Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 35.

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ट्रेक-०३५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! आगममें जगह-जगह सात तत्त्वके यथार्थ श्रद्धानको ही सम्यकत्वका लक्षण गिनकर महत्ता दी है तो उसमें इतना क्या रहस्य है, यह कृपा करके समझाईये कि जिससे हमें सम्यकत्व-रत्नकी महिमा जागृत हो।

समाधानः- सात तत्त्वकी श्रद्धामें आचार्यदेवको एक जीवपदार्थको मुख्य कहना है। लेकिन वह एक आत्मा पदार्थ समझ नहीं सकता है। इसलिये उसे व्यवहारकी बात भी साथमें (कहते हैं)। सात तत्त्वका श्रद्धानमें मुख्यरूपसे तो अन्दर आत्माकी ओर द्रव्यदृष्टि करनी, ऐसा आचार्यदेवको कहना है। भूतार्थदृष्टिको ग्रहण कर। लेकिन उसमें सात तत्त्वकी श्रद्धा बीचमें होती है। इसलिये आचार्यदेव व्यवहारसे बात करे तो भी अन्दर आत्माको ग्रहण करानेका उनका आशय होता है। एक आत्माको ग्रहण करना। भूतार्थ तत्त्व एक भूतार्थ आत्मपदार्थ है, उसे ग्रहण कर। उसके बीच ये सात तत्त्व- जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, आस्रव, संवर, बंध, मोक्ष आदि आते हैं। क्योंकि तुझे साधकदशा प्रगट करनी है तो उसमें बीचमें यह विभाव है, विभावमेंसे संवर हो, उसमेंसे निर्जरा हो, विशेष शुद्धि हो तो निर्जरा हो, अमुक शुद्धि हो तो संवर हो, पूर्ण शुद्धिमें मोक्ष होता है। सादकदशा और साध्य दोनों आचार्यदेव बताते हैं।

भूतार्थनयको मुख्य कर। एक मुख्य चैतन्यद्रव्यको मुख्य करके उसमें यह जो पर्याय होती है, वह दोनों उसमें आ जाते हैं। आचार्यदेव पूरा मुक्तिका मार्ग बता रहे हैं। आचार्यदेवको व्यवहारकी बात करके समझाना है, एक जीवतत्त्वको ग्रहण करना। लेकिन ... ऐसा नहीं है। व्यवहारसे जो कहते हैं यानी व्यवहार बिलकूल है ही नहीं ऐसा नहीं है। आचार्यदेवके एक-एक शब्द जो होते हैं वह तत्त्व ग्रहण करनेके लिये होता है और यथार्थ मुक्तिमार्ग ग्रहण करवाना होता है। आचार्यदेव जो कहते हैं, उसमें जो व्यवहारकी बात करते हैं वह बिलकूल जूठी है ऐसा नहीं। आचार्यदेवकी जो कथनी होती है वह सत्यता पर सत्य ही होती है। इसलिये निश्चय किस अपेक्षासे है और व्यवहार किस अपेक्षासे, वह उसे आत्मार्थ हेतु समझना रहता है। आत्मार्थीको आचार्यदेव पूरा मुक्तिका मार्ग समझाते हैं।

मुख्य जो आत्मा है उसे ग्रहण कर, जीवतत्त्वको ग्रहण कर। उसमें सब पर्यायें


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होती हैं, उसका ज्ञान कर। मुख्य एक आत्माको ग्रहण कर। यथार्थ ज्ञान होगा तो तेरी साधना यथार्थ होगी। इसलिये यथार्थ ज्ञान कर। और दृष्टिमें मुख्य एक जीवद्रव्यको रख, उस पर दृष्टि कर। आचार्यदेवका यह कहनेका आशय है। अलग-अलग मात्र जाननेके लिये जान लेना, ऐसा नहीं है। एक श्रद्धा कर लेनी कि जीव है, पुण्य है, आस्रव है, पाप, संवर, बन्ध, मोक्ष आदि है, ऐसी श्रद्धा कर ली, ऐसा नहीं। एक आत्मतत्त्वको ग्रहण कर और उसकी यह पर्याय है, उसका ज्ञान कर। उसमेंसे साधना होती है। ऐसा आचार्यदेवका कहनेका आशय होता है। व्यवहार कहकर अन्दर निश्चय आत्माको बताना है।

