Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 28.

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ट्रेक-०२८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उसमें तो जीवको अपनेमें ज्ञान है, अस्तित्व है, ऐसा थोडा-थोडा ख्यालमें आता है।

समाधानः- दूसरा ख्यालमें नहीं आता, लेकिन उसे पदार्थकी गंभीरता भासित हो तो आये। शास्त्र (पर), महापुरुषों पर विश्वास रखे। यह तत्त्व है वह कोई अपूर्व अनन्त गंभीरतासे भरा है और स्वयं विचार करे, स्वयं उसे पकड नहीं सकता हो तो उसमें कोई गंभीरता भरी है, ऐसे विचार करके भी स्वयंको गंभीरता भासित हो तो आगे बढे। भासित हो ऐसा ही तत्त्व है।

उसका एक ज्ञानगुण ऐसा है कि एक ज्ञानगुण ही जिसे क्रम नहीं पडता, एक समयमें लोकालोकको जाने। भूतकाल, वर्तमान और भविष्य उसके द्रव्य-गुण-पर्याय, ऐसे अनन्त-अनन्त द्रव्य, उसका भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल, जो एक समयमें जानने वाला ज्ञान कोई अगाध है। उसका पार नहीं या बुद्धिसे विचार करे तो उसे विचारमें बैठ सके। बाकी एक ज्ञानगुण ही ऐसा अगाध गंभीर है।

मुमुक्षुः- बैठे फिर भी उसकी अगाधता उसे..

समाधानः- उसकी अगाधता, गंभीरता, महिमा भासे। एक समयमें लोकालोक (जाने), ऐसे अनन्त लोकालोक हो तो भी ज्ञानमें उतनी अनन्त शक्ति है के एक समयमें सब जानने वाला। जिसमें क्रम नहीं पडता, एक साथ एक समयमें (जान लेता है)। क्षयोपशम ज्ञानमें तो एकका विचार करे, दूसरा भूल जाये, ऐसा होता है। इसमें तो उसे सब प्रत्यक्ष (जाननेमें आता है), कुछ भूलता नहीं, प्रत्यक्ष देखता है, जानता है। इसके सिवा उसके अनन्त गुण उसे दिखाई नहीं देते, परन्तु अमुक विचारसे नक्की करे, भले दिखाई नहीं दे। अमुक जो महापुरुषोंने कहा उसे विचारसे नक्की करे और अमुक विश्वाससे नक्की करे।

अस्तित्व ग्रहण करे, इन सबमें मैं कहीं नहीं हूँ। अपना अस्तित्व, जो ज्ञायक अस्तित्व है (उसे ग्रहण करे)। पहले उसे सुखका वेदन नहीं आता। ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे। ज्ञानगुण ऐसा असाधारण है कि ज्ञान ज्ञायकतासे मैं स्वयं ज्ञायक हूँ, ऐसा ग्रहण होता है। लेकिन सुख आदिकी उसे अंतरमें प्रतीत आ जाती है। उसे अनुभूति


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तो बादमें होती है, पहले उसे सब प्रतीत हो जाती है। और वह प्रतीत होती है कि दृढ प्रतीत (होती है) कि किसीसे चलायमान नहीं हो, ऐसी प्रतीत पहले आ जाती है। परिणतिरूप बादमें होता है, परन्तु प्रतीत आती है।

समाधानः- .. ऐसा नक्की करके बारंबार उसके विचार करे कि मैं तो भिन्न ही हूँ। ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा अंतरमें बारंबार उसका प्रयास करे, उसकी लगनी लगाये। खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें उसकी लगनी होती है कि मैं तो भिन्न हूँ। ऐसी लगनी अंतरसे लगनी चाहिये, बारंबार मैं भिन्न हूँ। वह भेदज्ञानका प्रयास (है), यथार्थ भेदज्ञान, सच्चा भेदज्ञान बादमें होता है, परन्तु पहले उसकी लगनी लगती है। तबतक विचार करे, वांचन करे, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये। गुरुदेव क्या कहते थे, भगवानने पूर्ण स्वरूप प्राप्त किया, गुरु कैसे होते हैं, गुरुका क्या स्वरूप होता है, गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है, यह सब नक्की करे, शास्त्रमें मार्ग क्या आता है, यह सब नक्की करे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करे, वह सब शुभभाव है, लेकिन पहले वह बीचमें आये बिना नहीं रहते। आत्मा-शुद्धात्मा प्राप्त नहीं हो तबतक बीचमें आते हैं। परन्तु ध्येय उसे यह होता है कि मुझे शुद्धात्मा प्राप्त करना है। मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो, अंतरसे लगनी लगनी चाहिये। उसे खटक रहा करे। जिसकी स्वयंको इच्छा हो और वह नहीं प्राप्त होता हो तो कैसे अन्दर खटक (रहती है), बार-बार याद आता है। वैसे उसे याद आये।

