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समाधानः- ... अंतरमेंसे रुचि जागृत हुयी हो, वह संमत करता है। सम्यग्दृष्टि संमत करे और उसके पहले जिसे रुचि जागृत हुयी हो, वह संमत करता है कि वास्तवमें आत्माका सुख सर्वसे उत्कृष्ट है। परन्तु अंतरमेंसे जो रुचिसे नक्की करे तो वह संमत करता है। दूसरे तो कोई संमत नहीं करते।
मुमुक्षुः- सविकल्प दशामें भी उसको, मैं परिपूर्ण सुख और ज्ञानसे भरा हूँ, ऐसा जिसे अपनेआप पर विश्वास आया हो, वह अरिहन्तके सुखका विश्वास, वह नक्की कर सकता है।
समाधानः- नक्की कर सकता है। स्वयंने विचार करके नक्की किया हो कि मेरेमें ही सुख भरा है। मैं सुखस्वभाव, सुखस्वरूप ही हूँ। उसे अरिहन्त भगवान कैसे, उसका सुख प्रगट हुआ। वह अरिहन्त भगवानके सुखको नक्की करता है। अथवा अरिहन्त भगवानका सुख उसे सुननेमें आये तो भगवान निमित्त (होते हैं)। उनसे उसे होता है कि मैं ही ऐसा हूँ। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। वह संमत करता है।
जिसे अपूर्व रुचि हुयी हो, वह संमत करता है। वास्तविक संमत तो उसे सम्यग्दृष्टिमें होता है, परन्तु उसके पहले जिसे पात्रता (प्रगट हुयी है), वह भी संमत करता है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें तो सम्यग्दृष्टिको ही नक्की होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन पूर्वकी भूमिका ऐसी हो कि जो सच्चा पक्ष ऐसा करे कि...
समाधानः- जो ऐसा सच्चा निर्णय करता है, वह संमत करता है।
मुमुक्षुः- भव्यमें ऐसा तो नहीं होता कि सब सम्यग्दृष्टि ही भव्य हैं, ऐसा तो..
समाधानः- उसकी लायकात है। भव्य यानी उसके स्वभावमें ऐसी लायकात है। फिर जो पुरुषार्थ करे उसे वह प्रगट होता है। सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, ऐसा नहीं है। सम्यग्दर्शन होने पूर्व अपूर्वता लगती है। गुरुकी वाणी सुनकर, गुरुदेवकी वाणी सुनकर (ऐसा लगता है कि) यह कोई अपूर्व वाणी है और आत्माका सुख कोई अपूर्व है। सचमुचमें अपूर्व है। गुरुदेव जो बताते हैं, वह बराबर है। ऐसे सम्यग्दर्शन होनेसे पहले भी वह नक्की करता है।
... ऐसी ही उसमें लायकात है और किया। सम्यग्दर्शन हो तो भवका नाश किया
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ऐसा कहनेमें आये। कोई शुभाशुभ भावोंमें जिसे शान्ति नहीं है, एक आत्माके आश्रयसे प्रगट होता ज्ञान और सुख, वही सच्चा सुख है। ऐसी अंतरमेंसे जिसे प्रतीत आती है।
.. एकान्तमें बैठे, लेकिन ग्रहण तो स्वयंको करना है। बारंबार प्रयत्न करना, बारंबार। मन बाहर जावे तो भी बारंबार प्रयत्न करे। अनादिका अभ्यास है इसलिये मन बाहर जाता है। परन्तु बारंबार अभ्यास करे, बारंबार। उसकी जिज्ञासा, लगनी, बारंबार विचार करे, तत्त्व चिंतवन करे, स्वाध्याय करे, परन्तु ध्येय एक (होना चाहिये कि) मैं आत्माको कैसे पहचानुँ? बारंबार भेदज्ञान करनेका उपाय करे। द्रव्य पर दृष्टि करे। यह एक ही उपाय है। द्रव्यको पहचाने। मैं यह जाननेवाला ज्ञायक हूँ। विभावसे विरक्त हो और स्वभावको ग्रहण करे। बारंबार अभ्यास करे। बारंबार करे।
