Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 92.

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ट्रेक-९२ (audio) (View topics)

समाधानः- अनादि कालसे जीव विभावमें पडा है, विभावके साथ एकत्वबुद्धि है। आत्मा तो ज्ञाता है। उसमें किसी भी प्रकारके क्रोध, मान, माया, लोभ कोई कषाय उसमें नहीं है। स्वयं अन्दर उस प्रकारकी परिणति नहीं करता है और कषायमें जुड जाता है, वह नुकसानका कारण होता है।

जिसे आत्मार्थता हो, आत्माका प्रयोजन हो, उसे वह सब कषाय, मान कषाय गौण हो जाता है। उससे भिन्न होकर भेदज्ञान करे तो वह मानकषाय गौण हो जाता है। इसलिये आत्मार्थका प्रयोजन, एक आत्मा कैसे प्राप्त हो, ऐसी यदि भावना, जिज्ञासा हो तो उस आत्मार्थके प्रयोजनके आगे वह सब कषायें गौण हो जाती है। जो-जो रुकते हैं वे सब पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकते हैं। जिसे पुरुषार्थकी उग्रता हो, वह उसमें रुकते नहीं। जिसे कषायोंकी कोई विशेषता नहीं लगी है, जिसे मानमें कोई विशेषता नहीं लगी है, बडप्पन.... स्वस्वरूप चैतन्य स्वयं महिमावंत ही है, आश्चर्यकारी तत्त्व है, महिमासे भरा है। बाहरसे बडप्पन लेने जाय, वह उसकी अनादि कालकी भूल है और भ्रान्तिमें पडा है। इसलिये जो कषायोंमें एकत्वबुद्धिसे अटका है, उसे वह जोर कर जाता है। बाकी जो अपने स्वरूपको जाने, भेदज्ञान करे और उस प्रकारकी लीनता करे तो उसे वह कषाय छूट जाता है।

सम्यग्दर्शन होनेके बाद अल्प अस्थिरताके कारण कषायें होती हैं, परन्तु उसमें वह कहीं रुकता नहीं। जो रुकता है वह स्वयंकी पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। उसे कोई रोकता नहीं है। इसलिये यदि प्रयोजन आत्माका हो तो उसे कोई अवरोध नहीं है। जिसे आत्माका प्रयोजन छूट जाय और बडप्पनका प्रयोजन आये तो वह उसके अटक जाता है।

इसलिये हर जगह मानकी बात आती है। मानको गौण करके स्वयं स्वयंके स्वरूपमें (जाये)। मेरा स्वभाव ही महिमावंत है। बाहरसे बड्डपन लेने जाता है, वह उसकी भूल है। इसलिये उसमें नहीं जुडकर, आत्मामें आत्माका प्रयोजन रखे तो वह कषाय गौण हो जाता है। जो जिसमें रुकता है वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है, उसमें दूसरा कोई कारण नहीं होता।


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जीवको अनादि कालसे बड्डपन रुचता है, मैं बडा कैसे होऊँ? लेकिन अन्दरसे उस प्रकारका गुण प्रगट नहीं करता है और मानमें रुकता है, वह उसके पुरुषार्थकी मन्दता और भ्रान्तिके कारण रुकता है। इसलिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा हृदयमें रखकर शुद्धात्माका ध्येय रखे तो उसे कोई कषायें रोकती नहीं। सबसे निरसता आ जाय और एक चैतन्यकी महिमा आये तो सब कषायें उसे गौण हो जाती हैं।

जो रुकता है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। जो आगे बढता है, वह पुरुषार्थसे आगे बढता है। सबसे भिन्नता करके, भेदज्ञान करके पुरुषार्थसे आगे बढता है। अनन्त कालसे बड्डपन प्राप्त करनेका मिथ्या प्रयत्न किया, परन्तु बड्डपन मिला नहीं। आता है, जगतको अच्छा दिखानेका प्रयत्न किया, परन्तु स्वयं अच्छा नहीं होता। मैं स्वयं कैसे अच्छा होऊँ, मुझे मेरा स्वभाव कैसे प्रगट हो, ऐसी भावना अन्दर हो। और चैतन्यतत्त्व मैं महिमावंत हूँ। बाहरसे महिमा, बाहरसे बड्डपन नहीं लेकरके, मैं ही स्वयं महिमाका भण्डार हूँ, ऐसी दृष्टि करके, ऐसा प्रयोजन रखकर आगे बढे तो कोई कषाय उसे रोकता नहीं।

