Niyamsar (Hindi). Jinjini Vani; VishayAnukramanika; ShAstra-swAdhayayka Prarambhik Manglacharan; Adhikar-1 : jiv adhikAr; Gatha: 1-6.

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जिनजीनी वाणी
(रागआशाभर्या अमे आवीया)
सीमंधर मुखथी फू लडां खरे,
एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली, मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
गूंथ्यां पाहुड ने गूंथ्युं पंचास्ति,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
गूंथ्युं नियमसार, गूंथ्युं रयणसार,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
स्याद्वाद के री सुवासे भरेलो,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वंदुं जिनेश्वर, वंदुं हुं कुं दकुं द,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
हैडे हजो, मारा भावे हजो,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
जिनेश्वरदेवनी वाणीना वायरा
वाजो मने दिनरात रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
रचयिता : हिंमतलाल जेठालाल शाह

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जीव अधिकार
असाधारण मंगल और भगवान ग्रन्थकारकी
प्रतिज्ञा ................................................ १
मोक्षमार्ग और उसके फलके स्वरूप-
निरूपणकी सूचना ................................. २
स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप ............................... ३
रत्नत्रयके भेदकारण तथा लक्षण सम्बन्धी
कथन................................................. ४
व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप .......................... ५
अठारह दोषोंका स्वरूप................................ ६
तीर्थंकर परमदेवका स्वरूप ........................... ७
परमागमका स्वरूप ...................................... ८
छह द्रव्योंके पृथक् पृथक् नाम ...................... ९
उपयोगका लक्षण ...................................... १०
ज्ञानके भेद .............................................. ११
दर्शनोपयोगका स्वरूप ................................ १३
अशुद्ध दर्शनकी शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी
सूचना............................................... १४
स्वभावपर्यायें और विभावपर्यायें...................... १५
चारगतिका स्वरूप निरूपण......................... १६
कर्तृत्व-भोक्तृत्वके प्रकारका कथन................ १८
दोनों नयोंकी सफलता ................................ १९
अजीव अधिकार
पुद्गलद्रव्यके भेदोंका कथन ........................ २०
विभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २१
कारणपरमाणुद्रव्य और कार्यपरमाणुद्रव्यका
स्वरूप ............................................. २५
परमाणुका विशेष कथन ............................. २६
स्वभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २७
पुद्गलपर्यायके स्वरूपका कथन ................... २८
पुद्गलद्रव्यके कथनका उपसंहार ................... २९
धर्म-अधर्म-आकाशका संक्षिप्त कथन ............. ३०
व्यवहारकालका स्वरूप और उसके
विविध भेद ....................................... ३१
मुख्य कालका स्वरूप................................ ३२
कालादि अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुण-
पर्यायोंका कथन .................................. ३३
कालद्रव्यके अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही
पंचास्तिकाय हैं, तत्सम्बन्धी कथन ........... ३४
छह द्रव्योंके प्रदेशका लक्षण और उसके
सम्भवका प्रकार .................................. ३४
अजीवद्रव्य सम्बन्धी कथनका उपसंहार ........... ३७
शुद्धभाव अधिकार
हेय और उपादेय तत्त्वके स्वरूपका कथन ...... ३८
निर्विकल्प तत्त्वके स्वरूपका कथन .............. ३९
प्रकृति आदि बंधस्थान तथा उदयके स्थानोंका
समूह जीवके नहीं है, तत्सम्बन्धी कथन.... ४०
विभावस्वभावोंके स्वरूप कथन द्वारा
पंचमभावके स्वरूपका कथन ................. ४१
शुद्ध जीवको समस्त संसारविकार नहीं
हैंऐसा निरूपण................................. ४२
शुद्ध आत्माको समस्त विभावोंका अभाव
है ऐसा कथन .................................... ४३
शुद्ध जीवका स्वरूप ................................. ४४
विषयानुक्रमणिका
विषय
गाथा
विषय
गाथा

