PDF/HTML Page 528 of 1906
single page version
समाधानः- वीतराग दशामें जहाँ एक विकल्प नहीं है, किसी भी प्रकारकी इच्छा नहीं है, कुछ नहीं है। निरिच्छासे ध्वनि मात्र छूटती है। भगवानकी दिव्यध्वनि छूटती है। जिसमें भगवानको पूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान प्रगट हुआ, ऐसी दशा है। उसके साथ जो भाषाकी परिणति है, समस्त लोकालोकको दर्शानेवाली, ऐसी भगवानकी दिव्यध्वनि लोकालोकका स्वरूप जिसमें आता है, वह दिव्यध्वनि। भगवान इच्छापूर्वक नहीं बोलते हैं। उन्हें कोई विकल्प नहीं है। सहज ध्वनि छूटती है। एकाक्षरी ध्वनि निकलती है। उसमें ऐसे सब अतिशय होते हैं कि उसमें सब समझ जाते हैं कि भगवान क्या कहते हैं।
मुमुक्षुः- उसमें गणधर क्या करते हैं?
समाधानः- क्या करे मतलब?
मुमुक्षुः- भगवानकी दिव्यध्वनि छूटी, ....
समाधानः- जिसकी योग्यता विशेष होती है, वह विशेष अंतरसे ज्ञानको प्रगट करते हैं। विशेषरूपसे अंतरसे रहस्य ग्रहण करता है। दूसरोंसे अधिक ध्यान करते हैं। उनका क्षयोपशमज्ञान ऐसा होता है कि सब ग्रहण करे। जहाँ तक क्षयोपशम पहुँचे वहाँ तक ग्रहण करते हैं। बाकी भगवानकी ध्वनि तो पूर्ण है। वे भी कहते हैं कि, भगवान! मैं आपकी ध्वनिको पहुँच नहीं पाता। दिव्यध्वनिका रहस्य समझनेकी गणधरमें योग्यता होती है। दूसरे सब यथाशक्ति समझते हैं।
मुमुक्षुः- दिव्यध्वनि नरक्षरी रहती है?
समाधानः- निरक्षरी अर्थात एक अक्षर है, इसलिये निरक्षरी कहते हैं। भाव सब समझ जाते हैं। उसमें अतिशय है।
मुमुक्षुः- गणधर भगवान बारह अंगकी रचना करते हैं, मतलब?
समाधानः- अंतरमें रचना करते हैं। बाहरसे लिखते नहीं। अंतरमें ऐसी लब्धि प्रगट होती है। मति-श्रुतकी ऐसे लब्धि प्रगट होती है। अंतरमें ऐसी रचना करते हैं, अंतर्मुहूर्तमें। श्रुतज्ञानमें जितना स्वरूप हो, उस अनुसार उसे शब्दमें भाव ग्रहण करके रचना करते हैं।
PDF/HTML Page 529 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- .. गणधरदेवने बारह अंगकी रचना की और फिर उस परसे शास्त्ररचना की।
समाधानः- अंतरमें रचना करते हैं। शास्त्रकी रचना, उस वक्त तो हाथसे लिखना इतना नहीं था। अंतरमेंसे सब ग्रहण करते थे।
मुमुक्षुः- भगवानके पास जानेकी बहुत इच्छा है।
समाधानः- इच्छा हो वह कोई... अन्दरकी भावना कोई अलग होती है। भगवानके पास जानेकी इच्छा हो। अन्दर जिसे भगवान पर भाव हो, उसे जानेकी इच्छा तो होती है। परन्तु ऐसी इच्छासे थोडे ही न जा सकते हैं। अंतरकी भावना हो, ऐसा योग हो तो जा सकते हैं। ऐसी ही थोडे जा सकते हैं।
... कोई शब्दोंमें, कोई लिखावटमें आये। अलग प्रकारका। वह तो ज्ञान ऐसा है। अभी तो कहाँ दिखाई देता है। एक गुरुदेवकी वाणी यहाँ थी कि जिसमें अतिशयतायुक्त वाणी उनकी दिखाई देती थी।
मुमुक्षुः- आगमकी रचना करे उसमें विभिन्न अर्थमें घटित कर सकते हैं। किसीको वाणीका योग उस प्रकारका नहीं हो, कोई शास्त्रकी रचना भी करे। अंतरसे स्वयं शास्त्र रचना करते हैं?
