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मुमुक्षुः- तब आप ऐसा कहते थे कि आत्मामें ज्ञानशक्ति ऐसी है कि पूरी समझन करके अपनी महिमा ला सके, ऐसी शक्ति उसमें पडी ही है। श्रद्धा भी ऐसी है कि चाहे जो हो...
समाधानः- श्रद्धागुण है वह अनन्त बलसे भरपूर है। पूरा ब्रह्माण्ड बदल जाय तो भी वह उसकी श्रद्धासे डिगे नहीं, ऐसा उसमें श्रद्धागुण है। अपने द्रव्यको ग्रहण किया, ऐसा ग्रहण करता है कि फिर किसीसे डिगे नहीं। ऐसा श्रद्धामें अनन्त बल है।
ज्ञानमें ऐसी अनंती शक्ति है कि स्वयं अंतरमेंसे नक्की करे फिर उसे कोई बदल नहीं सकता। जाननेवाला गुण ऐसा है कि वह सबको जान सके। जाननेमें नहीं जानना ऐसा आता ही नहीं। पूर्ण जाने ऐसी अनन्त शक्ति ज्ञानमें भरी है। और श्रद्धामें भी वैसा अनन्त बल भरा है। ज्ञानमें भी ऐसा अनन्त बल भरा है। प्रत्येक शक्ति अनन्त बलसे भरपूर है। ऐसे अनन्त बलसे भरपूर न हो तो उसे गुण ही नहीं कहते। अनादिअनन्त वस्तु जो स्वयंसिद्ध है, उसमें जो गुण हो वह अनन्त बलसे भरपूर ही होते हैं।
मुमुक्षुः- अंतमें आपने करुणापूर्वक कहा कि परिणति तो तुझे ही बदलनी है। यह सब है, किन्तु करना तो तुझे है।
समाधानः- तुझे स्वयंको ही करना है। परिणति तो कोई बदल नहीं देता, स्वयं ही बदले तो होता है। विकल्पसे श्रद्धा करे, ज्ञानसे जाने, लेकिन अन्दरमें जो परिणति करनी है, वह तो स्वयंको ही करनी पडती है।
.. आश्रय लिया सो लिया, वह श्रद्धागुण स्वयं ऐसा है कि छूटे नही। कोई उसे छुडा नहीं सकता। ज्ञानमें भी ऐसा बल है। यथार्थ ज्ञान प्रगट हो, उस ज्ञानको कोई बदल नहीं सकता। और लीनता भी, स्वरूपकी ओर जो लीनता प्रगट की, उस लीनताको डिगानेको कोई समर्थ नहीं है। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे हो तो हो, बाकी उसे कोई कुछ नहीं कर सकता। लीनताका गुण जो अन्दरसे प्रगट हुआ, स्वरूपमें लीन हुआ, उस लीनताको कोई नहीं डिगा सकता। ज्ञायककी परिणति जो प्रगट हुयी, उसे कोई बदल नहीं सकता।
स्वयं अपनेमें अनन्त बलसे भरपूर है। वैसे बाहर गया तो उसे कोई बदल नहीं
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सकता। स्वयं बदले और स्वयं ज्ञायकका आश्रय ले तो होता है। देव-गुरु-शास्त्र सब निमित्त महा बलवान होते हैं। परन्तु उपादान स्वयंका होता है। यदि स्वयं तैयार नहीं हो और यदि स्वयं ग्रहण न करे तो निमित्त निमित्तरूपसे निमित्तमें रह जाता है। बाकी स्वयं ग्रहण करे तो होता है। पुरुषार्थमें बल आता है। वह बल तुझे ही प्रगट करना है।
... भाव तो अन्दर लगनी लगनी चाहिये न। दूसरी लगनी... भवका अभाव कैसे हो? लगनी तो एक ही होती है। इतने साल बीत गये, अब इतने साल बीतनेमें कहाँ देर लगेगी? ऐसा होता था। पंद्रह गये, इतने गये, बीस, पचीस होनेमें कहाँ देर लगेगी? अभी तो कुछ होता नहीं है। क्या अभी भी परिभ्रमण करना है? अभी दुःख क्यों नहीं लगता है? यह सब क्यों? यह सब क्या? अभी परिभ्रमणकी थकान क्यों नहीं लगती? विभावसे कैसे छूटना?
