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समाधानः- ... अनन्त काल-से बाह्य क्रियामें सब मान बैठा है, परन्तु बाहरमें- से, कोई विभावमें-से वह स्वभाव नहीं आता है। परन्तु स्वभावमें-से स्वभाव आता है। इसलिये उसका भेदज्ञान करे कि विभावभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी अंतरमें भिन्न श्रद्धा-प्रतीति करे, उसका ज्ञान करे और उस रूप परिणति करे तो प्रगट हो।
उसे करनेके लिये उसकी लगन, उसकी महिमा, सब वही करनेका है। उस जातका विचार, वांचन, वह जबतक न हो तबतक शास्त्रका अभ्यास करे, वांचन करे, लगनी, महिमा करे। गुरुदेवने कहा है उसी मार्ग पर जाना है। उसकी अपूर्वता लगनी चाहिये, अंतरमें उसकी महिमा लगनी चाहिये। ये सब बाहर कुछ अपूर्व नहीं है। अनन्त कलमें सब किया, परन्तु एक आत्माका स्वरूप नहीं जाना है। बाहरमें उसे सब अपूर्वता लगी, बाहरकी अपूर्वता वह अपूर्वता नहीं है। अंतरकी अपूर्व वस्तु अंतरमें है। बाहरमेंं कुछ नवीनता है ही नहीं। बाहरकी जो महिमा लगती है, वह छूटकर अंतरकी महिमा होनी चाहिये।
..स्वभावमें-से प्रगट होता है, चारित्र अपनेमें-से प्रगट होता है, सब अपनेमें- से ही प्रगट होता है। सुवर्णमें-से सुुवर्णके ही गहने होते हैं, होलेमें-से लोहेका होता है। वैसे स्वभावमें-से ही स्वभाव प्रगट होता है। उसे बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। परन्तु उपादान स्वयंको तैयार करना है। अनन्त कालमें जीवने धर्म सुना नहीं है और सुनानवाले जिनेन्द्र देव, गुरु मिले और यदि अपूर्वता लगे तो अंतरमें उसे देशनालब्धि होती है। ऐसा निमित्त-उपादाका सम्बन्ध है। परन्तु करनेका स्वयंको है। करना स्वयं, अंतरमें स्वयंको पुरुषार्थ करना है।
मुमुक्षुः- अन्दर-से उसे जिज्ञासा जागृत होनी चाहिये।
समाधानः- अन्दर स्वयंको लगना चाहिये कि मुझे करना ही है। भवका अभाव कैसे हो? ऐसा स्वयंको लगना चाहिये तो हो। उसे बाहरमें कहीं सुख लगे नहीं, शान्ति लगे नहीं, शान्ति अन्दरमें-से कैसे प्रगट हो? उसकी जिज्ञासा जागनी चाहिये।
महिमा करनी, लगनी करनी, विचार करना, वांचन करना, शास्त्र अभ्यास (करना),
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उसका अभ्यास करना। भेदज्ञान कैसे हो, उसका अभ्यास करना। पहले भेदज्ञानका अभ्यास (करना)। अन्दर रुचि लगनी चाहिये। रुचि लगे तो वह अभ्यास करे। स्वयंको वह करना है। उसकी रुचि लगनी चाहिये। अंतरमें-से यथार्थ परिणति तो बादमें होती है, पहले उसका अभ्यास करे। वह नहीं हो तबतक।
समाधानः- .. भेदज्ञान करनेके लिये उतनी लगनी, उतनी महिमा, श्रुतका वांचन, विचार सब होता है। तैयारी हो तो हो। भेदज्ञानकी परिणति हो तो स्वानुभूति हो। तैयारी करनी।
अनन्त कालमें बाहरका सब बहुत किया है, एक अंतरमें दृष्टि करके आत्माका पहिचानना वह करना है। क्रियाएँ की, शुभभाव किये, सब किया, देवलोक मिला, सब मिला परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ। भवका अभाव होनेका मार्ग गुरुदेवने बताया है। मुक्तिका मार्ग अंतरमें है। गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। दृष्टि करे तो मालूम पडे ऐसा है। गुरुदेवने चारों पहलूओं-से समझाया है। आत्माका द्रव्य-गुण-पर्याय क्या? विभाव क्या? पुदगल क्या? सब बताया है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीके बिना अकेले तो कुछ समझमें आता नहीं।
समाधानः- गुरुदेवने बहुत समझाया है। उसका मूल आशय ग्रहण कर लेना, गुरुदेवने क्या कहा है, वह। उसके लिये सत्संग और स्वयंको जहाँ-से समझमें आये, गुरुदेव विराजते थे वह बात अलग थी, परन्तु गुरुदेवने जो समझाया है उसका आशय ग्रहण करना। मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको ग्रहण करना। अपने द्रव्य-गुण-पर्याय, चैतन्यके चैतन्यमें। परद्रव्यके परद्रव्यमें है। वह समझना।
