Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 85.

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ट्रेक-८५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- पर्यायके षटकारक स्वतंत्र है?

समाधानः- द्रव्यदृष्टिसे स्वतंत्र है। पर्याय अपेक्षासे पर्यायके स्वतंत्र और द्रव्य अपेक्षासे द्रव्यके स्वतंत्र। बाकी पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय नहीं होती है। अपेक्षासे उसे गौण करके स्वतंत्र कहनेमें आता है। द्रव्यकी अपेक्षासे उसे स्वतंत्र कहकर, पर्यायको गौण करके उसे स्वतंत्र कहते हैं। वह द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्यको छोडकर पर्याय कहीं अलग नहीं लटकती है। पर्याय भिन्न, एकदम सर्व प्रकारसे भिन्न हो तो वह दूसरा एक द्रव्य हो जाय।

मुमुक्षुः- ..नहीं जाने हुएका श्रद्धान खरगोशके सींग समान है। मुनिको आगमज्ञान हो और ...

समाधानः- क्या? जाना है, फिर भी श्रद्धान नहीं होता? जाना हुआ वह ऐसा जाना हुआ कहनेमें आता है। अंतरसे जाना हो तो उसे श्रद्धा हुये बिना नहीं रहती। जाना हुआ यानी.. क्या कहा? आगमज्ञान..?

मुमुक्षुः- आगमज्ञान हो और तत्त्वार्थ श्रद्धान न हो।

समाधानः- आगमज्ञान तो किया, लेकिन यदि अंतरमें श्रद्धा नहीं की। अर्थात उसने श्रद्धा तो ऐसे की है, परन्तु अंतरसे नहीं की है। इसलिये वह जाना है, वह ऐसा जाना है कि अंतरकी परिणतिको मिलाकर नहीं जाना है। क्षयोपशमसे जाना है। परन्तु अंतरकी परिणतिको मिलाकर, अंतरकी परिणतिके साथ जो जानना चाहिये, वैसे नहीं जाना है, इसलिये उसके साथ तत्त्वश्रद्धान नहीं है। परन्तु जिसने सच्चा जाना हो, उसके साथ तत्त्वार्थ श्रद्धान हुए बिना नहीं रहता। और तत्त्वार्थ श्रद्धान सच्चा हो, उसके साथ सच्चा ज्ञान होता है।

... दुःख यानी बहुत आकुलता करे, ऐसा नहीं है। अन्दरसे स्वयंकी परिणति ही ऐसी होती है कि कहीं टिकती नहीं। अंतरमें कुछ दूसरा चाहिये। कहीं शान्ति नहीं लगती। कृत्रिमतासे दुःख है, दुःख है, उसे दुःख नहीं कहते। एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे कहाँसे दिखे? रस लगा है, अनुकूलतामें बह जाता है। जो आत्माको पहचानता है, उसे अनुकूलतामें भी दुःख लगता है। अनुकूलता भी आत्माको सुख देनेवाली नहीं


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है। वह भी आकूलतारूप है। वह अपना स्वभाव नहीं है। वह उपाधि है, विभावकी उपाधि है, अनुकूलता है वह। देवलोकका सुख भी उपाधि है। वह आत्माको सुखरूप नहीं है।

सम्यग्दृष्टि देवलोकमें हो तो उसे अंतर आत्मामें सुख लगता है, बाहर कहीं नहीं लगता। अनुकूलताके गंज हो तो भी सम्यग्दृष्टिको कहीं सुख नहीं लगता। अनुकूलतामें खींचाता नहीं। और प्रतिकूलतामें एकदम उसे खेद हो जाये ऐसा भी नहीं है। अनुकूलतामें खींचाता नहीं और प्रतिकूलतामें शान्ति रखता है। प्रतिकूलतामें आकुलता नहीं करते, उसमें भी शान्ति रखता है। अनुकूलतामें बह नहीं जाते।

अज्ञानदशामें उसने भ्रान्तिके कारण इसमें सुख है, ऐसा माना है। बह जाता है। किसीको वैराग्य आया हो तो ऐसा लगे कि यह अनुकूलता आत्माका स्वरूप नहीं है। परन्तु अंतरसे जो लगना चाहिये, वह अलग बात है। .. भी आकुलता है, अनुकूलता भी उपाधि है। .. राज हो तो भी वह उपाधि, आकुलता है, आत्माका स्वरूप नहीं है। बाहरसे जितना भी आया हो, वह आत्माका नहीं है।

स्वयं आत्माका स्वभाव होनेसे अंतरसे जो सुख आये, वह सच्चा सुख है। स्वयं आये वह। ... आया नहीं है, लेकिन विचार करे तो बाहरमें कहीं सुख नहीं है। उसमें सुख नहीं है और स्वभावकी रुचि करे, प्रयत्न करे तो सुख प्रगट होता है। विचार करे कि सब विभाव दुःखमय है। अपना स्वभाव नहीं है। स्वभावके आश्रयसे सुख, परके आश्रयसे दुःख है।

मुमुक्षुः- आस्रवोसे निवृत्ति क्यों नहीं होती?

