Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 97.

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ट्रेक-९७ (audio) (View topics)

समाधानः- इस धनतेरसमें सब बाहरका करते हैं, वास्तवमें तो अंतरमें धनतेरस है। आत्माका स्वरूप धन है, उसे प्रगट करना वह वास्तवमें धनतेरस है। महावीर भगवान मोक्ष पधारे, इसलिये यह धनतेरस आदि दिवस आते हैं। अंतरमें स्वरूपधनको प्रगट करना वह धनतेरस है। अंतर स्वरूपमें, अंतरमें आत्मामें सब खजाना भरा है। आत्माको पहचानकर, भेदज्ञान करके उस पर दृष्टि करके, उसकी महिमा लाकर अन्दर स्वरूपका धन प्रगट करना, यह धनतेरस है।

वह नहीं हो तबतक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र, भगवानने जो प्राप्त किया, तीर्थंकर भगवान महावीर भगवानने जो प्रगट किया, उसे स्वयं स्मरणमें लाकर उस प्रकारकी शुभभावना, भक्ति महिमा बाहरसे भगवानकी करे। अंतरमें आत्माका स्वरूप-धन कैसे प्रगट हो? यह करना है। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा लावे। भगवानने सब प्रगट किया, गुरु साधना करते हैं, शास्त्रमें सब वर्णन आता है। शुभभावमें वह और अंतरमें शुद्धात्मामें धन भरा है, उसे पहचाने। उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसमें लीनता करे।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- भगवानका निर्वाण कल्याणकका महोत्सव करते हैं, उसमें आगे-पीछेके दिन मंगल दिन हैं। उसमें धनतेरस कहते हैं। लौकिकमें धनतेरस। गौतमस्वामीको केवलज्ञान प्रगट हुआ, भगवान मोक्ष (पधारे)। इसलिये आगे-पीछेके दिनोंको मंगलरूप कहते हैं। शास्त्रमें तो यह एक निर्वाण कल्याणकका दिन आता है। उसके आगे-पीछे के दिनोंको मंगलरूप कहते हैं।

मुमुक्षुः- सविकल्पात्मकमें पहले रुचिमें स्वयंका ज्ञायक आत्मा आना चाहिये और उसे परकी रुचि छूट जानी चाहिये। उसके बाद उसे दृष्टिका जोर आवे। उसका अर्थ यह हुआ कि जबतक विकल्पात्मकमें उसे मेरा आत्मा ही मुझे सुखरूप है, दूसरा कुछ भी यानी ... विकार भी सुखरूप नहीं है। ऐसा जबतक अभिप्रायमें निर्णय न हो, तबतक दृष्टिका जोर अर्थात द्रव्य सन्मुख होकर यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसा सच्चा जोर उसे आ नहीं सकता। ऐसा आपका कहना था?

समाधानः- जोर नहीं आता। स्वयंमें सुख है ऐसा निर्णय न हो, अपनी ओर


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रुचि न आवे तो अपनी ओर जोर नहीं आता। द्रव्य पर दृष्टिका श्रद्धाका जोर नहीं आता। क्योंकि मेरेमें ही सुख है, वही प्रयोजनभूत है, वही जरूरतका है, उतनी रुचि अंतरमेंसे नहीं हो तो श्रद्धाका जोर नहीं आता।

मुमुक्षुः- इस प्रकारसे विचार करके एक बार नहीं परन्तु .. भावमें बैठता है कि सचमुचमें सुख मुझमें है और इसमें सुख नहीं है। इस प्रकार ज्ञायक है वही मैं हूँ, यानी कि आश्रय करनेका जो... यह ज्ञायक ही मैं हूँ और यह सब मुझसे पर है। इस प्रकार कहनेके बाद क्या करना बाकी रह जाता है कि जिसमें अभी जिस प्रकारका परिणाम-फल आना चाहिये, वह नहीं आता है?

समाधानः- नक्की करके ज्ञायकका आश्रय नहीं लेता है। ज्ञायकका जो आश्रय लेना चाहिये वह आश्रय लेता नहीं। बुद्धिसे विचार किया, विचार-विचारमें रह गया और श्रद्धा की। परन्तु ज्ञायकका जो आश्रय लेना चाहिये वह आश्रय लेता नहीं। मैं यह ज्ञायक ही हूँ।

क्षण-क्षणमें उसे जो लगना चाहिये, क्षण-क्षणमें भासना चाहिये कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ। ज्ञायकका आश्रय लेता नहीं है इसलिये आगे नहीं जाता। ज्ञायकका आश्रय नहीं लेता है। आश्रय-दृष्टि पर ओर है। नक्की तो किया लेकिन आश्रय ज्ञायकका लेना चाहिये, ज्ञायकका आश्रय नहीं लेता है।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका आश्रय यानी आपको क्या कहना है?