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कारणपरमात्माको समस्त पौद्गलिक विकार
नहीं हैंऐसा कथन ............................. ४५
संसारी और मुक्त जीवोंमें अन्तर न
होनेका कथन ..................................... ४७
कार्यसमयसार और कारणसमयसारमें अन्तर
न होनेका कथन ................................. ४८
निश्चय और व्यवहारनयकी उपादेयताका
प्रकाशन ............................................ ४९
हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणका स्वरूप
रत्नत्रयका स्वरूप ................................ ५१
व्यवहारचारित्र अधिकार
अहिंसाव्रतका स्वरूप ................................. ५६
सत्यव्रतका स्वरूप .................................... ५७
अचौर्यव्रतका स्वरूप .................................. ५८
ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप ................................. ५९
परिग्रह-परित्यागव्रतका स्वरूप ...................... ६०
ईर्यासमितिका स्वरूप ................................. ६१
भाषासमितिका स्वरूप ................................ ६२
एषणासमितिका स्वरूप .............................. ६३
आदाननिक्षेपणसमितिका स्वरूप .................... ६४
प्रतिष्ठापनसमितिका स्वरूप........................... ६५
व्यवहार मनोगुप्तिका स्वरूप .......................... ६६
वचनगुप्तिका स्वरूप ................................... ६७
कायगुप्तिका स्वरूप ................................... ६८
निश्चयमनो-वचनगुप्तिका स्वरूप...................... ६९
निश्चयकायगुप्तिका स्वरूप ............................ ७०
भगवान अर्हत् परमेश्वरका स्वरूप .................. ७१
भगवन्त सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप .................. ७२
भगवन्त आचार्यका स्वरूप .......................... ७३
अध्यापक नामक परमगुरुका स्वरूप .............. ७४
सर्व साधुओंके स्वरूपका कथन ................... ७५
व्यवहारचारित्र-अधिकारका उपसंहार और
निश्चयचारित्रकी सूचना ........................... ७६
परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
शुद्ध आत्माको सकल कर्तृत्वके अभाव
सम्बन्धी कथन ................................... ७७
भेदविज्ञान द्वारा क्रमशः निश्चय-चारित्र होता
है तत्सम्बन्धी कथन ............................ ८२
वचनमय प्रतिक्रमण नामक सूत्रसमुदायका निरास.८३
आत्म-आराधनामें वर्तते हुए जीवको ही
प्रतिक्रमणस्वरूप कहा है, तत्सम्बन्धी
कथन............................................... ८४
परमोपेक्षासंयमधरको निश्चयप्रतिक्रमणका स्वरूप
होता है, तत्सम्बन्धी निरूपण ................. ८५
उन्मार्गके परित्याग और सर्वज्ञवीतरागमार्गके
स्वीकार सम्बन्धी वर्णन ......................... ८६
निःशल्यभावरूप परिणत महातपोधन ही निश्चय-
प्रतिक्रमणस्वरूप है, तत्सम्बन्धी कथन ..... ८७
त्रिगुप्तिगुप्त ऐसे परम तपोधनको निश्चयचारित्र
होनेका कथन ..................................... ८८
ध्यानके भेदोंका स्वरूप .............................. ८९
आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके
पूर्वापर परिणामका स्वरूप..................... ९०
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका सम्पूर्ण स्वीकार करने से
तथा मिथ्यादर्शनचारित्रका सम्पूर्ण त्याग करने
से मुमुक्षुको निश्चयप्रतिक्रमण होता है,
तत्सम्बन्धी कथन ................................ ९१
निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमणका स्वरूप................ ९२
ध्यान एक उपादेय है
ऐसा कथन ............ ९३
विषय
गाथा
विषय
गाथा