समाधानः- आत्माको पहचाने तो आस्रवोंसे निवृत्ति हो। अंतरमें आत्माको-ज्ञायकको पहचाने, भेदज्ञानकी परिणति हो, अन्दर विज्ञानघन स्वयंका स्वभाव है। उस विज्ञानघन स्वभावमें परिणति हो, उसमें जमती जाय तो आस्रवसे निवृत्ति हो। अंतरमें भेदज्ञान हो तो आस्रवसे निवृत्ति हो। अंतरमें विज्ञानघन स्वभावको पहचाने बिना आस्रवसे निवृत्ति नहीं होती। अन्दर भेदज्ञानकी परिणति विज्ञानघन दशा हुए बिना आस्रवसे निवृत्ति नहीं होती।

स्वभावकी परिणति प्रगट हो, स्वभावकी क्रिया प्रगट हो तो आस्रवसे निवृत्ति हो। ज्ञायकको पहचाने। ज्ञायककी श्रद्धा, ज्ञायकका ज्ञान और ज्ञायकमें अमुक प्रकारसे रमणता। विशेष रमणता तो मुनिदशामें होती है। विज्ञानघन स्वभाव बढता जाये, वैसे आस्रवोंसे निवृत्ति होती है।

मुमुक्षुः- .. वैरागी परिणति?

समाधानः- वैरागी परिणति जो अंतरमें होती है, वह दुःखरूप परिणति... परन्तु


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वह वापस मुडता है। स्वभावकी ओर उसे रुचि हो तो वह सच्चा वैराग्य है। दुःखरूप परिणति नहीं है, परन्तु सच्चा वैराग्य है वह दुःखरूप परिणति नहीं है। दुःखगर्भित वैराग्य हो तो वह दुःखरूप परिणति है। सच्चा वैराग्य हो तो वह दुःखरूप परिणति नहीं है। विज्ञानघन स्वभाव बढता जाय, उसमें विभावसे निवृत्ति और विभावसे विरक्ति होती है और स्वभावकी ओर परिणति होती है। इसलिये वह दुःखरूप नहीं है। विरक्ति दशा, ज्ञायककी परिणति विशेष प्रगट होती जाती है।

मुमुक्षुः- शान्तिरूप है?

समाधानः- शान्तिरूप है। विभावकी प्रवृत्तिसे निवृत्ति हो और स्वभावकी परिणति होती है। विरक्त दशा। सच्चा वैराग्य उसे कहते हैं कि अंतरमें ज्ञायककी परिणति हो और विभावसे विरक्ति हो। शान्तिमय दशा है। दुःखगर्भित वैराग्य हो वह अलग बात है।

.. ज्ञान और वैराग्य साथमें रहते हैं। शास्त्रको जानता है, सब करता है, लेकिन भीतरमें यदि वैराग्य नहीं हुआ तो किस कामका? अकेला शुष्कज्ञान क्या करता है? भीतरमें विरक्ति, विभावसे विरक्ति होनी चाहिये। और साथमें वैराग्य होवे। संसारमें अच्छा नहीं लगे। स्वभावमें सबकुछ है। ऐसी रुचि, निर्णय ऐसा होना चाहिये। मात्र शास्त्र पढ ले, परन्तु भीतरमें मैं आत्माका कल्याण करुँ, ऐसा यदि साथमें वैराग्य नहीं हो तो अकेला ज्ञान कुछ नहीं कर सकता।

कोई अकेला वैराग्य करे कि संसारमें दुःख है, ऐसा है, ऐसा करके वैराग्य करता है, सब छोड देता है, त्याग करता है, व्रत करता है, सब करता है। परन्तु जाना कहाँ? किस मार्ग पर जाना है? यह ज्ञान नहीं होवे तो किस कामका? जीवने ऐसा अनन्त बार किया। सब दुःख लगा, संसारमें दुःख है। सब छोडकर मुनि हुआ, ऐसा हुआ। परन्तु ज्ञान नहीं है, आत्माका ज्ञान नहीं हुआ। वह किस कामका? दोनों साथमें होने चाहिये।