अपनी माँ हो, तो मेरी माँ। जहाँ भी जाये, कोई पूछे कि तू कौन है? तेरा नाम क्या है? बालक समझता नहीं हो तो बालक, मेरी माँ, मेरी माँ बोलता है। ऐसे मेरी माँ, मेरी माँ, कैसा अंतरमें होता है? वैसे मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो? ऐसी लगनी लगनी चाहिये। उसका बारंबार प्रयास करे, भेदज्ञानका अभ्यास करे, बारंबार मैं भिन्न हूँ, मैं भिन्न हूँ, मैं भिन्न हूँ। मात्र विकल्प ऊपर-ऊपरसे करे वह अलग बात है, परन्तु अंतरसे होना चाहिये।

मुमुक्षुः- आत्मा तो अपने पास ही है।

समाधानः- अपने पास ही है। दृष्टान्त तो ऐसा ही होता है न। आत्मा अपने पास है, परन्तु भूल गया है। बिछड गया हूँ, ऐसा उसे हो गया है। उसे ऐसा हो गया है, भूल गया है। आत्मा स्वयं ही है, परन्तु मैं बिछड गया हूँ। मानो आत्मा कहींका कहीं चला गया हो और मैं बिछड गया हूँ। शरीरमें एकमेक हो गया हूँ, गुम हो गया है, ऐसा उसे हो गया है।

बकरेके झुंडमें सिंह आ गया। सिंह भूल गया कि (मैं सिंह हूँ), मानो मैं बकरी हूँ, ऐसा हो गया है। सिंह भूल गया कि मैं कौन हूँ? ये बकरे भिन्न और मेरा लक्षण


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भिन्न है, वह भूल गया है। इसप्रकार स्वयं भूल गया है। उसमें सिंहको कोई कहने वाला मिले कि अरे..! तू इस बकरीके झुंडमें सिंह हो। लक्षणसे पहचान करवाये।

ऐसे गुरुदेव लक्षणसे पहचान करवाते हैैं कि अरे..! तू तो आत्मा जानने वाला है। यह शरीर तू नहीं है। तू उससे भिन्न है। तू देख, अन्दर जानने वाला आत्मा है। ऐसे गुरुदेव मार्गकी पहचान करवाते हैं। उस मार्गको ग्रहण करना चाहिये, बारंबार दृढता करके। उसके लिये सब छोड दे या ऐसा कुछ नहीं है। अन्दरकी रुचि लगनी चाहिये। उसे अंतरमें रस कम हो जाये। रस कम हो जाये। बाहरका सब रहता है, बाहर सब करता हो, लेकिन अन्दर रस छूट जाता है।

मुमुक्षुः- जीवको स्वयंसे विचार करनेपर बुद्धिपूर्वक ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है...

समाधानः- अस्तित्वको ग्रहण करना। यह मैं हूँ। मेरा जो स्वभाव, उस स्वभावकी परिणतिरूप, स्वभावरूप परिणमन हो, उसमें ही सब है। उतना विश्वास, उतना संतोष उसे आ जाता है। रुचि उठ जाती है।

मुमुक्षुः- बाहरमें कहीं भी नहीं मिलेगा, ऐसा भी उसे पक्का हो जाये।

समाधानः- हाँ, पक्का हो जाये, बाहरमें कुछ नहीं मिलने वाला नहीं है। बाहरसे जो मान्यता है वह सब जूठी है। बाहरसे सब पराधीन है। पराधीनतामें कहीं सुख नहीं है। सब बाहरका है। सब विभाविक है, स्वाभाविक नहीं है। ज्ञान बाहरसे कहींसे नहीं आता है, सुख बाहरसे कहींसे नहीं आता है। सब अपनेमें भरा है। उसे बोझ लगता नहीं, उसे याद नहीं रखना पडता। सब सहज जानता है।

ज्ञानगुण कोई अगाध गंभीरतासे भरा है। स्वयं शामिल होकर, भावको अपने स्वभावमेंसे नक्की कर ले। विचाररूपसे स्थूलरूपसे होता है, आगे बढकर अपने स्वभावके साथ मिलान करके भी प्रतीत आती है। वह भावभासनरूप (है)।

मुमुक्षुः- शास्त्रसे और ज्ञानीके वचनोंसे...