आचार्यदेवके सब कथन रहस्यमय होते हैं। एक सम्यग्दर्शन प्रगट कर तो उसमें पूरा मुक्तिका मार्ग आ जाता है। उसमें सम्यग्दर्शन, मुनिदशा, केवलज्ञान (सब प्रगट हो जाता है)। एक सम्यकत्व ग्रहण किया, जो अनादिसे प्रगट नहीं हुई ऐसी स्वानुभूति प्रगट हुई उसमें पूरा मुक्तिका मार्ग प्रगट हो गया। उसमें पूरा मार्ग स्पष्ट हो गया। इसलिये सात तत्त्वकी श्रद्धामें एक भूतार्थ दृष्टिसे तू सब जान, ऐसा आचार्यदेवको कहना है। व्यवहारसे बात करे इसका मतलब उसमेंं आचार्यदेवकी गहरी बात होती है। जो नहीं समझते हैं इसलिये उसे व्यवहारसे बात करते हैं। परन्तु आचार्यदेवको गहरी बात समझानी होती है।

मन्दिर जाना है ऐसा कहे। मन्दिर जानेका हेतु भगवानके दर्शनका है। कोई कहे कि भगवानके दर्शन करने हैं और कोई कहता है, मन्दिर जाना है। मन्दिर जानेमें सहेतु तो भगवानके दर्शनका होता है। सिर्फ मन्दिर जाना है उतना ही हेतु नहीं होता, परन्तु भगवानके दर्शनका होता है।

ऐसे कोई सीधा आत्मा कहे तो और व्यवहारसे बात करे उसमें एक आत्माका होता है। मन्दिर जाना है ऐसा कहनेमें हेतु भगवानके दर्शन करनेका है। वैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी बात करे तो उन तीनोंमें एक आत्मा ग्रहण कर। आत्माको साध्य रखकर साधकदशामें ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब आता है।

मुमुक्षुः- मन्दिर जा, ऐसा कहे उसका मतलब...

समाधानः- मन्दिर जाना है इतना ही नहीं, भगवानके दर्शन करने जाना है।

मुमुक्षुः- तुरन्त समझ भी जाये कि मन्दिर जानेका कहा है मतलब दर्शन करने है।

समाधानः- भगवानके दर्शन करनेको कहा है।

मुमुक्षुः- सात तत्त्वका ज्ञान और श्रद्धान कर, वह आत्माका ज्ञान एवं श्रद्धान करानेको कहा है।


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समाधानः- आत्माका ज्ञान करानेको सात तत्त्वकी श्रद्धा करनेको कहा है।

मुमुक्षुः- आत्माके श्रद्धानका अर्थ आप सामर्थ्यके श्रद्धानकी बात करते हो? आत्माके सामर्थ्यकी? हेतु यह है?

समाधानः- आत्माका ज्ञान कर यानी आत्माका सामर्थ्य और आत्मा तत्त्व कैसा है, उसका ज्ञान कर। सामर्थ्य यानी अनन्त गुणोंसे भरा है, ऐसे ग्रहण कर। फिर अनन्त गुण पर दृष्टि नहीं रखनी है। आत्मा कैसा है? ज्ञायकतत्त्व। उसे ग्रहण तो एक अभेदको है। लेकिन उसका सामर्थ्य कैसा अनन्त है, उसमें साथमें सब ज्ञानसे ग्रहण करना है। आत्माका अनन्त सामर्थ्य, आत्माके गुण-पर्याय ज्ञानसे ग्रहण कर। फिर दृष्टि एक आत्मा पर स्थापित करनी है।

शास्त्र पढता रहे तो शास्त्र मात्र पढनेके लिये नहीं है। तू शास्त्र समझ, उसमें आत्माको पहचान ऐसा कहनेका आशय होता है। मन्दिर जाना मतलब भगवानके दर्शन करने है। वैसे आत्माको ग्रहण करनेका आशय होता है। "चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार कथने ज्ञानीने'। व्यवहारसे चारित्र, दर्शन कथन कहे, लेकिन निश्चयसे चारित्र नहीं है, दर्शन नहीं है, ज्ञान नहीं है। अर्थात गुणभेद नहीं है। लेकिन वह स्वरूप तो है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीनों गुण आत्मामें है। लेकिन उस गुणभेदमें रुकना नहीं। भेदका विकल्प करनेसे राग होता है। इसलिये तू विकल्प तोडकर आत्मामें स्थिर हो।

