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समाधानः- .. कहते हैं कि भेदज्ञान करना। परंतु भेदज्ञान कैसे करना? तीक्ष्णतासे स्वयं आत्माको और विभावको भिन्न (करे)। यह मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव भिन्न है, ऐसे स्वयं अंतरमेंसे बराबर पहचान ले। और उससे स्वयंको विभावका रस छूटकर और स्वभावका रस लगे तो उसे अंतरमें सूझे। विभावसे भिन्न होकर स्वभावको ग्रहण करना, उसे ग्रहण करनेमें उसकी चाबी हाथमें आती है। लेकिन उसे स्वयंको अन्दर उतनी जिज्ञासा हो तो होता है। यह मेरा स्वभाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार ज्ञायकको ग्रहण करके अंतरमें ऊतर जाय। जिसे जिज्ञासा होती है उसे चाबी हाथ लग जाती है।
मुमुक्षुः- चाबीका अर्थ बारंबार भेदज्ञान?
समाधानः- बारंबार भेदज्ञान करना। आत्माका-ज्ञायकका ज्ञानलक्षण है, उसे पहचान लेना। उसे बराबर पहचानकर आत्माको ग्रहण करना। उसमें कोई क्रियाएँ या दूसरा कुछ करना पडे ऐसा नहीं है। अन्दर चाबी मिल जाय, जिज्ञासा हो उसे चाबी मिल जाती है। ऐसा है। जिसे जिज्ञासा हो उसे।
मुमुक्षुः- जिज्ञासाके साथ बहुत सम्बन्ध है।
समाधानः- जिज्ञासाके साथ सम्बन्ध है। जिसे आत्माके बिना चैन नहीं पडता, जिसे आत्मा ही चाहिये उसे चाबी मिले बिना नहीं रहती। स्वयंको भिन्न होना है, ज्ञायकको ग्रहण करना ही है तो उसे चाबी मिल जाती है। इसलिये उसके लिये कोई हठयोग करना पडे, ऐसा नहीं है। परन्तु स्वयंकी भावना ही, स्वयंको आत्माके बिना चैन नहीं पडे, स्वयंकी भावना ही कार्य करती है। भावनाके साथ पुरुषार्थ जुडा रहता है।
.. साथमें होता है। जिसे जिज्ञासा है, उसके साथ उसे वैराग्य होता है। विभावको पीठ दी है, आत्मा ही चाहिये। उसके साथ वैराग्य होता है। स्वयंको ग्रहण करनेके लिये उसका प्रयोजनभूत ज्ञान काम करे, उस जातिका वैराग्य हो, उस प्रकारकी आत्माकी महिमा होती है। भक्ति यानी आत्माकी ओर महिमा होती है। आत्मा ही सर्वस्व है। यह सब तुच्छ है, सारभूत हो तो आत्मा ही है। आत्मा ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट महिमावंत
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पदार्थ है। ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायक माने मात्र जानना, जानना ऐसे नहीं, उसे ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। उसे शुभभावमें जिनेन्द्रदेव, गुरु जिन्होंने प्राप्त किया है, उन पर महिमा है और अंतरमें ज्ञायकदेवकी महिमा। मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचाननेमें आये?
मुमुक्षुः- ज्ञायककी महिमापूर्वक टहेल लगाये तो?