जो रुकता है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। जो पुरुषार्थकी तीव्रता करे उसे नीरसता आ जाती है। आत्माका प्रयोजन हो तो कोई नहीं रोक सकता। मेरा स्वभाव भगवान जैसा प्रभु हूँ। लेकिन पर्यायमें मैं पामर हूँ। ऐसी भावना रखकर आगे बढे तो उसे कोई रोक नहीं सकता। थोडे-थोडेमें मैंने कुछ किया, मैं बडा हूँ, ऐसी भावना रहे तो आत्माका प्रयोजन उसमें गौण हो जाता है। आत्माका प्रयोजन हो तो उसे कोई नहीं रोकता। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा रखकर आत्माका प्रयोजन साधे, शुद्धात्माका ध्येय रखे तो उसे कोई नहीं रोक सकता।

मानादिक शत्रु महा, निज छंदे न मराया,
जाता सदगुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय।

मुमुक्षुः- ... चक्रवर्ती राजपाट छोड देते हैं, वह सुख कैसा होगा?

समाधानः- वह सुख तो अपूर्व एवं अनुपम है। जिसके आगे जगतकी कोई उपमा नहीं है। चक्रवर्तीका राज भी उसके आगे तुच्छ है। चक्रवर्तीओंको भी तुच्छता लगी इसलिये सब छोडकर चल देते हैं। ऐसा अनुपम तत्त्व आत्मा, जिसे कोई उपमा नहीं है। वह पूरा तत्त्व आश्चर्यकारी है। अनन्त गुणोंसे भरपूर, जिसे जगतके किसी भी प्रकारके साथ मेल नहीं है। जगतका सुख तो कल्पित है और कल्पनासे सुख माना है।

आत्माका सुख तो कोई अनुपम है। उसकी श्रद्धा करे और वह आगे बढे तो वह स्वानुभूतिमें ज्ञात हो ऐसा है। बाकी वह तत्त्व अनुपम है। चक्रवर्ती भी उसे तुच्छ


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जानकर तृण समझकर चल देते हैं। आत्माकी साधना करनेके लिये, जो चैतन्यतत्त्व है उसे प्रगट करनेके लिये, उसकी साधना करके बारंबार स्वरूपमें लीनता करते-करते केवलज्ञानको प्रगट करते हैं। वह सुख कोई अपूर्व है, अनुपम है। आत्मा आश्चर्यकारी है, जिसे जगतकी कोई उपमा लागू नहीं पडती।

मुमुक्षुः- अज्ञानता हो तब आत्मा कैसे समझमें आये?

समाधानः- अज्ञानता हो तो भी समझमें आता है। गुरुदेवने मार्ग बताया है। देव-गुरु और शास्त्रकी... देव-गुरुकी शरणमें आत्मा समझमें आता है। अज्ञानता हो तो समझमें नहीं आये ऐसा नहीं है। अंतर जिज्ञासा करे और स्वयं समझनेका प्रयत्न करे और गुरु क्या कहते हैं उसका आशय समझे तो समझमें आये ऐसा है। स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है। जो पुरुषार्थ करे वह स्वयंको ही करना है। समझमें आये ऐसा है, नहीं समझमें आये ऐसा नहीं है।

ज्ञानसे भरा आत्मा ज्ञायक है। ज्ञायकमें क्या जाननेमें न आये? सब जाननेमें आता है, समझ सकता है। विभावको तोडकर, उससे भेदज्ञान करके आगे भी बढ सकता है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया और वह समझे बिना कैसे रहे? जिसने मार्ग प्राप्त किया वे पहले अज्ञानमें ही थे, बादमें ज्ञान प्राप्त किया है। अनादिका किसीको ज्ञान नहीं होता।

मुमुक्षुः- जो भगवान हुए वे भी हमारी जैसी अज्ञानदशामें थे?

