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मुमुक्षुः- .. एक मात्र उपाय आप परमात्म पुरुषोंका आश्रय ही फरमाते हो। यह सिद्धान्त हमें हृदयगत नहीं हो रहा है अथवा उसका भावभासन नहीं हो रहा है।
समाधानः- गुरुदेवने एक ही कहा है कि परमात्माका आश्रय करो-आत्माका आश्रय करो, वही एक औषधि है। गुरुदेवने उपदेशमें बारंबार एक ही बात कहते थे कि यही एक परमात्माका आश्रय करो। वह परमात्मा कैसा है? उसका स्वयं विचार करे। बारंबार उसका ज्ञानलक्षण है उसे पहचानकर विचार करे तो पहचानमें आये ऐसा है। बाहरमें ही बाहरमें (रहे), सच्चा विचार अंतरसे न करे, उसकी जिज्ञासा करे, उसकी लगनी न लगाये तो वह समझमें नहीं आता। बाकी तो समझमें आये ऐसा है। स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं है कि किसीको पूछना पडे।
गुरुदेवने बहुत बताया है। वह स्वयं ही है। विचार करे तो ज्ञानलक्षणसे स्वयं पहचानमें आ सके ऐसा है। स्वयं स्वयंको न पहचाने वह अपनी भूलके कारण। स्वयंको बाहरमें एकत्वबुद्धि हो रही है इसलिये नहीं पहचान सकता। पहचाननेका निश्चय करे तो पहचान सके ऐसा है। उसका मार्ग तो गुरुदेवने इतना स्पष्ट करके बताया है कि कहीं भूल न रहे, ऐसा बताया है।
परमात्माका ज्ञानलक्षण (है)। उसमें अनन्त गुण भरे हैं, अनन्त आनन्द भरा है अनन्त ज्ञान भरा है, अनन्त ज्ञान भरा है। आत्मा गुप्त रहे ऐसा नहीं है। परन्तु अनादि कालसे स्वयं बाहर भटकता है, इसलिये पहचान नहीं सकता। उसकी जिज्ञासा करे, उसकी लगनी लगाये, बारंबार गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार करे, उसका भेदज्ञान करे तो पहचान सके ऐसा है। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, यह विभाव होता है वह भी अपना स्वभाव नहीं है, आकुलतारूप है। इस प्रकार स्वयं पहचाननेका निश्चय करे तो पहचान सके ऐसा है। वह स्वयं करता ही नहीं, कहाँसे पहचाने? पुरुषार्थ ही नहीं करता है।
औषध एक ही है। यह रोग, अनादिका विभावका रोग है। उसकी औषधि एक परमात्माका आश्रय करना-आत्माका आश्रय करना। परमात्मा अर्थात (आत्मा)। बाह्य परमात्माको पहचाने तो स्वयंको पहचाने, स्वयंको पहचाने तो परमात्माको पहचाने। परन्तु बाहर जहाँ उपयोग जाय, वहाँ शुभभाव और अशुभभाव, दोनों भाव बाह्य उपयोगसे
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होते हैं। अंतर दृष्टि करे, शुद्धात्माको पहचाने तो शुभाशुभभावसे भिन्न आत्मा है। दोनों भाव उसमें नहीं है, आकुलतास्वरूप है।
पहचाननेका निश्चय करे तो पहचान सके ऐसा है। लेकिन पहचानता ही नहीं। स्वयंकी भूल है। "निज नयननी आळसे, निरख्या नहीं हरिने जरी।' स्वयं ही हरिको पहचानता नहीं। अपनी आलसके कारण अनन्त काल व्यतीत किया। यह मनुष्य भव मिला, उसमें ऐसे गुरुदेव मिले, तो स्वयं पुरुषार्थ करके पहचाने तो पहचान सके ऐसा है। अपने पुरुषार्थकी कमी है।
मुमुक्षुः- शुभाशुभ भाव जल्दी हृदयगत हो जाते हैं, भावभासनसे समझमें आते हैं। वैसे इसका भावभासन कैसे हो कि यही परमात्मा है?