... चारित्र पर ऐसे दृष्टि करनेसे तू उसमें रुक जायेगा। एक ज्ञायक पर दृष्टि स्थापित कर। लेकिन वह तीन भेद उसे बीचमें समझानेके लिये कहनेके लिये आये बिना रहता ही नहीं। आचार्यदेव कहते हैं कि खेद है कि बीचमें व्यवहार आये बिना रहता ही नहीं। अनादिसे जो विभावमें पडा है, उसमेंसे साधकदशा प्रगट होती है, इसलिये बीचमें व्यवहार आये बिना रहता ही नही। इसलिये जो नहीं समझते हैं उसे व्यवहारसे समझानेमें आता है। लेकिन जो आत्मार्थी होता है वह आशय ग्रहण कर लेता है कि गुरुदेवको एक आत्मा ग्रहण करानेका हेतु है, लेकिन बीचमें यह समझानेके लिये यह सब आता है। लेकिन निश्चय-व्यवहारकी संधि भी होनी चाहिये। एक आत्माको ग्रहण कर। और यह जो गुण और पर्यायका स्वरूप है, वह कुछ है ही नहीं, ऐसे छोड दे तो भी भूल होती है। सबका स्वरूप समझकर एक द्रव्य पर दृष्टि करनी है।

समाधानः- ... ज्ञायक परिणति अंतरमें प्रगट हुई, वह ज्ञायककी परिणति चालू हो गयी। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो गयी। ज्ञायककी परिणति सदाके लिये, खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें सबमें ज्ञायककी परिणति चालू ही है। ज्ञायककी धारा चालू हो गयी। पुरुषार्थकी धारा ज्ञायककी ओर ही चलती है। ऐसी ज्ञायकताकी उग्रताके लिये उसका प्रयत्न चालू ही है। उसकी भूमिका अनुसार।


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फिर जैसे भूमिका बढती जाये, वैसे ज्ञायककी परिणति भी विशेष-विशेष बढती जाती है। लीनता बढती जाती है। भूमिका पलटनेसे पाँचवां गुणस्थान, छठ्ठा-सातवां गुणस्थान आता है। जैसे-जैसे भूमिका बढती जाती है, वैसे-वैसे उसे परिणतिमें लीनता बढती जाती है। बाकी सम्यग्दर्शनके बाद ज्ञायककी परिणति चालू ही रहती है। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो गयी, इसलिये वर्तमान दशामें कुछ नहीं होता, ऐसा नहीं है। ज्ञायककी परिणति, ज्ञायकका वेदन प्रतिक्षण होता है। चाहे जैसे प्रसंगमें उसे ज्ञायककी परिणति छूटती ही नहीं।

उसे निर्विकल्प दशा भी उसकी भूमिका अनुसार होती है। वह आनन्दकी दशा अलग बात है, लेकिन वर्तमान धारामें भी विकल्पके साथ एकत्वरूप आकूलता नहीं होती। अन्दर शांतिकी धारा, समाधिकी धारा, ज्ञायककी धारा, विरक्ति, विभावसे विरक्ति और स्वभावमें एकत्व एवं विभावसे विरक्त, उसे याद नहीं करना पडता, बल्कि सहज ज्ञानधारा और उदयधारा चालू ही है। चाहे जैसे प्रसंगमें क्षण-क्षणमें, कभी भूलता नहीं। चाहे जैसे प्रसंग हो, चलते-फिरते कभी भी उसे ज्ञायककी परिणति, कोई भी भावोंमें ज्ञायक परिणति छूटती नहीं। ऐसी उसकी दशा हमेशा चलती है। ऐसा सहज पुरुषार्थ उसका चालू ही होता है। ऐसी उसकी दशा होती है। ऐसी ज्ञानधारा, उसकी प्रतीतका जोर उतना और लीनता उस ओर चालू ही रहती है।

मुमुक्षुः- सहज और पुरुषार्थ, दोनों एकसाथ कैसे रहते हैं? सहज पुरुषार्थ चलता है?

