Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 274.

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ट्रेक-२७४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- कषायकी कालिमा है, ज्ञानमें नहीं है। ज्ञानमें कालिमा नहीं है?

समाधानः- ज्ञानमें कालिमा नहीं है, विभावकी जो परिणति राग-द्वेषवाली होती है, वैसी राग-द्वेषकी परिणति ज्ञानमें नहीं है। ज्ञानमें जाननेका दोष होता है। ज्ञानमें जाननेका दोष है। जो स्वरूप हो उससे अन्यथा जाने, विपरीतपने जाने। श्रद्धाके कारण ज्ञानमें दोष आता है। श्रद्धा अलग है और ज्ञान भी अलग है। उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं।

मुमुक्षुः- चारित्रगुण जैसे विपरीतपने परिणमता है,...

समाधानः- विपरीतपने परिणमे ऐसा विपरीत नहीं है। परन्तु उसे श्रद्धाकी विपरीतता है। जाननेमें विपरीतता है। कषायकी कालिमा है ऐसा नहीं है। इसलिये विपरीत-विपरीतमें फर्क है। इसकी विपरीतता जाननेकी है और उसमें रागकी परिणतिकी है। कषायकी कालिमा मलिन है और उस जातका मलिन ज्ञानको कहनेमें आये, जाननेकी अपेक्षा- से। दोनोंकी परिणति अलग है। रागकी परिणति अलग और श्रद्धा और ज्ञानकी परिणति अलग प्रकार-से काम करती है। है वह भी विपरीत है। श्रद्धा मिथ्या है इसलिये ज्ञान भी मिथ्या है।

मुमुक्षुः- आपने ऐसा कहा था कि आत्माको नहीं जानता है, वह उसका- ज्ञानका दोष है। परन्तु जैसे चारित्रमें कषायकी कालिमा है, वैसी कालिमा इसमें नहीं है।

समाधानः- जाननेका दोष है। वैसी कालिमा नहीं है, जाननेका दोष है। मुुमुक्षुः- .. ज्ञान है वह भी एक प्रकार-से स्वभावका अंश कहलाता है न? समाधानः- स्वभावका अंश अर्थात इन्द्रियज्ञान स्वको नहीं जानता है इसलिये पर तरफ जाता है, परन्तु वह स्वभाव छोडकर कहीं बाहर तो जाता नहीं। वह तो मानता है कि मैं बाहर चला गया। स्वभाव छोडकर कहीं बाहर नहीं जाता है। परन्तु मान्यता ऐसी है कि मानों अपना ज्ञान बाहर चला जाता है और बाहर-से ज्ञान आता है, ऐसा मानता है। स्वभावको छोडकर तो कहीं नहीं जाता।

... पडे ही हैं। भले निगोदमें हो। स्वभावका अंश तो है, उसका कहीं नाश नहीं होता। स्वभावका अंश हो, वह ज्ञानपने स्वयं जानता है कहाँ? मानों बाहर- से ज्ञान आता है और मानों मैं बाहर जाता हूँ। मान्यता जूठी है।


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मुमुक्षुः- मान्यताकी भूल-से ज्ञानमें भूल होती है।

समाधानः- हाँ, मान्यताकी भूल-से ज्ञानमें भूल होती है। बाकी स्वयं तो जाननेवाला ज्ञायकस्वभावी है। जाननेवाला तो जाननेवाला है, परन्तु उसकी मान्यताकी भूल होती है। जूठ मानता है। ज्ञानका जाननेका जूठा हो रहा है, मानों परमें-से ज्ञान आता है और स्वयं मानों बाहर जा रहा है। मैं स्वयं ज्ञायकरूप हूँ, ऐसा ज्ञान नहीं है। मैं स्वभावरूप-ज्ञानस्वभावरूप ही हूँ। स्वभावरूप है सही, लेकिन स्वभावरूप ही हूँ, ऐसा ज्ञान नहीं है।

मुमुक्षुः- अज्ञानीको जो इन्द्रियज्ञान है और ज्ञानीका इन्द्रियज्ञान, ये दोनों इन्द्रिय ज्ञानमें कुछ फर्क है?