अकेला ज्ञान और अकेला वैराग्य करनेसे लाभ नहीं होता है। ज्ञानके साथ वैराग्य होना चाहिये और वैराग्यके साथ ज्ञान होना चाहिये। ज्ञान ऐसा प्रयोजनभूत तो होना चाहिये कि किस मार्ग पर जाना है? कहाँ जाना है? आत्माका क्या स्वभाव है? आत्मामें सुख है, आत्मामें आनन्द है। ऐसा ज्ञान होना चाहिये। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव ज्ञायक स्वभाव है। ऐसा ज्ञान साथमें होना चाहिये। आत्माके द्रव्य-गुण-पर्यायका (ज्ञान होना चाहिये)। आत्माका द्रव्य क्या, गुण क्या, पर्याय क्या। सबका ज्ञान होना चाहिये।

अकेला त्याग कर देता है, छोड देता है। आता है न? "यम नियम संयम आप कियो, त्याग वैराग्य अथाग लियो', सब किया। परन्तु यदि आत्मज्ञान नहीं हुआ तो


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सब शुभभाव हुआ, पुण्यबन्ध हुआ। नौंवी ग्रैवेयक गया, लेकिन आत्माका ज्ञान नहीं हुआ तो भवका अभाव नहीं हुआ। शास्त्र पढ लेता है, परन्तु भीतरमें वैराग्य नहीं हुआ कि यह अच्छा नहीं है, यह परद्रव्य है। स्वद्रव्य कोई अपूर्व अलौकिक चीज है, इसकी महिमा नहीं की, विभावसे विरक्ति-वैराग्य नहीं आया। अकेला शास्त्रका स्वाध्याय किया, परन्तु भीतरमें कुछ नहीं किया तो भी लाभ नहीं हुआ।

मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्यलिंगी तो बहुत ज्ञान और वैराग्य करता है। फिर भी सिद्धि नहीं होती है?

समाधानः- ज्ञान और वैराग्य दोनों करता है, परन्तु ज्ञान ऐसा किया कि आत्माका ज्ञान नहीं किया। वैराग्य भी ऐसा भीतरमेंसे नहीं किया। बाहरसे सब छोड दिया। सह छोडकर चला गया। ऐसी क्रिया की, बहुत की। जैसा शास्त्रमें आता है, ऐसी बाहरसे बहुत क्रिया की। ज्ञान भी बहुत हुआ। भीतरमेंसे ग्यारह अंगका ज्ञान हो गया। लेकिन भीतरमें आत्मतत्त्वको नहीं पहचाना।

मैं आत्मा कौन हूँ? और मेरा क्या स्वभाव है? मैं कोई अदभुत चैतन्य द्रव्य हूँ। ऐसे द्रव्यको पहचाना नहीं। उसकी महिमा नहीं आयी। उसे वैराग्य नहीं हुआ, भीतरमेंसे नहीं हुआ। ज्ञान भी हुआ, वैराग्य भी हुआ, सब ऊपरसे। ग्यारह अंग तो भीतरमेंसे क्षयोपशम हो गया। ग्यारह अंगका (ज्ञान हुआ), परन्तु मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको नहीं पीछाना। ज्ञान और वैराग्य दोनों साथमें है। ऊपरसे साथमें हुए। भीतरमें जो मूल तत्त्व है, उस तत्त्वको नहीं पीछाना। सब बोलता है, विचार करता है, द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसा है, ऐसा है, चर्चा करता है, परन्तु भीतरमें मूल तत्त्व, चैतन्यतत्त्व भीतरमेंसे नहीं पीछाना। ऐसा ज्ञान कुछ कामका नहीं हुआ।

वैराग्य भी भीतरमेंसे (नहीं हुआ)। बाहरसे छोड दिया, लेकिन भीतरमें उस शुभभावमें रुचि रह गयी। ऐसी रुचि रह गयी गहराईमें कि उसे ख्यालमें नहीं आता। अशुभभावसे तो वैराग्य हुआ, लेकिन शुभभावमें रुचि रह गयी। शुभाशुभ भावसे भी भिन्न हूँ। ऐसा वैराग्य भीतरमेंसे नहीं हुआ। बस, अकेला निवृत्तिमय चैतन्यतत्त्व निर्विकल्प तत्त्वमें ही सुख है, बाहर कहीं भी सुख नहीं है, ऐसा निर्णय और ऐसी रुचि नहीं हुयी। शुभभावमें रुचि रह गयी।

मुमुक्षुः- व्रत, नियम धारण किये उसे समय रुचि ठीक है?

