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मुमुक्षुः- आपके वचनामृतमें ऐसा आता है कि शुद्ध द्रव्य स्वभावकी दृष्टि करके तथा अशुद्धताको ख्यालमें रखकर तू पुरुषार्थ करना। अशुद्धतारूप पर्यायका घूटन तो अनादि- से जीवने किया है, अब पुनः उसका ख्याल रखनेका क्या प्रयोजन है?
समाधानः- शुद्ध द्रव्यकी दृष्टि करनी कि मैं अनादिअननन्त शुद्धात्मा हूँ। परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है, उसे तू ज्ञानमें रखना। तेरे ज्ञानमें ऐसा हो गया कि मैं पर्यायमें भी मेरी शुद्धता है, तो तुझे पुरुषार्थ करना ही नहीं रहेगा। भले अनादि-से अशुद्धता पर दृष्टि है, परन्तु उसने शुद्धताकी दृष्टि की ही नहीं है। परन्तु शुद्धताकी दृष्टि यदि करे तो अशुद्धता जो है उसका तू ज्ञान रखना। कहीं केवलज्ञान नहीं हो जाता है। तूने शुद्धता पर-शुद्धात्मा पर दृष्टि की तो द्रव्य-से पूर्ण है, पर्यायमें अधूरा है। इसलिये जैसा है वैसा वस्तुका स्वभाव बराबर चारों तरफ-से जानना। तो तेरी पुरुषार्थकी गति स्वभाव तरफ होगी। अशुद्धताका ख्याल रखना कि अभी पर्यायमें अशुद्धता है। और उसके लिये मैं स्वभावमें लीनता करुँ तो मेरी विशेष लीनता हो तो वह अशुद्धता टलती है। ऐसा ख्याल रखना। पर्यायमें अशुद्धता नहीं है, तो फिर तुझे कुछ पुरुषार्थ करना नहीं रहता। तू सर्वथा शुद्ध हो, द्रव्य और पर्याय सर्व प्रकार-से शुद्धता हो तो तुझे पूर्ण शुद्धताका वेदन होना चाहिये। तुझे केवलज्ञान होना चाहिये। वह तो है नहीं।
अतः द्रव्यदृष्टि-से मैं शुद्ध हूँ परन्तु पर्यायमें अभी मेरी अशुद्धता है तो शुद्ध पर्याय प्रगट करनेका तू ज्ञान रखना, तो तेरी परिणति स्वभाव तरफ जायेगी। दृष्टि अनादि- से अशुद्धताकी करी है, परन्तु मैं सर्वथा अशुद्ध ही हूँ ऐसा माना है। शुद्धताकी कुछ खबर ही नहीं है। पर्याय पर दृष्टि करके मैं मानो अशुद्ध ही हो गया हूँ और मेरा स्वभाव शुद्ध है, यह मालूम नहीं है। मैं सर्वथा अशुद्ध हूँ। वह तो महापुरुष हो वे कर सके, अपनेमें कुछ नहीं है। मेरा स्वभाव सिद्ध भगवान जैसा है, ऐसा कुछ माने नहीं और मैं तो सर्वथा अशुद्ध हो गया हूँ, ऐसी मान्यता है। वह मान्यता जूठी है। परन्तु मैं द्रव्यदृष्टि-से शुद्ध हूँ, पर्यायमें अशुद्धता है। उसका विवेक करके समझना चाहिये। अनादि-से माना है वह सर्वथा पूरा अशुद्ध माना है। उसकी बात है। उसे पलटनेके लिये मैं द्रव्य-से शुद्ध पूर्ण हूँ, द्रव्य पूर्ण शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है, ऐसा
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विवेक करना।
जो अशुद्धता दिखती है वह है तो सही। तेरी कुछ मलिनता है। वह क्या है? ्र द्रव्य-से शुद्ध हूँ, द्रव्य तेरा शुद्ध है, परन्तु अभी मलिनता तो दिखती है। वह पर्यायकी है। इसलिये पर्यायका ख्याल रखकर शुद्ध पर्याय प्रगट कर। तेरी द्रव्यदृष्टिके जोरमें लीनता (करके) शुद्ध पर्याय प्रगट कर तो अशुद्धता टल जायेगी। ऐसे विवेक करनेका है। तो पुरुषार्थ उठेगा।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! शुद्धता तो त्रिकाल द्रव्यमें त्रिकाल रहती है और अशुद्धता पर्यायमें होती है। तो क्या द्रव्य और पर्याय ऐसी सीमावाले दो भाग द्रव्यमें है?
