Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 52.

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ट्रेक-०५२ (audio) (View topics)

समाधानः- ..आत्माको पहचानकर पुरुषार्थ करना। आत्माका स्वभाव पहले पहचानना। भावना की, भावनाके साथ पहचाननेका प्रयत्न करना। आत्माका क्या स्वरूप है? आत्मा क्या वस्तु है? उसके गुण क्या? उसकी पर्याय क्या? वह वस्तु क्या? उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। भावना करे उसके साथ उसे समझनेका प्रयत्न करना। उसकी महिमा आये, उसे विभावसे विरक्ते से आये तो होता है।

भावनाके साथ वह सब जुडा होता है। जिसे भावना हो उसे ऐसे विचार आये बिना रहे नहीं कि आत्मा क्या है? उसका क्या स्वरूप है? भावनाके साथ वह सब जुडा होता है। सच्ची भावना ही उसका नाम है कि जिसे आत्माकी महिमा लगे, विभाव, परपदार्थकी महिमा छूट जाय, सब बाह्य वस्तुओंकी महिमा छूट जाय, आत्माकी महिमा लगे। भावना तो उसे सच्ची कही जाय। जिस भावनाके साथ आत्मा कौन है? आत्माका क्या स्वरूप है? उसे जाननेकी अन्दर इच्छा हो कि आत्मा क्या है, उसका स्वरूप जाने। स्वरूप जाने तो प्रयत्न होता है। ऐसे ही भावना करते रहनेसे नहीं होता, उसका स्वरूप जाने, बादमें पुरुषार्थ करे कि यही आत्मा है, ऐसा नक्की करे। आत्मा ज्ञायक ही है, ऐसा नक्की करे, उसकी बराबर श्रद्धा करे, उसकी प्रतीत करे, उसका ज्ञान करे तो होता है। उसकी लीनता करे। परन्तु वह सब भावनाके साथ जुडा होता है। मात्र अकेली भावना करनेसे नहीं, परन्तु उसके साथ यह सब होता है। शुभभावसे जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रका योग मिलता है। लेकिन आत्मा स्वयं पुरुषार्थ करे तो मिलता है। उसके साथ उसे तत्त्वके विचार होते हैं। सब साथमें जुडा होता है, तो मिलता है। भावना करता रहे कि आत्मा कैसे प्राप्त हो? आत्मा कैसे प्राप्त हो? उसके साथ दूसरा कुछ नहीं हो तो भावना भी सच्ची नहीं है। बँधा हुआ मनुष्य ऐसा कहे कि यह बेडीका बन्धन कैसे टूटे? कैसे टूटे? ऐसा करता रहे तो वैसे नहीं टूटती। तोडनेका प्रयत्न करे तो टूटे।

वैसे आत्माका क्या स्वरूप है? आत्मा बँधा हुआ है, मुक्त है। किस प्रकार उसका मुक्त स्वरूप है? और कैसे बन्धन है? यह सब अन्दर समझे। आत्मा वस्तु तो मुक्त है, लेकिन बन्धन तो विभावकी भ्रान्तिके कारण यह बन्धन हुआ है। उसका स्वरूप


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पहचाने। उसे तोडनेका प्रयत्न (करे) अर्थात अन्दर श्रद्धा करे, ज्ञान करे और उस ओर लीनता करे तो प्रगट होता है। वांचन, विचार आदि करना चाहिये। तत्त्वके विचार और उस एक ही में स्थिर नहीं रह सके तो स्वाध्याय करे, वांचन करे। शास्त्रका वांचन करे। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा, भक्ति और शास्त्र स्वाध्याय आदि सब करे। सब बीचमें आता है, लेकिन यथार्थ ज्ञान हो तो उसे यथार्थ पुरुषार्थ उठे। यथार्थ ज्ञानके बिना यथार्थ ध्यान हो नहीं सकता। यथार्थ ज्ञान करे तो ही उसे यथार्थ पुरुषार्थ उठे।

मुमुक्षुः- ज्ञायकके द्वार पर टहेल लगानी, ऐसा कहा। तो हम बाहरके द्वारा पर तो भटकते हैं। वह समझमें आता है, लेकिन ज्ञायकके द्वार टहेल कैसे लगानी?