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व्यवहार प्रतिक्रमणकी सफलता कब कही
जाती है, तत्सम्बन्धी कथन .................... ९४
निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
निश्चयनयके प्रत्याख्यानका स्वरूप .................. ९५
अनन्तचतुष्टयात्मक निज आत्माके ध्यानका
उपदेश ............................................. ९६
परमभावनाके सन्मुख हैऐसे ज्ञानीको सीख ..... ९७
बन्धरहित आत्माको भाने सम्बन्धी सीख .......... ९८
सकल विभावके संन्यासकी विधि ................. ९९
सर्वत्र आत्मा उपादेय है
ऐसा कथन ............ १००
संसारावस्था और मुक्तिमें जीव निःसहाय
हैऐसा कथन................................ १०१
एकत्वभावनारूप परिणमित सम्यग्ज्ञानीका
लक्षण ............................................ १०२
आत्मगत दोषोंसे मुक्त होनेके उपायका
कथन............................................. १०३
परम तपोधनकी भावशुद्धिका कथन............. १०४
निश्चयप्रत्याख्यानके योग्य जीवका स्वरूप ....... १०५
निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकारका उपसंहार......... १०६
परम-आलोचन अधिकार
निश्चय-आलोचनाका स्वरूप ....................... १०७
आलोचनाके स्वरूपके भेदोंका कथन ........... १०८
शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार
निश्चय-प्रायश्चित्तका स्वरूप......................... ११३
चार कषायों पर विजय प्राप्त करनेके उपायका
स्वरूप ........................................... ११५
‘‘शुद्ध ज्ञानका स्वीकार करनेवालेको प्रायश्चित्त
है’’ऐसा कथन ............................. ११६
निश्चयप्रायश्चित्त समस्त आचरणोंमें परम आचरण
है, तत्सम्बन्धी कथन ......................... ११७
शुद्ध कारणपरमात्मतत्त्वमें अन्तर्मुख रहकर
जो प्रतपनसो तप है, और वह तप प्रायश्चित्त
हैतत्सम्बन्धी कथन .......................... ११८
निश्चयधर्मध्यान ही सर्वभावोंका अभाव करनेमें
समर्थ हैऐसा कथन ....................... ११९
शुद्धनिश्चयनियमका स्वरूप ......................... १२०
निश्चयकायोत्सर्गका स्वरूप ......................... १२१
परम-समाधि अधिकार
परम समाधिका स्वरूप ............................ १२२
समता बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको
किंचित् मोक्षका साधन नहीं है, तत्सम्बन्धी
कथन............................................. १२४
परम वीतरागसंयमीको सामायिकव्रत स्थायी है,
ऐसा निरूपण................................... १२५
परममुमुक्षुका स्वरूप ................................ १२६
आत्मा ही उपादेय है
ऐसा कथन ............. १२७
रागद्वेषके अभावसे अपरिस्पंदरूपता होती
है, तत्सम्बन्धी कथन ......................... १२८
आर्त्त-रौद्र ध्यानके परित्याग द्वारा सनातन
सामायिकव्रतके स्वरूपका कथन ........... १२९
सुकृतदृष्कृतरूप कर्मके सन्यासकी विधि ...... १३०
नौ नौ कषायकी विजय द्वारा प्राप्त होनेवाले
सामायिक चारित्रका स्वरूप ................. १३१
परम समाधि अधिकारका उपसंहार .............. १३३
१०परमभक्ति अधिकार
रत्नत्रयका स्वरूप.................................... १३४
व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्तिका स्वरूप .......... १३५
विषय
गाथा
विषय
गाथा

