Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 29.

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ट्रेक-०२९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- भिन्न पडने पर जो विश्वास आये कि ऐसा ज्ञायक मैं हूँ, वहाँ थोडी दिक्कत होती है।

समाधानः- एकत्व हो रहा है, इसलिये ऐसा ख्यालमें आता है। परन्तु अन्दर मैं ज्ञायक जानने वाला हूँ, ज्ञेयको जानने वाला ऐसे नहीं, राग मिश्रित मैं नहीं, परन्तु अकेला ज्ञायक जो जानने वाला है वही मैं हूँ, अन्दर गहराईमें ऊतरकर निज स्वभावको लक्ष्यमें ले तो ले सके ऐसा है। बाकी वैसे लक्ष्यमें लेने जाये कि जानने वाला मैं, परको जाने वह मैं अथवा रागको जाने वह मैं, राग मिश्रित ज्ञान मैं, वह तो उसे स्थूलतासे पकडमें आता है। अन्दर गहराईमें जाकर ग्रहण करे, ऐसी अन्दरकी जिज्ञासा, ऐसी लगनी हो कि मैं कौन हूँ? ये सब हो रहा है, उसमें मैं कौन हूँ? स्वयं स्वयंके स्वभावको लक्ष्यमें लेकर भिन्न होकर ग्रहण करना चाहे तो कर सके ऐसा है। लेकिन अन्दर गहराईमें ऊतरे, उतनी लगन लगनी चाहिये, उतनी जिज्ञासा (होनी चाहिये) कि मैं कौन हूँ? मुझे कैसे ग्रहण हो? तो स्वयं स्वयंको ग्रहण किये बिना रहता नहीं। स्वयं ही है। स्थूलतासे राग मिश्रित ग्रहण होता है। लक्षणको भिन्न करके लक्षण स्वयं पहचान सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- अनुमान ज्ञानसे विचार करते हैं तब तो ख्यालमें आता है कि ये जानता है कौन? जानता है वह आत्मा है, वह ज्ञायक है और वह तू है। ऐसे अनुमानसे (होता है)। लेकिन जब स्वसन्मुख होकर लक्षणको ख्यालमें लेनेका प्रयत्न करते हैं, क्योंकि लक्षणसे लक्ष्यको पकडना है, अब लक्षण ही भिन्न नहीं पडे और राग मिश्रित ख्यालमें आये या ज्ञेय मिश्रित ख्यालमें आये कि यह जानने वाला मैं हूँ, इसप्रकार उसमें स्थापना कैसे करनी?

समाधानः- स्वयंको अन्दर लगनी लगे तो वह स्वयं अपनी स्थापना कर सकता है और भिन्न पड सकता है। लेकिन स्वयं भिन्न ही नहीं पडता। विकल्पसे ऐसा करने जाये तो राग मिश्रित उसे ख्यालमें आता है। लेकिन अन्दरसे स्वयं भिन्न होकर ग्रहण करना चाहे तो कर सके ऐसा है। परन्तु उतना अंतरमें स्वयंको अन्दर लगना चाहिये। गहराईमें ऊतरकर ग्रहण करना चाहिये, तो होता है।


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मैं-पना, मैं.. मैं.. मैं जो हो रहा है, वह मैं कौन हूँ? मैं जानने वाला हूँ। ऐसे विकल्पसे मैं जानने वाला, ऐसे नहीं, परन्तु मेरा अस्तित्व जो है, अस्तित्व है वही मैं हूँ। जिस अस्तित्वमें राग नहीं है, जिस अस्तित्वमें विकल्प नहीं है, जिस अस्तित्वमें... उस लक्षणसे विकल्पसे पहचाने कि ये जानने वाला मैं हूँ, परन्तु मेरा जो अस्तित्व मैं हूँ, राग बिनाका, विकल्प बिनाका, मात्र अकेला जानने वाला चैतन्य वही मैं हूँ, इसप्रकार स्वयं स्वयंको, जिसे लगी हो वह ग्रहण कर सकता है।

मुमुक्षुः- गहराईसे, वह उतना गहराईमें ऊतरे तो आपका ऐसा कहना है कि वह ज्ञान लक्षण भिन्न होकर उसे ख्यालमें आये?