समाधानः- नहीं, वस्तु तो अनेक स्वभाववान है। द्रव्य जो मूल वस्तु है उसमें अशुद्धताका प्रवेश हो जाय तो द्रव्यस्वभावका नाश हो जाय। मूल वस्तुमें कहीं अशुद्धताका प्रवेश नहीं होता। परन्तु वह अशुद्धता ऊपर-ऊपर है। जैसे स्फटिक निर्मल है, लाल- पीला (रंग) उसके अन्दर प्रवेश हो जाय तो स्फटिक ही न रहे। परन्तु लाल-पीला जैसे ऊपरका प्रतिबिम्ब है, वैसे परिणमता स्फटिक, परन्तु वह ऊपर है। अन्दर तदगतरूपसे प्रवेश नहीं होता, उसके मूलमें-तलमें।
वैसे द्रव्य स्वयं शुद्ध रहता है, परन्तु उसकी पर्यायमें ऊपर-से सब मलिनता होती है। अनादिका जो उसे कर्मका संयोग और पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण पर्यायमें मलिनता होती है। ऐसा द्रव्य-पर्याय वस्तुका स्वभाव है। द्रव्य-गुण-पर्याय। मूल वस्तुमें शुद्धता रहती है और पर्यायमें अशुद्धता होती है। अनादि-से ऐसे ही है। पानी स्वभाव-से निर्मल है। फिर भी उसमें कीचडके निमित्त-से मलिनता होती है। मूलमें उसकी शुद्धता जाती नहीं। मूलमें-से शुद्धता नहीं जाती है। ऊपर-से सब मलिनता होती है। मूल जो वस्तु है उसमें शुद्धताका प्रवेश नहीं होता। ऊपर-ऊपर रहती है। परन्तु वह मान लेता है कि मेरेमें प्रवेश हो गया है। ऐसा बनता है।
इसलिये दो भाग इस प्रकार-से है। मूल तल और ऊपर-ऊपर सब पर्याय है। उसकी परिणति भले लाल-पीली हो, परन्तु मूल वस्तुमें उसका प्रवेश नहीं होता। वैसे ज्ञायक स्वभाव ऐसा है। उसके मूलमें मलिनता नहीं होती। परन्तु उसकी परिणति ऐसी अशुद्धरूप होती है। उसको पलट सकता है। भाग नहीं है। वह अंश है और यह अंशी है। उसके अंशमें ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- तो फिर सब सरल हो जाय। लेकिन द्रव्य हाथमें नहीं आता।
समाधानः- मूल उसका तल हाथ लग जाय तो सब सरल है। (विभावभाव) सब ऊपर तिरते हैं, मूल अधिक आत्माको जाने कि मैं अधिक हूँ, मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ। वह सब भिन्न है। मूल उसके हाथ लग जाय तो सब सरल है। उसका स्वभाव
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हाथ लग जाय तो।
स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है कि उसे दुष्कर पडे। स्वयं ही है। स्वयं अपने- से अपनेआपको भूला है। मूल यदि हाथ लग जाय तो सब सरल है। अपनी तरफ परिणति मुडे तो मलिनता छूट जाय, उसका भेदज्ञान होता हैै।
मुमुक्षुः- ऐसी विद्या आप दीजिये।
समाधानः- अंतरमें ऐसी लगन लगे तो युक्ति हाथ लग जाय। उसे चैन पडे नहीं, युक्ति हाथ लगे बिना। ये विभावस्वभाव, ये सब भेदभाव, मैं अखण्ड द्रव्य हूँ, कैसे है? उसे अंतरमें कहीं चैन न पडे। इसलिये स्वयं अपनेआपको अंतर-से खोज लेता है। गुरु तो मार्ग दर्शाते हैं, करना अपने हाथमें है। गुरुदेवने तो उपदेशका धोध बहाया है। करना स्वयंको बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- जिसका अंतरलक्ष्यी जीवन है, वे जब बाहरमें विकल्प होते हो, तब देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प हो या बारह भावना हो या दूसरे कोई शुभभाव हो, उसमें कोई प्रधानता देने योग्य विकल्प है कि नहीं? जैसे, देव-गुरु-शास्त्रकी प्रधानता देनी, बारह भावनाकी प्रधानता देनी, द्रव्य-गुण-पर्यायकी प्रधानता देनी, विकल्पात्मक?