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निज परमात्माकी भक्तिका स्वरूप .............. १३६
निश्चययोगभक्तिका स्वरूप ......................... १३७
विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही
निश्चयपरमयोग है, तत्सम्बन्धी कथन ....... १३९
भक्ति अधिकारका उपसंहार ...................... १४०
११निश्चय-परमावश्यक अधिकार
निरन्तर स्ववशको निश्चय-आवश्यक होने
सम्बन्धी कथन ................................. १४१
अवश परम जिनयोगीश्वरको परम आवश्यक-
कर्म आवश्यक हैऐसा कथन ........... १४२
भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना
न होने सम्बन्धी कथन........................ १४३
अन्यवश ऐसे अशुद्ध-अन्तरात्म जीवका लक्षण १४४
अन्यवशका स्वरूप ................................. १४५
साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरका
स्वरूप ........................................... १४६
शुद्ध-निश्चय-आवश्यककी प्राप्तिके उपायका
स्वरूप ........................................... १४७
शुद्धोपयोगोन्मुख जीवको सीख .................... १४८
आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता
हैतत्सम्बन्धी कथन .......................... १४९
बाह्य तथा अन्तर जल्पका निरास ................ १५०
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान-
यह दो ध्यान ही उपादेय हैं, तत्सम्बन्धी
कथन............................................. १५१
परमवीतरागचारित्रमें स्थित परम तपोधनका
स्वरूप ........................................... १५२
समस्त वचनसम्बन्धी व्यापारका निरास .......... १५३
शुद्धनिश्चयधर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही
करने योग्य हैं, तत्सम्बन्धी कथन .......... १५४
साक्षात् अन्तर्मुख परमजिनयोगीको सीख ........ १५५
वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके
हेतुका कथन ................................... १५६
सहजतत्त्वकी आराधनाकी विधि .................. १५७
परमावश्यक अधिकारका उपसंहार ............... १५८
१२शुद्धोपयोग अधिकार
ज्ञानीको स्व-पर स्वरूपका प्रकाशपना कथंचित्
है, तत्सम्बन्धी कथन ......................... १५९
केवलज्ञान और केवलदर्शनके युगपद्
प्रवर्तन सम्बन्धी दृष्टान्त द्वारा कथन ........ १६०
आत्माके स्वपरप्रकाशकपने सम्बन्धी विरोध
कथन............................................. १६१
एकान्तसे आत्माको परप्रकाशकपना होनेकी
बातका खंडन .................................. १६३
व्यवहारनयकी सफलता दर्शानेवाला कथन...... १६४
निश्चयनयसे स्वरूपका कथन ...................... १६५
शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका खण्डन १६६
केवलज्ञानका स्वरूप ................................ १६७
केवलदर्शनके अभावमें सर्वज्ञता नहीं होती
तत्सम्बन्धी कथन .............................. १६८
व्यवहारनयकी प्रगटतासे कथन .................... १६९
‘‘जीव ज्ञानस्वरूप है’’ ऐसा वितर्क
निरूपण ......................................... १७०
गुण-गुणीमें भेदका अभाव होने सम्बन्धी
कथन............................................. १७१
सर्वज्ञ वीतरागको वांछाका अभाव होता है,
तत्सम्बन्धी कथन .............................. १७२
विषय
गाथा
विषय
गाथा

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केवलज्ञानीको बन्धके अभावके स्वरूप
सम्बन्धी कथन ................................. १७३
केवली भट्टारकके मनरहितपने सम्बन्धी
कथन............................................. १७५
शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके
उपायका कथन ................................ १७६
कारणपरमतत्त्वके स्वरूपका कथन .............. १७७
निरुपाधिस्वरूप जिसका लक्षण है ऐसे
परमात्मतत्त्वसम्बन्धी कथन ................... १७८
सांसारिक विकारसमूहके अभावके कारण
परमतत्त्वको निर्वाण है, तत्सम्बन्धी कथन १७९
परमनिर्वाणयोग्य परमतत्त्वका स्वरूप ............ १८०
परमतत्त्वके स्वरूपका विशेष कथन .......... १८१
भगवान सिद्धके स्वभावगुणोंके स्वरूपका
कथन............................................. १८२
सिद्धि और सिद्धके एकत्वका प्रतिपादन ....... १८३
सिद्धक्षेत्रसे ऊ पर जीव-पुद्गलोंके गमनका
निषेध............................................. १८४
नियमशब्दका और उसके फलका उपसंहार ... १८५
भव्यको सीख ........................................ १८६
शास्त्रके नाम कथन द्वारा शास्त्रका उपसंहार .. १८
विषय
गाथा
विषय
गाथा

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नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्र-स्वाध्यायका प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं,
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीनियमसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
।।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।।।

