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समाधानः- ... स्वभावसे शुद्ध है, पर्याय पलट जाती है, अशुद्धता टल जाती है। अशुद्धता अपना स्वभाव नहीं है। बाह्य निमित्तके कारण, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे अशुद्धता होती है। उस अशुद्धताका व्यय होता है और शुद्धता प्रगट होती है।
स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। लाल-पीले फूलके कारण जो प्रतिबिंब उत्पन्न होते हैं वह परिणमन स्वयंका है, लेकिन वह स्फटिक सफेदरूप परिणमे नहीं, निमित्तका (संयोग है)। यह तो दृष्टान्त है।
स्वयं पुरुषार्थ करे तो स्वयं निर्मलतारूप परिणमे तो वह छूट जाता है। वह अपना स्वभाव नहीं है, अशुद्धता है वह टल जाती है। अशुद्धता टल जाय और कर्म छूट जाय, दोनों साथमें होता है।
मुमुक्षुः- स्वानुभूतिमें जब निर्विकल्प होता है, वह उपयोग प्रमाणात्मक है, उसका अर्थ क्या है? प्रमाणात्मक यानी?
समाधानः- प्रमाण-द्रव्य और पर्याय दोनों साथमें हैं। ज्ञान जानता है। ज्ञान स्वयंको जानता है, ज्ञान पर्यायको जानता है इसलिये प्रमाण है। दृष्टि तो द्रव्य पर ही है। विकल्परूप दृष्टि नहीं है, अपितु निर्विकल्प है। द्रव्य और पर्याय दोनों शुद्ध है, उसे ज्ञान जानता है, इसलिये प्रमाण कहते हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञानकी पर्याय एक ही समयमें दोनों पहलूओंको छद्मस्थ जान सकता है?
समाधानः- निर्विकल्प है। वह विकल्पसे नहीं जानता है। एकसाथ दोनों उसे वेदनमें आते हैं।
मुमुक्षुः- आश्रय है वह दृष्टिका कार्य है या ज्ञान भी उस वक्त आश्रय ...
समाधानः- द्रव्यका आश्रय दृष्टिभी लेती है और ज्ञान भी लेता है, दोनों लेते हैं। आश्रय ना?
मुमुक्षुः- हाँजी।
समाधानः- दृष्टि भी द्रव्यका आश्रय लेती है और ज्ञान भी लेता है। ज्ञान दोनोंको जानता है। दृष्टि उसे गौण करती है। दृष्टिकी मुख्यता है। ज्ञान भी आश्रय तो लेता
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है, परन्तु मुख्यपने दृष्टि है। ज्ञान भी आश्रय लेता है।
मुमुक्षुः- निर्विकल्प उपयोगके वक्त दोनोंका ज्ञान होता है और ज्ञानमें द्रव्यका जोर भी साथमें रहता हो।
समाधानः- वह विकल्पात्मक नहीं है, निर्विकल्प है। जोर यानी वह सहज है। दृष्टि और ज्ञान सब सहज है। द्रव्यकी मुख्यता रहकर पर्याय उसमें साथमें रहती है। दोनों साथ ही है। वह विकल्परूप नहीं है, वह तो सहज है। उसमें आश्रय करना नहीं पडता। जो आश्रय लिया वह सहज रह जाता है। आश्रय करना नहीं पडता। आश्रयका जोर उसे करना नहीं पडता, वह तो सहज है। जोर नहीं करना पडता।
... पर्याय तो पर्यायरूप ही है। उसे आश्रय सहज रह जाता है। जैसा है वैसा रह जाता है। जो आश्रय लिया वह सहज रह जाता है। वह आश्रय छूटता नहीं। उसे विकल्प करके आश्रय नहीं लेना पडता।
मुमुक्षुः- एक ही विषय पर हो, उसमें द्रव्य-पर्याय कहनेमें आते हैं, परन्तु विषय एक ही है।
