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समाधानः- रुचि बदले तो उपयोग बदले। रुचि हो तो ही उपयोग बाहर जाता हो वह (अन्दर आता है)। रुचि बदलनी। सब असार है। सारभूत तत्त्व हो तो एक चैतन्य ही है। सारभूत तत्त्वको ग्रहण करनेकी रुचि उत्पन्न हो तो उपयोग पलटता है। अनन्त काल-से सब किया है बाहरका, परन्तु अंतरमें दृष्टि नहीं की है। अंतर दृष्टि करे, अंतरकी रुचि करे तो ही उपयोग अपनी ओर जाता है।
मुमुक्षुः- उसके पहले सिर्फ पापमें पडे हो तो कषायकी मन्दता करनी, ऐसा होता है या सीधी रुचि पलट जाती है?
समाधानः- रुचि पलटे तो ही कषायकी मन्दता होती है। कषायकी मन्दता तो बीचमें (हो जाती है)। जिसे आत्मा तरफकी रुचि हो, उसे तीव्र कषाय नहीं होते। उसके कषाय मन्द पड जाते हैं। उसे जो अन्दर आत्मा तरफ रुचि जागे, उसे सर्व कषाय, राग-द्वेष आकुलता सब फिका पड जाता है।
जिसे अंतरकी रुचि नहीं है, वह बाहर-से कषाय कदाचित मन्द करे या यह अच्छा नहीं है, ये हितरूप नहीं है, ऐसे ओघे ओघे करे, कषाय फिके पडे ऐसा तो जीवने अनन्त कालमें बहुत किया है। शुभभाव किये हैं। कषाय फिके किये, त्याग किया, उपवास किये, मुनिपना लिया। सब आत्माके लक्ष्य विहीन बहुत क्रियाएँ की, शुभभाव किये, सब किया, परन्तु वह सब बिना एक अंकके शून्य जैसा हुआ है। क्योंकि आत्मा क्या है, उस तरफकी रुचि बिना कषाय मन्द करे तो उसे कहीं धर्मका लाभ या स्वभाव प्रगट नहीं होता। मात्र बँधता है, पुण्य-से देवलोक मिले। तो देवलोक-से कहीं भवका अभाव नहीं होता। वैसे देवके भव जीवने अनन्त किये हैं। उसमें कहीं आत्मा नहीं है। देवलोकमें भी आकुलता है।
इसलिये समझे बिना कषाय मन्द करना, (उससे) पुण्यबन्ध होता है। उसमें-से कहीं आत्माकी प्राप्ति नहीं होती। आत्माकी प्राप्ति तो स्वभावके लक्ष्य-से मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? धर्म कहाँ रहा है? वह सब विचार करके निर्णय करे, अंतरकी रुचि करे तो धर्म होता है। बाहरके कषाय मात्र मन्द करने-से धर्म होता नहीं। ऐसा तो जीवने अनन्त कालमें कषाय मन्द किये, त्याग किया, सब बहुत किया है। इसमें सुख
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नहीं है, यह हित नहीं है, यह धर्म नहीं है, ऐसा करके कषाय फिके किये।
जिसे आत्माकी रुचि हो उसके कषाय सहज ही फिके पड जाते हैं। जिसे आत्मा ही रुचता है, दूसरा कुछ रुचता नहीं, आत्मा ही जिसे इष्ट है, उसे बाह्य कषाय सुखरूप नहीं लगते। वह तो उसे फिक पड ही जाते हैं। जो आत्मार्थी हुआ, जिसे आत्माका प्रयोजन है उसे कषायोंमेंं तीव्रता नहीं रहती, मन्दता हो जाती है। वह उससे पीछे हट जाता है।
मुमुक्षुः- अर्थात पहले-से ही ज्ञायकके लक्ष्यकी शुरूआत...?