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नमः परमात्मने।
श्रीमद्भभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
श्री
नियमसार
जीव अधिकार
श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचिततात्पर्यवृत्तिः ।
(मालिनी)
त्वयि सति परमात्मन्माद्रशान्मोहमुग्धान्
कथमतनुवशत्वान्बुद्धकेशान्यजेऽहम्
सुगतमगधरं वा वागधीशं शिवं वा
जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रीजिनं वा
।।।।
मूल गाथाओंके तथा तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाके गुजराती अनुवादका
हिन्दी रूपान्तर
[प्रथम, ग्रन्थके आदिमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित प्राकृतगाथाबद्ध इस
‘नियमसार’ नामक शास्त्रकी ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामक संस्कृत टीकाके रचयिता मुनि श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोकों द्वारा मंगलाचरणादि करते हैं :
]
[श्लोेकार्थ :] हे परमात्मा ! तेरे होते हुए मैं अपने जैसे (संसारियों जैसे)
मोहमुग्ध और कामवश बुद्धको तथा ब्रह्मा-विष्णु-महेशको क्यों पूजूँ ? (नहीं पूजूँगा )

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(अनुष्टुभ्)
वाचं वाचंयमीन्द्राणां वक्त्रवारिजवाहनाम्
वन्दे नयद्वयायत्तवाच्यसर्वस्वपद्धतिम् ।।।।
(शालिनी)
सिद्धान्तोद्घश्रीधवं सिद्धसेनं
तर्काब्जार्कं भट्टपूर्वाकलंकम्
शब्दाब्धीन्दुं पूज्यपादं च वन्दे
तद्विद्याढयं वीरनन्दिं व्रतीन्द्रम्
।।।।
जिसने भवोंको जीता है उसकी मैं वन्दना करता हूँउसे प्रकाशमान ऐसे श्री जिन कहो,
सुगत कहो, गिरिधर कहो, वागीश्वर कहो या शिव कहो
[श्लोेकार्थ :]वाचंयमीन्द्रोंका (जिनदेवोंका) मुखकमल जिसका वाहन है
और दो नयोंके आश्रयसे सर्वस्व कहनेकी जिसकी पद्धति है उस वाणीको
(
जिनभगवन्तोंकी स्याद्वादमुद्रित वाणीको) मैं वन्दन करता हूँ
[श्लोेकार्थ :] उत्तम सिद्धान्तरूपी श्रीके पति सिद्धसेन मुनीन्द्रको, तर्क कमलके
सूर्य भट्ट अकलंक मुनीन्द्रको, शब्दसिन्धुके चन्द्र पूज्यपाद मुनीन्द्रको और तद्विद्यासे
(सिद्धान्तादि तीनोंके ज्ञानसे) समृद्ध वीरनन्दि मुनीन्द्रको मैं वन्दन करता हूँ
बुद्धको सुगत कहा जाता है सुगत अर्थात् (१) शोभनीकताको प्राप्त, अथवा (२) सम्पूर्णताको प्राप्त
श्री जिनभगवान (१) मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण शोभनीकताको प्राप्त हैं, और
(२) केवलज्ञानादिको प्राप्त कर लिया है इसलिये सम्पूर्णताको प्राप्त हैं; इसलिये उन्हें यहाँ सुगत कहा है
कृष्णको गिरिधर (अर्थात् पर्वतको धारण कर रखनेवाले) कहा जाता है श्री जिनभगवान अनंतवीर्यवान
होनेसे उन्हें यहाँ गिरिधर कहा है
ब्रह्माको अथवा बृहस्पतिको वागीश्वर (अर्थात् वाणीके अधिपति) कहा जाता है श्री जिनभगवान
दिव्यवाणीके प्रकाशक होनेसे उन्हें यहाँ वागीश्वर कहा है
महेशको (शंकरको) शिव कहा जाता है श्री जिनभगवान कल्याणस्वरूप होनेसे उन्हें यहाँ शिव
कहा गया है
वाचंयमीन्द्र = मुनियोंमें प्रधान अर्थात् जिनदेव; मौन सेवन करनेवालोंमें श्रेष्ठ अर्थात् जिनदेव; वाक्-
संयमियोंमें इन्द्र समान अर्थात् जिनदेव [वाचंयमी = मुनि; मौन सेवन करनेवाले; वाणीके संयमी
]
तर्ककमलके सूर्य = तर्करूपी कमलको प्रफु ल्लित करनेमें सूर्य समान
शब्दसिन्धुके चन्द्र = शब्दरूपी समुद्रको उछालनेमें चन्द्र समान

