Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 65.

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ट्रेक-०६५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- दीक्षा लेनेसे पहले जातिस्मरण होता है। वैराग्यका निमित्त बनता होगा या और कुछ?

समाधानः- उन्हें विकल्प आता है। दीक्षाके पहले जातिस्मरण होता ही है। ऐसा नियम है। निमित्त कुछ भी बने, परन्तु अन्दर होता है। दीक्षा भाव उत्पन्न होते हैं इसलिये जातिस्मरण होता है।

मुमुक्षुः- जातिस्मरण वैराग्यकी वृद्धिका (कारण बनता है)?

समाधानः- वैराग्य-वृद्धिका कारण बनता है। शास्त्रमें आता है न? वैराग्य-वृद्धिका कारण बनता है। पूर्वके दुःखोंको याद करके बहुत जीवोंको वैराग्य आता है। भवोंको याद करके बहुत जीवोंको वैराग्य आता है। वैराग्यका निमित्त बनता है। जो उस ओर मुडे उसे वैराग्यका कारण बनता है। आत्माकी ओर मुडनेवाला होता है, उसे वैराग्यका कारण बनता है।

मुमुक्षुः- जातिस्मरण आत्मप्राप्तिमें निमित्त बनता होगा?

समाधानः- जो आत्माकी ओर मुडनेवाला हो उसे निमित्त कहनमें आता है। शास्त्रमें बहुत कारण आते हैं न? अनेक जातके कारण आते हैं। जातिस्मरण, अमुक देवकी ऋद्धि, यह-वह, ऐसे बहुत कारण आते हैं। उसमें एक जातिस्मरण भी कारण आता है। जीव अपनी ओर मुडे उसे कारण बनता है। सबको कारण बने ही ऐसा नहीं होता। सबको वैराग्यका कारण बने, ऐसा भी नहीं होता। लौकिकमें बहुतोंको होता है, सबको होता है, ऐसा नहीं। जो आत्माकी ओर मुडनेवाला होता है, उसे कारण बनता है। भवांतरोंको याद करके जिसे वैराग्य आना होता है, उसे वैराग्यका कारण बनता है। इस जीवने अनन्त जन्म-मरण किये हैं। यह जीव अनन्त परिभ्रमण करता आ रहा है। आत्मा शाश्वत है। जो आत्मार्थी अपनी ओर मुडनेवाला होता है, उसे कारण बनता है।

मुमुक्षुः- तीर्थंकर भगवानको जन्मसे अवधिज्ञान तो होता है।

समाधानः- हाँ, अवधिज्ञान होता है, फिर जातिस्मरण होता है।

मुमुक्षुः- जातिस्मरणसे भी विशेष स्पष्टता अवधिज्ञानमें होती है?


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समाधानः- अवधिज्ञान तो प्रत्यक्ष है, फिर भी जातिस्मरण होता है। भगवानको तो सब ज्ञान प्रगट होते हैं।

मुमुक्षुः- माताजी! समकित ज्यादा साल टिके तो गाढ होता जाता है। वैसा जातिस्मरणज्ञान ज्यादा साल टिके तो उसमें कोई फेरफार होता है?

समाधानः- सम्यग्दर्शन ज्यादा साल टिके तो गाढ होता जाता है, वह तो उसकी परिणति दृढ होती है, वह अपने कारणसे होती है। वैसे जातिस्मरण दृढ होता जाता है, वह सब अपने कारणसे होता है। जातिस्मरणके कारणसे वह होता है, ऐसा नहीं है, परन्तु अपने पुरुषार्थके कारणसे होता है। सम्यग्दर्शन ज्यादा साल टिकता है वह अपने कारणसे बनता है।

मुमुक्षुः- जातिस्मरणके टिकनेमें भी पुरुषार्थ है?

समाधानः- सबमें पुरुषार्थ तो होता ही है। प्रयत्नसे नहीं होता, सहज होता है।

मुमुक्षुः- जातिस्मरणमें वृद्धि होती है? उसमें वृद्धि कैसे होती है?

समाधानः- निर्मल परिणतिके कारणसे होती है। कैसे होता है, वह तो सहज है। मतिकी निर्मलतासे होती है।

मुमुक्षुः- एक बार याद तो आ गया है, फिर उसमें वृद्धि हो, वह कैसे?

समाधानः- मतिकी निर्मलतासे होती है।

मुमुक्षुः- अधिक स्पष्टतापूर्वक याद आता है?