मुमुक्षुः- स्वपरप्रकाशकके सम्बन्धमें तरह-तरहकी बातें चलती है तो हमें कुछ समझमें नहीं आता।
समाधानः- आत्माका स्वभाव तो स्वपरप्रकाशक है। शास्त्रमें भी आता है। गुरुदेव भी कहते हैं। स्वको जाने और परको जाने, (ऐसा) आत्माका स्वभाव है। ज्ञान और सुख कहनेमें आता है। सबको जाने। ज्ञान एकको जाने और दूसरेको न जाने, ऐसा ज्ञानका स्वभाव नहीं है। ज्ञानकी अनन्तता, ज्ञान संपूर्णरूपसे सबको जानता है। ज्ञान अपनेको जानता है, अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको और परपदार्थको भी जानता है, लोकालोकको जानता है।
अपने स्वरूपमें लीन होवे, ज्ञायकको पहचाने और स्वपरप्रकाशक ज्ञान प्रगट होता है। सबको जानता है, आत्माका स्वभाव है। जो नहीं पहचानता, नहीं जानता है, उसको आत्माका ज्ञानस्वभाव (प्रगट) नहीं होता। ज्ञान तो पूर्ण अनन्त-अनन्त स्वभावसे भरा हुआ है। लोकालोक जाननेका स्वभाव है। द्रव्य पर दृष्टि करे। अपनी ओर उपयोग होवे तो भी स्वपरप्रकाशक ज्ञानका नश नहीं होता। पूर्ण जाननेका उसका स्वभाव है।
मुमुक्षुः- अनादि कालसे परको जाना तो कुछ हाथ नहीं आया, इसलिये अब परको जानना बन्द करके स्वको जाने।
समाधानः- हाथमें नहीं आया तो द्रव्य पर दृष्टि करे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा पहचाने। परन्तु बन्द करना और नहीं करना, ऐसी बात नहीं है। अपनी ओर दृष्टि करे, उपयोग अपनी ओर लीन होवे। क्षयोपशमज्ञान ही ऐसा है कि एक ओर उपयोग जाये तो एकको जानता है, दूसरेको नहीं जानता है। क्षयोपशमज्ञानका ऐसा ही स्वभाव है।
जिसको आत्माकी लगी है, आत्माको पहचाने तो परका उपयोग अपनेआप छूट जाता है। इसलिये जाननेमें नहीं आता। केवलज्ञानीका ज्ञान तो क्षयोपशम ज्ञान नहीं है, क्षायिक ज्ञान है। अपनेमें लीन होवे तो भी संपूर्ण जानता है। अपने स्वरूपमें लीन
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होवे, पूर्ण वीतराग हो जाये तो पूर्ण जानता है।
अपनेको जानो। ज्ञान जानता है, नहीं जानता है... ज्ञानका तो जाननेका स्वभाव है। परके साथ एकत्व मत करो और परके साथ राग मत करो। उससे भेदज्ञान करो। परन्तु जाननेका बन्द करो, उसका कोई मतलब नहीं है। जाननेमें दोष नहीं है, रागका दोष है। एकत्वबुद्धि है। अपने ज्ञायकको पहचानो, ज्ञानकी ओर दृष्टि करो, ज्ञायककी प्रतीत करो, ज्ञायकमें लीन होओ। स्वानुभूतिके समयमें उपयोग बाहर नहीं है तो स्वको जानता है। परन्तु जाननेका छूट नहीं गया है। उपयोग पलट गया है। बन्द करनेका उसमें कोई प्रयोजन नहीं आता। राग छोडना है और भेदज्ञान करो। एकत्वबुद्धि तोडो, स्वको ग्रहण करो।
कहते हैं न, बाहर देखनेका बन्द करो, ऐसा करो। ऐसी कोई हठ करता है। सुननेका बन्द करो, आँखमें कोई ऐसा करता है, मुँह बन्द कर देता है। ऐसा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। अपनेको पहचानो। एकत्वबुद्धि तोड दो। ज्ञान और ज्ञेय दोनों भिन्न ही है। ज्ञायक और ज्ञेय दोनों भिन्न ही है, यह भेदज्ञान करो। द्रव्य जो चैतन्यद्रव्य है, उस पर दृष्टि करना। उसमें भेद गौण हो जाता है। विभाव और भेद भाव, गुणभेद, पर्यायभेद गौण हो जाते हैं। द्रव्यके विषयमें एक