समाधानः- ऐसा कुछ शास्त्रमें नहीं आता है। मनसे आवृत्ति कर ले, उपदेशमें बोले। बारह अंगकी रचना लिखी नहीं जाती। उसमें मूल सूत्र होते हैं। लिखी नहीं जाती। बादमें लिपिबद्ध किया है। लिपिबद्ध .. पहलेका क्षयोपशम कुछ अलग था। मूल प्रयोजनभूत लिखा जाता है। सब लिखावट शास्त्रोंमें होती है, उसका सार लिखनेमें आता है। मूल तो अंतर आधारित है न।
मुमुक्षुः- ... क्षयोपशम कैसे होता है?
समाधानः- क्षयोपशमका प्रयोजन नहीं है, आत्माको ग्रहण करनेका प्रयोजन है। ज्यादा क्षयोपशम हो तो अधिक लाभ होता है। ज्यादा क्षयोपशम हो तो ही मोक्ष होता है और तो ही मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है, ऐसा नहीं है। क्षयोपशमकी इच्छा करनेके बजाय, मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? मुझे भेदज्ञान कैसे हो? थोडा क्षयोपशम हो तो भी भेदज्ञान हो सकता है, स्वानुभूति हो सकती है। सबका क्षयोपशम एक समान नहीं होता। मुनि होते हैं, सबका क्षयोपशम समान नहीं होता। क्षयोपशम तो उसकी अमुक प्रकारकी योग्यता होती है तो क्षयोपशम होता है। बाकी क्षयोपशमकी इच्छासे (क्षयोपशम नहीं होता)। क्षयोपशमकी इच्छा लाभकर्ता नहीं है। अन्दर आत्माको पहचानना। प्रयोजनभूत आत्माको जाने तो उसमें सब आ जाता है। ज्यादा शास्त्रोंको जाने, ज्यादा (शास्त्रका) रटन करे, पढे तो उसे आत्माकी पहचान होती है, ऐसा कुछ
PDF/HTML Page 530 of 1906
single page version
नहीं है। वह तो बीचमें जानना स्वयंको निमित्त बने, साधन बने, स्वयंको विशेष जाननेका कारण हो, ऐसा बने। लेकिन वह विशेष हो तो ही आगे बढा जाय, ऐसा नहीं है। शिवभूति मुनि कम जानते थे, तो भी वे आगे बढ गये। भेदज्ञान मूल प्रयोजनभूत जाने तो आत्माकी पहचान होती है, स्वानुभूति होती है, भवका अभाव होता है। क्षयोपशमके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
समाधानः- .. यथार्थ लगन लगे तो कर सकता है। ऐसी लगनी होनी चाहिये। ... सिद्धको भी प्रभु और संसारीको प्रभु। प्रभु है, संसारमें होनेके बावजूद द्रव्यदृष्टिसे सब प्रभु है। क्योंकि उसका स्वभाव जैसा है वैसा शक्तिमें है। शक्ति अपेक्षासे प्रभु है। अनादि कालसे परिभ्रमण किया, बहुत विभाव हुए तो भी अन्दर द्रव्यमें जो अनन्त शक्तियाँ भरी है, वह शक्तियाँ वैसी ही है। ईश्वरता, जो प्रभुता है उस प्रभुतामें अल्प भी न्यूनता नहीं हुयी है अथवा उसका-प्रभुताका एक अंश भी नाश नहीं हुआ है। इसलिये वह शक्ति अपेक्षासे प्रभु है।
भगवान तो द्रव्यदृष्टि और पर्याय अपेक्षासे, सर्व प्रकारसे प्रभु है। वे तो साक्षात प्रभु है। परन्तु द्रव्यदृष्टिसे सब प्रभु हैं। गुरुदेव कहते थे, भगवान आत्मा। तू स्वयं भगवान है। शक्ति अपेक्षासे वह भगवान है। द्रव्य पर दृष्टि जाये कि मैं पूर्णतासे भरा सर्व शक्तिसे भरपूर हूँ। तो उस पर दृष्टि करे तो उसमें पर्यायें प्रगट होती है। परन्तु स्वयंमें कुछ स्वभाव ही नहीं है तो स्वभावके आश्रय बिना पर्याय कहाँ-से प्रगट होगी?