समाधानः- वह सब मतिकी निर्मलताके (कारण होता है)। स्वयं आत्माकी साधना साधता-साधता जो जीव आगे बढता है, उसमें कोई भी परिणतिकी निर्मलता बढने पर होता है। स्वरूपमें लीनता करते-करते कोई परिणतिकी निर्मलता हो तो उस निर्मलतासे होता है।

मुमुक्षुः- जिसे पूर्व भवका जातिस्मरणज्ञान हो, उसे बीचमें इस जन्मसे पहलेके .. कोई स्मरण होता है? क्योंकि श्रीमदमें ऐसा आता है, इस जीवको पूर्व भवकी मरणकी वेदना अधिक हो या गर्भकी वेदना हो तो उस वेदनाका वेदन करे तो उसमें उसे पूर्व भवका स्मरण हो जाता है। सब जीवोंको ..

समाधानः- .. किसीको विस्मरण हो जाता है। फिर भी संज्ञी जीव है, मन है तो उसे याद आवे। मृत्यु समयके दुःखके कारण विस्मरण हो जाता है। विस्मरण भी हो जाता है और याद भी आये। संज्ञी जीव है उसे याद आये।

मुमुक्षुः- पूर्व भवके साथ इस जन्मके गर्भके दुःख भी याद आये?

समाधानः- उस प्रकारकी परिणति हो तो याद आये। याद आवे ही ऐसा नक्की नहीं होता। जिस जातकी उसकी परिणति जहाँ जाये वैसे याद आये। उसकी परिणति


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सहज जहाँ जाती हो, ऐसे याद आता है।

... (नक्की) नहीं होता कि ऐसा ही आये या ऐसा ही आये। मन सहितके जो उसके भव है, उसमें उसे सहजरूपसे याद आये।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! गुरुदेवश्रीका एक बोल ऐसा आता है कि अनुभूति होनेसे और जातिस्मरणज्ञान होने पर ... अनेक प्रकार उन्हें स्पष्ट हो गये।

समाधानः- कहाँ आता है? वह सब कहनेकी बात है। श्रद्धा-ज्ञानसे आत्माको पहचाने, स्वरूपकी प्रतीति करे कि मैं ज्ञायक हूँ। उस ओर उसकी श्रद्धा दृढ हो, ज्ञायककी परिणति हो, ज्ञान उस ओर जाय, लीनता उस ओर हो वह साधकदशाका मार्ग है। उसमें उसकी लीनता बढती जाय। उसमें बीचमें कोई निर्मलताकी परिणति बढने पर जो प्रकार होने होते हैं, वह होते हैं। प्रयोजन तो एक आत्माकी ओर जानेका है।

ज्ञायककी परिणति दृढ हो, भेदज्ञानकी धारा उग्र हो, ज्ञायककी परिणतिकी उग्रता हो और अन्दर स्वरूपकी लीनता बढती जाय, विभावसे न्यारा होता जाय, स्वरूप परिणतिकी दृढता होती जाय। यह एक ही मार्ग है। उसमें बीचमें जिस प्रकारकी परिणतिकी निर्मलता होती हो वह होती है। जिसकी जिस प्रकारकी परिणति हो (वैसे होता है)।

मुमुक्षुः- आजका दिन ऐसा मंगल है, ..

समाधानः- वह कोई बार-बार कहनेकी बात है? सहज जब आये तब आये। वह तो उस दिन भगवान हर जगह विराजमान होते थे, वह प्रसंग था, उस प्रसंग पर कुछ निकल गया। सब जगह भगवान विराजमान होते थे, वह प्रसंग था इसलिये..।

मुमुक्षुः- आज इस प्रकारका प्रसंग है। भाव जातिस्मरण...

समाधानः- उस जातका याद आवे तो स्पष्ट हो, जिस जातका याद आवे वैसा। स्वयं जानते थे कि स्वयं तीर्थंकर होनेवाले हैं। उनका हृदय ही बोलता था। स्वयं तीर्थंकर होनेवाले हैं। तीर्थंकरका द्रव्य स्वयं हैं। और भगवानने कहा। उनको अंतरसे लगता था। उनको स्वयंको तीर्थंकरत्वकी भनक आती थी। यह भरतक्षेत्र, यहाँ तो अभी सबके अभिप्राय... गुरुदेव यहाँ पधारे और मार्गका प्रकाश किया। सबको सत्य मार्ग मिला। मार्ग कहाँ कौन जानता था?