मुमुक्षुः- बचपनसे ही वही लगनी।
मुमुक्षुः- उसी प्रकारके ही विकल्प आते रहते हैं।
समाधानः- विकल्प नहीं, भावना। भावनाके साथ विकल्प तो होते हैं। भावना उस जातकी, लगनी उस जातकी। खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें एक ही लगनी, दूसरी कोई लगनी नहीं थी। कहीं चैन नहीं पडे।
वहाँ जाती थी, कभीकभार वांकानेरके अपासरेमें जाती थी। वहाँ भी जाती थी। पोषा करती थी, एक-दो बार किये थे। वहाँ पूरा दिन निवृत्ति मिले न? इसलिये वहाँ बैठती। अपसारामें एक ओर कमरा था, वहाँ बैठती थी। फिर बाहर निकलूँ तब दूसरे कोई हो उसके साथ बातचीत करती। बाकी खास कोई बात नहीं करती थी।
मुमुक्षुः- कौन-सा दर्शन सत्य है, उसीकी झंखना थी।
समाधानः- सत्य कौन-सा है? सत्य क्या है? गुरुदेव कहते थे वही सत्य लगता था। अन्दरसे पहचानकर, गुरुदेव स्वभाव कहते हैं वही सत्य है। परन्तु निर्णय करनेके लिये विचार तो स्वयंको आते हैं।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! जातिस्मरण कितने साल बाद हुआ?
समाधानः- १९८९की सालमें हुआ न, फिर १९९३की सालमें। चार साल बाद।
मुमुक्षुः- माताजी! एक ही विचार..
समाधानः- विचार नहीं आते हैं, वह विचारसे थोडे ही होता है। विचारसे नहीं होता। अन्दर आत्मामें-स्वरूपकी लीनता करते-करते सहज आता है, वह कोई विचारसे नहीं आता। आत्माकी एकाग्रता आत्मामें करते-करते वह बीचमें आता है। विचारसे नहीं। सहज आ जाता है।
मुमुक्षुः- ..
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समाधानः- वह सब बातें करने कहाँ बैठी हूँ। सब सहज है। अन्दर आये तो बाहर.. गुरुदेवका और सबका आये।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने ही कहा है,..
समाधानः- गुरुदेवने तो बहुत कहा है, परन्तु मेरी जबानसे नहीं कहना होता।
मुमुक्षुः- हमे तो कभी..
समाधानः- लेकिन वह तो आप सबको मालूम ही है, नया क्या कहना है?
मुमुक्षुः- अभी तो बहुत बाकी है, बहन! अभी तो एक रूपयमें चार आना भी बाहर नहीं आया है।
समाधानः- गुरुदेवने कहा है कि गुरुदेव भगवान-तीर्थंकर होनेवाले हैं। वह सब तो बाहर आया ही है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! अभी तो यहाँ ऐसी भी बात चलती थी कि गुरुदेव साक्षात पधारते हैं।
समाधानः- सब ऐसा ही बोलते हैं। सब बातें हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेव तीन लोकको आह्वान करते हैं, ऐसे स्वप्न..
समाधानः- गुरुदेवको स्वप्न आता था। गुरुदेवको स्वप्न आते थे कि मैं तीर्थंकर हूँ। मैं तीर्थंकर होनेवाला हूँ। ऐसे सब स्वप्न (आते थे)। गुरुदेवको ॐ ध्वनि स्वयंको आती थी। वह उनको आता था। मुझे तो मालूम भी नहीं था कि गुरुदेवको ऐसे स्वप्न आते हैं। मुझे मालूम नहीं था। गुरुदेवको तो आते थे, मुझे तो बादमें आया। गुरुदेवको तीर्थंकर होनेके स्वप्न आते थे। पहली बार ॐ वहाँ आया, दूसरी बार उमराला और तीसरी बार विंछीयामें। विंछीयामें थोडा ज्यादा आया। पहली शुरूआत वांकानेर, फिर उमाराला, फिर विंछीया।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! कुन्दकुन्दस्वामी तो एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देते होंगे न।
समाधानः- जो स्मरणमें आये वह तो ऐसे ही आये न।
मुमुक्षुः- मुनिका स्वरूप नग्न ही होता है, उसके लिये तो कोई.. वह तो एकदम विश्वासपूर्वक..
समाधानः- उसका तो कोई प्रश्न ही नहीं है। वह तो विदेहक्षेत्रमें धोख मार्ग चल रहा है। मुनिओंके झुंड जहाँ विचरते हैं।
मुमुक्षुः- सीमंधर भगवान कैसे विराजते हैं।
समाधानः- साक्षात सीमंधर भगवान विराजते हैं, भगवानकी दिव्यध्वनि छूट रही है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! इतनी प्रतिष्ठाएँ हुयी, उसमें..