समाधानः- उसे उपयोग नहीं देना पडता। वह तो सहज ज्ञान रहता है। द्रव्य पर अलग उपयोग करना पडे और पर्यायका अलग उपयोग करना पडे, ऐसा नहीं है। वह तो सहज वेदनमें एकसाथ आ जाते हैं। भिन्न-भिन्न उपयोग नहीं देना पडता। वह तो परिणतिरूप सहज रह जाता है। विकल्पात्मक हो तो उपयोग भिन्न-भिन्न करना पडे, उसे विकल्पात्मक कहाँ है, सहज ज्ञान है। वह विकल्पात्मक नहीं है कि पर्यायका उपयोग अलग करना पडे, द्रव्यका उपयोग करना पडे। वह तो वेदनरूप है। द्रव्य, गुण, पर्याय सब उसे ज्ञानमें है, उसके वेदनमें है।
वेदन पर्यायका होता है, लेकिन यह सब उसके ज्ञानमें होता है। सहज परिणतिरूप होता है। उसमें उपयोगकी भिन्नता नहीं करनी पडती। उसकी सहज परिणतिमें सब होता है। वहाँ उपयोग छिन्न-छिन्न, भिन्न-भिन्न नहीं होता है।
मुमुक्षुः- समझमें नहीं आये ऐसी बात है।
समाधानः- कहाँसे समझमें आये? वचनसे अतीत है, वचनातीत है। मनसे भी अगोचर है। वह उपयोगका स्वरूप, परिणतिका स्वरूप, वेदनका स्वरूप, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप वचनातीत है, मनसे अगोचर है, वह कैसे समझमें आये? वह तर्कसे पर है, कैसे समझमें आये? तर्कमें अमुक प्रकारसे आये। बाकी सब नहीं आता। आनन्दकी स्थिति आदि सब मनसे अगोचर है।
जैसी सिद्ध भगवानकी जात है, वैसे यह उपयोगकी खण्ड-खण्डता या कोई विकल्प वहाँ काम नहीं आते। जैसे सिद्ध भगवान जिस स्वरूप परिणमित हुए, उसका अंश
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है, उसकी जाति है। उसमें सहज गुण, पर्याय परिणमते हैं। उसमें ज्ञान, दर्शन सहज परिणमते हैं। उसमें कोई विकल्प काम नहीं आता, उसकी कल्पना काम नहीं आती। कल्पनासे अतीत है।
मुमुक्षुः- इसमें तर्कसे कुछ पकडमें आये ऐसा नहीं है।
समाधानः- पृथ्वी खण्ड-खण्ड हो, ऐसी कल्पना करके वहाँ सिद्धान्त बिठाना चाहे तो बैठे नहीं।
मुमुक्षुः- विकल्पमें जैसा विचार करे, वैसा वहाँका विचार करते हैं।
समाधानः- वैसा विचार, वैसा जानना, ऐसे कल्पना करने बैठे तो वह समझमें नहीं आता।
मुमुक्षुः- ध्येय सही होगा तो सब पहलू अपनेआप बैठ जायेंगे।
समाधानः- हाँ, ध्येय सही होना चाहिये। यथार्थ ध्येय हो तो सब सही होता है। उसकी अपूर्व आनन्दकी स्थिति, अनुपम आनन्दको सविकल्पके साथ निर्विकल्प जोडे तो ऐसी भी मेल नहीं बैठता। विकल्पसहितकी स्थिति, निर्विकल्प सहितकी स्थिति, वह सब मनसे, वचनसे सब अगोचर है।
एक यथार्थ ज्ञायकको ग्रहण करे तो उसमें सब आ जाता है। एक ज्ञायकके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। यह राग, विकल्प या यह सब आकुलता है, उससे मैं भिन्न हूँ। अन्दर भिन्नताकी श्रद्धा कर, एक ज्ञायकको ग्रहण करे तो उसमें सब उसे आ जाता है। यथार्थ ध्येय होगा तो सब यथार्थ होगा। सूक्ष्ममें सूक्ष्म जो भाव हैं, शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे यथार्थ नक्की करके आगे बढे तो उसमें यथार्थता आयेगी। अन्दरसे यथार्थ नक्की होना चाहिये।
... उनका है? कमाका क्षय करना.... जो मोक्ष पधारे, इस मार्गसे पधारे हैं। वर्तमान.. वह सब आया न? भूत, वर्तमान... इसी मार्गसे मोक्ष पधारे हैं। ऐसे ही निवृत्त हुए...
द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है, पर्याय कोई भिन्न नहीं है। गुजराती समझमें आता है? नहीं समझमें आता है?
मुमुक्षुः- पहली बार आये हैं, माताजी!