केवलज्ञान तो अभी नहीं है, भावलिंगी मुनि भी अभी तो दुर्लभ हो गये हैं। गुरुदेव पधारे तो यह सब जाननेको मिला। यह मार्ग अलग है, अंतरमें रहा है। साधकदशा अंतरमें, सब अंतरमें है। ज्ञान, श्रद्धा आदि सब अंतरमें है। पहले तो सब सम्यग्दर्शन बाहरसे मानते थे, सब ज्ञान बाहरसे मानते थे, चारित्र बाहरसे मानते थे। सम्यग्दर्शन अंतरमें स्वानुभूतिकी दशामें प्रगट होता है, ज्ञान भी अंतरमें है और चारित्र भी अंतरमें


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है। गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके स्पष्ट (किया है)। कहीं भूल न रहे ऐसे ललकार कर- करके कहा है कि शुभभाव करते-करते होगा, ऐसा नहीं होगा। अंतरमें तो तू भिन्न ही हो जा। इतना तो रखूँ, ऐसे भी नहीं। इतना जोरदार कहा है। सबके अभिप्राय अन्दरसे बदल गये।

मुमुक्षुः- माताजी! जातिस्मरणज्ञानमें ... भवका जानना हो परन्तु आपका पूर्व भवका जातिस्मरणज्ञान है महाविदेहक्षेत्रका, तो आजके दिन सबको ज्यादा भावना हो कि आपके श्रीमुखसे भगवानका वर्णन, समवसरणका वर्णन अथवा दूसरा कुछ हम सुनें तो हम सबको आनन्द हो।

समाधानः- वह जब आता है तब थोडा आ जाता है। वह सब कोई कहनेकी बात थोडे ही है।

मुमुक्षुः- आजके दिन सब अपेक्षा तो रखे ना।

समाधानः- अपेक्षा रखे, लेकिन जितना कहनेमें आये उतना ही कहनेमें आता है, दूसरा कुछ कहनेका नहीं है। लोगोंको एक प्रकारका आश्चर्य होता है। अन्दर आत्माका करना वह मुख्य है।

मुमुक्षुः- प्रयोजन तो सुखका है, परन्तु ऋद्धि बीचमें सहज प्रगट हो जाती है, तो उस ऋद्धिका बहुत बार ज्ञानी साधकको भी ऐसा राग आता है, तो हम सबको तो ऐसी इच्छा हो न कि माताजी कुछ कहे।

समाधानः- ऋद्धिको जाननेका राग नहीं, परन्तु भगवानकी भक्ति है। ऋद्धि जाननेका राग नहीं है। भगवानका क्या वर्णन, उस समवसरणका क्या वर्णन (करना)? वह सब शास्त्रोंमें आता है। बाकी भगवान तो भगवानका क्या वर्णन (करना)? जगतसे भिन्न- न्यारे भगवान (हैं)। जो वीतरागी है, जिनका चलना अलग, जिनका बोलना अलग, जिनका बैठना अलग, जिनकी वाणी अलग, जगतसे सब अलग ही है। अंतरमें तो भिन्न हो गया, परन्तु बाहर भी अलग हो गया।

मुमुक्षुः- शास्त्रमेंसे सुने और एक प्रत्यक्ष पुरुषके पास सुने तो उसमें फर्क तो पडता है न? आप थोडे खुल्ले हृदयसे बात करें तो हमें..

समाधानः- खुल्ला कुछ नहीं कहना है। जितना कहना होता है, उतना कहते हैं।

मुमुक्षुः- भगवानका इतना बडा देह होगा, समवसरणमें कैसे विराजमान होंगे?

समाधानः- .. यहाँ कल्पनामें आता है? यहाँ तो रत्न दिखाई भी नहीं देते हैं। वह रत्नका समवसरण कहाँ कल्पनामें आ सके ऐसा है? जो देवों द्वारा रचित। देव भी यहाँ दिखाई नहीं देता। देवोंका आवागमन और मुनिओंका समूह, कल्पनामें


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आना मुश्किल पडे ऐसा है। मुनिका दिखना मुश्किल पडता है। मुनिओंका, साधकोंका समूह यहाँ कहाँ दिखाई दे ऐसा है? रत्नका समवसरण, वह रत्न यहाँ कहाँ दिखाई देते हैं? पाँचसौ धनुषका देह, उसके वृक्ष, उसके गढ कहाँ कल्पनामें आ सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- माताजी! कभी थोडा ज्यादा सुननेकी इच्छा होती है न।