द्रव्य आता है। गुणभेद, पर्यायभेद गौण जाते हैं। सब ज्ञानमें आता है। आत्मामें अनन्त गुण हैं, पर्याय है। द्रव्यकी दृष्टिमें एक द्रव्य, अभेद द्रव्य आता है। द्रव्यकी दृष्टि एक आत्माका अस्तित्व ग्रहण (करती है)। ज्ञानगुण है, दर्शनगुण है, चारित्र है, ऐसे गुणभेद पर दृष्टि नहीं रहती। उसमें राग होता है। द्रव्य पर (दृष्टि रहती है)। ज्ञायक द्रव्य है, उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। एक द्रव्य पर दृष्टि करनी।
मुमुक्षुः- वास्तवमें द्रव्यदृष्टिका विषय शुद्धाशुद्ध पर्यायसे रहित नहीं है, परन्तु प्रयोजनवश गौण करके कहनेमें आता है?
समाधानः- गुणभेद, पर्यायभेद उसमें गौण हो जाते हैं। स्वभाव निकल नहीं जाता। द्रव्यमेंसे गुण निकल नहीं जाते, पर्याय निकल नहीं जाती। परन्तु दृष्टिका विषय एक द्रव्य पर होता है। इसलिये आत्मामें गुण नहीं है, पर्याय नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। दृष्टिका विषय एक द्रव्य पर जाता है। अभेद द्रव्य पर। भेद पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। दृष्टिके साथ ज्ञान रहता है, वह सब विवेक करता है। दृष्टिके साथ-साथमें रहता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। ज्ञान अभेदको जाने, भेदको जाने, सबको जानता है। दृष्टि एक द्रव्यको ग्रहण (करती है)। दृष्टिका बल है। दृष्टिका बल मुख्य रहता है। ज्ञान साथमें रहता है।
मुमुक्षुः- परिणाम बिना तो द्रव्य कभी होता नहीं है, फिर भी उसको अपरिणामी
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कहना?
समाधानः- अपेक्षासे अपरिणामी कहनेमें आता है। परिणामी और अपरिणामी दोनों है। परिणाम बिना नहीं रहता। अपरिणामी-एक अपेक्षासे उसमें कोई परिणामका भेद नहीं पडता है। एक द्रव्य, एक अखण्ड द्रव्य... द्रव्यकी दृष्टिसे अपरिणामी कहते हैं। परिणाम निकल नहीं जाता। परिणाम है आत्मामें। परिणाम उसमें नहीं है, ऐसा नहीं है। परिणाम सहित द्रव्य है।
द्रव्य अनादिअनन्त एकरूप द्रव्य है। एकरूप। इसलिये उसे अपरिणामी कहनेमें आता है। द्रव्यमें कोई पलटन नहीं है, द्रव्य एकरूप रहता है। द्रव्यदृष्टिसे उसे अपरिणामी कहनेमें आता है। पर्यायदृष्टिसे परिणामी कहनेमें आता है। परिणाम, अपरिणामी दोनों हैं। परिणाम उसमें है ही नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ है ही नहीं, कल्पित है, ऐसा नहीं है। उसमें है, परिणाम है।
... परिणाम होते हैं। गुणका कार्य होता है। अनन्त पर्याय होती हैं। सिद्ध भगवानमें भी परिणाम होते हैं। परन्तु द्रव्य परिणामी, अपरिणामी (कहनेमें आता है)। द्रव्यदृष्टिसे अपरिणामी (कहते हैं)।
.. शुभाशुभ भावमें रुचे नहीं, अन्दर रास्ता मिले नहीं, ऐसा नहीं बनता। अन्दरमें जिसे खरी लगन लगी हो, उसे मार्ग प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। उसे ज्ञायक ग्रहण हुए बिना नहीं रहता। अंतरमें शुभाशुभ भावसे यदि उसे सचमुचमें आकुलता लगती हो और कहीं चैन नहीं पडता हो, तो आत्माको ग्रहण किये बिना नहीं रहता। वह मार्ग ढूँढ ही लेता है। मार्ग गुरुदेवने बताया और स्वयंको ग्रहण नहीं हो तो अपने पुरुषार्थकी कमी है। मार्ग तो स्पष्ट करके बताया है। परन्तु स्वयंको अन्दर खरी लगी हो तो ग्रहण करे। ग्रहण नहीं करता है। सच्चा दुःख लगा हो वह ग्रहण किये बिना नहीं रहता। सच्ची भूख नहीं लगी है, इसलिये वह ग्रहण नहीं करता है।