समाधानः- द्रव्य है, उसकी द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्य पर्यायको पहुँचता है। द्रव्य परिणमन करके पर्याय प्रगट होती है। और पर्याय द्रव्यको पहुँचती है। पर्याय प्रगट होती है वह द्रव्यके आश्रयसे प्रगट होती है। द्रव्य परिणमन करके पर्याय प्रगट होती है और पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। इसलिये द्रव्य, गुण, पर्याय अभेद है। कोई भिन्न-भिन्न टूकडे नहीं है। उसका वस्तुभेद नहीं है। लक्षणभेद है। वस्तु तो एक ज्ञायक एक ही
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है। जिसमें अनन्त गुण, अनन्त पर्याय है। द्रव्य परिणमन करके पर्याय होती है और पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। पर्याय द्रव्यको पहुँचती है, द्रव्य पर्यायको पहुँचता है। ऐसा गुरुदेव कहते हैं।
गुणमेंसे पर्याय होती है, गुणके आश्रयसे पर्याय होती है। गुण पर्यायको पहुँचता है, पर्याय गुणको। दोनों अभेद हैं। ऐसे टूकडे नहीं है। लक्षणभेद है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे लक्षण भिन्न-भिन्न है। ऐसी कोई भिन्न-भिन्न वस्तु नहीं है, वस्तु तो एक ही है। ऐसा गुरुदेव कहते थे।
जैसे आम एक है। उसमें हरा, पीला ऐसा वर्ण, खट्टा-मीठा रस, ऐसे आम तो एक है। वैसे चैतन्यमें अनन्त गुण और पर्याय होने पर भी एक है। वस्तुभेद नहीं है। ऐसा कोई कहे कि पर्याय भिन्न रहती है, द्रव्य भिन्न रहता है, वस्तु दोनों अलग- अलग है, ऐसा नहीं होता। एक ज्ञायकमें अनन्त है। चैतन्य है उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है। ज्ञान ज्ञानका कार्य करता है, दर्शन दर्शनका, चारित्र चारित्रका लेकिन सब वस्तुमें एक है। भिन्न-भिन्न नहीं है।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! आरंभमें आता है, जे जाणे अर्हन्तने ते जाणे निज आत्मने। हम अरिहंतदेवके दर्शन तो मन, वचन, कायासे प्रतिदिन करते हैं। फिर आत्माको जाननेमें कहाँ कमी रह जाती है? थोडासा फरमाइये।
समाधानः- जो अर्हन्तको जाने वह आत्माको जानता है, ऐसा आता है। परन्तु अर्हन्तको ... जानना चाहिये। अर्हन्त भगवानके द्रव्य, गुण, पर्याय, अर्हन्तका स्वरूप जाने तो अपना स्वरूप जानता है। ऐसे अर्हन्तको पहचाने बिना ऐसे ही अर्हन्त भगवानको नमस्कार करता है, अर्हन्त भगवानका आदर करता है तो शुभभाव होता है, पुण्यबन्ध होता है, परन्तु अर्हन्तका स्वरूप नहीं जानता है तो आत्माका स्वरूप नहीं जानता।
अर्हन्तका स्वरूप जानना चाहिये। अर्हन्त भगवान कौन है? उनका आत्मा कौन है? उसमें क्या गुण है? उन्होंने-अर्हन्त भगवानने क्या प्रगट किया? कौन है अर्हन्त भगवान? ऐसे आत्माको पहचानना चाहिये। जो अर्हन्तके आत्माके पहचानता है, वह अपने आत्माको पहचानता है। जो आत्माको पहचानता है, वह अर्हन्त भगवानको पहचानता है। इसलिये निशदिन भगवानको नमस्कार करते हैं, लेकिन जानता नहीं है कि भगवान क्या है? भगवानका क्या स्वरूप है?