समाधानः- व्रत, नियम धारण किये लेकिन भीतरमें रुचि शुभभावमें रह गयी। शुभभावमें रुचि रह गयी। शुभभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। शुभभावसे देवलोक होता है, परन्तु भवका अभाव नहीं होता है। शुभभाव बीचमें होता है, लेकिन वह आत्माका स्वभाव तो नहीं है। वह भी विभाव है। प्रवृत्तिमय है, आकुलतामय है,


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दुःखरूप है। भीतरमें विचार करे तो सब दुःखमय है। उससे भी भिन्न मैं आत्मा हूँ। ऐसी रुचि नहीं हुयी।

.. आत्माकी रुचि नहीं हुयी। शुभभाव, थोडा शुभभाव तो होना चाहिये न। शुभभावमें आग्रह रह गया। शुभभाव होता है, जबतक आत्माको नहीं पहचाने, आत्मामें लीनता न होवे, तब शुभभाव आता है। परन्तु उसमें रुचि ऐसी रह गयी कि शुभभाव होना ही चाहिये। ऐसा आग्रह, ऐसी बुद्धि भीतरमें हो गयी। उसकी रुचि हो गयी। सिद्ध भगवानमें शुभभाव नहीं है। सिद्ध भगवान जैसा आत्माका स्वभाव है। (शुभ और अशुभ) दोनोंसे भिन्न आत्माका स्वभाव है। दोनोंसे भिन्न आत्माका स्वभाव है। मुनि हुआ तो भी शुभभावमें रुचि रह गयी। देवलोकमें गया तो भी भवका अभाव नहीं हुआ, देवलोक हुआ।

मुमुक्षुः- माताजी! अनुभव होनेसे पहले मुमुक्षु सच्चा ज्ञान और वैराग्य कर सकता है? अनुभव होनेसे पहले मुमुक्षु सच्चा ज्ञान और वैराग्य कर सकता है?

समाधानः- पहले सच्चा ज्ञान, वैराग्य कर सकता है। परन्तु यथार्थता, वास्तविक यथार्थता तो उसे सम्यग्ज्ञान हो तब यथार्थता कह सकते हैं। लेकिन उस यथार्थताकी भूमिका मुमुक्षुतामें कर सकता है। यथार्थता प्रगट हो, उससे पहले यथार्थताकी भूमिका, यथार्थताके मार्ग पर जा सकता है।

उसे अंतरमें रुचि, भले अन्दरसे गहरी प्रतीति आत्माका आश्रय यथार्थ सम्यग्दर्शनमें जो ग्रहण किया वैसी नहीं है, तो भी उसके मार्ग पर वह जा सकता है। मार्गानुसारी हो सकता है। यह शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप एक चैतन्यतत्त्व कोई अपूर्व महिमावंत तत्त्व है। उसकी महिमा आये, उसकी अपूर्वता लगे, मैं कोई अदभुत तत्त्व हूँ, उसकी महिमा लगे। यह शुभाशुभ दोनों भाव आकुलतामय हैं, यह दुःखमय हैं। ऐसे विचार, ऐसी प्रतीति भी कर सकता है।

ज्ञान-वैराग्य यथार्थ कर सकता है कि जिसके पीछे उसे अवश्य सम्यग्दर्शन हो, ऐसी भूमिकाको वह प्राप्त कर सकता है। पानीकी शीतलता दूरसे दिखती है। पानीके पास पहुँचा नहीं है। उसकी शीतलता,... उसके अमुक लक्षणसे नक्की करे कि यह ज्ञायक स्वभाव, जाननेवाला स्वभाव कोई अदभुत तत्त्व है, वह कोई अलग ही है। उसका निर्णय (करने तक) अभी पहुँच नहीं पाया है। तो भी वह कर सकता है। अमुक प्रकारसे निर्णय कर सकता है। इस कारण, उस सम्बन्धित ज्ञान, उस प्रकारका वैराग्य, विरक्ति, उस प्रकारकी महिमा करके वह मार्गका अनुसरण कर सकता है।

... कार्य तक पहुँचनेसे पहले उसके जैसी भूमिकामें सच्चे मार्ग पर जा सकता है। कोई अपूर्व रुचि हो, अपूर्व देशनालब्धि अंतरमेंसे हो कि मार्ग तो यही है। ये


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शुभाशुभ भावसे भिन्न एक आत्मा वह कोई अलग तत्त्व है। और वही सर्वस्व है। बाहरमें कहीं भी सर्वस्वपना नहीं है। किसी भी प्रकारकी विशेषता उसे नहीं लगती, आत्माके सिवा। एक आत्मा ही सर्वस्व है। दूसरा कुछ विशेष (नहीं है)। जगतकी कोई वस्तु उसे अलौकिक नहीं लगती, सब लौकिक लगती है। एक अलौकिक तत्त्व आत्मा है। ऐसी अपूर्व रुचि कर सकता है। और इस कारणसे वह सच्चे मार्ग पर जा सकता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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