समाधानः- उसे जिस प्रकारका चिंतवन चलता हो, उसकी जिस प्रकारकी परिणति हो, उस जातके भाव आते हैं। देव-गुरु-शास्त्रके आये, कभी बारह भावनाके आये, शास्त्रमें तो द्रव्य-गुण-पर्याय सब आ जाता है। उसे शुभभाव तो अनेक प्रकारके आते हैं। जिसे जहाँ जिस प्रकारकी रुचि हो, उस जातके भाव आते हैं। उस जातके भाव अमुक भूमिकामें होते हैं।
सब उसे अमुक प्रकार-से शुभभावनामें साथमें होता है। कभी कुछ मुख्य हो जाता है, कभी कुछ मुख्य होता है। प्रसंग अनुसार कभी बारह भावना मुख्य हो जाय, और देव-गुरु-शास्त्र तो उसके हृदयमें होते हैं तो वे मुख्य हो जाते हैं। प्रसंग अनुसार कभी बारह भावना (होती है), कभी श्रुतका चिंतवन (चलता है)। उसमें उसे जिस प्रकारका रस आता हो, वैसा उसे ज्यादा रहता है। और प्रसंग अनुसार वह बढ भी जाता है। ऐसा भी बनता है।
मुमुक्षुः- तीर्थंकर दीक्षा लेने-से पहले बारह भावनाका चिंतवन करते हैं, वैराग्य वृद्धिके लिये।
समाधानः- उसे दीक्षाके साथ सम्बन्ध है। एकदम वैराग्य आ गया है, बारह भावनाके साथ सम्बन्ध है। उसे दीक्षा लेनेकी जो भावना हुयी, उसके साथ उस प्रकारकी वैराग्यकी बारह भावना उत्पन्न होती है। वैराग्यका चिंतवन उन्हें आता है, मुनिदशा अंगीकार करते हैं इसलिये। उसके साथ उसका सम्बन्ध है।
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वे गृहस्थाश्रममें होते हैं। उन्हें वैराग्य भी होता है। अमुक कार्योमें जुडा है। इसलिये देव-गुरु-शास्त्रके प्रशस्त भावोंमें होता है। मुनि हो तो उसे देव-गुरु-शास्त्रका शुभ विकल्प होते हैं। परन्तु दीक्षा लेते समय उन्हें बारह भावना मुख्य होती है। क्योंकि उन्हें उस वक्त दीक्षाकी भावना आयी है। एकदम वैराग्य दशा हो गयी है। उस वैराग्यके साथ बारह भावनाका सम्बन्ध है।
देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिके साथ सम्बन्ध है। शास्त्रका श्रुतके साथ सम्बन्ध है। जैसी उसकी परिणति हो उस प्रकारके उसे भाव आते हैं। कोई जातके प्रसंगानुसार मुख्य हो जाता है। करनेका एक ही है, अपने पुरुषार्थकी मन्दता हो, इसलिये आगे नहीं बढ सकता। पुरुषार्थकी तीव्रता हो, अन्दर लगन, महिमा बढ जाय तो स्वयं आगे बढता है। जबतक लगनी, महिमा बढते नहीं है, पुरुषार्थकी मन्दता हो तो बाहरमें कोई भी प्रसंगमें वह खडा रहता है। अमुकमें (विकल्पमें) ही खडा हो ऐसा नहीं है। कोई भी प्रसंगमें खडा रहता है। कोई शुभभावनामें खडा रहता है।
वह स्वयंको विचार लेना। या तो निर्णयमें या ज्ञानमें.. उसका स्वयं विचार करके अपनी दृढता करे। अपनी लगनी, महिमा बढाये, पुरुषार्थकी तीव्रता करे, अपनी परिणतिको वह स्वयं ही जान सकता है।