ऐसी श्रद्धा हो कि मैं प्रभु हूँ, शक्ति अपेक्षासे मुझमें सब भरा है। स्वभावके आश्रय बिना कुछ प्रगट नहीं होता। मात्र बाहरका करते रहनेसे प्रगट नहीं होता। अन्दर स्वभावका आश्रय ले, प्रभुका आश्रय ले तो प्रभुता प्रगट होती है। प्रभुका आश्रय ले और विभावसे भिन्न पडे, उसका भेदज्ञान करे तो उसमेंसे उसकी प्रभुता प्रगट होती है।
ज्ञानादि अनन्त गुण भरपूर भरे हैं। (जल) मलिन दिखे, परन्तु उसकी स्वभावकी शीतलता जाती नहीं। ऐसे आत्मा जो शान्तस्वभावी शीतलस्वरूप है, उसकी शीतलता जाती नहीं। अनन्त-अनन्त शान्ति और अनन्त शीतलतासे भरा है, अनादिअनन्त है।
मुमुक्षुः- .. कार्यरूप कौन परिणमता है?
समाधानः- कार्यरूप पर्याय परिणत होती है। परन्तु अभेदसे कहें तो द्रव्य भी कार्यरूप भी आया, गुण कार्यरूप हुआ, पर्याय कार्यरूप हुयी। वैसे तो पर्याय कार्यरूप होती है। द्रव्यके आश्रयसे कार्य पर्यायरूप होता है। पर्याय कार्यरूप होती है। द्रव्य, गुण, पर्याय सब अभेद ले तो द्रव्य भी कार्यरूप हुआ और गुण भी कार्यरूप हुआ। शक्तिरूप था वह प्रगट होता है।
... केवलज्ञानरूप परिणमन किया। आत्माने स्वानुभूतिरूप परिणमन किया। ज्ञान,
PDF/HTML Page 531 of 1906
single page version
आनन्द स्वयं प्रगटरूपसे परिणमन किया, ऐसा भी कहनेमें आता है। परन्तु कार्य पर्याय करती है। लेकिन द्रव्यके आश्रयसे करती है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ तो श्रद्धागुणमें निर्मल हुआ, बाकी गुणोंमें अशुद्ध है।
समाधानः- सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। श्रद्धागुण प्रगट हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ उसके साथ ज्ञान, चारित्र सब प्रगट हुआ। ज्ञान सम्यकरूप परिणमन हुआ। चारित्र, अमुक अंशमें चारित्र-स्वरूपाचरण चारित्र हुआ। जो दिशा पर-ओर थी या परसन्मुख था, दृष्टि परसन्मुख थी वह स्वसन्मुख हुयी, वहाँ प्रत्येक गुण जो यथायोग्य निर्मल होनेयोग्य थे वह सब निर्मल हो गये। एक ओर बिलकुल अशुद्धता और एक ओर शुद्धता, ऐसा द्रव्यमें खण्ड नहीं होता। द्रव्य तो अखण्ड है। इसलिये एक सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ, उसके साथ सबकी दिशा पलट गयी तो सब निर्मल हो गये। जो अशुद्ध थे, सब निर्मल हो गये। कितन ही गुण तो मलिन होते ही नहीं। जो मलिन होते हैं, वह सब आंशिक निर्मल हुए। पूर्ण निर्मल तो केवलज्ञान होता है, तब होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! सम्यग्दर्शन होने पर सब गुण निर्मल हुए। तो जैसे दूसरे सब गुण शुद्ध है, कुछ ही गुण अशुद्ध थे। तो जब मिथ्यादर्शन होता है, उस समय सब गुणोंका अशुद्ध परिणमन है, ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- सब गुण अशुद्धरूप नहीं परिणमते। कुछ गुण शुद्धरूप रहते हैं। लेकिन वह सब शक्तिमें है। जैसे कि अस्तित्व, वस्तुत्व ऐसे कितने ही गुण जो भाषामें नहीं आते ऐसे हैं। ऐसे सब गुण अशुद्ध नहीं हो जाते। मिथ्यात्वमें एकत्वबुद्धि है तो भी कितने ही गुण अशुद्ध नहीं होते। और चारित्र.. उसके सिवा कुछएक विभावयुक्त होते हैं और कुछ गुण निर्मल रहते हैं।
ऐसा कहनेमें आये कि स्वयं अशुद्ध हो गया, द्रव्य अशुद्ध हो गया। ऐसा कहनेमें आये। सब अशुद्ध नहीं हो जाता। शक्तिमें शुद्ध है। कितने ही गुण शुद्ध रहते हैं। दृष्टि स्वरूपकी ओर गयी, सम्यग्दर्शनमें निर्मलता प्रगट हुयी, स्वानुभूति हुयी। जो आंशिक मलिन थे वह निर्मल हो जाते हैं। चलता है तो एक कदम ऐसे जाये और एक कदम ऐसे रहे, दिशा बदल गयी इसलिये सब स्वरूप सन्मुख हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है कि चैतन्यमेंसे परिणमित हुयी भावना अगर न फले तो चौदह ब्रह्माण्डको शून्य होना पडे, उसका अर्थ क्या? चौदह ब्रह्माण्डको शून्य होना पडे?