सब आत्मा भगवान जैसे ही हैं, परन्तु भगवानको पहचाने तो अपनेको पीछानता है। भगवानका स्वरूप पहचानना चाहिये। भगवान शुद्ध स्वरूप शुद्धात्मा, उसका दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट करके, साधना करके भगवानने केवलज्ञान प्रगट किया। भगवान आत्माके आनन्दमें रमते हैं। भगवानने पूर्ण वीतराग दशा प्रगट की है। भगवानका स्वरूप जाने
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तब अपने आत्माको जानता है।
भगवानका स्वरूप जो जाने तो अपने आत्माको पहचाने बिना रहता ही नहीं। भीतरमेंसे जानना चाहिये। ऐसे सब आत्मा शुद्ध स्वरूप ही है। शुद्धात्मा है। उसमें पुरुषार्थ करे कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ, शुद्धात्मा हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावसे मैं भिन्न ही हूँ। मेरा स्वभाव मैं जाननेवाला हूँ। मेरेमें अनन्त गुण है। जैसे भगवानमें हैं, वैसे मेरेमें हैं। ऐसा विचार करे तो अपने आत्माको पहचानता है। उसमें स्वानुभूति होती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र-लीनता करनेसे होता है। बारंबार उसमें लीन होनेसे केवलज्ञान होता है। ऐसे भगवानका स्वरूप जाने भीतरमेंसे तो अपना स्वरूप प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- परम पूज्य भगवती माताजी! अंतिम प्रश्न है कि छद्मस्थके लिये ज्ञानियोंको सुखका वेदन सर्वांगसे होता है या नियत प्रदेशोंसे होता है? सुखका वेदन नियत प्रदेशोंसे होता है या सर्वांगसे होता है? छद्मस्थके लिये।
समाधानः- वह तो आत्मामें है... शास्त्रमें आता है कि जहाँ मन होता है, मनके निमित्तसे यहाँ होता है। वह सर्वांगसे होता है या अमुक प्रदेशमें होता है, यह जाननेका कुछ प्रयोजन नहीं है। जो आत्माको जानता है, उसको स्वानुभूति होती है। मनके निमित्तसे... मन छूट जाता है विकल्प और निर्विकल्प दशा होती है। सर्वांगसे होवे या अमुक प्रदेशसे होवे, वह तो जाननेकी बात है। शास्त्रमें जो आता है वह होता ही है।
मुमुक्षुः- आत्मदर्शनके लिये ज्ञान एकदम त्वरासे कैसे प्राप्त कर सके?
समाधानः- प्रयोजनभूत ज्ञान। ज्यादा जाने, शास्त्र ज्यादा जाने तो... गुजराती समझमें आता है न? ज्यादा शास्त्रका अभ्यास करे, शास्त्र जाने, ऐसा कुछ नहीं है उसमें। आत्माको जाने मूल प्रयोजनभूत कि मैं एक ज्ञायक आत्मा हूँ और यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा भेदज्ञान करके अंतरमें जाय, ऐसा यथार्थ ज्ञान हो तो वह आगे जाता है। प्रयोजनभूत ज्ञान।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान करनेके लिये सरल उपाय...?
समाधानः- सरल उपाय, आत्माकी लगनी लगाये, जिज्ञासा करे, उसकी लगनी होवे तो होता है, बिना लगनीके नहीं हो सकता। लगनी लगाये, मैं ज्ञायक हूँ। मैं कौन हूँ? मेरा स्वभाव क्या है? मैं शाश्वत आत्मा हूँ। अनादिअनन्त द्रव्यमें कोई अशुद्धता नहीं है, पर्यायमें अशुद्धता है। पर्यायकी अशुद्धता टालनेको अन्दर भेदज्ञान करे।
भेदज्ञान करनेका उपाय अन्दर लगनी लगे, कहीं सार न लगे। सारभूत आत्मा ही है, बाकी कोई सारभूत नहीं है। तो वह विभावसे भिन्न हुए बिना नहीं रहता। विभाव
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आकुलतारूप-दुःखरूप है। विभावका लक्षण जाने, ज्ञानका लक्षण जाने। ज्ञान और विभावका लक्षण जानकर भिन्न पडे। भिन्न पडनेकी तैयारी.. अन्दर लगनी लगे, उसे विरक्ति आये, स्वभावमें कहीं चैन न पडे, स्वभावकी महिमा आये तो होता है।
भेदज्ञान करनेके लिये स्वभावकी महिमा (आनी चाहिये)। विभावसे वैराग्य आये, प्रत्येक विभावके प्रसंग हो उससे वैराग्य, विभाव परिणतिसे वैराग्य, सबसे वैराग्य आवे और आत्माकी महिमा लगे और तत्त्वका विचार करके प्रयोजनभूत ज्ञान करे तो आगे जाय। ज्यादा जाने तो जाय ऐसा नहीं, प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान प्राप्त करनेके लिये ज्ञानीका सान्निध्य कुछ विशेष नहीं कर सकता?
समाधानः- ज्ञानीका सान्निध्य करे, लेकिन अंतरमें आश्रय स्वयंको लेना चाहिये। निमित्त तो प्रबल है। उनका सान्निध्य तो लाभका कारण है और उससे आगे जा सकता है। लेकिन वह सान्निध्य लेनेवाला स्वयं अंतरमेंसे सान्निध्य ले तो हो सकता है।
मुमुक्षुः- अंतरमेंसे सान्निध्य लेनेके लिये ध्यानमें ऊतरना जरूर है?