समाधानः- .. ज्ञायक जाननेवाला है। उसकी मुक्ति कैसे हो? अनादि काल- से मुक्ति क्यों नहीं हुयी है? अनन्त काल-से सब किया, जीवने बाहरकी क्रियाएँ की है, सब शुभभाव किये तो देवमें गया। देवमें-से भी वापस आया है। परिभ्रमण तो खडा है। उसका कारण क्या? अभी तक मुक्ति क्यों नहीं हुयी है? मुक्ति नहीं होनेका कारण क्या है? इसलिये मुक्तिका मार्ग अंतरमें रहा है।
लोग अभी जो बाहरमें पडे हैं कि बाहर-से इतना कर ले या इतना त्याग कर ले या इतने उपवास कर ले, ये कर ले, वह सब बाहर-से (करते हैं), परन्तु अंतर पलटना चाहिये (वह नहीं करते)। धर्म तो अंतरमें रहा है। इसलिये आत्माको पहचानना। आत्मा वस्तु क्या है? जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्माका स्वरूप है। ये शरीर वस्तु अलग है और आत्मा अलग है। ये देह और आत्मा भिन्न हैं। आत्मा तो शाश्वत है, दूसरी गतिमें जाता है। जो भाव किये उस अनुसार उसे गति मिलती है। परन्तु परिभ्रमण मिटता नहीं है, उसका कारण क्या? स्वयंने आत्माको पीछाना नहीं है।
अन्दर जो विकल्प आये, वह विकल्प भी आत्माका स्वरूप नहीं है। उससे आत्मा भिन्न है। आत्माकी पहिचना कैसे हो? और आत्माकी बात किसमें आती है? और आत्माका स्वरूप कौन बताता है? वह कोई महापुरुष होते हैं, वे आत्माका स्वरूप बताते हैं। ऐसे कोई अध्यात्म शास्त्र होते हैं, उसमें आत्माकी बातें होती हैं। आत्माकी
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बात जिसमें आती हो और ऐसे आत्माका उपदेश जहाँ मिलता हो, उसका विचार करनेकी आवश्यकता है।
आत्मा भिन्न है और ये सब भिन्न है। आत्मा भिन्न ज्ञात हो तो फिर बाहरका संप्रदाय कौन-सा होता है, वह बादमें मालूम पडता है। संप्रदायमें-से मोक्ष नहीं होता। परन्तु अंतरमें-से मोक्ष होता है। परन्तु अंतरमें-से जब मोक्ष होता है, तब अमुक जातका ही मार्ग होता है। वह मार्ग कौन-सा है, उसका बादमें विचार करना। परन्तु पहले आत्मा भिन्न है। आत्माका मोक्ष अभी तक क्यों नहीं हुआ? इसलिये अंतरमें कोई मार्ग ही अलग है। उस मार्गका पहले विचार करने जैसा है। किसी भी संप्रदायमें- से मोक्ष नहीं होता, परन्तु अंतरमें-से मोक्ष होता है। अतः अंतरमें देखना है। अंतर दृष्टि करनी है।
जिसमें आत्माकी बात आती हो, जिसमें आत्माका कोई अपूर्व अनुपम स्वरूप आता हो, जिसमें आत्माकी स्वानुभूतिकी बात आती हो, जैसे सिद्ध भगवान है, वैसा आत्माका स्वरूप है, उसकी स्वानुभूति अन्दरमें स्वयं आत्माको पहचाने तो उसकी स्वानुभूति होती है, वह बात कौन करता है? उसके उपदेशमें कोई अपूर्वता होती है। श्रीमदकी वाणी, गुरुदेवकी वाणी, वह कोई अपूर्व वाणी है। उस वाणीमें अन्दर कुछ अलग ही होता है। उसका विचार करनेकी आवश्यकता है।