जो भगवानको, गुरुको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है। ऐसा सम्बन्ध है। गुरुने क्या किया? गुरुदेव क्या कहते थे? ऐसे यथार्थपने जाने तो अपने स्वरूपको जाने। ऐसा सम्बन्ध है। इसलिये मैं कौन हूँ? जो स्वयंको पहिचाने वह देव-गुरुको पहिचाने और देव-गुरुको पहिचाने वह स्वयंको पहिचानता है। इसलिये चैतन्यका द्रव्य, चैतन्य वस्तु क्या? उसके गुण क्या? उसकी पर्याय क्या? उसकी परिणति कैसी (होती है)? अंतरमें कैसा आत्मा है? उसका विचार करे। जो गुरुदेवने कहा उस मार्ग पर, आशय ग्रहण करके वह विचार करे। वह न हो तबतक उसका बारंबार अभ्यास करे।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- मनुष्य जीवनमें ये कुछ नवीन करना है, ये कुछ नवीन नहीं है। अनन्त काल ऐसे ही व्यतीत हो गया, ऐसे भव अनन्त हुए। उसमें इस भवमें पंचमकालमें गुरुदेव मिले। इस कालमें ऐसी वाणी सुनानेवाले, ऐसा मार्ग समझनेवाले मिलना दुर्लभ है। इसलिये आत्मा ही सर्वस्व है, उस तरफका पुरुषार्थ और खटक होनी चाहिये।
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मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ज्ञाता हूँ ऐसी भेदज्ञानकी परिणतिका अभ्यास करना। मूल वस्तु यह है। एकत्वबुद्धिको तोडना। एकत्व तोडकर स्वरूपका एकत्व करे। चैतन्यमें एकत्व, परसे विभक्त हूँ, उसका अभ्यास करना। सूक्ष्म रूपसे बहुत समझाया है, करनेका स्वयंको हो। ... आत्मा है। बाहरमें कुछ अनुपमता है ही नहीं, अनुपमस्वरूप आत्मा है। उसीमें- से प्रगट हो ऐसा है।
समाधानः- .. अनुयायी और शिष्योमें कुछ फर्क नहीं है। गुरुदेवके हर गाँवमें शिष्य हैं। यहाँ भी है, सब गुरुदेवके शिष्य ही हैं। (गुरुदेव) अलौकिक पुरुष थे, महापुरुष। गुरुदेव जैसा तो कोई है ही नहीं। गुरुदेव तो कोई अदभुत व्यक्ति इस पंचमकालमें हुए। गुरुदेवकी वाणी बहुत लोगोंने ग्रहण की है।
... तीर्थंकरदेवको जो समवसरणकी रचना होती है, भगवानकी दिव्यध्वनि छूटे, उसका अतिशय, उनकी वाणी, समवसरणमें कितने ही जीव (होते हैं), चतुर्विध संघ वाणी सुनते हैं। तीर्थंकर भगवानका अतिशय अलग ही होता है। उनके प्रताप-से अनेक मुनिवृंद होते हैं। तो भी कोई मुनि, तीर्थंकरकी तुलनामें उनके जैसा अतिशय किसीका नहीं होता। उसमें ऐसा कहे कि तीर्थंकरके बाद कौन? तीर्थंकर तीर्थंकर ही होते हैं, उनके जैसा कोई नहीं होता। तीर्थंकरके बाद किसकी स्थापना करनी, ऐसा होता ही नहीं। तीर्थंकरके बाद कोई होता ही नहीं। मुनिओंका समूह होता है, परन्तु तीर्थंकर जैसी वाणी किसीकी नहीं होती।
.. उनकी कोई स्थापना नहीं होती। उनकी ध्वनि छूटे, परन्तु तीर्थंकरका अतिशय तो तीर्थंकरको ही होता है। उनके बाद कौन? ऐसी कोई स्थापना नहीं होती कि तीर्थंकरके बाद किसको स्थापना। मुनि आदि होते हैं, उनकी स्थापना नहीं होती। क्योंकि तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं।
मुमुक्षुः- गणधर तो होते हैं न।
समाधानः- तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं। वह सब तो छद्मस्थ होते हैं। तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं। उनके बाद कौन? ऐसा कुछ होता ही नहीं। वह तो जिन्होंने वाणी ग्रहण की, तो ऐसे ही मार्ग चलता है। वाणी ग्रहण की और आत्माकी साधना करनेवाले बहुत जीव होते हैं। आत्माकी साधना करे उसीमें मार्ग चलता है। ऐसे साधक जीव बहुत होते हैं।
मुमुक्षुः- सिद्ध होकर उनके जैसा बन सकते हैं, परन्तु बाहर अतिशयमें कोई समानता नहीं होती।
समाधानः- अतिशयमें समान हो ही नहीं सकता। उनके बाद उनके जैसा कोई होता ही नहीं। साधना करनेवाले बहुत मिलेंगे, परन्तु उनके जैसा कोई नहीं मिलता।
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मुमुक्षुः- गुरुदेवका ही मार्ग चल रहा है।
समाधानः- मुनिओं-से, उनकी साधना-से सब चले। परन्तु उनके जैसी वाणी किसीकी नहीं होती।
मुमुक्षुः- ... तीर्थंकरका था, तो उनकी वाणीमें ऐसी सातिशयता थी या उनको सुननेवालोंमें भी बहुत मार्गको प्रवर्तानेवाले उनके पीछे (होते हैं)?