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(अनुष्टुभ्)
अपवर्गाय भव्यानां शुद्धये स्वात्मनः पुनः
वक्ष्ये नियमसारस्य वृत्तिं तात्पर्यसंज्ञिकाम् ।।।।
किंच
(आर्या)
गुणधरगणधररचितं श्रुतधरसन्तानतस्तु सुव्यक्त म्
परमागमार्थसार्थं वक्तु ममुं के वयं मन्दाः ।।।।
अपि च
(अनुष्टुभ्)
अस्माकं मानसान्युच्चैः प्रेरितानि पुनः पुनः
परमागमसारस्य रुच्या मांसलयाऽधुना ।।।।
(अनुष्टुभ्)
पंचास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्वनवार्थकाः
प्रोक्ताः सूत्रकृता पूर्वं प्रत्याख्यानादिसत्क्रियाः ।।।।
[श्लोेकार्थ :] भव्योंके मोक्षके लिये तथा निज आत्माकी शुद्धिके हेतु
नियमसारकी ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामक टीका मैं कहूँगा
पुनश्च
[श्लोेकार्थ :] गुणके धारण करनेवाले गणधरोंसे रचित और श्रुतधरोंकी
परम्परासे अच्छी तरह व्यक्त किये गये इस परमागमके अर्थसमूहका कथन करनेमें हम
मंदबुद्धि सो कौन ?
तथापि
[श्लोेकार्थ :] आजक ल हमारा मन परमागमके सारकी पुष्ट रुचिसे पुनः पुनः
अत्यन्त प्रेरित हो रहा है [उस रुचिसे प्रेरित होनेके कारण ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामकी यह टीका
रची जा रही है ]
[श्लोेकार्थ :] सूत्रकारने पहले पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव
पदार्थ तथा प्रत्याख्यानादि सत्क्रियाका कथन किया है (अर्थात् भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने
इस शास्त्रमें प्रथम पाँच अस्तिकाय आदि और पश्चात् प्रत्याख्यानादि सत्क्रियाका कथन
किया है )

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अलमलमतिविस्तरेण स्वस्ति साक्षादस्मै विवरणाय
अथ सूत्रावतारः
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं
वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं ।।।।
नत्वा जिनं वीरं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम्
वक्ष्यामि नियमसारं केवलिश्रुतकेवलिभणितम् ।।।।
अथात्र जिनं नत्वेत्यनेन शास्त्रस्यादावसाधारणं मङ्गलमभिहितम्
नत्वेत्यादिअनेकजन्माटवीप्रापणहेतून् समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीति जिनः वीरो
विक्रान्तः; वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीरःश्रीवर्धमान-सन्मतिनाथ
अति विस्तारसे बस होओ, बस होओ साक्षात् यह विवरण जयवन्त वर्तो
अब (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित) गाथासूत्रका अवतरण किया
जाता है :
गाथा : १ अन्वयार्थ :[अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावं ] अनंत और उत्कृष्ट
ज्ञानदर्शन जिनका स्वभाव है ऐसे (केवलज्ञानी और केवलदर्शनी) [ जिनं वीरं ] जिन
वीरको [ नत्वा ] नमन करके [ केवलिश्रुतकेवलिभणितम् ] केवली तथा श्रुतकेवलियोंने
कहा हुआ [ नियमसारं ] नियमसार [ वक्ष्यामि ] मैं कहूँगा
टीका :यहाँ ‘जिनं नत्वा’ इस गाथासे शास्त्रके आदिमें असाधारण मंगल
कहा है
‘नत्वा’ इत्यादि पदोंका तात्पर्य कहा जाता है :
अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिकको जो जीत
लेता है वह ‘जिन’ है ‘वीर’ अर्थात् विक्रांत (पराक्रमी); वीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट
करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, वह ‘वीर’ है ऐसे
वीरकोजो कि श्री वर्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीरइन नामोंसे
नमकर अनन्तोत्कृष्ट दर्शनज्ञानमय जिन वीरको
कहुँ नियमसार सु केवलीश्रुतकेवलीपरिकथितको ।।।।