बाकी जीव बाहरका बहुत बार करता है। वह शुभभाव भी करता है, बाह्य क्रिया (करता है), पुण्य बाँधे, देवमें जाये, फिर देवमें-से परिभ्रमण खडा ही रहता है। इसलिये आत्मा अन्दर भिन्न है और वह अंतरमें-से भिन्न पड जाय तो अंतरमें मुक्ति होती है। पहले आंशिक होती है, बादमें पूर्ण होती है।
पहले सम्यग्दर्शन होता है। अनादि काल-से जीवने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। ये वाडाका माना हुआ सम्यग्दर्शन वह सम्यग्दर्शन नहीं है। सम्यग्दर्शन अंतरमें रहा है। जीव, अजीव सब ऊपर-से मान लिया, वह सम्यग्दर्शन नहीं है। सम्यग्दर्शन अंतरमें भिन्न पडकर आत्माकी अपूर्व प्रतीति करके अन्दर स्वानुभूति हो तो वह सम्यग्दर्शन है। और वह सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और अंतरमें चारित्र प्राप्त होता है। अन्दरमें लीनता रूप चारित्र हो तो उसमें उसके केवलज्ञान और उसमें उसे मुनिदशा अंतरमें-से आती है। और फिर बाहरका परिवर्तन (होता है)। अंतर पलटे तो बाहरका परिवर्तन होता है। बाहरका परिवर्तन कैसा होता है, वह उसको स्वयंको मालूम पडता है। परन्तु पहले सम्यग्दर्शन हो और अंतर दृष्टि, अध्यात्मकी आत्माकी बात किसमें आती है, समझनेकी जरूरत है। और आत्माकी बातें जिन्होंने की हो, जिस महापुरुषने, वह समझनेकी जरूरत है। संप्रदायकी बातमें पडनेके बजाय अन्दर आत्माकी बात कौन करता है? ऐसे शास्त्र
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होते हैं, ऐसे सदगुरुकी वाणी होती है, कोई अलग ही स्वरूप बताते हैं। बाहर-से सब कर लिया, छोड दिया, त्याग कर दिया, सब किया परन्तु अन्दर समझ बिना, यथार्थ ज्ञान बिनाकी क्रियाएँ सब व्यर्थ जाती है।
शुभभाव-से पुण्य बँधे और पुण्य-से स्वर्ग मिले। वह समझे बिनाकी (क्रिया है)। अंतरमें यथार्थ समझपूर्वक जो परिणति प्रगट हो वह अलग होती है। इसलिये समझ करनी। पहले आत्माको पहचाननेकी जरूरत है। यथार्थ सत वस्तु आत्मा क्या है, उसे पीछाननेकी जरूरत है। बाहर संप्रदायमें जीव अनन्त काल जन्मा है, बाहरका मुनिपना अनन्त बार लिया है। सब किया है, परन्तु मोक्ष नहीं हुआ है।
उनका उपदेश जिन्होंने सुना है, ऐसे बहुत मुमुक्षु हैं। उन्हें पूछ लेना। बरसों तक उन्होंने वाणी बरसायी है। उन्होंने क्या स्वरूप कहा है? उन्होंने क्या बात कही है? उनके मुुमुक्षु हर गाँवमें होते हैं, उन्हें पूछ लेना। सबको जागृत किया है। तो भी कोई- कोई बेचारे रह गये। पीछे-से जागे।
जन्म-मरण, जन्म-मरण चलते रहते हैं। उसमें मनुष्य भवमें अपने आत्माका कुछ हो तो कामका है। बाकी तो सब जन्म-मरण अनन्त-अनन्त किये। उसमें गुरुदेव मिले और यह मार्ग बताया। यह मार्ग तो कोई अपूर्व है। अंतर दृष्टि करके आत्माको अन्दर- से ग्रहण कर लेना वही मार्ग है। सच्चा तो वह है। अंतरमें शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, सब भिन्न है। अन्दर आत्मा अनन्त ज्ञान-से भरा, अनन्त आनन्द-से भरा ऐसा आत्मा है। अनन्त गुण-से भरा है।