समाधानः- भिन्न होकर अन्दर ग्रहण कर सकता है। राग होने पर भी स्वयं अन्दर भिन्न होकर स्वयं स्वयंको ग्रहण कर सकता है। अन्दर स्वानुभूतिमें स्थिर होता है वह अलग बात है, लेकिन लक्षणसे प्रतीत द्वारा भी वह पहचान सकता है। ऊतना गहराईमें जाये, उतनी लगनी लगे, अन्दर उसे ग्रहण किये बिना चैन नहीं पडे, उतना उसे लगे तो स्वयं अन्दरसे ग्रहण हो सकता है। विकल्प नहीं, राग नहीं, बाहरसे जाने वह मैं नहीं, मैं तो मैं जानने वाला है वही मैं हूँ, इसप्रकार स्वयं जानने वाला है वही मैं हूँ। कोई अन्यके आश्रयसे, दूसरेको जानता हूँ इसलिये जानने वाला हूँ (ऐसे नहीं), मैं स्वयं ही जानने वाला हूँ। इसप्रकार स्वयं स्वयंको ग्रहण कर सकता है।

मुमुक्षुः- आप कहते हो तब विचारसे नक्की होता है कि विकल्प बिनाका अनादिका ऐसा मैं ज्ञायक हूँ, वह विचारमें तो बराबर आता है, परन्तु जब वास्तवमें उसे अन्दरसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करते हैं तब, लक्षण ही भिन्न नहीं पडता है, कि जिसके द्वारा अन्दर (लक्ष्यको ग्रहण कर सके)।

समाधानः- .. वही मैं हूँ, यह मेरा अस्तित्व-चैतन्य अस्तित्व है वही मैं हूँ, ये सब कुछ मैं नहीं हूँ। ये सब राग, विकल्प आदि जाननेमें आते हैं वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं अकेला जानने वाला, स्वयं जानने वाला है वही मैं हूँ। इसप्रकार स्वयं स्वयंको ग्रहण कर सकता है। स्थूलतासे ऐसे ग्रहण होता है कि ये जानता है वह मैं। ये जाना, वह जाना, रागको जाना, विकल्प होते हैं उसमें जो जानने वाला है वह मैं हूँ। बीचमें विकल्प, रागादि आये, लेकिन मैं वह नहीं, मैं अकेला उससे रहित मैं हूँ। मात्र विकल्पसे नहीं, लेकिन मैं स्वयं जानने वाला ही हूँ।

मुमुक्षुः- आप कहते हो परन्तु अभी ख्यालमें उतना आता है कि राग है, वृत्तिका उत्थान होता है वह राग है, इतना ख्यालमें आता है, परन्तु जानपना, जानपना अनुमानमें लेते हैं तो ख्यालमें आता है कि जानपना यानी स्वपरप्रकाशकपना मात्र। ऐसी त्रिकाल सामर्थ्यरूप पूर्ण वस्तु कि जिसमें दूसरे अनन्त गुण रहे हैं, वही मैं हूँ। लेकिन उससे


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आगे ज्ञानमें वह लक्षण-वह भाव स्थिर रहे, ऐसा नहीं होता।

समाधानः- .. होता है इसलिये टिकता नहीं। मात्र विकल्पसे ग्रहण होता है इसलिये वह टिकता नहीं। बारंबार विचार करे तब उसे ख्यालमें आता है। वह स्थूल है। अन्दर जो जानने वाला है वही मैं हूँ, ऐसे अन्दरसे ग्रहण होना चाहिये। मेरा अस्तित्व, यही मैं हूँ। लगनी लगे तो वह ग्रहण हो ऐसा है। फिर टिके कितना वह उसके पुरुषार्थ अनुसार (होता है), परन्तु वह अन्दरसे ग्रहण हो सके ऐसा है। विकल्प, रागादि हो तो भी वह गौण होकर, यह जानने वाला मैं हूँ, ऐसे ग्रहण हो सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- आप कहते हो वह ख्यालमें आता है कि, ज्ञायकका अस्तित्व तू ग्रहण कर और वह तेरा अस्तित्व..