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-महतिमहावीराभिधानैः सनाथः परमेश्वरो महादेवाधिदेवः पश्चिमतीर्थनाथः त्रिभुवनसचराचर-
द्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनाभ्यां युक्तो यस्तं प्रणम्य
वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः
कम्? नियमसारम् नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु
वर्तते, नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म् किंविशिष्टम् ? केवलिश्रुतकेवलि-
भणितंकेवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः, श्रुतकेवलिनः सकलद्रव्यश्रुतधरास्तैः केवलिभिः
श्रुतकेवलिभिश्च भणितंसकलभव्यनिकुरम्बहितकरं नियमसाराभिधानं परमागमं वक्ष्यामीति
विशिष्टेष्टदेवतास्तवनानन्तरं सूत्रकृता पूर्वसूरिणा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुणा प्रतिज्ञातम् इति
सर्वपदानां तात्पर्यमुक्त म्
(मालिनी)
जयति जगति वीरः शुद्धभावास्तमारः
त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधैकराज्यः
नतदिविजसमाजः प्रास्तजन्मद्रुबीजः
समवसृतिनिवासः केवलश्रीनिवासः
।।।।
युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं, अन्तिम तीर्थनाथ हैं, जो तीन भुवनके सचराचर,
द्रव्य
- गुण - पर्यायोंको एक समयमें जानने-देखनेमें समर्थ ऐसे सकलविमल (सर्वथा
निर्मल) केवलज्ञानदर्शनसे संयुक्त हैं उन्हेंप्रणाम करके कहता हूँ क्या कहता हूँ ?
‘नियमसार’ कहता हूँ ‘नियम’ शब्द, प्रथम तो, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके लिये है
‘नियमसार’ (‘नियमका सार’) ऐसा कहकर शुद्ध रत्नत्रयका स्वरूप कहा है कैसा है
वह ? केवलियों तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ है ‘केवली’ वे सकलप्रत्यक्ष ज्ञानके
धारण करनेवाले और ‘श्रुतकेवली’ वे सकल द्रव्यश्रुतके धारण करनेवाले; ऐसे केवलियों
तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ, सकल भव्यसमूहको हितकर, ‘नियमसार’ नामका परमागम
मैं कहता हूँ
इसप्रकार, विशिष्ट इष्टदेवताका स्तवन करके, फि र सूत्रकार पूर्वाचार्य श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुने प्रतिज्ञा की
इसप्रकार सर्व पदोंका तात्पर्य कहा गया
[अब पहली गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है :]
[श्लोेकार्थ :] शुद्धभाव द्वारा मारका (कामका) जिन्होंने नाश किया है, तीन
मार = (१) कामदेव; (२) हिंसा; (३) मरण