समाधानः- सब स्वभावसे भगवान, परन्तु परिणतिमें तो अज्ञानता थी। इसलिये जो प्रगट करते हैं, सब पुरुषार्थसे ही करते हैं।

मुमुक्षुः- हम भी भगवान हो सकते हैं?

समाधानः- भगवान हो सकते हैं। स्वभावसे भगवान ही है, क्यों नहीं हो सकता? पुरुषार्थ करे तो। भगवानको पहचाने, भगवानको देखे, भगवानकी महिमा करे, भगवान- चैतन्य भगवानका बारंबार रटन करे। चैतन्य भगवानकी भक्ति करे तो वह चैतन्य भगवान प्रसन्न हुए बिना नहीं रहता। स्वयं भगवान हो सकता है।

मुमुक्षुः- पहले बहुत पुण्य कर ले, तपश्चर्या कर ले, बादमें भगवान बन सकते हैं न। भगवान तो बहुत बडे हैं। अपने तो पुण्य एवं तपश्चर्या करनी चाहिये न।

समाधानः- पुण्य और तपश्चर्या करनी, परन्तु बिना समझे आगे कैसे बढे? ऐसी ही बिना समझे चला करे, भावनगर जाना है, लेकिन भावनगर किस रास्ते आया, उस रास्तेको जाने बिना, बिना समझे ही इस ओर धोळाके रास्ते पर चला जाय तो भावनगर नहीं आ जाता। जाने बिना मार्ग कैसे काटे? यथार्थ सत्य जाने बिना, समझे बिना मात्र अकेली तपस्या करनेसे मार्ग प्राप्त नहीं होता, आत्मा समझमें नहीं आता।


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जो समझमें आता है वह ज्ञानसे समझमें आता है। आत्माको जिज्ञासापूर्वक ज्ञानसे समझा जाता है। फिर उसे कषायोंकी मन्दता हो, अशुभभावसे बचनेको शुभभाव आये, उसकी यथाशक्ति तप आदि हो, परन्तु वह तप, सच्चा तप तो आत्माको पहचाने तब होता है। आत्माको पहचाने बिना सच्चा तप नहीं हो सकता।

जिसे आत्माकी रुचि लगे, उसे कषायोंकी मन्दता होती है। लेकिन वह तप करे तो आत्मा समझमें आये ऐसा नहीं होता। समझे बिना चलता रहे पहचान किये बिना कि आत्मा कौन है? वह क्या वस्तु है? उसका स्वभाव क्या है? यह विभाव क्यों अनादिका है? उससे कैसे छूटा जाय? यह सब ज्ञान किये बिना आगे नहीं बढ सकता।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- गुरुदेवने महान उपकार किया है। गुरुदेवने तो चारों ओरसे वस्तुका स्वरूप समझाया है। किसीको शंका रहे ऐसा नहीं है। दुःख तो बाहरसे दुःख मान लिया है। अंतरका दुःख है, अन्दर परिणतिमें विभाव परिणतिका दुःख है। ऐसी अंतरकी दृष्टि गुरुदेवने बतायी है।

सत्य तो गुरु बिना ज्ञान नहीं हो सकता। निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। अनादिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करता है। जब भी वह प्राप्त करता है तब देव अथवा गुरुकी वाणी मिले तब उसका उपादान तैयार होता है। पुरुषार्थ स्वयंका है, लेकिन ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है। अनादिसे समझा नहीं, गुरुकी वाणीसे समझमें आता है। पुरुषार्थ करे, स्वयं पुरुषार्थ करे तो आगे जाता है।

मुमुक्षुः- ... हे भगवती माताजी! आजके मंगल दिन आपके मंगल वचनोंका हम सबको लाभ मिले, इस हेतुसे आपको नम्र भावसे एक प्रश्न आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं, उसकी स्पष्टता करनेकी कृपा कीजिये।