समाधानः- सहज चलता है। सहज पुरुषार्थ। विकल्प करके पुरुषार्थ रखना पडे ऐसा नहीं है। भूल गया और फिर पुरुषार्थ करना पडे, ऐसा नहीं है। सहज पुरुषार्थ चलता है। अन्दर ज्ञायककी परिणतिका पुरुषार्थ सहज (चलता है)। विभावसे भिन्न हुआ सो हुआ, फिर विशेष-विशेष लीनताके लिये पुरुषार्थ, अपने स्वरूपकी ओरकी डोर चालू है वह चालू ही रहती है। ज्ञानदशाकी डोरी कभी नहीं छूटती। ऐसी पुरुषार्थकी धारा उसकी सहज चलती है। पुरुषार्थ और सहज है। पुरुषार्थ है, लेकिन सहज है।

मुमुक्षुः- माताजी! जैसे ज्ञान और चारित्र कहनेपर उसका कुछ-कुछ भाव पकडमें आता है, परन्तु दृष्टि, जिसके आधारसे भवकटि हो जाये, सब दुःख दूर हो जाये, ऐसी दृष्टिके स्वरूपकी महिमा समझानेकी विनती है।

समाधानः- ज्ञान यानी वह समझता है कि जानना वह ज्ञान। बाकी सच्चा ज्ञान तो स्वकी ओर जाये तब होता है। चारित्र यानी वह आचरणकी अपेक्षासे समझता है, बाकी सच्चा चारित्र तो स्वरूपमें जाये तब होता है। ऐसे दृष्टि-श्रद्धा। स्वरूपकी ओर दृष्टि गयी तो उसे विभावस्वभावमें भेद हो गया कि यह स्वभाव है, विभाव मुझसे


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भिन्न है। उसी तरह गुणभेद पर भी वह टिकती नहीं। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करे, ऐसी जो दृष्टि, नजर, विश्वास और श्रद्धाका जो बल है, वह एक आत्माको ही ग्रहण करके टिकी रहती है। ऐसी दृष्टि कोई अलग ही है। उसमें ही उसे स्वानुभूति आदि दृष्टिके बलसे होते हैं। उसकी दृष्टि कहीं ओर जाती ही नहीं। एक आत्माको ही ग्रहण करती है। बद्धस्पृष्ट आदि सब भाव ऊपर तिरते हैं। वह ऊपर-ऊपर रहते हैं। एक आत्मा ही उसे, मूल तल जो आत्मा है उसमें ही उसकी दृष्टि स्थिर रहती है। पूरी दिशा बदल गयी है।

... चैतन्य भगवान पर दृष्टि चिपक गई, फिर उसमें गुणभेद, पर्यायभेद पर दृष्टि टिकती नहीं। ज्ञानमें सब आता है, ज्ञानमें सब आये, लेकिन दृष्टि तो एक चैतन्यको ग्रहण करती है। दृष्टिका निर्णय और उसकी श्रद्धा, जोरदार एकको ग्रहण करती है। ज्ञानमें सब आता है। ज्ञान सबकी श्रद्धा करता है। द्रव्यको जाने, गुणको, पर्यायको, सबको जाने। लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर है।

जिसे सम्यग्दर्शन हुआ उसके साथ सम्यग्ज्ञान होता ही है। सम्यग्ज्ञान (और सम्यग्दर्शन) दोनों साथमें ही होते हैं। इसलिये उसमें मुख्य निश्चयकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शन है। लेकिन सम्यग्ज्ञान उसके साथ ही होता है। सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान होता ही है। एक आत्माको ग्रहण किया इसलिये उसमें गुण-पर्यायको जाने नहीं, ऐसा नहीं बनता। ज्ञान और दर्शन दोनों साथमें ही रहते हैं। मोक्षमार्गमें दोनों साथ ही रहते हैं। उसकी चारित्रकी आराधना साथमें रहती है। बाकी काम दोनों साथमें रहकर (करते हैं)। दृष्टि मुख्यरूपसे है और ज्ञान उसके साथ रहता है। दोनों साथ ही रहते हैं।

ज्ञानकी अपेक्षासे ज्ञानकी महिमा है, दृष्टिकी अपेक्षासे दृष्टिकी (महिमा है)। लेकिन दृष्टिके बिना अनादि कालसे रखडा और अपने भवका अभाव नहीं हुआ। स्वानुभूति प्रगट नहीं हुयी। दृष्टि महिमावंत है, सम्यग्दर्शन महिमावंत है। सम्यग्दर्शन होता है इसीलिये ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। नहीं तो सम्यग्दर्शन बिनाका ज्ञान, ज्ञान नहीं है। आत्माको जाने बिनाका ज्ञान वह ज्ञान नहीं है। इसलिये सम्यग्दर्शन महिमावंत है।