समाधानः- शुभाशुभ भावोंमें अनादिसे एकत्वबुद्धि कर रहा है और अपने वेदनमें आ रहे हैं, इसलिये उसे ख्यालमें आता है। परन्तु यह तो स्वयं विचार करे तो पहचान सके ऐसा है। जो शुभाशुभ भाव होते हैं, वह सब तो चले जाते हैं, उसके पीछे जो जाननेवाला है, वह जाननेवाला तो वैसे ही खडा रहता है। जाननेवाला है वही मैं हूँ। जाननेवाले पर दृष्टि करे, उसमें सूक्ष्म उपयोग करके देखे तो जाननेवाला जाननेमें आये ऐसा है।
जाननेवाला स्वयंको क्यों नहीं ज्ञात हो? जाननेवाला स्वयंको जान सके ऐसा है। परन्तु पहचानता नहीं। अपनी भूलके कारण लगनी लगाता नहीं, जिज्ञासा करता नहीं, इसलिये उसका भावभासन नहीं हो रहा है। उसके भाव अन्दर हृदयगत हो सके ऐसा है, परन्तु पहचानता नहीं है।
अनेक जीव भेदज्ञान करके मोक्षमें गये हैैं। अनन्त जीव उसी मार्गसे जाते हैं। परन्तु स्वयं ही भेदज्ञान करता नहीं। भेदविज्ञानके अभावसे मोक्षमें जाते नहीं। जो जाते हैं वे भेदविज्ञानसे ही जाते हैं। अनन्त गये हैं। अनन्त जीवका सबका स्वभाव एक ही जातिका है। सिद्ध भगवान जैसा सबका स्वभाव है। वह नहीं हो सके ऐसा नहीं है। अनन्त जीवोंने अपना स्वरूप पहचानकर, स्वानुभूति करके, चारित्र एवं केवलज्ञान प्रगट कर मोक्षकी साधन की। अनन्त जीवोंने। प्रत्येकका स्वभाव एक ही जातिका है। सब कर सकते हैं, न कर सके ऐसा नहीं है।
.. आत्मा सारभूत है, बाकी सब निःसार है। बडे राजा और चक्रवर्तीओंको भी संसारका स्वरूप ऐसा लगा कि संसार छोडकर चले जाते थे। अंतरमें आत्माका कल्याण करते थे। क्योंकि इस संसारका स्वरूप तो ऐसा ही है। चक्रवर्तीओंको कोई नहीं बचा सकता और देवलोकके देवोंको भी कोई नहीं बचा सकता। जल्द या देरसे, सबका आयुष्य तो पूरा ही होनेवाला है। इसलिये इस मनुष्य जीवनमें आत्माका कल्याण करना,
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वही श्रेयभूत है।
किसीको किसीके साथ सम्बन्ध नहीं है। मात्र पूर्वके कोई सम्बन्धके कारण जीव किसीके घर जन्म लेता है। उसका आयुष्य परा हो तो उसकी मृत्यु होती है। किसीका किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा स्वयं अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, उसके साथ कोई आता नहीं। जीव जन्म-मरण करनेवाला, अपने पुण्य-पापके कारण जन्म-मरण करनेवाला अकेला है और मोक्ष जानेवाला भी अकेला ही है। इसलिये पुरुषार्थ करके जीवको पलटकर, परिणाम पलटकर आत्माका कल्याण कैसे हो? उसका विचार, वांचन आदिमें चित्त लगाना।
मैं तो एक ज्ञायक शाश्वत आत्मा, सिद्ध भगवान जैसा आत्मा हूँ। मुझे किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आयुष्य पूरा होता है, सबका आयुष्य पूरा होता है। अतः शांति और समाधान रखना वही श्रेयरूप है। बाहरमें जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रमें चित्त लगाना। अन्दरमें आत्मा कैसे प्राप्त हो? आत्मा जाननेवाला, उसका भेदज्ञान कैसे हो? यह शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। आत्मा शाश्वत है। शरीरके फेरफार होते हैं। एक भव छोडकर, दूसरा भव शुरु हो जाता है। दूसरा भव धारण करता है।
आत्मा वही शाश्वत रहता है। इसलिये शुभभाव-अच्छे भाव करके आत्माका कल्याण कैसे हो, वही करने जैसा है। वही सारभूत है, बाकी सब जगतमें तुच्छ है। कोई सारभूत वस्तु ही नहीं है। जीव यह माने कि यह सब अच्छा-अच्छा है। वह सब बाह्य पुण्य-पापके प्रकार है। पुण्यका फेरफार कब हो, वह किसीके हाथकी बात नहीं है। इसलिये आत्माका कल्याण कर लेना वही सारभूत है।
मुमुक्षुः- ... संसारकी प्रवृत्ति हो, उसके साथ आत्मकल्याणका सीधा रास्ता कौनसा है? आत्माका कल्याण करना वह तो बराबर है। परन्तु बाह्य प्रवृत्ति तो होती है, उसमें किस प्रकार समय..
