Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 88.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 85 of 286

 

PDF/HTML Page 540 of 1906
single page version

ट्रेक-८८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्य अपनी पर्यायको करता है। सम्यग्दर्शन करना चाहते हैं। अपना परिणाम स्वयं बदलता है। हम सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहते हैं तो प्रगट क्यों नहीं होता?

समाधानः- करना चाहते हैं, (लेकिन) परिणति नहीं करता। जैसी परिणति करनी चाहिये वैसी नहीं करता है। उसका मार्ग सहजरूपसे जो करना चाहिये वह नहीं करता है। यथार्थरूपसे नहीं करता है, इसलिये नहीं प्रगट नहीं होता है। करता है इसलिये इसका अर्थ ऐसा नहीं है, कोई वस्तुमें है नहीं, कोई नया जगतका कर्ता है, ऐसा नहीं है। जो वस्तुका स्वभाव है, सम्यग्दर्शन-प्रतीत गुण आत्मामें है, उसकी परिणति प्रगट करके पलट देनी है। वह गुण उसके स्वभावमें नहीं था और जगतमें-विश्वमें कुछ नया किया ऐसा नहीं है।

जो सहज स्वभाव सहज तत्त्व है, जो सहज तत्त्वके गुण है, उन गुणोंकी परिणतिको स्वयं पलटनी है। परिणति स्वयं पलटता नहीं है तो कहाँ-से पलटे? उसका कर्तृत्व छूटता नहीं। विभावका कर्तृत्व छूटता नहीं और ज्ञायक (रूप) होता नहीं है, तो ज्ञायककी परिणति और सम्यग्दर्शन कहाँ-से हो? ज्ञाता होता नहीं और कर्तृत्व भी छूटता नहीं, तो सम्यग्दर्शनकी परिमति कैसे प्रगट हो? विकल्पसे, मात्र विकल्पसे प्रगट नहीं होती। भावना आवे, बीचमें भावना आवे। परन्तु उसकी परिणति जो प्रगट करनी चाहिये, जो सहज तत्त्व है उसकी परिणति प्रगट करनी है, उस परिणतिरूप स्वयं परिणमता नहीं है। परिणति तो कर्तृत्वकी खडी है और ज्ञायककी परिणति स्वयं प्रगट नहीं करता है। ज्ञायककी ज्ञायकधारा स्वयं प्रगट नहीं करता है, कहाँ-से हो?

परिणतिरूप जो सहज स्वभाव है, उस रूप परिणमता नहीं। उसका वह (विपरीत) छूटता नहीं है, यह कैसे हो? ज्ञायक प्रगट करे तो वह छूटे और वह छूटे तो ज्ञायक प्रगट होता है। वह छूटता नहीं, यह प्रगट नहीं होता है। इच्छा करे, भावना करे। भावना करनेसे नहीं होता, कार्य करे तो होता है। मैं बँधा हूँ, बँधा हूँ, कैसे छूटुँ? कैसे छूटुँ? कैसे छूटुँ? ऐसा करता रहे तो बन्धन छूटता नहीं। शास्त्रमें आता है। बन्धन तोडनेका कार्य करे तो बन्धन टूटे। बन्धन तोडनेका कार्य करता नहीं है, कैसे टूटे?


PDF/HTML Page 541 of 1906
single page version

मुमुक्षुः- सच्ची लगन नहीं लगी है।

समाधानः- सच्ची लगनी ही अंतरमें नहीं लगी है। अंतरमें लगी हो तो परिणति पलटे। परिणति पलटती नहीं है। अंतरमें ज्ञायककी जो निवृत्त दशा, ज्ञायककी जो निवृत्तमय परिणति, ज्ञायककी जाननेकी परिणति, उसे उस प्रकारसे अंतरमें लगनी लगे तो वैसी परिणति प्रगट होती है। उस ओर छूटता नहीं, इस ओर आता नहीं। भावना करता रहता है, वहाँ खडे-खडे, मुझे ज्ञायक चाहिये ऐसा करता रहता है, अमुक प्रकारसे करता है, परन्तु जितना कारण देना चाहिये उतना कारण देता नहीं। कार्य कहाँ-से हो?