समाधानः- ज्ञानीको यथार्थ ज्ञान है। इसलिये उसे ज्ञान भेदज्ञानपूर्वकका ज्ञान होता है, एकत्व नहीं होता। उसे जाननेकी अपेक्षा-से, बाहरका जाने उस जाननेकी अपेक्षा- से समान है, परन्तु इसकी दिशा अलग है, उसकी दिशा अलग है। ज्ञानी अलग दिशामें रहकर जानता है। उसकी दिशा स्व तरफकी है, स्वकी दिशामें रहकर, स्वको रखकर पर तरफ जाता है, परन्तु स्वको छोडता नहीं है। उसकी दिशा अलग और इसकी दिशा अलग है। (अज्ञानी) मानों बाहर चला गया इस तरह जानता है। बाहरका जानना कि ये किवाड है या ये है, वो है, जाननेकी अपेक्षा-से सरीखा है, परन्तु उसकी दिशा अलग है। अलग दिशामें खडा रहकर जानता है। और वह अलग दिशामें खडा रहकर जानता है (अर्थात) एकत्व करके जानता है। (ज्ञानी) भिन्न रहकर जानता है। उसकी दिशा पूरी अलग है। देखने-देखनमें अंतर है।

इसीलिये कहते हैं, ज्ञानकी परिणति सब ज्ञानरूपी ही परिणमती है। उसकी दिशा ही अलग है। ज्ञायक रहकर ही (जानता है), एकत्व नहीं होता है, भिन्न ज्ञायक रहकर जानता है। स्वयं स्व तरफ परिणति रखकर पर तरफ जो उपयोग जाता है, वह भिन्न रहकर जानता है। जाननेकी पूरी दिशा अलग है। इसलिये इसका जाना हुआ ज्ञान कहलाता है, उसका जानना अज्ञान कहलाता है। स्वको जानता नहीं है, एकत्व करके जानता है।

स्वयं भिन्न रहकर (जानता है)। इन्द्रियों-से मुझे लाभ होता है, उसके आश्रय- से मैं जानता हूँ, ऐसी उसकी श्रद्धा है। भिन्न रहकर जानता है। स्वयं अपने स्वतः परिणमनको भिन्न रखता है। इस तरह जानता है।

मुमुक्षुः- जाननेकी अपेक्षा-से दोनों इन्द्रियज्ञान सरीखा?

समाधानः- जाननेकी अपेक्षा-से। परन्तु उसकी परिणति पूरी अलग दिशामें है।

मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय ज्ञानकी परिणति प्रगट हो गयी है।

समाधानः- प्रगट हुयी है, उस पूर्वक (जानता है)। अभी अधूरा है इसलिये


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वह बाहर जाता है। अतः उतना उसे जाननेमें आश्रय आता है। इन्द्रियोंका, मनका आश्रय आता है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट हो गया है, उस रूप परिणति है। परन्तु अभी अधूरा है, इसलिये उतना बाहर जाता है। (अज्ञानीको) मात्र इन्द्रिय तरफका ज्ञान है, स्वका ज्ञान ही नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीका इन्द्रिय ज्ञान वृद्धिगत होता हुआ दिखता है। जबकि अज्ञानीका इन्द्रिय ज्ञान वृद्धिगत हो रहा हो ऐसा दिखाई नहीं देता, सामान्यतः।

समाधानः- इन्द्रिय ज्ञानका क्या प्रयोजन है? वृद्धिगत या नहीं वृद्धिगत। इसे अतीन्द्रिय ज्ञानकी परिणति बढे वही वास्तविक वृद्धि है। साधनाकी वृद्धिमें वही वृद्धि है। बाहरका वृद्धिगत दिखाई दे वह सब तो बाहर-से देखना है। उसकी वृद्धि हो उसका कोई अर्थ नहीं है। अन्दर अतीन्द्रियका परिणमन, ज्ञायककी परिणति बढती जाय, स्वानुभूति भेदज्ञानकी धारा अंतर-से जो परिणति बढती जाय, वही वास्तविक वृद्धि है। बाहरकी वृद्धि वृद्धि नहीं है।