समाधानः- महिमापूर्वक टहेल लगाये, बारंबार। तो उसे चाबी मिले बिना रहती नहीं।
मुमुक्षुः- स्ववश योगीमें और सर्वज्ञ वीतरागमें कभी भी कोई भी भेद नहीं है। हम जडबुद्धि हैं कि उसमें भेद गिनते हैं। स्ववश योगीमें और सर्वज्ञ वीतरागमें कभी भी कोई भी भेद नहीं है।
समाधानः- जो योगी स्ववश अर्थात आत्मामें जिसे द्रव्य पर दृष्टि पर गयी, आत्मा वीतराग स्वरूप है और वीतरागी आत्माको जिसने ग्रहण किया और उस रूप उसकी परिणति हुयी, ऐसे योगी स्वयं स्ववश है। उनमें और वीतरागमें कोई फर्क नहीं है। कभी भी कोई भेद नहीं है। विभावको गौण कर दिया। आत्मामें विभाव कदापि हुआ ही नहीं। ऐसी जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी और फिर मुनिओंकी बात करते हैैं, स्ववश योगीको तो साथमें लीनता भी कितनी है। मात्र थोडा संज्वलन है, वह एकदम गौण है। बारंबार एकदम लीनता भी उतनी है और द्रव्यदृष्टिसे देखो तो वीतरागस्वरूप आत्मा है। उसने उसे ग्रहण किया यानी वीतरागस्वरूप आत्माको ग्रहण किया। उनमें और वीतरागमें कोई अंतर नहीं है।
बारंबार लीनता करते हैं। वीतरागीपद जिन्होंने (प्रगट किया है)। जिनेन्द्रदेवको पहचानने हो तो मुनिकी मुद्रा। मुनीकी मुद्रा और वीतरागकी मुद्रामें (कोई अंतर नहीं है)। मुनिके द्वारा वीतराग पहचाननेमें आते हैं। जिन सरिखा कहनेमें आता है। जिनेन्द्र मुनिओंको जिनेन्द्र सरिखा कहनेमें आता है। उसमें कोई भेद नहीं है। वीतरागस्वरूप आत्मा है और वीतरागी पदको साधनेवाले, उग्ररूपसे साधनेवाले मुनिवर हैं। उनमें और वीतरागमें कोई भेद कदापि नहीं दिखता। द्रव्यदृष्टिसे कोई भेद नहीं है और लीनता अपेक्षासे भी भेद नहीं है। वीतरागस्वरूप आत्माको जिसने ग्रहण किया, सम्यग्दर्शनमें आंशिक वीतरागदशा होती है। मुनिओंको उससे विशेष वीतरागदशा होती है। केवलज्ञानी संपूर्ण हैं। लेकिन उसमें कोई अंतर नहीं है। जो मुनि स्ववश हैं, जिनको कोई विभाव असर ही नहीं करते। द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसमें असर नहीं है। लीनता अपेक्षासे विशेष असर नहीं करते। उसमें कभी भी कोई भेद दिखाई नहीं देता।
मुमुक्षुः- .. उसमें भेद गिनते हैं।
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समाधानः- मुनिकी अंतर दशाको पहचानते नहीं, हम जड जैसे हैं कि जो वीतरागमें और मुनिमें भेद देखते हैं। हम जड जैसे हैं कि हम उनकी अंतर दशाको पहिचान नहीं सकते, मुनिओंकी अंतर दशाको निरख नहीं सकते कि हम उनमें भेद मानते हैं। केवलज्ञानी और मुनिओंमें भेद नहीं है। मुनिओंकी अंतर दशा माने क्या! उसे हम नहीं देख सकते हैं, हम जड जैसे हैं।
मुनिओंकी अंतर दशा माने वीतरागकी तलेटीमें आ गये हैं। उनकी अंतर दशाको हम पहचान नहीं सकते, हम जड जैसे हैं। अथवा द्रव्य स्वरूप आत्मा है, जिसने द्रव्यदृष्टि प्रगट की वीतराग स्वरूप आत्माको पहचाना उसे हम नहीं पहचान सकते। आत्मा कैसा है, उसे भी हम नहीं पहचान सकते। जिसने आत्माको ग्रहण किया, आत्माको ग्रहण किया ऐसे मुनि क्या काम करते हैं, हम नहीं पहचान सकते। हम जड जैसे हैं कि उनकी अंतर दशाको पहचान नहीं सकते। मात्र बाह्यदृष्टिसे सब देखते हैं। मुनिओं आहार करते हैं, मुनिओं विहार करते हैं, मुनिओंको विकल्प आता है, बाहरके प्रभावनाके विकल्प (आते हैं), हम जड जैसे हैं कि सब बाहरका देखते हैं, उनकी अंतर दशाको पहचान नहीं सकते। उनका अंतर कहाँ काम करता है और कहाँ विचरते हैं, बाहर दिखाई देते हैं, लेकिन वे अंतरमें ही विचरते हैं। आत्मामें ही वे तो विराजते हैं। आत्माके सिवा कहीं (नहीं है)। उसे हम देख नहीं सकते, जड जैसे हैं हम। उनकी लीनताको हम पहचान नहीं सकते। उनका आत्मा कहाँ विचरता है, उसे हम देख नहीं सकते। अंतर दृष्टि हमें नहीं है, हम जड जैसे हैं कि कुछ देख नहीं सकते।
.. मुनिओं कहाँ विचरते हैं। बाहरसे तू मत देख। वह तो अल्प विभावकी परिणति है। मुनिकी महिमा आती है, उसमेंसे बोलते हैं। स्वयं ही कहते हैं। ..देखना नहीं है, अंतर दृष्टिको देख, इस तरह स्वयं ही स्वयंकी भावनाको दृढ करते हैं। (हम जड जैसे हैं कि) ऐसा देखते हैं। अंतर परिणतिको देखना है। ऐसा कहकर अपने पुरुषार्थकी वृद्धि करते हैं। उनका अंतरंग देखकर स्वयं अपनी परिणतिको अन्दर दृढ करते हैं।
मुमुक्षुः- अंतर्मुहूर्त यानी कितना काल?