मुमुक्षुः- माताजी! बाहरकी तो कोई इच्छा है नहीं, न कोई पुण्यका फल चाहते हैं और कुछ भी नहीं चाहते हैं। अन्दरमें घबराहट भी बहुत होती है। कहाँ जायेंगे आत्मज्ञानके बिना? ... कहीं दिखायी देता नहीं है। ऐसी परिणति कैसे हो? हमने कभी किया ही नहीं, हमको ऐसा हुआ ही नहीं।

समाधानः- बाहरका कुछ नहीं चाहिये, पुण्य नहीं चाहिये, घबराहट होती हो, परन्तु अंतरमें परिणति तो स्वयं प्रगट करे तो होती है। अन्दरसे स्वयं छूटता नहीं है। कहाँसे हो? घबराहट हो तो भी। उस जातिका, अंतरमेंसे जिस जातिका होना चाहिये वह होता नहीं। विकल्पमें घबराहट हो, पुण्य नहीं चाहिये, कुछ नहीं चाहिये, ऐसा करता हो, परन्तु जितनी अंतरमें उसकी तीव्रता होनी चाहिये, उतनी होती नहीं।

छाछमेंसे मक्खन निकालना है तो उसे बिलोता है। लेकिन जितना चाहिये उतना करता नहीं, मक्खन कैसे निकले? थोड करके मानता है, मैंने बहुत किया, मैंने बहुत किया। मक्खन निकालना है। बहुत क्या किया? मक्खन अन्दरसे (निकालनेको) छाछ बिलोये।

(वैसे) अन्दरसे ज्ञायक-ज्ञायकका अभ्यास तीव्रपने अंतरमेंसे करे तो मक्खन-तो अंतरमें भेदज्ञान होता है। अंतरमेंसे स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करके जितना उसे बलवानरूपसे होना चाहिये उतना होता नहीं। अनादिका अभ्यास है (इसलिये) बार-बार वहाँ दृष्टि जाती है। जितनी दृष्टि हमेशा बाहर ही जाती है, वैसी ही दृष्टि अपनी ओर नहीं जाती है। जैसी बाहरकी परिणति निर्विचाररूपसे दौडती है, वैसे ही अंतरमें परिणति आत्मामेंसे लगती नहीं है, ऐसा कारण देता नहीं है इसलिये कार्य नहीं हो रहा है। अन्दरमेंसे यथार्थरूपसे हो तो जैसे मक्खन निकले वैसे निकले बिना रहे नहीं आत्मामें। शक्तिमें भरा है।

मुमुक्षुः- हे पूज्य भगवती माता! इस कालमें जीव अति स्थूल बुद्धिवाले हैं, इसलिये वे राग और आत्माका भेदज्ञान कर सके? यह आप कृपा करके समझाइये।


PDF/HTML Page 542 of 1906
single page version

समाधानः- स्थूल बुद्धिवाले जीव हैं, इसलिये समझ नहीं सके ऐसा नहीं है। गुरुदेवने इस पंचम कालमें पधारकर उनका यहाँ अवतार हुआ, बहुत समझाया है। कहीं शंका रहे ऐसा नहीं है। इतना स्पष्ट किया है। प्रत्येक जीवोंको, पूरे हिन्दुस्तानके जीवोंको जागृत किया है। कुछ शंका रहे ऐसा नहीं है। स्थूल बुद्धिमें समझमें नहीं आये ऐसा नहीं है।

मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने तो यह समझमें आये ऐसा है। रागसे भेदज्ञान करे। यह ज्ञायक मैं हूँ और यह राग मैं नहीं हूँ। वह अंतरसे यदि समझे, ज्ञायक स्वभावको-ज्ञानस्वभावको पहचानकर अंतरसे यह जो विभाव है वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, ऐसे पहचाने तो पहचान सके ऐसा है। उसमें ज्यादा शास्त्र जाने तो पहचाने ऐसा नहीं है।