बाहर-से बढता दिखाई दे और नहीं दिखाई दे, वह कोई देखनेकी दृष्टि नहीं है। वह कोई परीक्षा ही नहीं है। बाहर-से इतना सुना या इतना पढा, या इतनी धारणा की, ऐसा सब बाहर-से देखना, वह कहीं परीक्षा नहीं है, वृद्धि दिखाई दे वह। वैसे तो उसे वृद्धि दिखे, इसको नहीं भी दिखे। बाहर-से तो ऐसा दिखे। परन्तु अंतरकी परिणति बढे वही वास्तविक वृद्धि है।

बाहर-से किसीको इन्द्रियाँ कमजोर पड गयी हो तो बाहर-से दिखाई न दे। अतः बाहरकी वृद्धि वृद्धि नहीं है। अंतरकी परिणतिकी वृद्धि हो, वही वास्तविक वृद्धि है। देखना, सुनना, बोलना वह सब तो बाह्य आश्रय है। एक मन काम करे वह अलग बात है। मन-से आत्मा भिन्न है।

मुमुक्षुः- इन्द्रिय ज्ञान बढे उसमें कुछ महत्ता नहीं है, महत्ता गिननी भी नहीं।

समाधानः- उसमें कुछ महत्ता नहीं है। उसमें महत्ता गिनना भी नहीं। उसमें महत्ता नहीं है। वह परीक्षाका टोटल भी नहीं है। अंतरकी परिणति क्या काम करती है, यह देखना है। अंतर श्रद्धा-ज्ञान, लीनता वह सब परिणति क्या कार्य करती है, यह देखना है।

मुमुक्षुः- लोगोंको बाहरकी विस्मयता लगती है, धर्मात्माको अंतरकी विस्मयता होता है।

समाधानः- हाँ। अंतरमें ही वास्तविक परिणति है। मुक्तिका पूरा मार्ग अंतरमें है। अनादि काल-से बाहर देखनेकी दृष्टि है इसलिये बाहर देखता है। बाहरकी विस्मयता वह सच्ची नहीं है, वह परीक्षा भी नहीं है। फिर जिसे भक्ति हो, वह गुरुदेव प्रति


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(भक्ति करता है)। गुरुदेवकी अंतरंग दशा (देखकर कहे), उनका बाहरका भी ऐसा और अंतर (भी अलौकिक) ऐसा भक्तिभाव-से (कहे)।

भगवान समवसरणमें बैठे हो (तो कहता है), प्रभु! आपकी अंतरमें भी ऐसी परिणति और आपकी बाह्य शोभा भी अदभुत और सबकुछ अदभुत! भक्तिमें सब आवे। सब भक्तिमें आवे। परन्तु अंतरंग देखनेकी दृष्टि अंतरमें है। भक्तिभावमें सब आवे।

मुमुक्षुः- भक्तिमें तो वाणीकी महिमा भी करे, शरीरकी करे।

समाधानः- हाँ, शरीरकी करे, सब करे। गुरुदेवका प्रभावना योग कैसा, गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य, आपकी मुद्रा कैसी, आपकी वाणी कैसी, वह सब भक्ति है। अंतरकी दशा अमुक देहातीत दशा दिखती हो, वह सब अमुक परीक्षा करके कहे वह अलग बात है। ... गुरुदेव, भगवान, मुनिश्वर अंतरमें क्षण-क्षणमें लीन होते हैं, जगत-से अलग दिखे, गुरुदेव जगत-से अलग दिखते थे। ऐसी परीक्षा करे वह अलग बात है।

मुमुक्षुः- कहनेमें आता है कि तू ज्ञानलक्षणको खोज। तो खोजनेके लिये उसके पास तो वर्तमानमें इन्द्रिय ज्ञान ही है। तो उसमें-से ही खोज ले न।