समाधानः- हाँ, ज्ञायकके लक्ष्य-से शुरूआत होती है। वही शुरूआत है। उसमें सब समा जाता है। रुचि, कषायकी मन्दता, सब उसमें समा जाता है। ज्ञायकके लक्ष्य- से शुरूआत करनी है। मैं कौन हूँ? मैं तत्त्व कौन हूँ? उस तत्त्वका निर्णय करना। विचार करके उसका निर्णय करे। ज्ञायकके लक्ष्य बिना अनन्त कालमें बहुत कुछ किया, परन्तु मूल तत्त्व ग्रहण किये बिना बिना अंकके शून्य जैसा हुआ। किसके लिये करता हूँ? चैतन्यतत्त्वका अस्तित्व ग्रहण नहीं किया, मात्र शुभभाव हुए हैं।
.. लक्ष्य करे तो अंतरमें आनन्द भरा है। अनन्त ज्ञान अंतरमें है। स्वानुभूति सब अंतरमें रही है। भेदज्ञान करे। विकल्प टूटकर आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसकी स्वानुभूति अंतर दृष्टि करने-से होती है, बाहर-से नहीं होता। बाहर-से सब किया। सब रट लिया, पढ लिया, समझे बिना ध्यान किया, सब किया। परन्तु आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिनाका वह सब मात्र शुभभावरूप हुआ।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान कैसे करना?
समाधानः- भेदज्ञान चैतन्यको पहचानने-से होता है। मैं यह चैतन्य (हूँ)। अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि मैं यह ज्ञायक ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ। यह सब मुझ-से भिन्न है। ये शरीर और विभावभाव जो अंतरमें भाव होते हैं, वह स्वभाव भी मेरा नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे ज्ञायक, मैं चैतन्य ज्ञायक ही हूँ, ऐसा निर्णय करके उसका अस्तित्व ग्रहण करे। फिर उसका अभ्यास करे। पहले तो अभ्यासरूप होता है। सहज दशा तो बादमें होती है।
अभ्यास करे कि मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी ही उसे महिमा आये, बाकी सब महिमा छूट जाय। ज्ञायकमें सब भरा है। उसे अनुभूतिके पहले वह वेदनमें नहीं आता, परन्तु वह निर्णय करता है कि ज्ञायकमें ही सब है। ज्ञान-ज्ञायक पदार्थ पूरा महिमावंत है। ज्ञायकका अभ्यास करे कि मैं सर्वसे भिन्न, भिन्न, भिन्न ऐसा क्षण-क्षणमें उसीका अभ्यास करे। तो उसमें उसे भेदज्ञान होता है। उसका अभ्यास करे। और शुभभावमें सच्चे देव- गुरु और शास्त्र उसे शुभभावनामें होते हैं। अंतरमें ज्ञायकका भेदज्ञान कैसे हो? बारंबार
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ज्ञायकका अभ्यास करे। .. परद्रव्यका क्या? सब नक्की करके फिर ज्ञायकका अभ्यास करे।
मुमुक्षुः- वस्तुका बंधारण समझनेमें कुछ क्षति रह जाय तो ज्ञायकको पकडना मुश्किल पडे या ज्ञायकके झुकावमें वह क्षति सुधर जाती है?
समाधानः- उसकी ज्ञानमें भूल हो तो ... परन्तु रुचि यदि उसे बराबर हो कि मुझे ज्ञायक ही ग्रहण करना है। विचार करके भी उसकी ज्ञानमें भूल हो तो ज्ञानकी भूल निकल जाती है, उसकी रुचि यथार्थ हो तो।
मुझे चैतन्य क्या पदार्थ है, यह नक्की करना है। बाहर कहीं उसे रुचि लगे नहीं, स्वभावकी ही रुचि लगे। तो विचार करके ज्ञानमें भूल हो तो भी निकल जाती है, यदि उसे यथार्थ लगन लगी हो तो। ज्ञानमें भूल हो तो निकल जाती है।
.. बाहर-से मिलेगा, बाहर-से खोजता है। अंतरमें सब है। उसकी उसे प्रतीति नहीं है, रुचि नहीं है, इसलिये बाहर-से खोजता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- (क्या) पदार्थ है, क्या वस्तु है? किसमें धर्म है? किसमें ज्ञान है? किसमें दर्शन है? सम्यग्दर्शन किसमें है? चारित्र किसमें है? सब नक्की करे। चारित्र मात्र बाहर-से नहीं आता। चारित्र चैतन्यके स्वभावमें है।
मुमुक्षुः- चैतन्यमें यदि रुचि हो तो आगे बढे।
समाधानः- तो आगे बढे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब आत्मामें भरा है। बाहर तो मात्र शुभभाव होते हैं। वह तो पुण्यबन्धका कारण है। अन्दर स्वभावमें-से सब प्रगट होता है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब।
समाधानः- .. रुचि लगाने जैसी है, पुरुषार्थ वह करने जैसा है, सब करने जैसा है। परन्तु स्वयं बाहरमें रुक जाता है।
मुमुक्षुः- आत्मा प्राप्त करने-से जो आनन्द हो, उसका शब्दमें वर्णन हो सके ऐसा आनन्द है?