आत्मा परमानन्द स्वरूप है, सिद्ध स्वरूप है, ऐसा पूज्य कृपालु गुरुदेव फरमाते थे और शास्त्रमें भी आचायाने भगवानकी वाणी अनुसार ऐसा आत्माका स्वरूप बताया है। तो आत्माका सिद्ध स्वरूप और परमात्म स्वरूप कैसे समझमें आये और उसकी प्राप्ति कैसे हो, यह माताजी! आपके मंगल वचनों द्वारा समझानेकी हम पर कृपा कीजियेजी।

समाधानः- आत्माका परमात्म स्वरूप है। गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट करके समझाया है। यह आत्मा कैसा है? आत्मा सिद्ध स्वरूप है। गुरुदेवने स्पष्ट करके समझाया है, सबको जागृत किया है और स्वयं पुुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। गुरुदेवने समझाया है, मैं तो उनका दास हूँ। उनके पास सब (समझा है)।

गुरुदेवने कहा है, आत्मा परमात्म स्वरूप है, सिद्ध भगवान जैसा है। प्रभुत्व शक्तिवाला है। वह आत्मा स्वयं समझे तो हो सके ऐसा है। जैसे गुण सिद्ध भगवानमें हैं, वैसे


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ही गुण आत्मामें हैं। सिद्ध भगवानमें केवलज्ञान, केवलदर्शन, चारित्र आदि है। ऐसे गुण शक्तिरूप प्रत्येक आत्मामें है। उसमें सहज ज्ञान, दर्शन, चारित्र, केवलज्ञान शक्तिरूप है। केवलदर्शन शक्तिरूप, चारित्र शक्तिरूप, आनन्द शक्तिरूप सब गुण शक्तिसे भरपूर भरे हैं। उसमेंसे एक भी कम नहीं हुआ है।

अनन्त काल गया, अनन्त भव हुए, निगोदमें गया और चारों गतिमें भटका तो भी आत्मा तो वैसाका वैसा सिद्धस्वरूप ही है, द्रव्यदृष्टिसे। परन्तु वह पहचानता नहीं है। दृष्टि बाहर है इसलिये आत्माको पहचानता नहीं है। उसे भ्रान्ति हो गयी है। आत्माको पहचाने तो हो सके ऐसा है। आत्मा सिद्ध भगवान जैसा है।

मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे! ३८.

मैं एक शुद्ध स्वरूपी आत्मा हूँ। चाहे जितने भव किये तो भी आत्मा एकरूप रहा है। अनेक प्रकारके विभाव हुए तो भी शुद्धतासे भरा शुद्धात्मा द्रव्य वस्तु है। विभावका भी अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है। कोई भवस्वरूप भी आत्मा नहीं है। अनेक स्वरूप भी आत्मा नहीं हुआ है। ऐसा आत्मा शुद्ध स्वरूपी एकरूप आत्मा, ऐसा आत्मा कोई वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रूप नहीं हुआ है। आत्मा अरूपी है, उसमें कोई वर्ण, गन्ध, रस आदि नहीं है। ऐसा आत्मा अरूपी आत्मा है। ज्ञान, दर्शनसे भरपूर भरा है और कोई अद्भुत वस्तु है।

कोई अन्य परमाणु मात्र भी आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा अपनी प्रताप संपदासे भरा है। उसमें उसकी प्रताप संपदा अनन्त-अनन्त भरी है, लेकिन वह उसे पहचानता नहीं है। उसे पहचाने, उस पर दृष्टि करे, उसका विचार करे, उसकी जिज्ञासा करे कि यह विभाव है वह मैं नहीं हूँ, लेकिन यह ज्ञानस्वरूप ज्ञायक सो मैं हूँ। ज्ञान, असाधारण लक्षण उसका ज्ञान है, उस ज्ञान द्वारा पहचानमें ऐसा है। परन्तु अनन्त गुणोंसे भरा अत्यंत महिमावंत अत्यंत विभूतसे भरा आत्मा है। उसका ज्ञान, उसके लक्षण द्वारा पहचानमें आता है।