समाधानः- अंतर्मुहूर्त बहुत होते हैं। मुनिओंका अंतर्मुहूर्त तो क्षण-क्षणमें अंतर्मुहूर्त आता है।
मुमुक्षुः- क्षणमें छठ्ठा और क्षणमें सातवाँ, ऐसा निरंतर चलता है?
समाधानः- मुनिकी निरंतर वह दशा है। क्षण-क्षणमें पलटती है। साधकदशा है इसलिये अनेक प्रकारकी भावनासे बोलते हैं। उनकी स्वयंकी साधकदशा है। द्रव्यदृष्टिसे देखो, लीनतासे देखो, अनेक प्रकारकी स्वयंकी साधकदशा है, इसलिये अनेक प्रकारसे
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कहते हैं।
मुमुक्षुः- दृष्टि अपेक्षासे गुरुदेव और वीतरागमें भी कोई अंतर नहीं है।
समाधानः- दृष्टि अपेक्षासे भेद नहीं है। अंतर परिणति प्रगट हुयी। गुरुदेवमें और वीतराग दशामें कोई अंतर नहीं है।
मुमुक्षुः- अंतर देखे वह जड है।
समाधानः- सब अपेक्षाएँ समझनी है। जड मति हूँ? मुझे मुनिओंकी महिमा क्यों नहीं आती? ऐसा कहते हैं। मुनिओंकी विभाव परिणति देखने पर क्यों दृष्टि जाती है? मुनिओंकी महिमा, स्वयंको विशेष महिमा बढानेको (कहते हैं)। महिमा तो है, परंतु स्वयं अपनी विशेष वृद्धि करना चाहते हैं। मुनिकी महिमा करके स्वयं अपनी साधना वर्धमान करना चाहते हैं। शुभभाव साथमें है। परिणति अन्दर दूसरा काम करती है, लेकिन शुभभाव साथमें आता है। अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं, मेरी परिणति मैली है, इसलिये मैं यह टीका करता हूँ। इस टीकासे मेरी परिणति शुद्ध होओ। परिणति अंतरसे करनी है और यह तो शुभभाव है, फिर भी ऐसा कहते हैं। इस टीकासे मेरी परिणति शुद्ध, विशेष शुद्ध निर्मल होओ। ऐसा कहते हैं। भावना अनेक प्रकारसे (भाते हैं)। मैं तो चिन्मात्र मूर्ति हूँ, परंतु मेरी परिणति मैली हो रही है। यह टीका-कथनी जो करता हूँ, उससे मेरी परिणति निर्मल होओ, ऐसा कहते हैं। बाहरसे टीका करनेमें अन्दर शुभभाव भिन्न है, अन्दर परिणति भिन्न है। शुद्ध परिणति प्रगट हुयी और शुभभाव साथमें हो तो भी उसके साथ होता है उतना ही, परिणति तो स्वयंसे करनी है अन्दर, फिर भी ऐसा कहते हैं कि इससे मेरी परिणति शुद्ध होओ।
मुमुक्षुः- अनेक प्रकारके विवक्षाके कथन आये।
समाधानः- अनेक प्रकारकी अपेक्षाएँ आती है।
मुमुक्षुः- प्रत्येक अपेक्षामें एक ही केन्द्र है कि वीतरागता कैसे बढे।
समाधानः- वीतरागता कैसे बढे, साधना कैसे बढे। कहाँ केवलज्ञान, अल्प ज्ञान कहाँ। कहाँ केवलज्ञानका वीतरागपद और कहाँ हमारा यह पद, मुनि ऐसा कहे।