समाधानः- उसे दृष्टि अंतरमें करनी पडती है। इन्द्रिय ज्ञान भले हो, परन्तु स्वयं है न? अपना नाश तो हुआ नहीं है। इन्द्रिय ज्ञान हो तो वह ज्ञान कहीं उसमें घूस तो गया नहीं है। वह तो उस तरफ उसने मान्यता की है। उसमें परमें अपना घूस नहीं गया है। स्वयंका अस्तित्व कहीं नाश नहीं हुआ है। उसमें-से खोज ले, अर्थात तू स्वयं ही है। तेरी परिणतिको अंतर झुकाकर तू कौन है, यह खोज ले। उसमें बीचमें मन, इन्द्रियाँ सब आता है, उसे गौण करके तेरे ज्ञानको मुख्य करके तू ज्ञानलक्षण- से पूरे ज्ञायकको पहिचान ले।

उसे तू साथमें रख उसका मतलब इससे ज्ञात हुआ, इससे ज्ञात हुआ, ऐसी दृष्टि क्यों करता है? मुझे मेरे ज्ञान-से जानना होता है और ज्ञानलक्षण-से अन्दर देखनेका है। इसलिये उससे देखा वह तो साथमें आता है। इसलिये ऐसा कहनेमें आये कि इन्द्रिय ज्ञान-से जाना। परन्तु तू अंतर दृष्टि कर, तू स्वयं ही है, तू कहीं खो नहीं गया है। दूसरा साधन अर्थात स्वयं ही है, स्वयं ही अपना साधन है। अपना कहीं नाश नहीं हुआ है।

मुमुक्षुः- अपनी सत्ताका ही स्वीकार नहीं करता है। मूलमें ही तकलीफ है।

समाधानः- इससे देखना है न, इससे देखना है न। परन्तु तू स्वयं तेरे-से ही देख रहा है, वह तू देखता नहीं है। और इससे देखना है, इस आँख-से देखना रहा, मन-से देखना रहा, परन्तु तू स्वयं ही है। वह तुझे कहाँ ज्ञान करवाते हैं? तेरे ज्ञान- से, तेरे क्षयोपशम ज्ञान-से सब ज्ञात होता है। तू तेरे ज्ञानको तेरी ओर मोड तो तू


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स्वयं ही तुझे ज्ञात होगा। इससे जानना होता है, उससे जानना होता है, पर्याय-से जानना होता है, पर्याय-से जानना होता है, ऐसे क्यों लक्ष्य करना? तेरा ही अस्तित्व है और तू स्वयंको खोज ले।

ज्ञानलक्षण-से ज्ञायकको खोज ले। उसमें बाह्य आलम्बनके सब साधन गौण हो जाते हैं। साथमेंं हो तो तुझको स्वयंको मुख्य कर ले, उसको गौण कर दे, वह तेरे हाथकी बात है। किससे खोजूँ? पहले तो बाह्य आलम्बन होता है, निरालम्बन तो होता नहीं, कहाँ-से लाऊँ? परन्तु तू निरालम्बन है उसका नाश ही नहीं हुआ है। तू उसे मुख्य करके उस तरफ जा तो तू स्वयं ही है। ऐसी सब बातें करता है, तेरी मन्दताकी सब बातें हैं। तू पुरुषार्थ कर तो तू स्वयं ही है। तू तुझे मुख्य कर ले कि मैं ज्ञायक ही हूँ। मैं जाननवाला स्वयं ही हूँ। मेरा नाश नहीं हुआ है। तो ज्ञानलक्षणको मुख्य करके तू ज्ञायकको पहिचान ले। वह सब आलम्बन तो गौण हो जाते हैं। तू तेरा आलम्नब ले ले।