समाधानः- यहाँ कुछ कल्पनामें आ सके ऐसा नहीं है। जहाँ दूसरे कोई मत नहीं है, जहाँ दूसरा संप्रदाय, वाडा नहीं है, जहाँ भगवान कहे वही बात फैल रही है। वाणी सुनते वक्त कितने ही अंतर्मुहूर्तमें सम्यग्दर्शन, कितने ही केवलज्ञान, कितने ही मुनि (दशा) प्राप्त कर रहे हैं, वह काल पूरा अलग है। यहाँ एक सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता है। वहाँ मुनिदशा क्षण-क्षणमें (आती है)। सब त्यागकर छोडकर चल देते हैं। भगवानकी वाणी सुनते हैं। वह धर्म काल... यहाँ गुरुदेवके प्रतापसे इतना हो रहा है।

... गुरुदेवने तत्त्व बहुत समझाया। एक ज्ञायक आत्माको समझो। एक आत्मा भगवान है। विभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। ज्ञायक आत्माको पहचानो, यह सब गुरुदेवने बताया। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और भीतरमें शुद्धात्मा ज्ञायक, जो निर्विकल्प तत्त्व है उसे पहचानो। गुरुदेवने इसका बहुत विस्तार कर-करके सूक्ष्म-सूक्ष्म न्यायादिसे बताया है। उनकी वाणी अपूर्व थी, आत्मा अपूर्व, उनका ज्ञान अपूर्व, सब अपूर्व ही था। ऐसा कहनेवाले कोई दिखनेमें नहीं आते हैं। तीर्थंकरका द्रव्य था जो भरतक्षेत्रमें पधारे, सबके कल्याणके लिये पधारे।

मुमुक्षुः- इस बातको कहनेवाला कोई नहीं था। स्वप्नमें भी नहीं।

समाधानः- अलौकिक। उतनी वाणी इतनी जोरदार व अपूर्व थी, सुननेसे आत्माका आश्चर्य लगे, आत्माकी महिमा आये, ऐसी उनकी अपूर्व वाणी थी। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, कर्ता-कर्मका स्वरूप, निमित्त-उपादानका स्वरूप, सब गुरुदेवने स्पष्ट करके बताया। पहले तो सब क्रियासे धर्म होता है, शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा सब मानते थे। गुरुदेवने ऐसा परिवर्तन अंतर दृष्टि करके सबको (जागृत किया)। भीतरमें आत्मामें सब है, स्वभावसे सब प्रगट होता है। स्वभावमेंसे स्वभावकी पर्याय भीतरमेंसे आती है। गुरुदेवने सब स्पष्ट करके बताया है।

मुमुक्षुः- आत्म धर्म यहाँसे प्रकाशित करके आपने महान उपकार किया है।

समाधानः- गुरुदेवने कहा, उस मार्ग पर चलना वहीं करना है, आत्माका कल्याण (करना है)। आत्माका स्वरूप समझकर, भेदज्ञान करके, आत्मद्रव्य पर दृष्टि करनी वही करना है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उसी मार्ग पर चलना है। अन्दर स्वानुभूति, भवका अभाव सब ज्ञायकको पहचाननेसे होता है। पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है, पुरुषार्थ तो करनेसे होता है। आत्मा ज्ञायक जाननेवाला, शुभाशुभ भाव भी अपना स्वभाव नहीं


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है। उससे भेदज्ञान करके ज्ञायकके स्वभावको पहचानकर, उसकी प्रतीत-श्रद्धा, उसमें लीनता करना वही मुक्तिका मार्ग है, वही प्रगट करना है, जीवनमें वही करनेका है।

मुमुक्षुः- भरतजीने कैलास पर्वत पर स्थापना की, आपने भी साक्षात स्थापना की। ... यह सुनकर जिसको कंटाला आता है.. यह तो जो .. साक्षात करके दिखाया। यह काम कोई बूरा नहीं किया, सबसे बढिया कार्य किया। यह हमारे मनके .. हुआ।

समाधानः- सबकी भावना हुयी, सब मुमुक्षुओंको। क्या करे? किसीको अच्छा लगा, किसीको नहीं भी लगा। सबकी भावना हुयी तो ऐसा (हो गया)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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