समाधानः- प्रतिमा वैसी लगनी तो मुश्किल है। साक्षात भगवानकी तो क्या बात
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करनी!
मुमुक्षुः- फिर भी कोई आकृति वैसी आ गयी हो कि इतने प्रतिमाजीमें यह एक प्रतिमाजी ऐसे लगते हैं कि मानो सीमंधर भगवान हो।
समाधानः- पाँचसौ धनुषका देह और वह आकृति, साक्षात भगवान जीवंत मूर्ति, वह सब आकृति आनी मुश्किल है। नासाग्र दृष्टि, ध्यान मुद्रा, दिव्य मुद्रा, यहाँ सोनगढमें ही वैसी है। तो भी साक्षात तो साक्षात ही होती है।
मुमुक्षुः- फिर भी वांकानेरमें प्रतिमाजी हैं..
समाधानः- विदेहक्षेत्रमें विराजते भगवान यहाँ थोडे ही आ जाते हैं। समवसरणमें विराजमान, साक्षात दिव्यध्वनि.. लेकिन वह तो जिनप्रतिमा जिन सरिखा, कहते हैं न? जिनप्रतिमा भी जिन सरिखा कहलाती है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते थे न, बहन तो यहाँ बैठकर विदेहके भगवानके दर्शन करती है। भरतमें है कि विदेहमें है, भूल जाती है।
समाधानः- भगवानने ही कहा है कि यह राजकुमार तीर्थंकर होनेवाले हैं। भगवानकी वाणीमें आया है। तीर्थंकर जगतमें सर्वोत्कृष्ट होते हैं। भगवानकी रत्नमय प्रतिमाएँ, ऐसा जगतमें कुदरती तीर्थंकरकी प्रतिमाएँ रत्नरूप हो जाती हैं। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हों तो तीर्थंकर भगवान ही है।
मुमुक्षुः- मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी, मंगलं कुन्दकुन्दार्यो..
समाधानः- गुरुदेवका स्वप्न था, तीन लोकको आह्वान करते हैं। तीन लोकको। तीन लोकको कौन आह्वान करे? जो तीनलोकसे ऊँचा हो वह। अओ रे.. आओ! हितके लिये आओ! तीन लोकको कौन आह्वान करे? गुरुदेवके स्वप्न भी ऐसे।
मुमुक्षुः- जो तीर्थंकर हो वही करे न।
समाधानः- तीन लोकको आह्वान कौन करे? .. मार्ग चलता है, वह दिगंबर मार्ग (चलता है)। मुनिओंके झुंडके झुंड विदेहक्षेत्रमें हैं। मुझे मालूम नहीं था कि गुरुदेव मानते हैं। उनको कहनेसे क्या लाभ? अपने तो ऐसा विचार आये। गुरुदेव ऐसे ही थोडा मान ले। गुरुदेवको स्वयंको ही अन्दर था कि मैं तीर्थंकर होनेवाला हूँ। भगवानकी बात सुनकर उत्साह तो आये न। त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब क्या चाहिये? उतना उत्साह था।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब क्या चाहिये? भगवानने कहा तीर्थंकर होनेवाले हैं। अर्थात त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब क्या चाहिये?
मुमुक्षुः- तीर्थंकर होनेवाले हैं, ऐसा माताजीने कहा तो गुरुदेवको ऐसा हो गया..
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समाधानः- बाहर किसीको नहीं कहते थे।
मुमुक्षुः- सुख चाहिये, तो चैतन्यकी मूल ऋद्धि सुख है या ज्ञान है? पूर्ण ज्ञान बिना पूर्ण सुख होता नहीं। तो सुखके लिये ज्ञानका आधार है?