समाधानः- यह ज्ञायक है, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसा क्षण-क्षणमें अंतरमें ज्ञायक ही उसकी दृष्टिमें भासित होना चाहिये। क्षण-क्षणमें ज्ञायक दृष्टिमें भासित नहीं होता है। पर भासता, विभाव भासता है, उसका वेदन होता है। लेकिन ज्ञायकके अंतरमें जाय। मैं तो ज्ञायक ही हूँ, ऐसा उसे अंतरमें लगता नहीं। उसके आश्रयमें एक ज्ञायक नहीं आता है। कोई भी कार्य करते हुए, मैं तो भिन्न ही हूँ, वह जो उसे क्षण- क्षणमें लगना चाहिये, वह लगता नहीं है। उसकी लगनी उस प्रकारकी (लगी नहीं है)। ज्ञायकका आश्रय नहीं लेता है। विचार किया, निर्णय किया कियह ज्ञानस्वभाव ही मैं हूँ, लेकिन ज्ञानरूप रहनेका स्वयं प्रयत्न नहीं करता है। ज्ञान सो मैं, ऐसा नक्की किया, परन्तु वह ज्ञातारूप कहाँ रहता है? एकत्वबुद्धि होती है।

मुमुक्षुः- माताजी! जब ज्ञानमें नक्की होता है, जिस प्रकारसे भिन्नता है, परद्रव्यकी, विभावकी और एक समयकी पर्याय और ज्ञायकभाव, उसकी जैसी भिन्न है वैसा विचार किया, और यह विचार करने पर ऐसा हुआ कि, सचमुच मेरा परमार्थ स्वरूप तो ज्ञायक ही है। अच्छा, दृष्टिमें अर्थात रुचि अपेक्षासे भी विचार किया कि ज्ञानमें तो पहलू होनेसे गौण-मुख्य होते हैं। लेकिन दृष्टिमें तो विचार किया कि एक ज्ञायकभावके


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सिवा कहीं भी थोडा भी सुख नहीं है। और ऐसे ... करता नहीं।

समाधानः- नक्की किया कि उसमें सुख नहीं है, वह नक्की विचारमें रहा, नक्की किया कि सुख नहीं है। परन्तु वह सुख नहीं है तो उसका कार्य, ज्ञायकको ग्रहण करके ज्ञायकका आश्रय जो उसे अंतरमें आना चाहिये, ज्ञायकका आश्रय नहीं हुआ है। ज्ञानस्वभाव हूँ, ऐसा निर्णय किया, लेकिन ज्ञानस्वभावरूप होनेका प्रयत्न नहीं करता है।

मुमुक्षुः- आपसे यह जानना है कि ज्ञायक होनेका प्रयत्न अथवा ज्ञायक होता नहीं है, तो ज्ञायक कैसे होना?

समाधानः- उसका आश्रय नहीं लेता है। उसे क्षण-क्षणमें जो विचार, विकल्प आवे उस विकल्पमय ही स्वयं हो जाता है, उस वक्त भिन्न कहाँ रहता है? जो- जो विकल्प आवे, विचार आवे, उस विकल्पमय एकमेक हो जाता है। नक्की किया कि मैं तो यह जाननेवाला ज्ञानस्वभाव हूँ। कोई भी विकल्प, विचार आवे उसमें एकमेक होता है। जो-जो विचार आते हैं उस वक्त विचार करके देखे तो एकमेक हो जाता है, थोडा भी अन्दर भिन्न नहीं रहता है। भिन्न हूँ, ऐसा नक्की किया तो उसका एकत्वबुद्धिका रस कम हुआ, सब हुआ, मन्दता हुयी, लेकिन वह भिन्न नहीं रहता है। भिन्न रहनेका भेदज्ञानका प्रयत्न नहीं करता है। नक्की किया कि मैं भिन्न हूँ। नक्की तो किया, भिन्न हूँ। लेकिन भिन्न रहनेका प्रयत्न नहीं करता है।

मुमुक्षुः- दूसरा प्रयत्न तो माताजी! एकाग्रता हो और विकल्प टूटे तो निर्विकल्प अनुभव हो, तो-तो ऐसा लगे कि ज्ञानरूप रहा। जबतक राग टूटे नहीं तबतक तो शास्त्र कहता है और आप कहोगे कि एकताबुद्धि है और रागको तू तेरा मानता है। अभ्यास चाहे जितना करते हो, भिन्न रहनेका प्रयत्न करते हो, तो आपको बीचमें एक बात करता हूँ कि, ऐसा साधन है कि...