समाधानः- शब्दमें वर्णन नहीं होता। आत्माका स्वभावका आनन्द तो अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती, जगतके कोई पदार्थकी। क्योंकि ये बाहरका है वह तो रागमिश्रित जड पदार्थ नजर आते हैं। आत्माका जो स्वभाव चैतन्यमूर्ति, उसमें जो चैतन्यका आनन्द है और चैतन्यका आनन्द जो अंतरमें आनन्द सागर स्वतः स्वभाव ही उसका भरा है। उस पर दृष्टि करके, उसका भेदज्ञान विभाव-से भिन्न होकर, विकल्प छूटकर अन्दर जो निर्विकल्प तत्त्व प्रगट हो, उसकी कोई उपमा बाहरमें नहीं है। वह अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है।
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जगत-से जात्यांतर अलग ही आनन्द है। उसकी जात किसीके साथ मिलती नहीं। कोई देवलोकका सुख या चक्रवर्तीका राज या किसीके साथ उसका मेल नहीं है। वह सब विभाविक है, सब रागमिश्रित है। जिसके साथ राग रहा है, उसके साथ मेल नहीं है। अन्दर ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी वह शुभभाव है। शुभभावके साथ भी उसका मेल नहीं है। शुभभाव-से भी भिन्न शुद्धात्मा है।
मन्द कषाय हो। मैं ज्ञान हूँ, मैं दर्शन हूँ, मैं चारित्र हूँ। पहले शुरूआतमें वह सब विकल्प आते हैैं, आत्म स्वभावको पहिचाननेके लिये, तो भी वह विकल्प मिश्रित जो राग है, उसके साथ आत्माके आनन्दका मेल नहीं है। आत्माका आनन्द तो उससे अलग है।
मुमुक्षुः- अपने-से तिर्यंचका कुछ ज्यादा पुरुषार्थ होगा तभी उसे अनुभूति होती होगी।
समाधानः- उस अपेक्षा-से, अनुभूति उसने प्राप्त की उस अपेक्षा-से उसका पुरुषार्थ ज्यादा है ऐसा कह सकते हैं।
मुमुक्षुः- उसे तो क्षयोपशमका उतना उघाड भी नहीं है।
समाधानः- उघाडके साथ उसे सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने इसलिये आत्माकी स्वानुभूति प्रगट होती है। ज्यादा शास्त्रका ज्ञान हो या ज्यादा शास्त्र पढे हो, उसके साथ (सम्बन्ध नहीं है)।
.. आत्माका स्वरूप मैं चैतन्य पदार्थ, अपने द्रव्य-गुण-पर्याय और परपदार्थके, उतना मूल प्रयोजनभूत जाने तो उसमें स्वानुभूति होती है। उसका भेदज्ञान करे कि यह शरीर सो मैं नहीं हूँ, ये विभाव शुभाशुभभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न, अनन्त गुण-से भरपूर, अनन्त शक्तियों-से भरा आत्मतत्त्व हूँ। ऐसा विकल्प नहीं, परन्तु ऐसे अपने अस्तित्वको ग्रहण करके उसका भेदज्ञान करे। उस भेदकी सहज दशा प्रगट करके अन्दर विकल्प छूटकर स्थिर हो जाय, उसकी श्रद्धा-प्रतीत करके, ज्ञान करके उसमें स्थिर हो जाय तो उसे भेदज्ञान निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। उसमें ज्यादा शास्त्र अभ्यासकी जरूरत नहीं है।
वह तो नहीं हो तबतक उसे शुभभावमें रहनेके लिये विशेष ज्ञानकी निर्मलता हो, इसलिये शास्त्रका अभ्यास करे। परन्तु ज्यादा जाने तो ही हो, ऐसा सम्बन्ध नहीं है। उसे क्षयोपशमके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसे अपनी अंतर परिणति पलटनेके लिये प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने, उसकी श्रद्धा करे और उसमें स्थिर हो तो उसे होता है।
शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। गुरुने कहा कि मातुष और मारुष। राग-द्वेष मत कर। वह शब्द भूल गये। गुरुने क्या कहा था वह शब्द भूल गये। फिर एक बाई
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दाल धो रही थी। मेरे गुरुने यह कहा था। ये छिलका अलग और दाल अलग। वैसे आत्मा भिन्न है और ये विभाव भिन्न है। ऐसे गुरुका आशय पकडकर अन्दर भेदज्ञान करके अंतरमें स्थिर हो गये तो स्वानुभूति तो हुयी, अपितु इतने आगे बढ गये कि उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व जाने, इसलिये आगे निकल जाता है।
मुमुक्षुः- मैं तलोद हमेशा जाता हूँ। एक भाई कहते हैं, सोनगढमें कुछ नहीं है। इसलिये मैंने कहा, चलिये सोनगढमें। क्या है, क्या नहीं है। आप कुछ बताईये कि सोनगढमें क्या है?