समाधानः- ज्ञायककी लगनी लगे, ज्ञायक.. ज्ञायक, ऐसे ज्ञायककी धून लगे। ज्ञायकके सिवा कहीं रुचे नहीं, वह ज्ञायकके द्वारा पर लगाना है। उसके हृदयमें ज्ञायक.. ज्ञायक.. कैसे ज्ञायक पहचानमें आये? बारंबार उसे ज्ञायक ही स्मृतिमें आता रहे। यह सब है, लेकिन मुझे ज्ञायक नहीं दिख रहा है। विभाव आदि सब दिखता है, विकल्पकी जाल दिखती है, परन्तु इसमें ज्ञायक नहीं दिखता है। ऐसे ज्ञायककी धून लगे, ज्ञायककी लगनी लगे, वह ज्ञायकके द्वार पर टहेल लगाना है। ज्ञायक कैसे पहचाना जाय? वह टहल है। बारंबार, दिन और रात उसकी लगनी लगे। ज्ञायकके सिवा कहीं चैन पडे नहीं।

भगवानके द्वार पर टहेल लगाये कि भगवानके द्वार कैसे खूले? भगवानके मन्दिरमें कैसे जाऊँ? वैसे यहाँ ज्ञायककी धून लगे। ज्ञायकके द्वारा कैसे (खूले)? मुझे ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? ज्ञायकके दर्शन कैसे हो? वैसे ज्ञायककी धून लगे, ज्ञायककी लगनी लगे। उसे उसके द्वार पर टहले लगानी (कहा जाता है)। ज्ञायक.. ज्ञायक.. उसके हृदयमें ज्ञायकदेवकी धून लगे, लगनी लगे। वह टहेल लगाना है। बाहरमें भटकना वह नहीं, ज्ञायकके द्वार पर ही टहेल लगानी, उसकी लगनी लगे।

मुमुक्षुः- निरंतर एक ही लगनी।

समाधानः- एक ही लगनी उसे होती है। रात और दिन उसे ज्ञायक ही याद आये। विकल्पजालमें बाहरमें रहता है, लेकिन उसे ज्ञायककी ही धून लगे, ज्ञायककी लगनी लगे।

समाधानः- जातिस्मरणका अर्थ तो पूर्वका स्मरण हो, ऐसा उसका अर्थ है। पूर्वका स्मरण आता है। अभी देवभवमें हैं। देवके रूपमें हैं।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- जो सुना हो वह सब स्मरणमें आये। बाकी मतिकी निर्मलताके कारण


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भविष्यका (जाने) वह अलग बात है। बाकी जातिस्मरणमें तो पूर्वका स्मरण आता है।

मुमुक्षुः- भविष्यमें क्या होगा वह सुना हो, वह भी याद आये।

समाधानः- भविष्यमें क्या होनेवाले हैं, वह सुना हो, वह याद आये। जातिस्मरणके विषयमें वही है। पूर्वमें जो सुना है, उसमें भविष्यके भव भी सुने होते हैं न, वह याद आते हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके दूसरे भव जो सुने हैं वह याद आते हैं।

समाधानः- हाँ, सुने हुए स्मरणमें आता है। वह कुछ पढा नहीं था। वह पुराणमें नहीं पढा था। स्थानकवासीमें तो समवसरणका वर्णन तो तीन गढ होते हैं, भगवान होते हैं, ऐसा होता है न। समवसरणका वर्णन जो दिगंबरमें आता है, वह पढा नहीं था। वह तो ऐसे ही (स्मरणमें आया था)। जो दिगंबरमें आता है, उसी प्रकार आया था। वह कुछ पढा या सुना नहीं था। वर्तमानमें पढा, सुना हो वह याद आये ऐसा नहीं है। वर्तमानका हो तो वह तो वही हो गया। पढा, सुना हो, उसका कोई अर्थ नहीं है। पूर्वमें जो सुना था, वह अंतरमेंसे याद आया।