प्रयोजनभूत तत्त्व गुरुदेवने कहा है कि तू ज्ञायक आत्मा है और यह शुभाशुभ भाव तेरा स्वरूप नहीं है। उससे तू भिन्न हो जा। उससे भिन्न होनेसे अन्दरसे भेदज्ञान होता है। इस कालमें भेदज्ञान न हो सके ऐसा नहीं है। क्योंकि इस कालमें धर्म हो नहीं सकता, ऐसा नहीं है। सम्यग्दर्शन हो सकता है। शास्त्रमें आता है कि जितना यह ज्ञानस्वभाव है उतना ही तू है। तुझे आत्माको पहचानना हो तो गुरुदेवने भी कहा है कि जितना यह ज्ञानस्वभाव है, उतना तू है। जितना यह परमार्थ स्वरूप आत्मा है कि जितना यह ज्ञान है। इस ज्ञानस्वरूप आत्माको तू पहचान।

ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसीमें तू रुचि कर और प्रीति कर। वह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही सत्य परमार्थस्वरूप आत्मा है। उसे तू पहचान ले। कल्याणस्वरूप ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसमें ही सब भरा है। वह महिमावंत है। ज्ञान यानी सिर्फ जानना (इतना ही नहीं है), वह महिमासे भरा आत्मा है। ज्ञायक अर्थात चैतन्यदेव है, उसे तू पहचान। उसीमें तू रुचि कर, उसे जानकर उसमें संतुष्ट हो और उसीमें तू तृप्त हो। ज्ञानस्वरूप आत्मा इस कालमें पहचान सके ऐसा है। यह विभाव मेरा स्वरूप नहीं है, वह तो आकुलता है। ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही शान्ति और संतोष है। उसे तू पहचान। पहचाना जाय ऐसा है। इस कालमें पहचान नहीं सके ऐसा नहीं है। परन्तु अंतरसे लगनी लगे, उतनी जिज्ञासा जागृत हो तो पहचाना जाय।

स्थूल बुद्धि है, परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वको (जान सकता है)। स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयंके पास है, कहीं खोजने जाना पडे ऐसा नहीं है। उसे गहराईमें ऊतरकर, ज्ञान है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। उसमें यदि तुझे संतुष्टता हो और महिमा आये तो वह पहचाना जाय ऐसा है। (परसे) भिन्न हो तो उसमेंसे तुझे संतोष होकर उसमें ही तुझे तृप्ति होगी। करने जैसा वह एक ही है।


PDF/HTML Page 543 of 1906
single page version

चतुर्थ कालमें भगवानके समवसरणमें एकदम प्राप्त कर लेते थे और इस पंचमकालमें गुरुदेवने मार्ग बताया तो एकदम प्राप्त हो जाय ऐसा है, प्राप्त नहीं हो ऐसा नहीं है। इस कालमेें सम्यग्दर्शन हो सके ऐसा है। केवलज्ञान हो सके ऐसा नहीं है, परन्तु सम्यग्दर्शन प्रयोजनभूत ज्ञान तो हो सके ऐसा है। तिर्यंच है वह नाम तक नहीं जानते कि किसे आस्रव कहते हैं, किसे बन्ध कहते हैं, किसे पुण्य-पाप कहते हैं, उसका नाम नहीं जानते। परन्तु यह ज्ञान सो मैं हूँ और जो यह सब आकुलतास्वरूप है वह मैं नहीं हूँ। मैं उससे भिन्न चैतन्यदेव ज्ञायक हूँ। इस प्रकार भाव समझकर, तिर्यंच नाम तक नहीं जानते ऐसे कितने ही तिर्यंच ढाई द्वीपके बाहर हैं, वे भी आत्माका ज्ञान कर सकते हैं। पूर्व संस्कार हो तो वह तिर्यंचके भवमें एकदम कर सकता है। तो इस मनुष्यभवमें क्यों नहीं हो सकता? हो सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- स्वभावकी रुचि करे, वह स्थूल बुद्धि हो तो भी सूक्ष्म बुद्धि हो गयी, कहनेमें आये?