मुमुक्षुः- दृष्टिका परिवर्तन होना चाहिये, दृष्टि पलटनी चाहिये।

समाधानः- दृष्टि पलटनी चाहिये। लेकिन समझनेके लिये पहले व्यवहारसे ज्ञान साथमें होता है। द्रव्य किसे कहते हैं, गुण किसे कहते हैं, पर्याय किसे कहते हैं, भेद-अभेद आदि किसको कहते हैं, वह सब ज्ञानमें जाननेमें आता है। वह ज्ञानमें निर्णय करता है। पहले व्यवहारको जानना कैसे? ज्ञान उसे बीचमें साधनरूप होता है। व्यवहारसे। लेकिन दृष्टि मुख्य है।

मुमुक्षुः- ज्ञान होनेपर उसे दृष्टि बदल जाती है?


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समाधानः- हाँ, व्यवहारसे ज्ञान। कहते हैं न? तू सच्चा ज्ञान कर, सच्चे ज्ञान बिना रखडा। ज्ञान बिना आत्माको ग्रहण कैसे करे? सच्ची समझ बिना आत्माको ग्रहण करना, आत्माका निर्णय करना, वह सब ज्ञानसे होता है। इसलिये ज्ञान उसे व्यवहारसे साधन बनता है। प्रगट करना है सम्यग्दर्शन, दृष्टि प्रगट करनी है। लेकिन उसमें ज्ञान साथमें रहता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि (मोक्षमार्ग)। लेकिन सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट करना? कि सच्चा ज्ञान कर। सच्चा ज्ञान किये बिना दृष्टि कैसे प्रगट करनी, बिना जाने?

मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानीके सम्यग्दर्शनको अंतरंग निमित्त कहनेमें आता है, उसका आशय क्या है?

समाधानः- उसे अंतरमें परिवर्तन हो गया है। अंतरमें उसकी पूरी दशा पलट गयी और उसमेंसे जो वाणी निकलती है, वह वाणी दूसरेको निमित्त होती है, इसलिये उसे अंतरंग कारण कहनेमें आता है। जिसे अन्दर प्रगट हुआ है, उसीकी वाणी निमित्त बनती है। इसलिये उसे अंतरंग कारण (कहते हैं)। दूसरेको जो सम्यग्दर्शन होता है उसमें, जिसने प्राप्त किया है उनकी वाणी निमित्त बनती है, इसलिये अंतरंग कारण कहनेमें आता है। बाकी है वह परद्रव्य है। तो भी उसे अंतरंग कारण कहनेका कारण कि जिसे अंतरंगमें प्रगट हुआ है, उसके साथ जो वाणी है, वह वाणी निमित्त बनती है। इस अपेक्षासे उसे अंतरंग कारण कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीकी वाणी ही अंतरंग निमित्त कहनेमें आती है? इसके सिवा अन्य किसीकी वाणीको अंतरंग निमित्त नहीं कहते?

समाधानः- दूसरेकी वाणीको अंतरंग निमित्त नहीं कहते। जिसे अंतरंग दशा प्रगट नहीं हुई है, उसकी वाणीको अंतरंग निमित्त नहीं कहते। व्यवहारसे भले उससे जाने, लेकिन अंतरंग जो देशना लब्धि प्रगट होती है, अंतरंगमें सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसमें तो जिसने प्राप्त किया है उनकी वाणी ही निमित्त होती है। उसके साथ ही निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। उसे ही अंतरंग कारण कहते हैं, दूसरेको नहीं कहते।

मुमुक्षुः- अंतरंग परिवर्तन होता है इसलिये उसे अंतरंग कारण कहते हैं? सामनेवाले जीवको अंतरंगमें परिणमन होता है, इसलिये अंतरंग कारण कहते हैं?

समाधानः- उसे परिणमन हो, यहाँ अंतरंग दशा साथमें होती है और उसे अंतरंग परिणमन (होता है)। अंतरंग परिणमन हो, वाणी किसको निमित्त होती है? जिसने प्राप्त किया है, उनकी वाणी ही निमित्त होती है। उसे अंतरंग परिवर्तन हुआ इसलिये अंतरंग कारण, वह तो ठीक है, लेकिन जिसने प्राप्त किया है, उसकी वाणी ही निमित्त बनती है। इसलिये उसे अंतरंग कारण कहा है। (प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!)