मुमुक्षुः- प्रतिकूलताका ही दुःख लगा?
समाधानः- प्रतिकूलतामें दुःख लगे, परन्तु अन्दर सुख कहाँ है? उसको अन्दरसे सुख खोजनेकी, आत्माको ग्रहण करनेकी अन्दर उतनी लगनी नहीं लगी है। प्रतिकूलताका दुःख ऊपर-ऊपरसे लगता है।
मुमुक्षुः- शुभभावका पुरुषार्थ होता है, वह किस प्रकारका होता है? शुभभावका पुरुषार्थ ज्ञानीको होता है..
समाधानः- अंतरमें पुरुषार्थ तो उसने शुद्धात्माको ग्रहण किया है। शुद्धात्मामें लीनताका पुरुषार्थ है। अंतरका पुरुषार्थ तो (यह चलता है)। परन्तु उपयोग बाहर जाता है, इसलिये अशुभभावसे बचनेके लिये शुभका पुरुषार्थ उसे कहनेमें आता है और शुभका पुरुषार्थ
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होता है। परन्तु अंतरमें सच्चा पुरुषार्थ तो उसे भेदज्ञानकी धाराका और आत्मामें लीनताका (होता है)। जो शुभभाव भाव होते हैं, उससे भिन्न ही रहता है। और ज्ञायककी धारा वह पुरुषार्थ करके भिन्न ही रखता है और उसकी परिणति सहज ऐसी ही रहती है। फिर भी अभी पूर्ण नहीं हुआ है, पूर्णता नहीं हुयी है, अंतरमें लीन नहीं रह सकता है, स्वानुभूति (होती है परन्तु) अंतर्मुहूर्तमें तो बाहर आता है। उतनी भूमिका नहीं है। चौथे, पाँचवे गुणस्थानमें उतनी भूमिका नहीं है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें हो तो भी वह अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। इसलिये उपयोग बाहर आता है। वीतराग दशा नहीं हुयी है। इसलिये उसे अशुभभावसे बचनेको शुभका पुरुषार्थ होता है। होता है, परन्तु वह हेयबुद्धिसे होता है। सर्वस्व मानकर नहीं होता है कि यह पुरुषार्थ सर्वस्व है और इससे मुझे लाभ होनेवाला है और मेरे आत्मामें कुछ प्रगट होनेवाला है। ऐसी मान्यता नहीं है।
अशुभभावसे बचनेके लिये शुभका पुरुषार्थ, शुभमें खडा रहता है। परन्तु पुरुषार्थ अन्दर वास्तवमें तो अंतरमें शुद्धि बढानेका होता है। मेरी अंतरमें लीनता कैसे हो? यह सब कषाय, जो विभावभाव है, उसकी मन्दता होकर मैं अंतरमें लीन हो जाऊँ अथवा वीतराग हो जाऊँ ओर यदि यह सब छूट जाता हो तो एक क्षण भी शुभाशुभ भाव आदि कुछ नहीं चाहिये। अन्दर मान्यता तो ऐसी है कि इस क्षण यदि छूट जाता हो तो यह शुभादि कुछ नहीं चाहिये। परन्तु अन्दर स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये बाहर शुभभावमें खडा रहता है। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभमें खडा रहता है। अंतरमें पुरुषार्थ उग्र नहीं होता है, इसलिये बाहर शुभमें खडा रहता है।
अशुभ तो सर्व प्रकारसे हेय है, शुभ भी स्वभावदृष्टिसे हेय है। स्वभावदृष्टिसे वह भी हेय है। परन्तु कोई अपेक्षासे वह मन्द कषाय है, इसलिये खडा रहता है। देव- गुरु-शास्त्रके आलम्बनयुक्त होता है, इसलिये वह शुभभावोंमें-मन्द कषायमें खडा रहता है।
मुमुक्षुः- लाभ नहीं मानते हैं फिर भी...