मुमुक्षुः- यहाँ समवसरण बनाया उसके पहले... समवसरणः- वह तो उसके पहले हुआ था। यह तो संवत १९९३ की सालमें हुआ था। समवसरण तो १९९८की सालमें हुआ। समवसरणका तो बहुत वर्णन आता है। कहते थे, वह मैंने कुछ सुना नहीं था। गुरुदेव तीर्थंकर होनेवाले हैं, वह मैंने उनके पाससे नहीं सुना था। यह तो बहुत साल पहलेकी बात है। १९९३, १९९४की सालमें गुरुदेव हीराभाईके मकानमें थे। उस वक्त किसीको कुछ कहते नहीं थे कि उन्हें स्वप्न आया और तीर्थंकर होनेवाले हैं, गुरुदेवसे कोई बात नहीं सुनी थी। गुरुदेव उस वक्त बाहर कुछ नहीं कहते थे। हीराभाईके बंगलेमें गुरुदेवने परिवर्तन किया, तब हीराभाईके बंगलेमें थे। गुरुदेव कुछ नहीं कहते थे। वह सब तो अंतरमेंसे आया। बादमें मैंने गुरुदेवको कहा। इसलिये गुरुदेवने कहा कि, ऐसा तो मुझे भी अन्दरमें आता है।

.. मुझे तो ऐसा लगा था कि, मैं गुरुदेवको कहती हूँ, उनको कैसा लगेगा? ऐसा होता था। गुरुदेव बाहर नहीं कहते थे। गुरुदेव राजकुमार थे, गुरुदेव बाहर नहीं कहते थे। उन्हें स्वप्नमें आया था। तीर्थंकर होनेवाले हैं, अंतरमेंसे उन्हें ऐसा आता था, अन्दरसे स्वप्न आते थे। गुरुदेवको ऐसा सब होता था, लेकिन वह बाहर नहीं कहा था। मुझे कुछ नहीं मालूम था।

मुमुक्षुः- आपने कहा तब..

समाधानः- मैंने गुरुदेवको कहा कि मुझे ऐसा आता है कि आप राजकुमार थे। फिर गुरुदेवने कहा कि हाँ, मुझे स्वप्न आया था, दीक्षा लेनेके बाद तुरंत, कि


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मैं राजकुमार हूँ, झरीके वस्त्र परहने हैं, ऊंचा शरीर है। वह शरीर यहाँका नहीं। वह तो कोई दूसरे क्षेत्रका बडा शरीर था। वह बादमें कहा। भगवानने कहा है, तीर्थंकर होनेवाले हैं। सीमंधर भगवानने कहा है। गुरुदेवने कहा, यह तो मुझे अंतरमेंसे आता है।

मुमुक्षुः- आपने जब कहा, तब गुरुदेवने कहा न..

समाधानः- गुरुदेवको प्रमोद बहुत हुआ था। भगवानका नाम आये इसलिये प्रमोद आये न। भगवानने कहा है इसलिये। गुरुदेवको कहना वह कोई, अंतरमें विचार किये बिना गुरुदेवके पास कहना वह कोई आसान बात है? गुरुदेव कहते थे, त्रिलोकीनाथने टीका किया, अब क्या चाहिये? भगवानने कहा है कि भविष्यमें यह तीर्थंकर होंगे। भगवानकी वाणीमें आया, भगवानकी कृपा बरसी। गुरुदेव ऐसा शब्द (बोलते थे), त्रिलोकीनाथने टीका किया, अब क्या चाहिये?