समाधानः- चैतन्यमेंसे परिणमित हुयी भावना, यदि ऐसे चैतन्यके आश्रयसे भावना हुयी हो कि मुझे चैतन्यकी ही परिणति प्रगट करनी हो, ऐसी भावना हो और उस भावना अनुसार यदि द्रव्य परिणमे नहीं, यदि द्रव्य भावना अनुसार परिणमे नहीं तो
PDF/HTML Page 532 of 1906
single page version
द्रव्यका नाश हो जाय। परन्तु द्रव्यका नाश नहीं होता। स्वयंकी एक भावना यदि पूर्ण न हो, चैतन्यकी भावना पूर्ण न हो यदि ऐसा हो तो ब्रह्माण्ड शून्य हो जाये अर्थात प्रत्येक द्रव्यका नाश हो जाये। उसकी यथार्थ भावना अनुसार चैतन्यका परिणमन नहीं हो तो प्रत्येक द्रव्यका नाश हो जाये। किसीकी भावना पूर्ण न हो। एक द्रव्यकी भावना पूर्ण न हो तो किसीकी पूर्ण न हो। उस रूप द्रव्य परिणमे नहीं, द्रव्य कोई अलग प्रकारसे परिणमे और भावना दूसरे प्रकारसे परिणमे (ऐसा नहीं होता)।
ऐसी यथार्थ भावना हो कि द्रव्य परिणमे ही नहीं और भावना करता रहे, ऐसा बनता ही नहीं। तो ब्रह्माण्डको शून्य होना पडे, प्रत्येक द्रव्यका नाश हो जाय। एकमें जो स्वभाव है, वैसा प्रत्येकमें हो जाय। प्रत्येक द्रव्यका नाश हो जाय। इसलिये ऐसा कुछ नहीं बनता। ब्रह्माण्डके शून्य होनेमें द्रव्यका नाश होना चाहिये। लेकिन द्रव्यका नाश होता नहीं। जिस प्रकारकी द्रव्यकी भावना हो, वैसी द्रव्यकी परिणति हुए बिना रहती ही नहीं।
यदि अंतरकी गहराईमेंसे भावना प्रगट हुयी कि आत्माका आश्रय और आत्माकी स्वानुभूति... आत्मामें ही रहना है, बाहर जाना ही नहीं है। ऐसी अंतरंगसे गहरी भावना प्रगट होकर आत्मामें यदि वह परिणमित न हो तो ऐसा बनता ही नहीं। आत्माका परिणमन होना ही चाहिये। अन्यथा उसे द्रव्य ही नहीं कहते। यदि वैसे द्रव्य अपनी सानुकूल परिणतिरूप परिणमित न हो तो वह द्रव्य ही कैसा? द्रव्यका नाश हो जाय। उस प्रकारसे सब द्रव्यका नाश हो जाय। इसलिये ब्रह्माण्डको शून्य होना पडे।
मुमुक्षुः- माताजी! उसमें अनन्त तीर्थंकरोंने कही हुयी बात है, ऐसा जोर कैसे आया?