गुरुदेव क्या कहते हैं? आत्माका मार्ग क्या बताते हैं? क्या मार्ग बताते हैं, उसे पहचानना। आत्मा कैसा है? आत्माका स्वरूप कैसा है? आत्मा ज्ञायक है। ज्ञायकमें सब ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब आत्मामें है। बाहर कहीं नहीं है। ऐसा जो गुरुदेवने बताया है, उसे ग्रहण करना। और जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र है और अन्दर आत्मा सर्वश्रेष्ठ है। आत्माको दर्शानेवाले पंच परमेष्ठी हैं, वे सर्वोत्कृष्ट हैं।
भगवानने वह स्वरूप प्रगट किया है और उसमेंसे जो वाणी निकलती है वह वाणी दूसरोंको तारणहार होती है। जो भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है, स्वयंको
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पहचानता है वह भगवानको पहचानते हैं। इसलिये भगवानकी वाणीमें जो रहस्य आता है उसे पहचाने। भगवानको पहचाने और स्वयंको पहचाने। तो उसे ज्ञान, श्रद्धा और मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है।
गुरुदेवको पहचाने। साधना जो अंतरमें कर रहे हैं, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको। साधना कर रहे हैं उसका स्वरूप पहचाने। उन पर महिमा आये, उनकी भक्ति आये। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो देव-गुरु-शास्त्र है। जो आत्माका स्वरूप साध रहे हैं और जिन्होंने पूर्ण किया, उनकी महिमा आये उसे आत्माकी महिमा आये तो ज्ञान, श्रद्धा और चारित्रका मार्ग प्रगट होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
... भगवान विराजमान हैं, वैसे ही शाश्वत भगवान कुदरतमें परमाणु भगवानरूप परिणमित हो गये हैं। जगतके जो परमाणु हैं, वह रत्नके आकाररूप भगवानरूप शाश्वत रत्नके पाँचसौ धनुषके, जैसे समवसरणमें भगवान विराजते हैं, वैसे ही नंदिश्वरमें भगवान हैं। ऐसे बावन जिनालय हैं, उसमें शाश्वत भगवान १०८, ऐसे भगवान प्रत्येक मन्दिरमें होते हैं। ऐसे रत्नके होते हैं। जैसे समवसरणमें विराजते हों वैसे ही। मात्र वाणी नहीं है। बाकी बोले या बोलेंगे, ऐसी उनकी मुद्रा हूबहू भगवान जैसी, किसीने किये बिना, शाश्वत भगवान हैं। उनकी मुद्रा हूबहू मानो साक्षात जिवंत मूर्ति हों, ऐसे भगवान विराजते हैं। ऐसे मेरु पर्वतमें हैं, ऐसे नंदिश्वरमें है। ऐसे शाश्वत जिनालय जगतमें हैं। जिनालय हैं और शाश्वत जिन प्रतिमाएँ हैं।
भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं तो उनकी प्रतिमाएँ भी जगतमें, कुदरत भी ऐसा कहती है कि जगतमें भगवान ही सर्वोत्कृष्ट हैं। इसलिये परमाणु भी भगवानरूप परिणमित हो गये हैं। भगवानरूप परमाणु, पुदगल भी भगवानरूप परिणमित हो जाते हैं। समवसरण शाश्वत, भगवान शाश्वत, सब जगतके अन्दर शाश्वत है। अपने तो यहाँ स्थापना करके दर्शन करते हैं, बाकी शाश्वत भगवान जगतमें हैं।