समाधानः- शास्त्रसे, ज्ञानियोंके वचनोंसे, युक्तिके अवलम्बनसे। अन्दर युक्तिके अवलम्बनसे। उसकी युक्ति ऐसी होती है कि जो कहीं टूटे नहीं, ऐसी निर्बाध युक्तिसे नक्की करे। स्वयं अपने स्वभावके साथ मिलान करके ऐसे युक्तिसे नक्की करे। स्वभाव ज्ञानका है। जो अन्दर आकूलताका वेदन हो रहा है और इस आकूलताके सिवा भी अन्दर अकेला ज्ञान है, उसमें अमुक निराकूलता है, उसमें सुख भी (है)। अमुक अपने वेदनसे जो स्वयंको भावमें वेदन हो रहा है, अपने स्वभावसे मिलान करके ऐसी युक्तिसे नक्की करे। गुरुके वचनोंका अवलम्बन, शास्त्रवचनोंका अवलम्बन लेता है।

मुमुक्षुः- .. डोर द्रव्यके हाथमें ही है और द्रव्यदृष्टि वालेको दृष्टिके हाथमें डोर है यानी कि उसीके अवलम्बनसे ही सभी पर्यायें होती है। यह बात बहुत सुन्दर आयी,


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माताजी! उसका थोडा अधिक विस्तार करके..

समाधानः- वह तो सहज ऐसे आ गया। डोर तो द्रव्यदृष्टिके हाथमें ही है। पर्याय स्वतन्त्र परिणमती है, परन्तु उसे द्रव्यका आधार है और द्रव्यदृष्टिका आधार है। दृष्टिके आधार बिना पर्याय स्वतंत्र (ऐसे नहीं परिणमती)। जो विभावकी ओर जिसकी दृष्टि है, एकत्वबुद्धिकी ओर, उसकी सभी पर्याय वैसे ही परिणमती है, विभावकी ओर। और जिसकी दृष्टि स्वभावकी ओर गयी, जिसकी दृष्टिको द्रव्यका अवलम्बन हुआ, उसकी सभी पर्यायें स्वभावकी ओर परिणमती है। इसलिये द्रव्यदृष्टि है वही पुरुषार्थकी डोर उसके हाथ लगी है। द्रव्यदृष्टि-द्रव्यका दृष्टिमें आलम्बन लिया, वही उसका पुरुषार्थ है। वह पुरुषार्थ और फिर उसे लीनताका भी पुरुषार्थ है। दृष्टिका बल है और लीनता भी अपनी ओर (है)। यानी सभी पर्याय, दृष्टिके आलम्बनसे सभी पर्याय स्वभावकी ओर परिणमती हैं। अमुक अधुरापन है, उतना विभाव होता है। बाकी उसे दृष्टिके आलम्बनसे सभी पर्यायें होती हैं। उसकी पर्यायको क्रमबद्ध कहते हैं, लेकिन उसके साथ पुरुषार्थ साथमें है।

मुमुक्षुः- माताजी! आपकी चर्चामें पाँच बार सुनी, आपने करीब १०-१५ बार...

समाधानः- कहते थे कि दृष्टि बदल गयी, उसे ही क्रमबद्ध लागू पडता है। कोई उन्हें पूछते थे तो ऐसा कहते थे, तू ज्ञायक हो जा। दृष्टिके साथ क्रमबद्ध आ गया। ऐसा कहते थे। दृष्टिका आलम्बनका कहते थे उसमें साथमें पुरुषार्थ आ ही जाता है। गुरुदेवने कर्तृत्व छुडानेको तू कर्ता नहीं है, ऐसा कहते थे। लेकिन तेरे पुरुषार्थकी डोर तो तेरे हाथमें ही है। पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध, ऐसे अकेला क्रमबद्ध लेनेसे आत्मार्थीको कुछ करना नहीं (रहता)। आत्माका प्रयोजन जिसे उसकी नजर पुरुषार्थकी ओर ही रहनी चाहिये। क्रमबद्ध (अनुसार) होता है ऐसा लेनेसे आत्मार्थका जो प्रयोजन है, मुझे आत्माका करना है, उसकी भावना... (क्रमबद्ध) पर वजन देता रहे, उसे अपनी ओर मुडना नहीं रहता। कर्ताबुद्धि छुडानेको (कहते हैं) तू कुछ नहीं कर सकता। जैसे परद्रव्यके परिणाम तू बदल नहीं सकता और अंतरमें तेरे पुरुषार्थकी डोर प्रगट हुयी, पर्याय परिणमति है, ऐसा कहना है। स्वभावकी ओर। दृष्टिकी डोर उसके हाथमें ही रही है। उस प्रकारसे पर्याय परिणमती है।