वह जब भी कर, उसे गौण तो करना ही है और वह तुझे ही करना है। वह पहले-से तो हुआ नहीं होता अनादिका। जब होता है तब तुझे ही गौण करना है और तुझे ही मुख्य होना है, इसलिये तू ही उसे मुख्य करके उसके आलम्बनको गौण करके और ढीला करके, तू मुख्य होकर अपने आपको खोज ले। जब भी कर, तुझे ही करना है। उसका आलम्बन पहले इससे करना पडेगा, उससे करना पडेगा, ऐसा क्यों? तू स्वयं ही है। उससे कहाँ करना है, जब कर तुझ-से ही करना है। ज्ञानलक्षणको तुझको स्वयंको ही मुख्य करना है। तू उसे मुख्य करके तू तेरे ज्ञायकको पहचान ले। आलम्बनको मुख्य क्यों करता है? आलम्बन आया तो निराल्मबन कैसे हुआ जाय? आलम्बनको गौण कर दे, तू स्वयं ही मुख्य है। वह कहाँ मुख्य थे। वह कहाँ जानते हैंं। जाननेवाला तो तू है। वह तो बीचमें आते हैं।

मन भी कहाँ जानता है और नेत्र भी कहाँ जानते हैं और कहाँ कौन जानता है? जाननेवाला तू और उसे तू बडा करके कहता है, उसके आलम्बन बिना ज्ञात नहीं होता। तू स्वयं ही जाननेवाला है, अपनी ओर मुड जा। बाहर जा रहा है उसके बदले तू तेरे द्रव्यको ज्ञानलक्षण-से खोज ले। तू स्वयं ही है।

मुमुक्षुः- स्वयंको ही खोजना है और स्वयं हाजिर ही है।

समाधानः- स्वयं हाजिर है और स्वयंको ही खोजना है। वह सब कहँ उसे रोकते हैं। वह रोकते नहीं है। तू स्वयं रुका है। तू ही स्वयं भिन्न पडकर अन्दर जा। अन्दर स्वयं परिणमित हो जाय, फिर निरालम्बन होता है, पहले कैसे हो? परन्तु जो निरालम्बन हुए वे पहले ऐसे ही थे, उसे गौण करके निरालम्बन हुए हैं। अतः आलम्बनको


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गौण करके स्वद्रव्यका आलम्बन ले-ले, तेरे हाथकी बात है। पलटना तेरे हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- सहज है, हठपूर्वकका निश्चय नहीं है, सहज है। ज्ञानस्वरूपको पकडो इसलिये वह गौण हो ही जाता है।

समाधानः- वह गौण हो ही जाता है। ज्ञानको पकडनेका प्रयत्न ही करना है। इसका आलम्बन आता है, आलम्बन आता है, आलम्बन है ही कहाँ? तूने ही आलम्बन लिया है। तू स्वयं तुझ-से जान रहा है, उसे स्व तरफ मोड दे, पर तरफ मुडा है उसको। "पर परिणति भागे रे, अक्षय दर्शन ज्ञान वैराग्ये आनन्दघन प्रभु जागे रे'। आलम्बन त्यागकर निरालम्बन होना अपने हाथकी बात है।

स्वयंको कुछ करना हो, निश्चय किया हो कि ऐसा ही करना है तो दूसरेका आलम्बन तोड देता है कि मुझे ऐसे ही करना है। वहाँ तोड देता है, यहाँ नहीं तोडता।

मुमुक्षुः- वहाँ सबको छोड देता है, अपने निर्णय अनुसार करता है।

समाधानः- हाँ, वहाँ सबको छोड देता है। निर्णय अनुसार करता है। वह सब तो उदयाधीन है, तो भी स्वयं ऐसा निर्णय करता है। और इसमें आलम्बन-आलम्बन करता रहता है।

मुमुक्षुः- इसमें आलम्बन खोजता है।

समाधानः- आलम्बन जो देव-गुरु-शास्त्रने बताया, उस अनुसार करना है। वह महासमर्थ आलम्बन है। उन्होंने कहा कि निरालम्बन हो जा। तो स्वयंको निरालम्बन होना है।