समाधानः- भिन्न होकर विकल्प टूटे वह निर्विकल्प होता है, वह तो होता है, लेकिन उसके पहले उसका भेदज्ञानका अभ्यास नहीं है। भेदज्ञानका अभ्यास। वह विचार करे, शरीर जब काम करता हो, काम करता हो, बोलता हो, खाता हो, पीता हो उस वक्त उसे ख्याल रहता है कि मैं भिन्न हूँ? प्रतिक्षण ख्याल रहता है? भेदज्ञानका अभ्यास कहाँ करता है? यह शरीर भिन्न, यह भिन्न, विकल्प भिन्न, राग भिन्न, उससे मैं भिन्न हूँ, ऐसा उसे बार-बार उसकी परिणतिमें आता है? उसका अभ्यास तो पहले होता है न? एकदम निर्विकल्प हो वह क्वचित किसीको होता है। एकदम भेदज्ञान होता है और निर्विकल्प हो जाता है। पहले तो उसका अभ्यास होता है।

मुमुक्षुः- आपको तो ऐसा कहना है कि इतना नक्की करनेके बाद बारंबार भेद अभ्यास होना चाहिये?


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समाधानः- भेदका अभ्यास होना चाहिये। पहले उसे सहज नहीं होता है। सहज भले नहीं हो, लेकिन उसके विचारमें उस प्रकारसे आता है। सहज भेदज्ञानकी धारा हो निर्विकल्प होनेके बाद, वह अलग बात है, उसे तो सहज है। प्रत्येक कार्यमें सहज ही है। उसके अभ्यासमें चौबीस घण्टेमें जो-जो कार्य और जो-जो विचार चलते हों, उसके अन्दर स्वयंको कितनी बार भिन्नता भास्यमान होती है?

मुमुक्षुः- भास्यमानमें तो माताजी, ऐसा है कि विकल्पपूर्वक तो विचारमें लेते हैं कि मैं ज्ञायक हूँ, यह मुझसे भिन्न है। राग हो तो भी मुझसे भिन्न है। परद्रव्यकी कोई क्रिया होती हो तो वह भी मैं करता नहीं हूँ।

समाधानः- लेकिन जब वह किसी कार्यमें तन्मय हुआ हो उस वक्त उसे भिन्नता रहती है या नहीं?

मुमुक्षुः- वह नहीं रहता।

समाधानः- जिस समय तन्मय होकर कोई विचारोंमें उलझा हो, उस वक्त उसे भिन्नता रहती है या नहीं? तो भेदज्ञानके अभ्यासमें उसकी क्षति है।

मुमुक्षुः- उतना भेद अभ्यास होना चाहिये।

समाधानः- हाँ, भेदज्ञानका अभ्यास होना चाहिये। बार-बार नक्की करे कि मैं भिन्न ही हूँ। विचारोंसे नक्की करता रहे, लेकिन उसके कायामें, उसकी परिणतिमें वह कितनी बार भिन्न रह सकता है?

मुमुक्षुः- विकल्पपूर्वक भी निरंतर भिन्न नहीं रहता है, बात सच्ची है।

समाधानः- हाँ, भिन्न कहाँ रह सकता है? अभी तो यह भेद अभ्यासकी बात है। सहज तो बादमें होता है। बादमें क्या करना है? परन्तु यह भेदज्ञानका अभ्यास करना है। भिन्न नहीं रह सकता है। साधनाकी पर्याय तो ऐसे ही प्रगट होती है कि मैं चैतन्य हूँ, ऐसी दृष्टिका जोर और आश्रय कब हो? कि भेद-भिन्न पडनेका प्रयत्न अभ्यास हो तो उसका आश्रय बलवानरूपसे होता है, नहीं तो बलवानरूपसे विकल्पका आश्रय रह जाता है। विकल्पसे नक्की करता है। भले जोरसे नक्की करे कि मैं भिन्न ही हूँ। मैं भिन्न ही हूँ, भिन्न ही हूँ यह यथार्थ है। तो उसे इतना अन्दर लगे कि मैं भिन्न ही हूँ। भिन्नरूप रहता तो नहीं है। उतनी अन्दर रुचिकी तीव्रता होनी चाहिये कि मुझे निश्चित है कि मैं भिन्न हूँ। लेकिन भिन्न रह नहीं सकता है। उतना प्रयास नहीं है।

निर्णय किया कि इस गाँवमेें जानेसे नुकसान है। ऐसा नक्की किया। इसमें सुखका कारण नहीं है, इस ओर जानेसे ही सुख है। ऐसा नक्की किया तो फिर जो सुखका रास्ता है, सुखका धाम है वहाँ जानेका प्रयत्न-प्रयास करता नहीं है, उस ओर कदम


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बढाता नहीं। विचार करके खडे-खडे नक्की करता है लेकिन उस ओरका प्रयास कितना होता है? नुकसान है, ऐसा नक्की किया तो क्यों जाता है? उतनी उसकी रुचिकी क्षति है। उस ओर उसे दुःख लगे तो भी, उस ओर दुःखका गाँव-नगर है तो भी उस ओर जाता है। और इस ओर कितनी बार प्रयास करता है?