समाधानः- लाभ नहीं मानते हैं।
मुमुक्षुः- उसके प्रयत्नमें होते हैं।
समाधानः- हाँ, प्रयत्न होता है। खडा रहता है। मन्द कषाय है, इसलिये खडा रहता है। अंतरमें ज्यादा समय स्थिर नहीं सकता है, इसलिये बाहर आता है। चौथे गुणस्थानमें भी होता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रके कायामें होता है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें भी होता है। मुनिओंको पंच महाव्रतके परिणाम होते हैं। और शास्त्र लिखते हैं, उपदेश देते हैं। उस प्रकारकी शुभभावकी प्रवृत्ति होती है। तो भी
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अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें लीन होता है। परन्तु बाहर आते हैं तो ऐसे सब कार्य मुनिओंको भी शुभभावमें होते हैं। हेयबुद्धिसे है। उसे मानते नहीं है कि यह मेरे आत्मामें लाभकर्ता है। ऐसा नहीं मानते हैं।
मेरे आत्मामें शुद्धि कैसे बढे? मेरे आत्मामें लीनता कैसे हो? इसलिये अशुभसे छूटकर शुभभावमें (आता है)। पुरुषार्थ अंतरमें स्थिर होनेका है, ध्येय अंतरमें स्थिर होनेका है। परन्तु स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये बाहर खडा रहता है। उस क्षण शुभाशुभ कार्य करता हो, शुभके कार्यमें हो, देव-गुरु-शास्त्रके कोई भी कार्यमें हो तो भी उसे उसी क्षण भिन्न ज्ञायककी परिणति होती है। उसी क्षण ज्ञायककी परिणति होती है। उसे याद नहीं करना पडता। भिन्न ही, न्यारा ही रहता है।
मुमुक्षुः- शुभभावमें खडा रहता है, उसीका नाम शुभभावका प्रयत्न है?
समाधानः- बस, उसमें खडा रहता है। प्रयत्न है, अशुभसे बचनेको शुभभावमें खडा रहता है, उसका प्रयत्न है। दूसरा प्रयत्न नहीं है। भिन्न-भिन्न कार्य होते हैं, जिनेन्द्रदेवका, गुरुका, शास्त्रोंके विचार, श्रुतका चिंतवनका, बस, उस प्रकारका उसका प्रयत्न है। उसमें खडा रहता है। अंतरमें ज्ञायककी परिणति तो साथमें ही है। ज्ञायककी परिणति साथ- साथ रखता है और इसमें खडा रहता है।
अशुभमें नहीं जाना है, इसमें खडा रहना है, ऐसा। हेयबुद्धिसे भी खडा इसमें रहना है। या तो अंतर आत्मामें जाना है अथवा शुभभावमें खडा रहना है। अशुभमें तो जाना ही नहीं है। ... दृष्टिसे उसे सर्व प्रकारसे हेय माना है। किसी भी प्रकारसे आदर नहीं है, स्वभावदृष्टिसे। परन्तु प्रयत्नमें अंतरमें स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये बाहर शुभभावमें प्रयत्न होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! ऐसा कह सकते हैं कि शुद्धताके मन्द पुरुषार्थमें उसे शुभ परिणाम हो जाते हैं। इसलिये व्यवहारसे ऐसा कहा कि अशुभसे बचनेको शुभमें खडा है। वास्तवमें तो शुद्धताका..