समाधानः- सोनगढमें गुरुदेव बरसों तक रहे। गुरुदेवकी पावन भूमि है। गुरुदेव जब विराजते थे तब तो कुछ अलग ही था। ये गुरुदेवकी भूमि है। यहाँ देव-गुरु- शास्त्रका सान्निध्य है। और चैतन्यको जो पहिचाने, उसकी रुचि करे तो वह रुचि हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- यहाँ अनुभूति पुरुष स्वयं ही विराजमान है। माताजी स्वयं ही है। उससे विशेष क्या होगा। लोग विरोध करते हैं, तो वास्तवमें उसे अनुभूतिका जोर नहीं है, यह नक्की होता है।
समाधानः- सबके भाव स्वतंत्र है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। सबके भाव सबके पास।
मुमुक्षुः- .. और पण्डितोंने..
समाधानः- सब शिष्योंने सुना है, सबने स्वीकार किया है। सबने प्रमोद-से स्वीकृत किया है।
मुमुक्षुः- फूलचन्दजी एकबार ऐरोप्लेनकी बात करते थे कि मैं ऐरोप्लेनमें बैठा था। फिर जब हिलने लगा तो मेरे पास गुरुदेवका फोटो था। मैंने कसकर गुरुदेवका फोटो पकड लिया, उतनेमें तो प्लेन एकदम स्थिर हो गया। फूलचन्दजी स्वयं कहते थे।
समाधानः- जात-जातका कहे।
मुमुक्षुः- जब गुरुदेव यहाँ विराजते थे तब।
समाधानः- हाँ, विराजते थे तब। प्रभावना योग, गुरुदेवकी वाणी और उनका ज्ञान ऐसा था कि उसे देखकर लोगोंको आश्चर्य होता था कि ये कोई तीर्थंकरका जीव ही है। ऐसा होता था।
मुुमुक्षुः- उपादान-निमित्तकी बात गुरुदेवने जो अंतरमें-से प्रकाशित की, वह बात ही कहाँ थी।
समाधानः- कहाँ थी। सब बात स्पष्ट की। उपादान-निमित्त, द्रव्य, गुण, पर्याय,
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आत्मा भिन्न, धर्म क्रिया-से नहीं है, धर्म अंतरमें है, शुभभाव पुण्यबन्ध है। अन्दर शुद्धात्मामें परिणति प्रगट होने-से धर्म होता है। सब उन्होंने प्रकाशित किया है। समयसारका अर्थ कौन समझता था? एक-एक शब्दका अर्थ करनेवाला कौन था? कोई भी शास्त्र ले, उसके एक-एक शब्दका अर्थ खोलनेवाला था कौन? कोई खोल नहीं सकता था।
अभी गुरुदेवके प्रताप-से सब शास्त्र पढने लगे। एक शब्दका अर्थ खोलकर, एक- एक शब्दका अर्थ खोलकर कितना समय, उसमें कितना विस्तार करते थे। वह किसीमें शक्ति नहीं है। अभी कोई पण्डित ऐसा कर नहीं सकते हैं। समयसार या अध्यात्म शास्त्रोंको कौन जानता था।
मुमुक्षुः- दिगंबर तो ऐसा समझते थे कि हम तो जन्म-से ही सम्यग्दृष्टि है। फिर तो बात ही कहाँ रही।
समाधानः- जन्म-से हो सकता है? वाडा मात्र कहीं सम्यग्दर्शन देता नहीं। सम्यग्दर्शन तो आत्मामें प्रगट होता है। अनन्त काल-से जीवने.. कहते हैं न कि पंचमकालमें तीर्थंकरका जीव आये तो भी माने नहीं। अनन्त कालमें समवसरणमें-से जीव ऐसे ही वापस आता है। समवसरणमें भगवान मिले तो भी स्वंय अपनी इच्छानुसार परिणति प्रगट करता है। सब स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने प्रकाशमें रखा तो यही पण्डित लोग चूँ.. चूँ.. करते थे। येही पण्डित थे। गुरुदेवने तत्त्व प्रकाशित किया तब भी इतना ही उहापोह करते थे। जहाँ- तहाँ पेम्पलेट फेंकते थे। उनके विरूद्धमें लिखते थे, ऐसे है, वैसे है, कितना लिखते थे।