समाधानः- अन्दर आत्माकी रुचि अंतरमें रखनी। संसारमें एकत्वबुद्धि कम करके मुझे आत्माका करना है, ऐसी रुचि अन्दर रखनी। और बाहरसे समय मिले तब शास्त्रवांचन करना, गुरुदेवने जो समझाया है, गुरुदेवके शास्त्र, गुरुदेवके प्रवचन जिसमें समझमेें आये वह वांचन करना। समय मिले तो सत्संग करना। कोई वांचन करता हो ऐसे मन्दिरमें जाना। भगवानके दर्शन आदिमें ही समय व्यतीत करना। सांसारिक प्रवृत्ति चलती हो तो भी उसमेंसे समय मिले तो शास्त्र स्वाध्याय करे। मन्दिर जानेका समय नहीं हो तो घरमें बैठकर शास्त्र पढना। उसमें समझमें नहीं आये तो शास्त्र वांचन आपके यहाँ मन्दिरमें भी चलता होगा, वहाँ जाना। अथवा जहाँ कोई शास्त्र समझाता हो, वहाँ
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जाना, मन्दिर जाना। उसमें समय (व्यतीत करना)। देवदर्शन, पूजा, भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय आदिमें समय (व्यतीत करना)। जो समय बचे उसमेंसे उसमें समय व्यतीत करना। और आत्माका कल्याण कैसे हो? सत्य मार्ग क्या है? इन सबका विचार करना।
यह सब शुभभाव है, परन्तु उसमें आत्माका कल्याण कैसे हो, उसका विचार करना उसमेंसे। सांसारिक प्रवृत्ति चलती हो उसमेंसे समय निकालकर भी अमुक समय शास्त्र स्वाध्याय करना है। समय निकालना। उसके विचार (करना)। अन्दर खटक रखनी कि यह सब तो संसार है। मनुष्य जीवन ऐसी ही सब प्रवृत्तिमें चला जाता है। आत्माका कुछ करें, ऐसी अन्दर खटक, रुचि रखनी और शास्त्र स्वाध्याय (करना)। देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा, पूजा, भक्ति, शास्त्र स्वाध्यायका समय उसमेंसे निकाल लेना।
मुमुक्षुः- जो सांसारिक ग्रुप हो उसके साथ मनका समाधान कर लेती हूँ।
समाधानः- मनका समाधान कर लेना? मनको बदल देना कि संसारका स्वरूप तो ऐसा ही है। वह तो अपने पूर्वमें बाँधे हुए पुण्य-पापके उदय है, वह आते ही रहते हैं। संसारका स्वरूप ही ऐसा है। मनको बदल देना। किसीका कोई कुछ नहीं कर सकता। वह तो पुण्य-पापके उदय है, आते ही रहते हैं। इसलिये मनको बदलकर आत्माका स्वरूप क्या है? आत्मा कैसा है? आत्मा कोई अपूर्व चीज है, अनुपम है, वह मुझे कैसे प्राप्त हो? यह सब फेरफार (होते हैं)। शाश्वत कुछ दिखता नहीं। अन्दर शाश्वत आत्मा है, वह मुझे कैसे प्रगट हो? उसकी रुचि करनी।
संसारिक सुख-दुःख तो पूर्वके पुण्य-पापके उदय हैं। पूर्वमें जो स्वयंने पापके परिणाम किये हों, उसका उदय है। पुण्य परिणाम किये हों तो उसके उदय आते हैं। भवका अभाव कैसे हो? उसके विचार करना। आत्मा कौन है? आत्माका स्वरूप क्या है? पुण्य-पापके उदय सर्वको आते हैं। पुण्य-पापके उदय तो संसारमें पडे ही हैं। चाहे जितने पुण्यशाली हों तो उसे भी पापके उदय तो इस मनुष्य जीवनमें पडे ही हैं। पुण्य और पाप दोनों साथ जुडे हैं।
... उसे किसी भी प्रकारकी कमी नहीं थी। अकेले पुण्यका ढेर था। जो इच्छा हो उसके अनुसार सब हाजिर हो। ऐसे चक्रवर्ती हो तो भी उसे रोग हुआ था। इसलिये पुण्य और पाप दोनों संसारमें होते ही हैं। उसका रूप देखनेको ऊपरसे देव आते हैं। मैं श्रृंगार सजकर आऊँ तब देखना। देव कहते हैं कि अभी आपका रूप बदल गया है। आपके शरीरमें रोगका प्रवेश हो गया है। चक्रवर्तीको ऐसा वैराग्य आता है कि वह सब छोडकर मुनि बनकर चल देते हैं। संसारमें यह सब पडा ही है।
पहले एकदम पुरुषार्थ उठता था इसलिये सब मुनि बन जाते थे। अभी वह छोडनेसे धर्म हो जाय (ऐसा नहीं है)। अंतरमेंसे स्वयं निर्लेप रहकर स्वरूपको पहचानकर अंतरमें
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हो सकता है। गृहस्थाश्रममें रहकर भी हो सकता है। स्वयं अंतरकी रुचि प्रगट करे। अन्दर संसारका रस कम कर दे। अन्दरसे एकत्वबुद्धि तोड दे। विचार, वांचनमें चित्त जोड दे। तो हो सकताहै।
मुमुक्षुः- व्यवहारिक तौरसे जो संसारमें करना है, उसे अधिक महत्ता देनी या स्वयंके आत्माकी महत्ता अधिक देनी?