समाधानः- उनकी वाणीमें ऐसा अतिशय था। कुछ तैयार होते हैं, आत्मामेें तैयार हो जाते हैं। उनका अतिशय ऐसा था। अनेक जीव जागृत हो जाय, आत्मामें। उसका पुण्यका मेल नहीं होता। .. परन्तु भगवान जैसी वाणीका अतिशय और वैसी जो रचना होती है, वह नहीं होता। वीतरागी वाणी (होती है), वाणीमें वीतरागता बरसती है।
मुमुक्षुः- केवलज्ञान प्राप्त कर ले वह अलग बात है।
समाधानः- हाँ, केवलज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु बाहरका सब वैसा ही हो ऐसा नहीं। उसके साथ किसीका मेल नहीं होता।
आचार्यके बाद आचार्य, ऐसे स्थापना हो सकती है। भगवानके साथ किसीकी स्थापना नहीं हो सकती। गुरुदेव तीर्थंकर जैसे वर्तमानकालमंें हुए, वह द्रव्य ही ऐसा था।
मुमुक्षुः- तीर्थंकरका द्रव्य और वैसा ही योग।
समाधानः- तीर्थंकरका द्रव्य था। आचार्यके बाद आचार्य होते हैं, मुनिके बाद मुनि होते हैं। ऐसा होता है। .. वैसा अतिशय या वृंदका वृंद तैयार हो, ऐसा नहीं होता। गुरुदेव-से सब समूह तैयार हुआ, ऐसा सब नहीं हो सकता।
समाधानः- विकल्प रहित जो आनन्द आवे, वह आनन्द और विकल्प रहित आनन्द, अन्दर राग छूटकर जो आनन्द आवे, उस आनन्दमें फर्क होता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- वह तो अंतर्मुहूर्तकी ही स्थिति होती है। .. फिर तो दशा तो स्वयं अधिक पुरुषार्थ करे तो होती है। पुरुषार्थ करे। अभी द्रव्य और पर्यायका मेल समझना चाहिये कि द्रव्य और पर्याय क्या है।
मुमुक्षुः- परिणामी आत्मा और अपरिणामी।
समाधानः- परिणामी है। किस अपेक्षा-से परिणामी है? किस अपेक्षा-से नहीं है। वह सब अपेक्षा समझकर उसका मेल करना चाहिये। विकल्प-से रहित आत्मा है। आत्मामें है ही नहीं ऐसा नक्की किया, परन्तु उसकी गौणतामें देखे तो विकल्प है। परन्तु विकल्प मूल स्वरूपमें नहीं है।
जैसे स्फटिक मणि है वह स्वभाव-से निर्मल है। निर्मल है, परन्तु लाल-पीले फूलका
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संयोग हो तो वह लाल दिखता है। परन्तु वह लाल बाहर-से नहीं आया है, परन्तु स्फटिक स्वयं परिणमित हुआ है।
वैसे जीव स्वयं परिणमता है। कुछ नहीं है अर्थात मात्र भ्रान्ति ही है और अज्ञान है, वह अपेक्षा-से बराबर है। परन्तु दूसरी अपेक्षा-से देखे तो उसे अनादि कालसे वेदन होता है, रागका, दुःखका वेदन किसको होता है? मुझे दुःख-से छूटना है, यह मुझे दुःख होता है, मुझे आकुलता होती है। वह वेदन अन्दरमें होता है। तो वह वेदन एक पर्यायमें है, मूल वस्तुमें नहीं है। वेदन पर्यायमें है, वस्तुमें तो नहीं है। परन्तु वस्तुमें नहीं है, ऐसा नक्की किया। फिर भी बाहर उसके वेदनमें अमुक खडा रहता है। इसलिये वह श्रद्धा बराबर करके, भेदज्ञानकी धारा ऐसी ही रहनी चाहिये कि क्षण- क्षणमें, क्षण-क्षणमें जैसे विकल्पकी धारा चलती है, उतनी ही उसके सामने धारा चलनी चाहिये। ... अन्दरसे चलनी चाहिये।