मुमुक्षुः- डोर द्रव्यके हाथमें है।

समाधानः- हाँ, डोर द्रव्यके हाथमें है। जैसे ठीक पडे वैसे पर्याय परिणमती रहे, उसमें मैं क्या करुँ? ऐसा उसमें नहीं है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात आयी।

समाधानः- द्रव्यदृष्टिके आलम्बन बिना वह वैसे नहीं परिणमती। स्वभावकी ओर


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पर्याय गयी, द्रव्यदृष्टिके (जोरमें) स्वभावकी ओर (गयी)। अनादिसे परिणमता है, तो भी द्रव्यके आलम्बन बिना, द्रव्यके बिना पर्याय परिणमती ही नहीं। वह स्वतंत्र होनेके बावजूद द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय परिणमती नहीं।

मुमुुक्षुः- जब आपने डोर कहा, पर्यायकी डोर द्रव्यके हाथमें है, यह बात इतनी सुन्दर थी।

समाधानः- परिणमना चाहे वैसी ही पर्याय परिणमती है। उसकी डोर उसके हाथमें ही है। द्रव्य ही निश्चयसे स्वतंत्र है, परन्तु पर्याय भी एक अंश है न, वह परिणमता रहता है। पर्याय परिणमती रहती है इसलिये उस अपेक्षासे उसे स्वतंत्र कहा। लेकिन पर्याय ऐसी स्वतंत्र नहीं है कि द्रव्यके आधार बिना, द्रव्यके डोर बिना, अपनेआप जैसे ठीक पडे वैसे परिणमन करे। ऐसी स्वतंत्रता उसे नहीं है। लेकिन वह एक अंश है और पर्याय एकके बाद एक, एकके बाद परिणमती रहती है, इसलिये पर्यायको उस अपेक्षासे स्वतंत्र कहनेमें आती है।

मुमुक्षुः- वास्तविकतासे तो द्रव्य स्वतंत्र है।

समाधानः- हाँ, वास्तविकतासे द्रव्य स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- पर्याय और द्रव्यका, दोनोंका अस्तिपना बताना हो तो इतना भेद करके..

समाधानः- हाँ, उतना भेद (होता है कि) पर्याय स्वतंत्र है। ज्ञानगुण हो तो ज्ञानमेंसे ज्ञानकी पर्याय आती है, दर्शनमेंसे दर्शनकी, चारित्रमेंसे चारित्रकी। चारित्रगुणमेंसे चारित्रकी पर्याय आती है। ऐसे जिसका जो स्वभाव है उस रूप पर्याय परिणमती है, इसप्रकार पर्याय भी एक स्वतंत्र परिणमती है। लेकिन उसकी डोर द्रव्यके हाथमें है।

मुमुक्षुः- पलटती है उसमें मैं ज्ञायक हूँ, इसप्रकार परिणामको पलटता है, तो उसमें कोई कर्तृत्व आता है?

समाधानः- कर्तृत्व नहीं आता है, स्वयं ज्ञायक है। उसमें पर्याय पलटती है। कर्ताबुद्धि नहीं होनी चाहिये। बाकी परिणमन, स्वयं परिणमता है। वह भी एक प्रकारकी उसकी क्रिया होती है। पर्यायकी भी क्रिया होती है।

मुमुक्षुः- वहाँ कर्ताबुद्धि नहीं है, परन्तु स्वयं करता है इसलिये उस अपेक्षासे स्वयं कर्ता है।

समाधानः- हाँ, कर्ता, क्रिया, कर्म। द्रव्यको कर्ता कहनेमें आता है। लेकिन वह पर्याय भी परिणमती है स्वतंत्र, इसलिये पर्यायका कर्ता पर्याय ऐसा (कहते हैं)। परन्तु पर्याय ऐसी स्वतंत्र नहीं है कि द्रव्यके आश्रय बिना, द्रव्यकी डोर बिना परिणमे। ऐसी स्वतंत्रता पर्यायमें नहीं है। (चाहे जैसे) पर्याय परिणमती रहे ऐसा नहीं है।