समाधानः- आत्माको ज्यादा महत्त्व देना। वह तो उसमें बैठा है इसलिये करना पडता है। बाकी महत्त्व आत्माको देना। वह महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं है-सांसारिक कार्य महत्त्वके नहीं है। वह तो स्वयंका राग है इसलिये उसमें जुडता है।
मुमुक्षुः- .. उसके पीछे ज्यादा समय देकर.. या अपने आत्माके कल्याणके लिये...
समाधानः- भला होता हो उसमें स्वयंको राग होता है। परन्तु स्वयं दूसरेका कुछ कर नहीं सकता। दूसरेका भला स्वयं नहीं कर सकता। उसका पुण्य-पापका उदय होता है उस अनुसार बनता है। सामनेवालेका भला हो, वह स्वयं नहीं कर सकता है। स्वयंको राग आता है। जैसा स्वयंको राग आता हो, उस राग अनुसार वहाँसे छूट जाय। उसे जो भाव आते हो, नहीं रह सकता हो, गृहस्थाश्रममें है इसलिये। बाकी स्वयंको जो करना है, उसे गौण नहीं किया जा सकता। कभी-कभार समय नहीं मिले तो स्वयं अन्दर रुचि रखे। समय निकालनेका प्रयत्न करे, अन्दर रुचि रखे। बाकी महत्त्व तो आत्माका ही है, बाह्य कायाका नहीं है।
मुमुक्षुः- पुण्य उपार्जन कैसे...
समाधानः- आत्माकी ओर रुचि रखे तो पुण्य भी उसमें होता है, सबकुछ उसमें ही होता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माकी ओरकी रुचि, पुण्यमें भी उसमें होता है। सबकुछ उसमें ही होता है। जो जीव पुण्यको इच्छता है, तो भी वह देव- गुरु-शास्त्रकी महिमामें होता है। बाहरके कायासे, आत्मा मिले ऐसे पुण्य बाह्य कायासे नहीं होता। वह सब सामान्य पुण्य होता है।
जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र सर्वोत्कृष्ट है। मोक्ष भी भगवानने बताया। भगवानने, गुरुने मोक्ष बताया। मोक्ष भी उनकी शरणमें होता है। पुण्य भी उनकी शरणमें होता है और मोक्ष भी उनकी शरणमें ही होता है, कहीं और नहीं है। किसीको पूछना ही नहीं पडे। आत्माकी कोई अलग प्रकारकी ही अनुभूति होती है, वह किसीसे पूछना नहीं पडे। अपना आत्मा ही उसे जवाब देता है। किसीको पूछना नहीं पडे। अभी तो उसके लिये कितनी तैयारी हो, तब होता है।
अभी तो आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है, उसे पहचाननेके लिये कितना प्रयत्न होता है तब होता है। अंतरमेंसे कितना निराला हो, अंतरमेंसे कितनी उसे लगनी लगी हो,
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आत्मा-आत्माके सिवा कहीं चैन नहीं पडती हो। मुझे आत्मा ही चाहिये। संसारकी ओरकी रुचि उठ जाय। बाहरसे भले ही संसारमें बैठा हो, परन्तु संसारकी रुचि उठ जाय। आत्मा.. आत्माकी पुकार उसे होती है, तब जाकर आत्माकी अनुभूति होती है। वैसे अनुभूति नहीं हो सकती।
अंतर लगनी लगे, उसे आत्माके बिना चैन नहीं पडे। उसे आत्मा भूलाया नहीं जाता। मुझे मेरा आत्मा चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। उतनी लगनी लगे, तब उसे आत्मा प्राप्त होता है। संसारमें कुछ प्रतिकूलता आयी हो, ऐसी सब, तो वह कैसे भूलायी नहीं जाती? वैसे उसे आत्मा भूलाया नहीं जाता। मुझे मेरे आत्माके सिवा कहीं चैन नहीं पडती। हर जगहसे उसकी रुचि उठ जाय। कहीं भी रस नहीं आये। तब उसे आत्मा प्राप्त होता है।
संसारके बाह्य कायामें जुडता हो, तो उसे संसार-लौकिक व्यवहार परसे रुचि उठ जाती है और रुचि आत्माकी ओर जाती है। उसका पूरा परिणमन पलट जाता है। उसकी पूरी दिशा पलट जाती है।
मुमुक्षुः- संसारमें रहें, परन्तु उसमें कोई भी व्यक्ति स्वयं आत्माको पहिचानकर मोक्ष भी प्राप्त कर सके?