समाधानः- अन्दर सान्निध्य लेनेमें उतनी लगनी लगनी चाहिये। अंतरमें, बस, बाकी सब निःसार लगे तो होता है। ज्ञानीका सान्निध्य मिले... जो ज्ञानीने प्राप्त किया वह मुझे कैसे प्राप्त हो? उसे स्वयंको लगनी लगनी चाहिये। सब रस छूटकर ज्ञानीके चरणमें (जाये), मुझे कुछ नहीं चाहिये। मुझे एक आत्मा चाहिये। ऐसी अन्दरमें लगे तो हो सकता है।
और ज्ञानी जो कहते हैं, वह क्या कहते हैं? उसका आशय ग्रहण करनेके लिये अपनी उतनी तैयारी और उसका विचार करे तो उसे सच्चा ज्ञान हो। सच्चे ज्ञानके बिना आगे नहीं जा सकता। लेकिन सच्चा ज्ञान। रूखा ज्ञान नहीं, अपितु सच्चा-अन्दर हृदय भीगा हुआ हो और जो ज्ञान हो, वह कार्य करता है। ज्ञानीका सान्निध्य लाभका कारण है। लेकिन स्वयं अन्दर ग्रहण करके ऐसी लगनी लगाये, ज्ञानीके चरणमें (जाये), ज्ञानी जो कहे वह स्वयं अन्दर ग्रहण करता जाय, तो होता है।
मुमुक्षुः- सच्चा ज्ञान माने मैं स्वयं स्व। उसमें अनुभूति-अनुभवका सातत्य नहीं रहता...
समाधानः- उसका कारण? वह सतत नहीं रहता है, उसका कारण अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। अनादिका अभ्यास है इसलिये उसमें दौडा जाता है। दौड अनादि कालकी है। उसके अनुपातमें स्वयं इस ओर स्वभावकी ओर उतनी दौड नहीं लगाता। बारंबार, बारंबार... छूट जाय तो भी बारंबार,.. जो ज्ञानीने कहा, उसका रहस्य ग्रहण करनेके लिये उस अनुसार परिणति करनेके लिये स्वयं बारंबार प्रयास नहीं करता है, तो कहाँ- से हो? वह तो छूट जाता है। बारंबार प्रयास करना चाहिये।
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जो ज्ञानीने कहा हो, उसका रहस्य हृदयमें ऊतारनेके लिये बारंबार अपने पुरुषार्थकी दौड लगाता नहीं। तो कहाँ-से हो? बारंबार एकत्वबुद्धिमें चला जाता है। शरीर, विभाव आदि सबमें एकत्व होता है, तो बारंबार उससे (भिन्न पडनेका) प्रयास करे तो होता है। अपने नेत्रकी आलसके कारण हरिके दर्शन नहीं किये। अपने नेत्रकी आलसके कारण स्वयं हिरको निरखता नहीं, देखता नहीं है। अपना कारण है।
मुमुक्षुः- ब्रह्मनाद उस विषयमें कुछ कहिये। स्वज्ञानमें कितना...?
समाधानः- ब्रह्मनाद, वह नाद कोई आवाज नहीं है। ब्रह्म स्वरूप आत्मा ही है। ब्रह्म स्वरूप आत्मा स्वयं अंतरमें जाय, स्वयं अपने स्वरूपको वेदे-स्वानुभूति करे वह ब्रह्मनाद है। नाद कोई बाहरसे आवाज नहीं आती। आवाज आये वह तो पुदगलकी आवाज है। ब्रह्मनाद यानी ब्रह्मका अंतरसे वेदन हो, स्वानुभूति-अपना अनुभव हो, उसका नाम ब्रह्मनाद है। नाद यानी बाहरकी आवाज नहीं है, चैतन्यकी आवाज है। वह कोई कर्णसे सुननेकी आवाज नहीं है। उसका वेदन हो वह उसका ब्रह्मनाद है।
मुमुक्षुः- बाहरसे तो आता ही नहीं है, अन्दरसे आता है। समाधानः- परन्तु नाद शब्द यानी वह सुननेका नहीं है, वह तो वेदन है। स्वरूपका कोई अपूर्व, अनुपम, जिसके साथ किसीकी उपमा नहीं लागू पडती है, ऐसा जो चैतन्यका ब्रह्म स्वरूप, उस ब्रह्म स्वरूपकी अनुभूति... अनन्त स्वभाव, अनन्त गुणोंसे भरा हुआ जो अचिंत्य है, जो कल्पनासे अतीत है, उसकी जो अनुभूति है वह ब्रह्मनाद है। उसमें विकल्प छूटकर जो आत्माकी अनुभूति होती है, वह ब्रह्मनाद है।