समाधानः- ... लक्षण भिन्न नहीं है। वह स्वयं ही है। लक्षण और लक्ष्य दोनों एक ही है, दोनों भिन्न-भिन्न नहीं है। जिसका लक्षण है वह स्वयं ही है। द्रव्य स्वयं ही है, वह लक्षण द्रव्यका ही है। लक्षण और लक्ष्य दोनों एक ही है, दोनों अलग नहीं है। मात्र गुणभेद होता है। ग्रहण जो होता है वही वस्तु है। वस्तु स्वयं उस लक्षणसे भिन्न नहीं है। दोनों अभेद ही है। ... ऐसा क्रम नहीं पडता कि यह लक्षण, यह लक्ष्य। ऐसा भेद नहीं पडता। जो लक्षणको पहचानने जाता है, वह स्वयं लक्ष्यको पहचानता है। उसमें भेद नहीं पडता। जो यथार्थरूपसे लक्षणको पहचानता है, उसे लक्ष्य- लक्षणका भेद नहीं पडता। यह लक्षण है वही मेरे द्रव्यका स्वंयका है। उसे साथमें ग्रहण होता है।

गुणभेद तो एक... उसमें अनन्त गुण है, उस अपेक्षासे गुणभेद होता है। कि ये ज्ञान जाननेका लक्षण, आनन्दका आनन्द लक्षण, ऐसे लक्षण भिन्न पडते हैं। लेकिन ज्ञानलक्षण असाधारण है। पूर्ण ज्ञायक, जानने वाला चारों ओरसे जानने वाला ही है। वह जानने वाला है वही मैं हूँ, द्रव्य और गुण दोनों गुणभेदसे भिन्न पडते हैं, वस्तुभेदसे भिन्न नहीं है। इसमें तो उसे वस्तु ग्रहण करनी है। इसलिये जो लक्षणको ग्रहण करने जाये उसका ध्येय तो वस्तुको ग्रहण करनेका है। जो लक्षण ग्रहण करता है, वह लक्ष्यको साथमें ग्रहण करता है। यथार्थरूपसे हो तो।

मुमुक्षुः- आपको ऐसा कहना है कि, जिसे तीव्र लगन लगी, वह लक्षण पकडने जाता है वहाँ पूरा लक्ष्य ही ग्रहण हो जाता है?

समाधानः- हाँ, यथार्थ लक्षण ग्रहण करे तो लक्ष्य ग्रहण हो जाता है। अन्दर उसका ध्येय यह है कि मुझे पूर्ण द्रव्य ग्रहण करना है। मात्र लक्षण ग्रहण करनेका उसका ध्येय नहीं है। ज्ञान है वह असाधारण लक्षण है।

मुमुक्षुः- आपको ऐसा कहना है कि लक्षण ग्रहण हो तो लक्ष्य सीधा एक


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साथ ही ग्रहण हो जाता है?

समाधानः- एक साथ ग्रहण हो जाता है। स्थूल है इसलिये उसे... वास्तविक भेद नहीं है। संज्ञा भेद है, कार्य भेद है, ऐसा है। आनन्दका कार्य, जाननेका कार्य, ऐसे है। वस्तु भेद नहीं है।

..यथार्थपने यदि लक्षण ग्रहण हो तो लक्ष्य और लक्षण दोनों साथमें ही ग्रहण हो जाते हैं। जो पहले सीधा द्रव्यको नहीं पहचानता है उसे ऐसा कहनेमें आता है, तू लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान। कैसे पहचानना? ऐसा कहे तो जानने वालेका लक्षण दिखता है, वह जानने वाला है वही मैं हूँ। उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु वह लक्षण यथार्थपने पहचाने उसे खडा नहीं रहना पडता कि यह लक्षण और यह लक्ष्य। ऐसे उसे भिन्न करके ग्रहण नहीं करना पडता। लक्षण ग्रहण करे उसके साथ ही उसे लक्ष्य ग्रहण हो जाता है। यथार्थपने लक्षण ग्रहण करे तो उसका लक्ष्य द्रव्य साथमें ही ग्रहण हो जाता है। पहले लक्षण ग्रहण करे, फिर द्रव्य ग्रहण करे, वह सब तो स्थूलतामें जाता है।