समाधानः- जीव सुखको चाहता है। परन्तु सुखके लिये प्रयोजनभूत ज्ञानकी आवश्यकता है। ज्ञानकी ऋद्धि, ज्ञानगुण मुख्य आत्माका है। परन्तु ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना है। जीव सुखको चाहता है। अधिक जानना, लोकालोक प्रत्यक्ष जाननेमें आये, ऐसी ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना है। ज्ञानगुण मुख्य है और जीवका सुखगुण भी विशेष गुण है। तो भी ज्ञान मुख्य होने पर भी ऋद्धिके लिये प्रयत्न करनेका मोक्षमार्गमें नहीं होता।
आत्माको अन्दर चैन नहीं पडती, उसे दुःख होता है, इसलिये सुखके लिये प्रयत्न चलता है। ज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं होता, परन्तु मुख्य प्रयोजनभूत जो तत्त्व है उसे जाने। मैं कौन हूँ? यह विभाव क्या है? प्रयोजनभूत जाने तो फिर उसमें ज्यादा जाननेकी आवश्यकता नहीं है। जाननेकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु शास्त्रमें आता है, पहले वीतरागता होती है, फिर सर्वज्ञता होती है। पूर्ण ज्ञान होनेके बाद पूर्ण सुख होता है, ऐसा नहीं है। पहले वीतरागता हो, फिर ज्ञान होता है। मुख्य पुरुषार्थ करना है, वह ज्ञायकको पहचानकर वीतरागता प्रगट करनेका है। श्रद्धाके साथ वीतरागता प्रगट करनी है। ज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं करना है। ज्यादा जाननेके लिये, ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना होता है।
शास्त्रमें आता है, श्रीमद कहते हैं, जिसे जैनका केवलज्ञान भी नहीं चाहिये, उसे प्रभु कौनसा पद देंगे? इसलिये केवलज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं करना होता है। एक ज्ञायकको पहचानकर दृष्टि एक आत्मा पर रखकर, मति-श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल, उसे वृद्धिगत करनेकी आवश्यकता नहीं है। वह तो बीचमें लीनता नहीं हो तबतक साधकदशा होती है, तबतक मति-श्रुत बीचमें आता है। केवलज्ञान प्रगट करुँ, अवधिज्ञान प्रगट करुँ, मनःपर्ययज्ञान, मति-श्रुत और केवलज्ञान प्रगट करुँ, केवलज्ञान प्रगट करनेका कोई प्रयत्न नहीं होता है। उस पर-केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं होती।
अन्दर स्वरूपमें श्रद्धाके साथ लीनता हो, वीतरागता हो तो सहज ज्ञान प्रगट होता है। ऋद्धि पर दृष्टि होती ही नहीं। बाह्यकी सब ऋद्धि तो, "रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' और अन्दरकी चैतन्य ऋद्धि ज्ञानमें जाने कि आत्मामें कोई अलौकिक ज्ञान ऋद्धि है, अनुपम आनन्द है, अनन्त शक्तियाँ है। परन्तु साधनामें ऐसे रागके विकल्प या ऐसी लालसाके विकल्प नहीं होते। उसे अंतरमेंसे एक शांति चाहिये। शांति कैसे प्रगट हो? बस। मुझे आत्मामेंसे-स्वभावमेंसे, मेरा स्वभाव क्या है, ऐसे तत्त्वको पहचानकर मुझे स्वभावमेंसे शांति, वीतरागता, मेरा ज्ञान, मेरा
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ज्ञायकदेव मुझे कैसे प्रगट हो? ऐसी उसकी भावना होती है। उसे अनंत शक्तियोंके विकल्प और कैसे ज्यादा जानूँ, उस प्रकारका प्रयत्न साधकदशामें नहीं होता है। एक आत्माको जाने इसलिये सब आ जाता है। उसमें उसे बाहर ज्यादा जाननेकी जरूरत नहीं पडती।
मुमुक्षुः- सुखके लिये वीतरागता..?