समाधानः- स्थूल बुद्धि हो तो भी सूक्ष्म बुद्धि हो जाती है। अपना स्वभाव है न। स्थूल बुद्धि अर्थात उसकी बुद्धि बाहर जाती है। अंतरमें दृष्टि करे तो वह सूक्ष्म बुद्धि जाती है और सूक्ष्म होकर स्वयंको पहचान सकता है, न पहचान सके ऐसा नहीं है।

आचार्यदेव कहते हैं न कि तू अभ्यास कर। इस आत्माका छः महिने अभ्यास कर, फिर देख अन्दर होता है या नहीं। परन्तु स्वयं अभ्यास ही नहीं करता है। चैतन्यमें निश्चल होकर अंतरमें देख, आत्मा प्रगट होता है या नहीं। परन्तु स्वयं अंतरमें जाकर देखता नहीं, उसका अभ्यास करता नहीं। थोडा समय करे फिर ऐसा विचार करे कि मैंने बहुत किया। लेकिन क्षण-क्षणमें उसकी लगनी लगनी चाहिये। जैसी एकत्वबुद्धि है तो निरंतर चल रही है, वैसे भेदज्ञान करनेका अंतरमें वैसा प्रयत्न नहीं करता है। क्षण-क्षणमें स्वयं भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे, ऐसा प्रयास नहीं करता है, इसिलये कहाँसे प्रगट हो? स्थूल बुद्धि हो तो भी सूक्ष्म हो जाय और इस प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने एवं आत्माके भवका अभाव हो। और अन्दरसे आत्मा प्रगट होता है, नहीं हो सकेऐसा नहीं है। इस कालमें गुरुदेवने परम उपकार किया है। दुर्लभको भी सुलभ कर दिया है।

मुमुक्षुः- सूक्ष्म बुद्धि हो और ऐसा प्रयत्न न करे तो स्थूल बुद्धि हो जाय।

समाधानः- स्वयं ऐसे संस्कार गहरे नहीं डाले और वैसा ही रहे तो स्थूल हो जाय। लेकिन स्वयं संस्कार डाले, सूक्ष्म बुद्धि (करके) स्वयं अंतरमें गहराईमें जाय तो उसके संस्कार साथमें आये तो दूसरे भवमें प्रगट होनेका अवकाश है।

मुमुक्षुः- सातवीं नर्कका नारकी सम्यग्दर्शन प्रगट करता होगा वह भी सूक्ष्म बुद्धिसे


PDF/HTML Page 544 of 1906
single page version

ही करता होगा?

समाधानः- सूक्ष्म बुद्धिसे करता है। सातवीं नर्कका नारकी पूर्वके संस्कार लेकर गया है। वहाँ लेकर गया है इसलिये वहाँ उसे सूक्ष्म बुद्धि हो जाती है। नारकीको भी ऐसा होता है कि अरे..! यह सब क्या है? यह जीवन? यह दुःख? यह दुःखमय जीवन? यह क्या है? अन्दर ऐसा कोई आत्मा है कि जहाँ सुख और शान्ति मिले। ऐसा कोई तत्त्व है कि नहीं? कि बस! यह दुःख ही है?

नारकीके जीवोंको एक क्षणकी भी शान्ति नहीं है। अंतर विभावका दुःख तो है, लेकिन बाह्य संयोगोंका भी उतना दुःख है। उसे ऐसा विचार आता है कि अरे..! यह क्या? बस, अकेला दुःख? इसमें कोई सुखका मार्ग है कि नहीं? ऐसा (विचार) करके वह गहराईमें जाता है और उसकी सूक्ष्म बुद्धि होती है और ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञायकको ग्रहण करता है और विभावसे भिन्न पड जाता है। और स्वानुभूतिको प्रगट करता है। सातवीं नर्कका नारकी भी कर सकता है। आत्मा है न? स्वभाव तो उसका है। अनन्त शक्तिसे भरपूर उसका स्वभाव है।

मुमुक्षुः- हे पूज्य भगवती माता! एक प्रश्न है। बन्ध-मोक्षका कारण और बन्ध- मोक्षके परिणामसे सम्यग्दर्शनका विषयभूत भगवान शून्य है। तो मुक्त पर्यायसे जो शून्य है, जिसका आश्रय लेनेसे मुक्तपर्याय प्रगट हो, वह .. जैसा लगता है, तो इस विषयमें स्पष्टता करनेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- बन्ध-मोक्षके परिणाम, बन्ध-मोक्षका कारण वह सब पर्यायें हैं। वस्तुका स्वरूप और पर्याय भिन्न है, उस अपेक्षासे है। पर्याय एक अंश है और द्रव्य अंशी है। अंशीका आश्रय लेनेसे अंश प्रगट होता है। परन्तु वह अंश-अंशीका भेद है। लेकिन ऐसा सर्वथा भेद नहीं है। ऐसा सर्वथा भेद (नहीं है कि) दो द्रव्यका भेद हो, ऐसा अत्यंत भेद नहीं है। अंश-अंशीका भेद है। और वह द्रव्य पर दृष्टि करे तो ही वह पर्याय प्रगट होती है। सम्यग्दर्शनका आश्रय द्रव्य है। उस द्रव्य पर दृष्टि करनेसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब प्रगट होता है। आत्मा उससे ऐसा भिन्न नहीं है। उस पर्यायका उसे वेदन होता है। उससे शून्य यानी पर्याय उससे कहीं दूर भिन्न रह जाय और द्रव्य कहीं दूर भिन्न रहे, ऐसा नहीं है। ऐसा अत्यंत भेद नहीं है। जो पर्याय प्रगट होती है उसका आत्माको वेदन होता है। सम्यग्दर्शनका वेदन होता है, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका भी आत्माको वेदन है।