यथार्थपने लक्षण ग्रहण करे, लक्षणके साथ लक्ष्य ग्रहण होता है। वह भिन्न-भिन्न स्थानमें नहीं रहते। जहाँ लक्षण है, वहीं लक्ष्य है और जो लक्ष्य है, वही लक्षण है। लक्ष्य और लक्षण दोनों एकसाथ है। दोनों साथमें ग्रहण होते हैं।

समाधानः- वह भाव बीचमें होते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि होते हैं। अन्दर आत्मा तो सबसे भिन्न, उसका स्वभाव भिन्न है, उसे पहचानना। सच्चा तो वही है, गुरुदेवने बताया है, भेदज्ञान करना।

मुमुक्षुः- भूतार्थ भाव ही, जिसकी दृष्टि करके, जो सम्यग्दृष्टिको गोचर है,..

समाधानः- पारिणामिकभाव न?

मुमुक्षुः- हाँ, पारिणामिकभाव। समाधनः- वह भाव है। उसकी दृष्टि करके यानी द्रव्य पर दृष्टि आती है। पारिणामिक भाव है उसमें कोई भेद नहीं पडता। उदयभाव, उपशमभाव सब अपेक्षित है, यह निरपेक्ष भाव है। पारिणामिकभावमेंं कोई अपेक्षा नहीं है। वह आत्माका सहज स्वरूप है। वह भाव है। इसलिये एक भाव पर दृष्टि रखनी ऐसा उसका आशय नहीं है। उसमें आशय पूर्ण द्रव्य पर दृष्टि करनेका है। पारिणामिकभावका अर्थ यह है।

पारिणामिक भावसे, प्रत्येक द्रव्य परमपारिणामिकभाव स्वरूप है। पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। जो द्रव्यका सहज स्वरूप है, उस सहज स्वरूपसे द्रव्य है। सहज स्वरूपरूप ही रहता है। उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब सहजरूप यानी द्रव्यरूप ही है। यानी उसमें कोई भेद नहीं है। दृष्टि रखनी यानी एक भाव पर दृष्टि करनी, ऐसा नहीं है।


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उसमें पूरा द्रव्य आ जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे उसमें पारिणामिकभाव समा जाता है।

मुमुक्षुः- पारिणामिकभाव.. दोनों एकार्थ है ऐसा नहीं कह सकते?

समाधानः- एक अर्थ है ऐसा नहीं, परन्तु उस पारिणामिकभावमें द्रव्य ही आ जाता है। पूर्ण द्रव्य उसमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- क्षायिक पर्याय अथवा केवलज्ञानकी पर्याय बाहर रह जाती है, तो फिर पीछे द्रव्यकी कोई ..

समाधानः- क्षायिकभाव तो पर्याय है न, द्रव्य तो अनादिअनन्त है। क्षायिकभाव बादमें प्रगट होता है, वह अनादिअनन्त नहीं है। इसलिये उसमें पारिणामिकभाव तो अनादिअनन्त है। इसलिये द्रव्य पर दृष्टि करनेपर उसमें पारिणामिकभाव आ जाता है। उसमें क्षायिकभाव तो सादिअनन्त होता है।

मुमुक्षुः- केवलज्ञानकी पर्याय भी नहीं है।

समाधानः- केवलज्ञानकी पर्याय नहीं है। केवलज्ञानकी शक्ति है।

मुमुक्षुः- शक्ति है?