समाधानः- ऐसी ही वस्तुस्थिति है। द्रव्य-गुण-पर्यायकी ऐसी वस्तुस्थिति है। ऐसी वस्तुस्थिति ही है। भगवानने कही हुयी बात है। वस्तुका स्वरूप जो द्रव्य-गुण-पर्यायका भगवानने कहा कि द्रव्यानुसारी परिणति होती ही है। द्रव्याश्रित जो परिणमित हुयी, द्रव्यके आश्रयमें जो गहरी भावना हो, वैसी पर्याय होती ही है। यह भगवानने कहा है। द्रव्य- गुण-पर्याय द्रव्यके आश्रयसे रहे हैं। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप भगवानने कहा है। अनन्त भगवानोंने कहा है। ... द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप तीर्थंकरोंने कहा है कि चैतन्यकी जैसी भावना हो वैसी चैतन्यकी परिणति होती ही है।
मुमुक्षुः- उसमें है कि चैतन्यकी परिणतिके साथ कुदरत बन्धी हुयी है।
समाधानः- कुदरत यानी स्वयं। चैतन्यकी भावनाके साथ कुदहत बन्धी हुयी है। जैसी उसकी भावना हो, उस अनुसार द्रव्य परिणमे, गुण परिणमे, उसी प्रकार सब पर्यायें परिणमति हैं। कुदरत बन्धी है। उसकी भावना जो अन्दर शुद्धात्माकी भावना हो
PDF/HTML Page 533 of 1906
single page version
उस अनुसार (परिणति होती है)। अंतरसे भावना...
बाहरमें भी उसके अनुकूल संयोग.. उसके साथ कुदरत बन्धी हुयी है। उसे बाह्य साधन भी उस प्रकारके परिणमते हैं। सब उस प्रकारसे परिणमते हैं। कुदरत बन्धी हुयी है। और यथार्थ भावना हो उसके अनुकूल जो उसकी साधक दशा है, उस साधक दशाके अनुकूल बाह्य निमित्त भी वैसे होते हैं। उसका उपादान उस प्रकारका, बाहरमें निमित्त भी वैसे होते हैं और द्रव्यका परिणमन भी उस प्रकारका होता है। कुदरत बन्धी हुयी है।
अन्दर यथार्थ भावना हो और बाहरके ऐसे निमित्त, साधन न मिले ऐसा भी नहीं बनता। ऐसे यथायोग्य साधन मिलते हैं, ऐसे साधक मिले, ऐसे गुरु मिले, ऐसे भगवान मिले। ऐसे सब निमित्त भी (प्राप्त होते हैं)। भावनाके साथ कुदरत बन्धी हुयी है। परन्तु वह भावना अंतरकी होनी चाहिये। उसकी भावनाके साथ जो शुभभाव होते हैं, वह भी ऐसे होते हैं कि बाह्य निमित्त भी वैसे होते हैं। अन्दर द्रव्य भी उस प्रकारका परिणमन करे।
मुमुक्षुः- अंतरकी भावना तो शुभभावरूप है। सम्यग्दर्शन प्रगट होने पूर्व जो भावना है वह तो शुभभावरूप है। फिर भी वह आत्माका आश्रय लेकर ही रहती है..
समाधानः- शुभ भावना शुभभाव है, परन्तु अंतरमें उस शुभभावके पीछे उसका आश्रय जो है... उसे जाना है आत्माकी ओर, आत्माकी ओर जाना है वह बलपूर्वक जाना है। उसे शुभभाव नहीं चाहिये। शुभाशुभ भावसे भिन्न ऐसा आत्मा चाहिये। उसके पीछे रहा जो उसकी परिणतिका जोर है, उसकी परिणतिका जोर आत्माकी ओर है। शुभभाव तो साथमें रहा है, परन्तु उसका पूरा जोर आत्माकी ओर-चैतन्यकी ओर जाता है। इसलिये चैतन्यकी परिणति शुभभावको गौण करके भी चैतन्यकी परिणति उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहती। शुभ भावना है। बाह्य निमित्त कुदरती परिणमते हैं। अंतरमें आत्मा परिणमित हुए बिना नहीं रहता। उसका जोर आत्माकी ओर जाता है। शुभ भावना है साथमें, शुभभाव मिश्रित है, परन्तु उसका जोर आत्माकी ओर है।
मुमुक्षुः- शुभभावके साथ उसकी ज्ञान परिणति भी.. समाधानः- ज्ञान परिणति ऐसी जोरदार है कि वह स्वयंका आश्रय लेना चाहती है। जोरदार आश्रय लेना चाहती है।