समाधानः- संसारमें रहकर आत्माकी स्वानुभूति-आंशिक मुक्ति हो सकती है। संसारमें रहकर। फिर संपूर्णता प्राप्त करनेके लिये तो उसे बाहरसे भी त्याग हो जाता है। संसारमें रहकर पूर्ण मोक्ष नहीं होता है। परन्तु आत्माको पहचान सकता है, आत्माकी स्वानुभूति होती है, आत्माका ज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ तक होता है। भगवका अभाव होता है। सिद्ध भगवान जैसी आंशिक अनुभूति उसे होती है। लेकिन उसे मोक्ष, पूर्ण मोक्ष केवलज्ञान नहीं होता। बाहरसे सब त्याग हो जाता है, मुनि बन जाता है, तब पूर्ण मोक्ष होता है।
मुमुक्षुः- ... फिर कई बार मैं ... करती हूँ।
समाधानः- वह सब व्यर्थ है, निःसार है, निष्फल है मोह रखना। जहाँ जाये वहाँ, देवमें गया हो तो देवके परिचयमें पड जाय, मनुष्यमें गया तो मनुष्यके जो परिचीत हों उसमें पड जाता है। उसे तो कुछ याद नहीं होता। सब सम्बन्ध टूट जाय। यहाँ आप राग रखते हो, उतना ही। राग रखना भी मुश्किल है।
मुमुक्षुः- .. कहते हैं, देवगतिमें ..
समाधानः- सबको ऐसा नहीं होता। सब देखे और सबको राग हो, ऐसा सबको नहीं होता। कोई-कोईको होता है।
मुमुक्षुः- ..
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समाधानः- अभी इस पंचमकालमें ऐसा कुछ होता ही नहीं है।
मुमुक्षुः- पंचेन्द्रिय जीवको बचानेका भाव थे, गति पर तो अच्छी ही असर पडती है न?
समाधानः- हाँ, उसके भाव अच्छे थे। उसे बचानेका भाव हो, वह भाव अच्छा था।
मुमुक्षुः- गति पर उसकी अच्छी असर हुई हो।
समाधानः- उसपरसे कह सके कि अच्छी हुई हो। बचानेका भाव था वह उसका भाव अच्छा था। भाव कोई बुरा नहीं था। अच्छा-पुरा..
मुमुक्षुः- किसी भी जीवकी गति है, वह उसके पूरे जीवनके कार्य पर आधार रखती है या अंतिम भाव पर आधार रखती है?
समाधानः- पूरे जीवनके कार्य पर भी रखती है और अंतिम भाव पर भी रखती है। अंतिम भाव कैसे थे,... वह तो पूरे जीवनका जो होता है वह भाव अंत समयमें आकर खडे रहते हैं।
मुमुक्षुः- पूरे जीवनका टोटल अंतमें आता है।
समाधानः- पूरे जीवनका टोटल अंतमें आता है। पहलेसे ही बचानेका भाव था इसलिये उसे बचानेका भाव ही आया न? उसका स्वभाव ऐसा था कि मैं बचाने जाऊँ। इसलिये उसे बचानेका भाव आया। उसके जीवनमें बचानेके भाव किये थे।
मुमुक्षुः- दानका भाव था, गरीबको मदद करनेका भाव था। समाधानः- उसके जो भाव होते हैं, वह भाव आकर खडे रहते हैं। उस भावमें उसे पुण्य बँधता है। उसकी गति पर कुछ असर नहीं होती। उसकी गति अच्छी होती है। भाव अच्छे हो तो गति अच्छी होती है।