समाधानः- स्वयंको सुधरना है (और) दूसरेको सुधारना है। पहले अपने आत्माका कल्याण करे। दूसरेको सुधारनेके लिये मानों कोई मार्ग नहीं जानते हैं, हम ही जानते हैं। ऐसा उन लोगोंको हो गया है।
मुमुक्षुः- आपके आशीर्वाद-से पंच कल्याणक बहुत अच्छी तरह उजवाये। सब तन-मन-से ऐसे जुड जाय कि सोनगढमें रोनक हो जाय।
समाधानः- सबकी भावना है, भावना-से सब किया है और गुरुदेवका प्रताप है। समाधानः- जीव वापस आता है। मात्र बाह्य दृष्टि-से देखता है। अंतर दृष्टि- से देखा नहीं है, भगवानको पहचाना नहीं है। तेरे आत्मामें ही सब है। अन्दर गहराईमें ऊतरकर देख। समवसरणमें जैसे भगवान हों, वैसे शाश्वत नंदीश्वरमें शाश्वत भगवान हैं। कुदरतकी रचना ऐसी बनी है। परमाणुकी रचना भगवानरूप हो गयी है। जिनेन्द्र देवकी जगतमें ऐसी महिमा है कि परमाणु भी जिनेन्द्र देवरूप परिणमित हो गये हैं, तीर्थंकररूप परमाणु परिणमित हो जाते हैं। रत्नके रजकण वैसे परिणमित हो जाते हैं।
.. शास्त्रमें आता है न? भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहिचाने तो अपने द्रव्य-
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गुण-पर्यायको पहचानता है। अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने तो भगवानको पहिचानता है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान किससे करना?
समाधानः- अंतरमें ज्ञान-से भेदज्ञान करना। शास्त्रमें आता है, प्रज्ञा-से ग्रहण करना, प्रज्ञा-से भिन्न करना, सब प्रज्ञा-से करना। परन्तु वह प्रज्ञा काम कब करे? अंतरमें स्वयंको उतनी लगे तो हो। मात्र बोलनेरूप या नक्की करनेरूप या विकल्परूप हो तो वह प्रज्ञा अन्दर काम नहीं करती है। परन्तु अंतरमें स्वयंको लगी हो कि भिन्न ही पड जाना है। एकत्वबुद्धि मेरा स्वभाव नहीं है, ये एकत्वबुद्धि जूठी है। मैं चैतन्य भिन्न- न्यारा ही हूँ। उस न्यारेको न्यारारूप ग्रहण करना है। उतनी अंतर-से लगनी लगे तो उसकी प्रज्ञा काम करे। मात्र बुद्धि-से जाने तो वह ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता नहीं।
ज्ञान ज्ञानरूप कार्य कब करे? कि स्वयंको अंतरमें उतनी अपनी ओर आनेकी तीक्ष्णता जागे कि ये चैतन्य ही महिमारूप है और ये एकत्वबुद्धि और ये विभाव आकुलतारूप है, उतना यदि उसे अंतरमें हो तो वह अंतरमें-से वापस मुडे। परन्तु उसका साधन ज्ञान (है)। ज्ञान-से ग्रहण होता है, ज्ञान-से भिन्न पडता है। सब ज्ञान-से होता है। परन्तु परिणति पलटे कब? अंतरमें स्वयंको उतनी थकान लगी हो, अन्दर-से स्वयंको स्वभाव ग्रहण करनेकी उतनी तमन्न लगी हो तो हो। नहीं तो बुद्धि-से ग्रहण कर ले कि मैं भिन्न, यह भिन्न। परन्तु उसका तीव्र अभ्यास कब हो? यदि स्वयंको लगे तो हो।