निर्मल पर्यायका वेदन होता है। साधना जो होती है, वह साधना कोई अन्यके लिये नहीं होती है। स्वयं आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये होती है। वह साधना निष्फल नहीं जाती है। उसे आत्माका वेदन होता है। और मोक्षकी पर्याय-मुक्तिकी पर्याय जो


PDF/HTML Page 545 of 1906
single page version

होती है, केवलज्ञानकी पर्याय होती है, उस पर्यायका आत्माको वेदन है। द्रव्यदृष्टिके विषयमें नहीं है। द्रव्यदृष्टिके विषयमें वह नहीं है।

मुमुक्षुः- इस अपेक्षासे शून्य है।

समाधानः- इस अपेक्षासे उसे भिन्न कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ, ऐसा भेद है। अत्यंत भेद नहीं है। उसका ऐसा अत्यंत भेद नहीं है कि उसका वेदन न हो। सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तब सम्यग्दर्शनका वेदन, स्वानुभूति होती है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे वह सब प्रगट होता है। इसलिये वह शून्य है तो क्यों प्रगट करना, ऐसा नहीं है। द्रव्यदृष्टिके बलसे सम्यग्दर्शन, फिर आगे जाय तो मुनिदशा आये, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलता है। सबका मुनिराजको भी वेदन है, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें। परन्तु वह साधक पर्याय है, पूर्णता नहीं है। पूर्ण होते हैं तब केवलज्ञान होता है। परन्तु द्रव्यदृष्टिमें केवलज्ञानकी पर्याय भी गौण होती है। मुक्तिकी पर्याय भी नहीं है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है, मुक्तिकी पर्याय पर दृष्टि नहीं है। सम्यग्दर्शनकी पर्याय पर दृष्टि नहीं है। उसकी दृष्टि कहीं नहीं है।

दृष्टि तो एक द्रव्यको ग्रहण करके सब पर्यायको गौण करती है। जो सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उस सम्यग्दर्शनका विषय जो द्रव्य है, द्रव्यको विषय किया लेकिन उसकी दृष्टि पर्याय पर नहीं है, उसकी दृष्टि तो द्रव्य पर है। द्रव्यदृष्टिमें कुछ नहीं आता है। पाँच ज्ञानके भेद, उदयभाव, उपशमभाव, क्षायिकभाव आदि सबके भेद उसमें नहीं आते। क्षायिक पर्याय प्रगट हो तो भी उस पर उसकी दृष्टि नहीं है। द्रव्यदृष्टिमें कुछ नहीं आता है। द्रव्यदृष्टिके बलसे ही सब पर्याय प्रगट होती है। पारिणामिकभाव पर दृष्टि देनेसे सब प्रगट होता है। द्रव्यदृष्टिके बलसे सब प्रगट होता है और वह पर्यायको गौण करती है। द्रव्यदृष्टि पर्यायको गौण करती है। और पर्याय उसके जोरसे प्रगट होती है और उस पर्यायका वेदन होता है।