मैं तीर्थंकर हूँ, यह मुझे क्या आ रहा है? उनको उस प्रकारकी भनक और उस प्रकारके स्वप्न आते थे। ऐसे स्वप्न आने वह कोई आसान नहीं है। तीर्थंकरका स्वप्न किसे आता है? किसीको कहनेमें आये कि यह तीर्थंकर (होनेवाले हैं)। तो कोई माने नहीं। ना, ना। भगवान तीर्थंकर हैं, मैं कहाँ तीर्थंकर हूँ? गुरुदेवको स्वयंको हृदयमेंसे ऐसा आता था कि मैं तीर्थंकर हूँ। तीर्थंकर होनेवाला हूँ, तीर्थंकर हूँ ऐसे स्वप्न आते थे।

मुमुक्षुः- ऐसे स्वप्न आते थे?

समाधानः- हाँ, ऐसे स्वप्न गुरुदेवको आते थे।

मुमुक्षुः- सर्व प्रथम वांकानेरमें ॐ ध्वनि..

समाधानः- हाँ, ॐ ध्वनि (आया था)। ॐ ध्वनि आये वह भी किसको आती है? गुरुदेवको ॐ ध्वनि स्वप्नके अन्दर आती थी। पहले वांकानेरमें आयी, फिर उमरालामें आयी, तिसरी बार विंछीयामें आयी। साढे बारह क्रोड वाजिंत्र बजते हैं और ॐ ध्वनि (सुनायी दी), गुरुदेवको स्वयंको ॐ ध्वनि निकलती है। ऐसा आता था। उसके दो अर्थ करते थे। भगवानके पास गुरुदेव सुनकर आये हैं और भगवान होनेवाले हैं। इसलिये ॐ ध्वनि निकली, साढे बारह क्रोड वाजिंत्र बजते हैं।

मुमुक्षुः- होनेवाले हैं ऐसा भी और भगवानके पाससे आये हैं, ऐसा भी।

समाधानः- भगवानके पाससे आये हैं, दोनों अर्थ करते थे। कुछ सुना नहीं था, कुछ किया नहीं था, कुछ नहीं था। यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं, सीमंधर भगवानकी वाणीमें ऐसा आया है। वह एकदम आया। मैंने कुछ सुना नहीं, किया नहीं किसीके पाससे अथवा ऐसा विचार भी नहीं आया है। गुरुदेवको कहनेमें कितनी बडी बात है कि यह बडी बात गुरुदेवको कहेंगे तो गुुरुदेव क्या कहेंगे, ऐसा


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विचार आये। वे स्वयं मानते थे, यह मालूम नहीं था।

मुमुक्षुः- बडी जिम्मेदारी।

समाधानः- जिम्मेदारी लेकर कहा था। देवोंका वैक्रियक शरीर, वह तो स्वयं विक्रिया करते हैं। जैसी विक्रिया करनी हो वैसी कर सकते हैं। उसका वर्णन तो.. देव तो ऊँची जातके वैक्रियक शरीर करे। नीचि जातके वैक्रियक नहीं करते, ऊंची जातके करे। भगवानकी भक्ति करे। एक देवके कितने रूप कर दे। देव यानी देव जैसे ही दूसरा रूप करे। सब जातके रूप न करे, ऊंची जातकी विक्रिया करे। अमुक जातिके देव होते हैं, वह देवकी विक्रिया करे। अमुक वाहन जातिके देव होते हैं, अनेक जातिके देव होते हैं।

भगवानके जन्माभिषेकके समय आते हैं, वह देव हाथीका रूप लेकर आता है। देव स्वयं ही ऐरावत हाथी होता है। कितनी सूंढ होती है। एक सूंढ पर कितने तालाब होते हैं। ऐसा हाथीका रूप लेकर कोई देव आता है। वाहन जातिके देव होते हैं। उस पर भगवानका अभिषेक करने जाते हैं। देव अनेक जातके रूप करते हैं।

मुमुक्षुः- तिर्यंच भी होते हैं?

