रव्यकी दृष्टि प्रगट करनी है। बाकी ज्ञानमें तो पर्याय है, ऐसा रखना है और वह परिणति द्रव्यकी ही होती है, स्वानुभूतिमें।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!