जो दृष्टि द्रव्यका द्रव्यका आश्रय करती है, वह दृष्टि पर्यायको गौण करती है। परन्तु ज्ञानमें सब आता है। उस पर्यायका वेदन भी होता है। इसलिये वह सब निष्फल नहीं है। द्रव्यदृष्टिके बलमें बन्ध-मोक्षके परिणाम भी जिसमें नहीं है, केवलज्ञान भी जिसमें नहीं है, ऐसा कहनेमें आता है। एक भी पद, यह पाँच ज्ञान, कोई भी पद केवलज्ञानका पद भी आत्माको नहीं चाहिये। आता है न? मोक्ष भी नहीं चाहिये। उसका मतलब मोक्षकी पर्याय पर दृष्टि नहीं है। केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है, परन्तु द्रव्य पर ही दृष्टि है। दृष्टिके बलमें वह सब गौण होता है। उसे निकाल देनेमें आता है, परन्तु उसका वेदन होता है।


PDF/HTML Page 546 of 1906
single page version

उससे शून्य (कहा तो) वह ऐसा शून्य नहीं है कि उसका वेदन ही नहीं हो। उसका कोई अपूर्व होता है, उसका कोई अनुपम वेदन होता है। जो भाषामें न आवे ऐसा वेदन सम्यग्दर्शन, स्वानुभूतिका होता है। पूर्ण होता है तब पूर्ण वीतराग दशामें, चारित्र दशामें आत्माका कोई अपूर्व अनुपम वेदन होता है। इसलिये वह सब पर्यायें ऐसी नहीं है कि बिलकुल भेद है। ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- वह कोई अपेक्षाका कथन है। दृष्टिकी अपेक्षामें...

समाधानः- हाँ, द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे। साधकदशामें द्रव्यदृष्टि मुख्य रहती है। साधकदशामें द्रव्यदृष्टि मुख्य रहती है, इसलिये पर्यायको गौण करनेमें आता है। परन्तु ज्ञान साथमें उसका विवेक करता रहता है। द्रव्यको भी ज्ञान जानता है और पर्यायको भी ज्ञान जानता है। सबको जानता है। उसका वेदन ही न हो तो फिर यह साधकदशा किसकी? यह जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी साधना करनेमें आती है वह क्या? तो फिक्षर यह विभाव, यह स्वभाव वह सब क्या? पर्याय होवे ही नहीं तो।

इसी मार्गसे सब मोक्षको प्राप्त हुए हैं। इस मार्गसे द्रव्यदृष्टिके बलसे पर्यायें प्रगट होती हैं। तीर्थंकर भगवंतों, चक्रवर्ती, भरत चक्रवर्ती आदि यह साधना करके मोक्ष पधारे हैं। इसी मार्गसे। और पर्याय तो सिद्ध भगवानमें भी होती है। पर्याय-सिद्धदशा हुयी, द्रव्यदृष्टिके बलसे पर्यायको गौण की द्रव्यदृष्टिमें, इसलिये सिद्ध भगवानमें पर्याय चली गयी ऐसा नहीं है। सिद्ध भगवानमें भी पर्यायें हैं। जो ज्ञानगुण प्रगट हुआ-पूर्ण केवलज्ञान, आनन्दगुण ऐसे अनन्त गुण प्रगट हुए, उन सब गुणोंकी पर्यायें एक समयमें परिणमन कर रही है। सिद्ध भगवानको अगुरुलघुगुण है, उसकी सब पर्यायें, उसकी षटगुणहानिवृद्धिरूपसे कोई अचिंत्यरूपसे वह द्रव्य परिणमन कर रहा है। प्रगटरूपसे!

संसारीओंको शक्तिरूप है, सिद्ध भगवानको प्रगटरूपसे कोई अनुपम रूपसे अनन्त गुणकी पर्यायें एक समयमें परिणमन कर रही है। ऐसी अनन्त काल पर्यंत परिणमन करती है। तो भी उसमेंसे कुछ कम नहीं हो जाता। ऐसी अनन्त काल पर्यंत परिणमन करती है।

अतः पर्याय वह द्रव्यका स्वरूप है। द्रव्य-गुण-पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप है। द्रव्यको मुख्य करके पर्याय पलटती है और द्रव्य शाश्वत रहता है, इसलिये द्रव्यका आश्रय लेनेमें आता है। द्रव्यके आश्रयसे आगे बढा जाता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य-गुण-पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप है? समाधानः- हाँ, वह द्रव्यका ही स्वरूप है। उससे भिन्न नहीं है। द्रव्य-गुण- पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रुव आदि सब द्रव्यका ही स्वरूप है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!