समाधानः- हाँ, शक्ति है, पर्याय नहीं है। परिणमनरूप पर्याय नहीं है, शक्ति है। सब पारिणामिकभावरूप है। सहज आत्मा सहज ज्ञानस्वरूप है, सहज दर्शनस्वरूप है, सहज चारित्रस्वरूप है। लेकिन वह चारित्र यानी कौन-सा चारित्र? पूर्ण प्रगट चारित्र, वह चारित्र नहीं। सहज चारित्र जो स्वाभाविक सहज शक्तिरूप है, वह सब उसमें आ जाता है। सहज दर्शन, सहज ज्ञान, सहज चारित्र, सहज बलस्वरूप आदि सब सहज है। वह पारिणामिकभावरूप है। पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। उसमें पूर्ण ज्ञायक आ जाता है। द्रव्य पर दृष्टि की उसमें पारिणामिकभाव आ जाता है। पारिणामिकभावको ग्रहण करना अथवा द्रव्यको ग्रहण करना, दोनों एक स्वरूप ही है। छहों द्रव्यमें। परन्तु पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। द्रव्य जैसे अनादिअनन्त है, वैसे पारिणामिकभाव द्रव्यमें अनादिअनन्त है। बाकी उदयभाव आदि सब अपेक्षित है। क्षायिकभाव, उपशमभाव, क्षयोपशमभाव आदि।

मुमुक्षुः- द्रव्यको पारिणामिकभावको कथंचित भेद कह सकते हैं?

समाधानः- गुण-गुणीका भेद कह सकते हैं। कोई अपेक्षासे गुण-गुणी भेद कह सकते हैं।

मुमुक्षुः- पारिणामिकभावको गुण कहते हैं?

समाधानः- पारिणामिकभावको गुण कहते हैं, हाँ, गुण कहते हैं।

मुमुक्षुः- गुणोंका समूह है?


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समाधानः- गुण-गुण कहते हैं। पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है, इसलिये गुण है। वह पर्याय नहीं है।

मुमुक्षुः- जब दृष्टि आत्मा पर जाती है, तब आश्रय किया ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु केवलज्ञान होने पर आश्रय छूट जाता है?

समाधानः- दृष्टिने आत्माका आश्रय लिया। द्रव्य पर दृष्टि गयी, वह दृष्टि वहाँ शाश्वत सहज हो जाती है। पहले उसे सहज नहीं होता, पुरुषार्थ करके दृष्टि प्रगट की। जो दृष्टि प्रगट हुयी, (वह) दृष्टि शाश्वत रहती है। केवलज्ञान प्रगट होता है तब आश्रय नहीं होता, विकल्पयुक्त आश्रय नहीं होता, केवलज्ञानीको। उसे तो सहज परिणमन होता है। आश्रय छूट गया यानी उसे विकल्प छूट गये। बाकी जो परिणति स्वयंकी ओर मुडी सो मुडी, वह तो शाश्वत है। स्वयंकी ओर मुड गयी, ज्ञायकमें परिणति (गयी), ज्ञायकको लक्ष्यमें लिया, ज्ञायक पर जो दृष्टि थंभ गयी वह सहज है। आश्रय यानी उसे बोझ नहीं है। विकल्पका बोझ छूट गया। दृष्टि तो सहज है। दृष्टि तो सहज सदाके लिये है। दृष्टि, ज्ञान, केवलज्ञान होनेपर ज्ञान पूर्ण हो जाता है।

मुमुक्षुः- केवलज्ञान होनेपर आश्रय छूट नहीं जाता। समाधानः- विकल्प छूट जाते हैं, आश्रय तो... उसने दिशा बदली, दृष्टि बाहर थी, अन्दर गयी। दिशा बदल दी। लक्ष्यमें लिया, आत्माकी ओर परिणति गयी वह सदा रह गयी। अपनी परिणति गयी, स्वयंका आश्रय लिया, विकल्प छूट गये इसलिये निर्विकल्प दशा शाश्वत रह गयी। दृष्टि शाश्वत और ज्ञान जैसा था वैसा पूर्ण निर्मल हो गया। सब शाश्वत परिणतिरूप हो गया। विकल्पकी उपाधि छूट गयी। निरुपाधि सहज हो गया। दर्शन, ज्ञान, चारित्र जो आत्मामें प्रगट हुए वह साधनारूप थे, वह पूर्ण सहजरूप हो गये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!