समाधानः- तिर्यंच नहीं होते, तिर्यंच नहीं होते हैं, देव रूप करे, देव रूप करे। तिर्यंच नहीं होते। हाथी स्वयं देव है। तिर्यंच नहीं है, देव है। प्रतिन्द्र, सामानिक, वाहन जाति आदि अनेक जातिके देव होते हैं। ... देव होते हैं, अनेक जातके होते हैं। बहुत जातिके देव ऐसे होते हैं, वे ऐसे वाहन जातिके देवोंका रूप नहीं करते हैं। अमुक जातके देव होते हैं वह करते हैं। दिगंबर धर्म ही है। मुनि हाथमें आहार ले, दिगंबर धर्म ही चल रहा है। भगवान वहाँ विराजते हैं। मैं किसीको कुछ कहती नहीं, पूछते हैं तो थोडा (कहा)।

मुमुक्षुः- बात समझानेमें आये तो सबको ख्यालमें आये।

समाधानः- गुरुदेवके पास सबने बहुत सुना है। देवाधिदेव! यह तुझे कहाँसे आया? ऐसा बोले। उस दिन मालूम भी नहीं था, यह कहाँसे आया। तू ही देवनो देव, यह कहाँसे आया? स्थानकवासीमें तो यह था नहीं, यह कहाँसे आया? तू ही देवनो देव। तू भगवान है, ऐसा कहाँसे आया? छोटी उम्रमें कहाँसे आया? ऐसा बोलते हैं। तीर्थंकरका जीव... इतना ठोस स्वयंको ही था।

मुमुक्षुः- गुरुदेव वहाँ..

समाधानः- पाठ बोलनें यह क्या आया? ऐसा हुआ। अन्दर आत्माकी लगी थी न।

मुमुक्षुः- यह सब गुरुदेव मुमुक्षुके आगे उल्लाससे व्यक्त करते थे, उसके पीछे


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उनका भाव क्या था?

समाधानः- अपना हृदय बाहर कहते थे। अन्दर बहुत रखा, अब स्वयं बाहर कहते थे। यथातथ्य बात है, ऐसे बाहर कहते थे। ऐसे ही कोई बात स्वीकारे ऐसे नहीं थे। स्वयं अन्दर परीक्षा करके करते, उन्हें अन्दरसे ठोस लगा था। स्वानुभूति आदिकी सब बातें उन्होंने

प्रश्न-चर्चा करके दृढ किया है। ... वह प्रश्न है, इससे अतिरिक्त दूसरे कितने प्रश्न पूछे हैं।

प्रश्न-चर्चासे साबित किया है। बारंबार पूछते थे। सभी बातें उन्होंने

प्रश्न-चर्चासे दृढ की है। यह सब कहते वक्त ऐसा विचार आता था कि, इसमें इतने प्रश्न हुए हैं, अब इसमें क्या प्रश्न होंगे? उसे कैसे साबित करना। यह तो

प्रश्न- चर्चासे कुछ हृदय पकडमें आये, ऐसी थी। सिद्ध करे, ऐसे ही कुछ नहीं स्वीकारते थे।

शास्त्र पढे तो यह सब पढकर नक्की किया कि दिगंबरमें सब यथार्थ है। दूसरेमें कुछ इधर-उधरका आये तो इसमें यह है, इसमेें यह है, इसमें यह क्षति है, सब अन्दरसे स्वयं विचार करके नक्की करते थे। कितनी सूक्ष्मतासे सब दृढ करते थे। सब बातें वह मान ले ऐसा नहीं था। एकदम परीक्षा (करनेवाले थे)। स्वानुभूतिके भी कितने प्रश्न पूछे हैं। राजकोटमें पूछे हैं, बहुत जगह, जामनगरमें पूछे हैं। बहुत बार पूछा है।

मुमुक्षुः- यह तो आपने आज ही स्पष्ट किया। हमें तो ऐसा मालूम था कि, गुरुदेवने अमुक प्रश्न एक बार पहले पूछे थे।

समाधानः- इतने तो हैं, दूसरे भी बहुत प्रश्न पूछे हैं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! कहानगुरुनो अनुपम महिमा बतावनार

भगवती मातनो जय हो!

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