ज्ञायकधारा ऐसी चले तो उसमें-से स्वानुभूति हो। तो उसकी दशा चालू हो। स्वानुभूति नहीं हो तो उसकी दशा चालू नहीं होती। उसकी धारा चलनी चाहिये। अन्दर-से ऐसी भावना करे कि मैं भिन्न, मेरेमें कुछ नहीं है, मैं तो भगवान जैसा हूँ। अन्दर ऐसी भावना, वैराग्य हो जाय। परन्तु उस जातका वेदन होकर उसे स्वानुभूति होनी चाहिये। और उसकी धारा अन्दरमें (चलनी चाहिये)। बाहरमें कुछ भी काम करे तो क्षण- क्षणमें (चलनी चाहिये)। फिर भूल जाय और याद करे, भूल जाय और याद करे ऐसे नहीं, परन्तु उसे अन्दर धारा ही चलनी चाहिये। धारा चले और स्वानुभूति बार-बार हो तो उसे विकल्प छूटकर आनन्द आये। विकल्प छूटे बिना आनन्द नहीं होता।
मुमुक्षुः- विकल्प छूटे नहीं तो ऐसा अपूर्व आनन्द प्रगट ही नहीं होता।
समाधानः- हाँ, तो अपूर्व आनन्द प्रगट ही नहीं हो।
मुमुक्षुः- मुझे तो ध्रुव जैसा निश्चय है। बस, ..
समाधानः- ध्रुव, अचल... ध्रुव भी सिर्फ ध्रुव नहीं है, परन्तु ज्ञायक ध्रुव है। ज्ञायकतासे भरा हुआ ध्रुव है। ऐसा ध्रुवका निश्चय बराबर, फिर पर्यायमें क्या है? वह स्वयं नक्की करना चाहिये।
मुमुक्षुः- मैं कहती हूँ, ऐसा ही निश्चय है कि आत्मा प्राप्त करके रहूँगी। पूर्ण वीतराग होना, उस प्रकारका .. कभी छूटे नहीं ऐसा।
समाधानः- वह तो अच्छी बात है। स्वयं ज्यादा आगे बढना। ज्यादा आगे बढना बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- आगे जाना है, इसीलिये किस प्रकार... मुमुक्षुः- वह कहती है, पूर्णपने प्रगट हो..
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समाधानः- वह तो केवलज्ञान हुआ। मुुमुक्षुः- ऐसा है कि होना ही है। समाधानः- होना है, वह पूर्ण केवलज्ञान है और अभी तो द्रव्यदृष्टि कर सकता है, ज्ञायककी धारा कर सकता है। उतना कर सकता है। और स्वानुभूति कर सकता है। ज्यादा तो अन्दर सहज दशा हो तो होता है।
मुमुक्षुः- आपको ख्याल नहीं आ सकता?
समाधानः- आपके परिचय-से (ऐसा लगता है कि) अभी आपको आगे बढनेकी जरूरत है।
मुमुक्षुः- हाँ, वह बराबर। परन्तु स्वानुभूति हुयी है या नहीं, ऐसा ख्यालमें आये कि नहीं?
समाधानः- आपका आप नक्की कर सकते हो। मैं कैसे कहूँ?