समाधानः- मन्द पुरुषार्थ है, उसके साथ शुभभाव आये बिना नहीं रहते। शुद्धताका तीव्र पुरुषार्थ हो तो उसमें वह गौण होता है। परन्तु शुद्धताका मन्द पुरुषार्थ है, इसलिये उसके साथ शुभभाव जुडे रहते हैं। प्रयत्न शुद्धिका है, परन्तु शुद्धि आगे नहीं बढती है और मन्द रहती है, इसलिये शुभभावमें खडा रहता है। एक ओर अशुभसे बचनेको, एक ओर उसे शुद्धताकी ओरका तीव्र पुरुषार्थ नहीं चलता है, मन्द है, इसलिये शुभमें खडा रहता है। मन्द यानी ज्ञायककी परिणति तो चालू ही है, परन्तु अन्दर जो विशेष लीन होना चाहिये, वह नहीं हो सकता है। ज्ञायककी परिणति उसे दृष्टिकी अपेक्षासे जोरदार है। परन्तु आचरणमें मन्द है, इसलिये शुभभावमें खडा है।
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मुमुक्षुः- मुमुक्षुकी भूमिकामें कैसा शुभभाव होता है?
समाधानः- मुमुक्षुको एकत्वबुद्धि है, भिन्न नहीं हुआ है। परन्तु वह मानता है, वह मुमुक्षु ऐसा मानता है कि यह शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। आत्मा भिन्न है, आत्मा निर्विकल्प स्वभाव ज्ञायक जाननेवाला है। परन्तु उसकी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, इसलिये वह शुभभावमें खडा है। उसे तो एकत्वबुद्धि होती है। परन्तु उसने विचार करके जो निर्णय किया है कि, यह भाव मेरा स्वरूप नहीं है। वह निर्णय साथमें रहकर उससे मुझे धर्म होता है या उसे सर्वस्व मानता है, ऐसा मुमुक्षु मानता नहीं। परन्तु अंतरकी श्रद्धा, वह अलग बात है। लेकिन उसे वह सर्वस्व नहीं मानता। वह भी अशुभसे बचनेको शुभभावमें खडा रहता है। परन्तु उसे आत्मा भिन्न नहीं रहता है। एकत्व हो जाता है। उसकी मान्यता ऐसी रखे कि, यह सर्वस्व नहीं है, यह तो हेय है। मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा विचारमें भी वह रह सकता है।
आत्मा ग्रहण नहीं हुआ है, अशुभभावमें जाता है, कहाँ खडा रहेगा? शुभभावमें खडा है। रुचि आत्माकी रखे कि आत्माका ही करने जैसा है। यह मेरा स्वभाव नहीं है। सुख तो आत्मामें है, निर्विकल्प स्वरूपमें ही सुख है। विकल्पात्मक परिणतिमें सुख नहीं है। निर्विकल्प स्वरूप जो आत्मा, उसमें ही सुख है। ऐसी रुचि रखे। ऐसी रुचि रखे और ... एकत्वबुद्धि होती है। विचारमें हो, निर्णयमें हो तो भी उसकी परिणति भिन्न नहीं हुयी है।
लेकिन जो कुछ नहीं समझते हैं, एकत्वबुद्धिमें सर्वस्व मानते हैं, उसकी तो मान्यता ही अलग है। विचारपूर्वक भी उसकी मान्यता बराबर नहीं है। इसने विचारसे इतना निर्णय किया है तो उसे आगे बढनेका अवकाश है। लगनी लगाये तो आगे बढनेका अवकाश है।