सब विकल्प है, विकल्प-से भी आत्मा भिन्न है। आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करनेकी जरूरत है, इस मनुष्य जीवनमें। उसके लिये जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, उन पर भक्ति एवं महिमा आये और चैतन्यकी महिमा आये वह करना है। जन्म-मरण जीवने अनन्त किये हैं। जीवने, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है और एक जिनेन्द्र नहीं मिले हैं। मिले तो स्वयंने पहिचाना नहीं है। लेकिन वह एक सम्यग्दर्शन अपूर्व है। बाकी सब पदवी जगतमें प्राप्त हो चूकी है, देवलोककी और सब। परन्तु एक आत्मा प्राप्त नहीं किया है और गुरुदेवने आत्माका स्वरूप बताया और करने जैसा वह है।
इस लोकमें जितने परमाणु जीवने ग्रहण करके छोडे, सब क्षेत्र पर जन्म-मरण किये, सब कालका परिवर्तन किया, विभावके सब भाव कर चूका, परन्तु एक आत्मा प्राप्त नहीं किया है। (आत्मा) एक अपूर्व है। मनुष्य जीवनमें हो तो वह नया है, बाकी कुछ नया नहीं है। बाकी बाहरमें जीवने क्रियाएँ बहुत की, शुभभाव किये, पुण्य बाँधा, देवलोकमें गया, परन्तु भवका अभाव नहीं किया। भवका अभाव हो, वह मार्ग गुरुदेवने बताया। आत्माको भिन्न पहचान लेना। करना वह है।
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भेदज्ञान करके आत्माकी पहचान कैसे हो? और उसके लिये वांचन, विचार (आदि)। आप लोग सुनते हो न। याद नहीं रहे उसका कुछ नहीं, अन्दर सच्ची भावना और रुचि जागे कि ये कुछ अपूर्व है और आत्माका ही करने जैसा है। याद न रहे तो कोई दिक्कत नहीं है। परन्तु समझमें आये, ग्रहण हो (वह जरूरी है)।
मुमुक्षुः- पढना नहीं होता है इसलिये याद भी नहीं रहता।
समाधानः- पढना न हो तो सुनना। किसीको कुछ नहीं आता है तो भी अन्दर- से (प्राप्त कर लेते हैं)। शिवभूति मुनि थे, उनको कुछ नहीं आता था। गुरुदेवने कहा, रोष करना नहीं, द्वेष करना नहीं। मातुष, मारुष ऐसा कहा तो वह भी याद नहीं रहा। फिर बाई दाल धो रही थी। (उन्हें याद आ गया कि) मेरे गुरुने कहा था कि, छिलका अलग है और दाल अलग है।
वैसे आत्मा भिन्न है और विभाव भिन्न है। गुरुने कहा वह आशय ग्रहण कर लिया। मासतुष हो गया। आत्मा भिन्न। दाल अलग, छिलका अलग। वैसे आत्मा भिन्न और विभाव भिन्न है। ऐसा करके भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। मूल प्रयोजनभूत ग्रहण (होना चाहिये), याद न रहे, परन्तु प्रयोजनभूत ग्रहण हो और अपूर्व भावना जागे, प्रयत्न जागे तो भी लाभ होता है। उसमें ज्यादा याद रहे, या ज्यादा पढे, उसकी कोई जरूरत नहीं है। अपनी अन्दर-से तैयारी हो तो थोडेमें भी लाभ हो जाता है।