विभावका स्वाद आकुलतारूप है और आत्माका स्वाद शान्ति, आनन्द रूप है। उसका स्वादभेद है, उसका लक्षणभेद है। उसका भेदज्ञान करके पहचाने। अनन्त कालसे एकत्वबुद्धि हो रही है। उसका बारंबार अभ्यास करके मैं भिन्न चैतन्य सिद्ध भगवान जैसा आत्मा हूँ। बारंबार अभ्यास करे तो पहचानमें आये।

जो गुरुने कहा, जिनेन्द्र, गुरु, शास्त्रमें आता है, उसे वह स्वयं विचार करके नक्की करे। गुरुने, जो वचन गुरुदेवने कहे, उन वचनोंको प्रमाण करके स्वयं विचार करके अंतरमें निर्णय करे। देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति और अंतरमें ज्ञायकदेवकी भक्ति, ज्ञायककी


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श्रद्धा, ज्ञायकका ज्ञान और विभावसे भिन्न होकर ज्ञायककी महिमा करे। जबतक वह न हो, तबतक बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र, उसके निमित्त.. वह उसके महानिमित्त हैं। प्रबल निमित्त हैं, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। अंतरमें स्वयं ज्ञायककी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, उसकी महिमा करे और विभावसे भिन्न होकर, न्यारा होकर पहचाने तो पहचान सके ऐसा है।

यह सब आकुलता लक्षण है वह मैं नहीं हूँ, मैं तो अनाकुल लक्षण ज्ञायक हूँ। उसका भेदज्ञान करके अंतरसे भिन्न पडे तो वह पहचाना जाय ऐसा है। भेदज्ञान करके ज्ञाताधाराकी उग्रता करे, क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे अंतरमेंसे भिन्न पडे तो सिद्ध भगवान जैसी उसे स्वानुभूति होती है और सिद्ध भगवान जैसा अंश उसे प्रगट होता है। स्वानुभूतिकी दशा कोई अद्भुत है।

वह गृहस्थाश्रममें हो तो भी कर सकता है। फिर वह आगे बढे तो मुनिदशा आती है। विकल्पजाल क्षणमात्र नहीं टिकती। विकल्प छूटकर शान्त चित्त होकर अमृतको पीवे ऐसी अपूर्व स्वानुभूति होती है। लेकिन वह स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है, स्वयं करे तो होता है। स्वयंको लगे तो होता है, स्वयं लगनी लगाये तो होता है। बाहरसे नहीं हो सकता है, परन्तु अंतरसे ही हो सकता है। उसका ज्ञान, उसकी प्रतीत दृढ करे। यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, ऐसा नक्की करके फिर स्वयं आगे बढे, उसमें लगनी लगाये, लीनता करे, उसमें एकाग्रता करे तो विभावसे भिन्न होकर उसे कोई अपूर्व आत्माकी प्राप्ति होती है। इसके सिवा कोई उपाय नहीं है।

गुरुदेवने यह बताया है, करना यही है। जो मोक्ष पधारे वे सब भेदविज्ञानसे ही गये हैं, जो नहीं गये हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं गये हैं। इसलिये भेदविज्ञान, द्रव्य पर दृष्टि, उसका ज्ञान और लीनता, यह उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। परन्तु मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ, ऐसा नक्की करके मैं कोई अपूर्व आत्मा हूँ, ऐसे ज्ञायक पर दृष्टि करके, प्रतीत करके दृढता करे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। गुरुदेवने बताया, सबको एक ही करना है। ध्येय एक ही-आत्मा कैसे पहचानमें आये? उसकी एककी लगनी लगे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।

बोलो, प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! भगवती मातनी अमृत मंगल वाणीनो जय हो! गुरुदेवना परम प्रभावनो जय हो! सम्यक जयंती महोत्सवनो जय हो!!

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