श्रद्धाकी बलवत्तरता हो तो उसे कार्यान्वित करना चाहिये। विचारसे भले श्रद्धा करता हो। पहले ऐसे विचारपूर्वक श्रद्धा हुए बिना रहती नहीं। लेकिन उसमें ऐसा है कि धीरे-धीरे हो, उतावलीसे हो या धीरे-धीरे हो परन्तु मार्ग ग्रहण किया है, जिस मार्गको विचार करके ग्रहण किया उसे तो बराबर टिकाकर उस ओर जानेका प्रयत्न करना। तो उसे आगे जानेका अवकाश है। तेरी श्रद्धा तू बराबर रखना। शास्त्रमें आता है, हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना, नहीं तो श्रद्धा कर्तव्य है। श्रद्धा यानी उसमें सब ले लेना। वह तो सम्यग्दर्शनपूर्वक है, फिर भी श्रद्धा तो बराबर रखना। प्रयत्न तेरा कम हो, धीरे हो, त्वरासे हो, कोई बार थक जा तो भी तेरी विकल्पपूर्वककी श्रद्धाको बराबर दृढ रखना। तो तुझे आगे बढनेका अवकाश है।

यदि तू थक जा और आगे नहीं बढ सके तो थककर तू दूसरे रास्ते पर मत जाना। उसे तो बराबर ग्रहण करके रखना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया और तुने विचारसे अंतरसे नक्की किया, स्वभावका मिलान करके नक्की किया तो उसे तो तू बराबर ग्रहण करके रखना। उसे तो तू सँभालकर ही रखना। उससे भी आगे बढे वह अलग बात है, लेकिन जहाँ खडा है उतना तो सँभालकर रखना। यह धन सँभालनेका कहते हैं न? तेरे गहने, धन आदि (सँभालकर रखना)।

वैसे पंचमकालमें गुरुदेव मिले और यह जो मार्ग बताया, वह पंचमकालमें मिलना मुश्किल था। वह तो गुरुदेवने बताया और तूने विचारसे नक्की किया तो उसे बराबर सँभालकर रखना। उतनी दृढता तू बराबर रखना। इधर-ऊधर मार्ग पर कहीं मत जाना।

मुमुक्षुः- ज्ञायकको स्वयंको ज्ञायकपने ... नहीं और सविकल्प दशामें भी उसे उस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिये कि मानो राग हुआ तो रागसे भिन्न जाननेवाला है, वह जाननेवाला भिन्न रहता है, ऐसा उसे अभ्यास करना चाहिये। तो आपके कहनेके बाद इस प्रकार विचारमें लिया, लेकिन अभी भी भावमें बराबर बैठता नहीं। आप दो-चार दृष्टान्त देकर इस बातको अधिक स्पष्ट कीजिये।

समाधानः- अमुक विचारसे, अमुक विचारसे एवं युक्तिसे कहनेमें आये। बाकी करना तो स्वयंको ही पडता है। कैसे स्वयं भिन्न पडता है, वह तो जिस प्रकारकी स्वयंकी भूमिका हो और जिस प्रकारका स्वयंका प्रयत्न हो, उस प्रकारसे स्वयं ही भिन्न पडता है। यह तो एक विचार एवं युक्तिसे कहनेमें आता है कि, ऐसा विचार


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करे। बाकी उसे सहज होना चाहिये। विचार क्या करना और कैसे करना, वह स्वयं कहाँ अटकता है, और स्वयं क्या करता है, वह स्वयंको ही ग्रहण करना पडता है।

विचार करे कि यह शरीर तो जड है, कुछ जानता नहीं। वह तो जड है, उसमें जो पुदगलके....

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर कही। कुदरती बडा दिन है और बडी बात आ गयी।

समाधानः- ... अभ्यास करना है। उतना स्वयं कर सकता है। द्रव्य पर दृष्टि करके भेदज्ञानका अभ्यास (करे), आत्माका आश्रय लेना है। उसका आत्माका आश्रय ग्रहण करे तो उसमें विकल्प छूटनेका प्रसंग आता है। बाकी एकदम किसीको अंतर्मुहूर्तमें होता है वह अलग बात है।

मुमुक्षुः- ... समाधानः- हाँ, यह श्रद्धा तो बराबर रखना।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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