समाधानः- हाँ, सुखके लिये वीतरागता। प्रयोजनभूत ज्ञान पहले होता है। पहले आत्माको जाने। प्रयोजनभूत ज्ञान होता है। फिर उसमें सुखके लिये वीतरागताकी जरूरत है, ज्ञानकी जरूरत नहीं है। जो वीतराग हो, उसमें संपूर्ण शांति, आनन्द, सुख सब उसीमें-वीतरागतामें ही है। प्रयोजनभूत ज्ञान होता है। ज्ञानगुण आत्माका है, वह तो सहज प्रगट हो जाता है। वीतरागता हो इसलिये ज्ञान सहज प्रगट होता है। ज्ञान स्वको जाने और (परको भी जाने)। स्वपरप्रकाशक ज्ञान सहज प्रगट होता है। उसे प्रगट करने नहीं जाना पडता।
दृष्टिको अवल्मबन एक ज्ञायकका होता है। उसकी दृष्टि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके भेदमें नहीं रुकती। ज्ञानमें जाने कि, यह मति, श्रुत, अवधि क्षयोपशमज्ञानके भेद, क्षायिकके भेद (जाने), लेकिन उसमें वह रुकता नहीं। दृष्टिमें किसी भी प्रकारका भेद नहीं होता। संपूर्ण वीतराग होता है, वह संपूर्ण सर्वज्ञ होता है।
मुमुक्षुः- हे भगवती माताजी! सम्यकज्ञानीको निरंतर ज्ञानधारा होती है। उपयोग बाहरमें हो तब भी भेदज्ञानकी धारा चालू है, वह कैसे संभवित है? यह कृपा करके हमें समझाइये।
समाधानः- उपयोग बाहर हो तो भी ज्ञानकी धारा-ज्ञानकी परिणति रहती है। उपयोग बाहर हो और परिणति ज्ञायककी हो, उसमें कोई विरोध नहीं है। ज्ञायककी धारा अन्दर चलती हो। एकत्वबुद्धि टूट गयी है और भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। ज्ञायककी ज्ञायकरूप धारा प्रतिक्षण जो-जो विकल्प आये, विभावकी पर्याय हो, तो उसमें उसे भेदज्ञानकी धारा (चलती ही रहती है)। स्वयं भिन्न ही भिन्न, न्यारा ही न्यारा रहता है। दृष्टि एक ज्ञायक पर है, परिणति ज्ञायककी है। प्रतिक्षण वह भिन्न ही भिन्न, प्रत्येक कार्यमें वह न्यारा ही न्यारा रहता है।
खाते-पीते, सोते, स्वप्नमें सबमें वह न्यारा ही न्यारा रहता है। ऐसी ज्ञायककी परिणति रहती है। उपयोग भले बाहर हो, बाहरके कायामें हो। बाहर गया और बाहरका जाने तो अन्दर खण्ड-खण्ड हो जाता है, ऐसा नहीं है। वह तो अखण्ड ज्ञायक है। क्षयोपशमज्ञानके कारण उसका जो मूल स्वभाव ज्ञायक परिणति है, उसमें कोई खण्ड नहीं होता। ज्ञायककी परिणति हर वक्त मौजूद होती है।
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चाहे जैसा राजा हो, चक्रवर्ती हो, लौकिक कायामें हो, राजके कायामें हो, तो भी परिणति तो भिन्न न्यारी की न्यारी रहती है। प्रशस्त भावोंमें हो। चक्रवर्तीको बडी पूजा आदिके प्रकार हो, देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावनाका प्रसंग हो, तो भी उसकी परिणति न्यारीकी न्यारी होती है। एकत्वबुद्धि नहीं होती। अशुभभावसे बचनेको शुभभावमें जुडे तो भी ज्ञायककी परिणति तो उसे भिन्न ही भिन्न होती है। ज्ञायककी परिणतिको और उपयोगको कोई विरोध नहीं है। ज्ञायककी परिणति चालू ही होती है और उपयोग बाहर होता है। कोई बार उपयोग पलटकर स्वानुभूतिमें जाता है और बाहर आये, तो भी ज्ञायककी परिणति उसे हर समय चालू है। उसमें उसे विरोध नहीं है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! परिणति त्रयात्मक है या ज्ञानात्मक है? समाधानः- प्रयात्मक? मुमुक्षुः- त्रयात्मक-तीनों। ज्ञान, दर्शन, चारित्र तीनों परिणतिमें है? समाधानः- ज्ञायककी परिणति श्रद्धा, ज्ञान और गृहस्थाश्रममें आंशिक स्वरूप रमणता है। अनंतानुबंधीका जो कषाय टूट गया है, इसलिये आंशिक स्वरूपाचरणचारित्र है। इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र (तीनों हैं)। पद्धतिके हिसाबसे चारित्र नहीं कह सकते, परन्तु स्वरूपाचरणचारित्र अमुक अंशमें लीनता अपनेमें है। एकत्वबुद्धिकी लीनता टूट गयी इसलिये अंतरमें ज्ञायक परिणतिकी लीनता आंशिक है। परन्तु उसे पद्धतिके हिसाबसे चारित्रकी लीनता तो पाँचवा गुणस्थान और छट्ठा-सातवाँ गुणस्थान आये, तब पद्धति-शास्त्र पद्धति अनुसार तब चारित्र कहलाता है। बाकी उसे लीनता है, अन्दर ज्ञायक परिणतिमें तीनों हैं। ज्ञायकमें श्रद्धा, ज्ञायकका आश्रय श्रद्धामें, ज्ञानका आश्रय, ज्ञान भी उसमें और लीनता भी उसमें है।