समाधानः- ... आत्माका स्वरूप कैसे प्राप्त हो? वह एक ही रटन रहे, एक ही भावना रहे, एक ही उग्रता रहे। यह मनुष्य जीवन चला जाय, इतने साल बीत गये, इतने साल गये, क्यों प्राप्त नहीं होता है? अंतरमें कैसे क्यों इस भवभ्रमण-से थकान नहीं लगता है? अनेक जातके विचार आते थे। क्यों विकल्पकी जालमें खडा है? उससे क्यों छूटता नहीं? अनेक जातकी भावनाएँ उग्रपने आती है। बारंबार उसीकी उग्रता और उसीका विचार, जागते-सोते, स्वप्नमें एक ही रटन रहा करे, उतनी उग्रता हो तो होता है।

क्षण-क्षणमें कोई भी कार्य करता हो, एक ही भावना अन्दर उग्रपने रहा करे, कहीं चैन पडे नहीं, ऐसा अंतरमें हो तब जीवका अंतर पुरुषार्थ उतनी उग्रता हो तो पलटता है। अंतर्मुहूर्तमें बहुतोंको पलट जाता है। बाकी तो उतनी उग्रता होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- उस वक्त बचपनमें वैराग्यकी भावना थी, परन्तु इस प्रकार-से संसार- से छूटना है, ... दीक्षा लेनी है या मुनि बना जाना है, साधु बन जाना है। श्वेतांबरके


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हिसाबसे। उसकी भावना थी।

समाधानः- अंतरमें विकल्प-से छूटना उसमें तो पुरुषार्थ चाहिये।

मुमुक्षुः- वह अत्यंत कठिन लगता है।

समाधानः- वह तो पुरुषार्थ-से (होता है)। वैसा पुरुषार्थ प्रगट होना, उतनी उग्रता हो तो होता है।

मुमुक्षुः- कैसी उग्रता?

समाधानः- उग्रता ही चाहिये। कहीं चैन न पडे, विकल्पमें उसे चैन न पडे। कहीं चैन न पडे तो होता है। विकल्पकी जालमें भी चैन न पडे, ऐसा होना चाहिये। कहीं सुख न लगे। अंतरमें-से प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे, उतनी उग्रता अंतरमें होनी चाहिये।

.. मुझे बहुत आनन्द लगता है, मुझे बहुत ऐसा लगता है, ऐसे जो विकल्प आते हैं, वह विकल्पमें ही खडा है। मुझे अंतरमें बहुत भावमें बहुत आनन्द आता है, मुझे इसका बहुत रस आता है, मुझे ऐसा बहुत होता है। वह सब विकल्प ही है, अन्दर विकल्पका आनन्द है। चैतन्यका अस्तित्व-द्रव्यमें-से आनन्द चाहिये, वह आनन्द अलग है, वह तो सहज आनन्द है। उसे विकल्प-से आनन्द नहीं होता, वह तो सहज आनन्द है। विकल्प नहीं है कि मुझे बहुत आनन्द आया या मुझे यह प्राप्त हुआ, ऐसा विकल्प भी जहाँ छूट जाता है। जो सहज आनन्द प्रगट होता है, वह अंतर-से भिन्न पड जाता है। अन्दर भिन्न होकर जो आनन्द आता है, सहज आनन्द जो आता है। उसे कृत्रिमता नहीं होती कि मुझे इसमें बहुत आनन्द आया।

जिसकी आनन्द पर भी दृष्टि नहीं है, परन्तु सहज आनन्द आता है। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। आनन्द सहज अन्दरमें-से प्रगट होता है। विकल्प करके आनन्द नहीं वेदना पडता। ... तो प्रगट होता है। विकल्पकी दिशा है, उसकी पूरी दिशा पलट जानी चाहिये।

भिन्न पडना वह पुरुषार्थ अलग रह जाता है। अभी तो क्षण-क्षणमें भेदज्ञान (करे कि) विकल्प-से भी मैं भिन्न हूँ। पहले तो ऐसा भेदज्ञान होना चाहिये कि विकल्प- से भी मैं भिन्न हूँ, ऐसी ज्ञायककी धारा पहले होनी चाहिये, तो निर्विकल्प हो। विकल्प- से भी मैं तो भिन्न हूँ। ऐसी अंतरमें-से ज्ञायककी धारा (प्रगट होनी चाहिये)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!