जो जिज्ञासु आत्मार्थी हो, उसे स्वयंकी भावना अनुसार कुछ होवे ही नहीं, ऐसा


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अर्थ हो गया। पर्याय स्वतंत्र परिणमती है, अब मैं क्या करुँ? ऐसा ही होने वाला था। ऐसे नहीं। भावना, उसकी जिज्ञासा आदि पर्याय ऐसी परिणमती है। ऊपर-ऊपर नहीं परिणमती। ज्ञायक हो गया, जो साधककी ओर मुड गया, उसकी तो सभी पर्याय साधनाकी ओर मुडती है। अमुक बाधक अंश गौण है, लेकिन साधनाकी ओर उसकी पर्याय होती है।

मुमुक्षुः- उसका क्रमबद्ध अच्छा है।

समाधानः- हाँ, उसका क्रमबद्ध है। बिना पुरुषार्थ दृष्टि ही नहीं है। क्रमबद्ध ही है, क्या करुँ? ऐसा करता है उसका क्रमबद्ध (अच्छा नहीं है)। जिसे पुरुषार्थकी कोई भावना नहीं है, बचाव करे कि क्रमबद्ध है, क्या करुँ? तो उसका क्रमबद्ध वैसा है। पुरुषार्थ होनेवाला होगा, वह ये सूचित करता है, पुरुषार्थ यानी मैं कुछ करुँ। कुछ बल, कोई पराक्रम करुँ, पुरुषार्थमें वैसी ध्वनि और ऐसा भाव रहा है। फिर पुरुषार्थ होनेवाला होगा, उसका कोई अर्थ नहीं है। वह तो एक वस्तुस्थिति बतायी। तेरी भावनामें तो मैं मेरे पुरुषार्थसे, बलसे बदलूँ, इसप्रकार तेरी भावनामें तो ऐसे ही आना चाहिये। भावना बदलूँ, मैं पलटुँ, जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे बदलूँ। तेरी भावनामें ऐसा आना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। तो उसके साथ क्रमबद्ध जुडा ही है। उन सबमें पुरुषार्थ मुख्य है। क्रमबद्ध, स्वभाव, काललब्धि सबमें पुरुषार्थ (होता है)।

आत्मार्थीको, जिसे मोक्ष प्रगट करना है, सुख प्रगट करना है, आत्माकी स्वानुभूति प्रगट करनी है, उसका वजन पुरुषार्थकी ओर आना चाहिये। तो वह साधनाकी ओर मुड सकता है। वस्तुको जाने कि मैं किसीका कुछ नहीं कर सकता। लेकिन मैं मेरी भावना कर सकता हूँ। मैं मेरे द्रव्यको पहचानकर द्रव्यकी ओर मुड सकता हूँ, उसमें मैं स्वतंत्र हूँ।

आत्मामें कर्ताबुद्धि छुडानेका उनका प्रयोजन था। तुझे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी तो सब क्रमबद्ध होता है। तू उसका कर्ता मत बन, ज्ञाता हो जा। ऐसा कहना था। दूसरा कोई पूछे तो ऐसा ही कहते थे, तुझे क्रमबद्ध ही नहीं है। तुझे ज्ञायककी दृष्टि प्रगट नहीं हुयी। जो ज्ञाता हुआ उसे ही क्रमबद्ध है, ऐसा कहते थे। और कोई काललब्धिका कुछ कहे तो गुरुदेवको वह पसन्द नहीं था, ये काललब्धिकी बात करता है, ऐसा कहते थे।

जितने भव भगवानने देखे होंगे उतने होंगे। गुरुदेवको पसन्द नहीं था। संप्रदायमें वह बात उन्हें बैठती ही नहीं थी। जितने भव होनेवाले होंगे, ऐसे पुरुषार्थ रोकनेवाली बात नहीं करनी, ऐसा कहते थे। इसमें उनका कहनेका आशय अलग था। कर्ताबुद्धि छुडानेको और ज्ञायकता प्रगट करने हेतु।


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मुमुक्षुः- सुन्दर, आपकी शैलीमें बहुत सुन्दर रूपसे बात की। समाधानः- द्रव्यके हाथमें डोर है। पर्याय स्वतंत्र है, परन्तु डोरी द्रव्यके हाथमें है। (नौकर) दुकानमें काम करता हो, सेठके हाथमें डोरी है। वह सब तो भिन्न-भिन्न द्रव्य है। सब डोर मालिकके हाथमें, राजाके हाथमें होती है। इसप्रकार द्रव्यके हाथमें डोर है। वह सब तो भिन्न-भिन्न द्रव्य है। ये तो पर्याय अपनी और द्रव्य स्वयं एक ही वस्तु है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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