मुमुक्षुः- अपने-से ऊपर कोई हो और अपनेको कहे तो कितना फर्क पडता है।
समाधानः- आपका पहलेका जीवन, बादका जीवन मुझे कुछ मालूम नहीं है। मैं ऐसे कैसे कह सकूँ? ये ब्रह्मचारी बहने यहाँ हमेशा परिचयमें रहती है तो मैं जान सकती हूँ कि इसमें क्या फर्क है। आगे बढो, इतना कहूँ। आगे बढनेमें कोई दिक्कत नहीं है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- आगे बढनेमें तो कोई दिक्कत नहीं है। द्रव्य-पर्यायका मेल करना, उसमें कोई दिक्कत नहीं है। द्रव्यमें नहीं है, पर्यायमें है। पर्याय कैसे (प्रगट हो), उसमें स्वयं विशेष आगे बढे। उसका ... ज्ञायककी धारा कैसे चालू हो? बारंबार वह करते रहना। ज्ञायककी धारा चले। ... गई तो वापस कैसे आयी? आखिर तक पुरुषार्थ तो करना ही रहता है। पुरुषार्थ छूट जाय तो वही दशा होती है। पुरुषार्थ तो आखिर तक करना रहता है। इसलिये पुरुषार्थ करते रहना।
आपको लगे कि मुझे है। परन्तु मैं कैसे कह सकूँ? आपको पुरुषार्थ करते रहना। हो गया हो तो अच्छी बात है, नहीं हुआ हो तो पुरुषार्थ करना। ... मैं कैसे कह सकूँ?
मुमुक्षुः- मैं किसीको पूछती नहीं। आप पर मुझे श्रद्धा है।
समाधानः- मानो कि हो गया है, तो अच्छी बात है। नहीं हुआ हो तो पुरुषार्थ ज्यादा करना। भेदज्ञानकी धारा प्रगट करके स्वानुभूति (प्रगट करनी)। अब वह उपशम चला गया तो फिर-से प्रगट करना तो रहता ही है। अभी पूर्णतामें तो देर है। अभी तो सम्यग्दर्शनकी दशाको ही चालू रखनेकी जरूरत है। सम्यग्दर्शनकी दशा ही चालू रखनी
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मुश्किल है। हो जाय फिर उसे चालू रखनी मुश्किल है।
... दिखता नहीं, पर्यायमें देखे तो दिखता है। उन दोनोंका मेल करके उस प्रकारका पुरुषार्थ करना। उस तरह पुरुषार्थकी धारा प्रगट करनी। मार्ग निकालना वह अपने हाथकी बात है। .. पुरुषार्थ-से होता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- परिपूर्ण हूँ। परन्तु विभाव अनादिका है, उसका बराबर ज्ञान करके आगे जाय तो कहीं भूल नहीं पडती। उसका यथार्थ ज्ञान करना है। स्वयं जानता है कि ये विभाव है। विभावका ज्ञान रहना चाहिये कि ये एक विकल्पकी धारा भले ही मुझमें नहीं है, परन्तु ये सब विकल्प खडे हैं। घरका, बाहरका, सब विकल्प खडे हैं। विकल्प है, .. उसमें-से विकल्प उत्पन्न होते हैं। इसलिये विकल्प तो है, विभाव तो खडा है। इसलिये उसका उसे ज्ञान वर्तता है। ... इसलिये ज्ञायककी उग्रता हो तो वह छूटे।
पहले तो श्रद्धा और प्रतीतमें आये। स्वानुभूति तो हो, परन्तु उसके बाद तो कितनी उग्रता हो तब मूलमेंसे छूटता है। केवलज्ञान, मुनिदशा वह तो अंतर्मुहूर्तका उपयोग कि जो एक समयका उपयोग हो तो एकदम हो। अभी तो वह स्वानुभूति तक पहुँचता है। भेदज्ञानकी धारा प्रगट करनी है।
मुमुक्षुः- मेरेमें रागका उदय ही नहीं होता है, ज्ञानका उदय होता है। समाधानः- ज्ञानका उदय होता है, बराबर है। रागका उदय है ही नहीं वह द्रव्यदृष्टि-से बराबर है। पर्यायमें है उसका ज्ञान करना। उसकी महिमा आये वह बराबर है कि रागका उदय नहीं है, ज्ञानका उदय हो रहा है। उसकी महिमा आये, उस जातकी भावना आये, उस जातका वैराग्य हो, परन्तु उसका ज्ञान तो होना चाहिये। तो पुरुषार्थ आगे बढे। नहीं तो पुरुषार्थ आगे नहीं बढे। मुझमें कुछ है ही नहीं, ऐसी महिमा करता रहे, पुरुषार्थ आगे नहीं बढता। ऐसा ज्ञान करे तो पुरुषार्थ आगे नहीं बढता। अभी इतना बाकी है, उसे ज्ञानमें न रखे तो पुरुषार्थ आगे नहीं बढ सकता। ... मेरेमें कुछ नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। कुछ है ही नहीं तो पुरुषार्थ कैसे आगे बढे?