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मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं
मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ।।।।
मार्गो मार्गफलमिति च द्विविधं जिनशासने समाख्यातम्
मार्गो मोक्षोपायः तस्य फलं भवति निर्वाणम् ।।।।
मोक्षमार्गतत्फलस्वरूपनिरूपणोपन्यासोऽयम्
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति वचनात् मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं, मार्गफल-
मपुनर्भवपुरन्ध्रिकास्थूलभालस्थललीलालंकारतिलकता द्विविधं किलैवं परमवीतरागसर्वज्ञशासने
भुवनके जनोंको जो पूज्य हैं, पूर्ण ज्ञान जिनका एक राज्य है, देवोंका समाज जिन्हें नमन
करता है, जन्मवृक्षका बीज जिन्होंने नष्ट किया है, समवसरणमें जिनका निवास है और
केवलश्री (
केवलज्ञानदर्शनरूपी लक्ष्मी) जिनमें वास करती है, वे वीर जगतमें जयवंत
वर्तते हैं
गाथा : २ अन्वयार्थ :[मार्गः मार्गफलम् ] मार्ग और मार्गफल [इति च
द्विविधं ] ऐसे दो प्रकारका [जिनशासने ] जिनशासनमें [समाख्यातम् ] कथन किया गया
है; [मार्गः मोक्षोपायः ] मार्ग मोक्षोपाय है और [तस्य फलं ] उसका फल [निर्वाणं भवति ]
निर्वाण है ।
टीका :यह, मोक्षमार्ग और उसके फलके स्वरूपनिरूपणकी सूचना (उन
दोनोंके स्वरूपके निरूपणकी प्रस्तावना) है
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र
मोक्षमार्ग है )’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे, मार्ग तो शुद्धरत्नत्रय है और मार्गफल
मुक्तिरूपी स्त्रीके विशाल भालप्रदेशमें शोभा-अलङ्काररूप तिलकपना है (अर्थात् मार्गफल
मुक्तिरूपी स्त्रीको वरण करना है)
इस प्रकार वास्तवमें (मार्ग और मार्गफल ऐसा) दो
प्रकारका, चतुर्थज्ञानधारी (मनःपर्ययज्ञानके धारण करनेवाले) पूर्वाचार्योंने परमवीतराग
है मार्गका अरु मार्गफलका कथन जिनशासन विषें
है मार्ग मोक्षउपाय अरु निर्वाण उसका फल कहें ।।।।

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चतुर्थज्ञानधारिभिः पूर्वसूरिभिः समाख्यातम् परमनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्-
श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धरत्नत्रयात्मकमार्गो मोक्षोपायः, तस्य शुद्धरत्नत्रयस्य फलं
स्वात्मोपलब्धिरिति
(पृथ्वी)
क्वचिद् व्रजति कामिनीरतिसमुत्थसौख्यं जनः
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः
क्वचिज्जिनवरस्य मार्गमुपलभ्य यः पंडितो
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः
।।9।।
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।।।
सर्वज्ञके शासनमें कथन किया है निज परमात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप
शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होनेसे मोक्षका उपाय है और उस शुद्धरत्नत्रयका फल
स्वात्मोपलब्धि (निज शुद्ध आत्माकी प्राप्ति) है
[अब दूसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ :] मनुष्य कभी कामिनीके प्रति रतिसे उत्पन्न होनेवाले सुखकी
ओर गति करता है और फि र कभी धनरक्षाकी बुद्धि करता है जो पण्डित कभी
जिनवरके मार्गको प्राप्त करके निज आत्मामें रत हो जाते हैं, वे वास्तवमें इस मुक्तिको
प्राप्त होते हैं
शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निज परमात्मतत्त्वकी सम्यक् श्रद्धा, उसका सम्यक् ज्ञान और उसका सम्यक् आचरण
परकी तथा भेदोंकी लेश भी अपेक्षा रहित होनेसे वह शुद्धरत्नत्रय मोक्षका उपाय है; उस शुद्धरत्नत्रयका
फल शुद्ध आत्माकी पूर्ण प्राप्ति अर्थात् मोक्ष है
जो नियमसे कर्तव्य दर्शन - ज्ञान - व्रत यह नियम है
यह ‘सार’ पद विपरीतके परिहार हित परिकथित है ।।।।

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नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम्
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ।।।।
अत्र नियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म्
यः सहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः शुद्धज्ञानचेतना-
परिणामः स नियमः नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम्
ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्ते : सकाशात् निज-
१- इस परम पारिणामिक भावमें ‘पारिणामिक’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित
करनेके लिये नहीं है तथा पर्यायार्थिक नयका विषय नहीं है; यह परम पारिणामिक भाव तो उत्पादव्यय-
निरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है
[विशेषके लिये हिन्दी समयसार गा० ३२०
श्री जयसेनाचार्यदेवकी संस्कृत टीका और बृहदद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टीका देखो ]
२- स शुद्धज्ञानचेतनापरिणाममें ‘परिणाम’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित करनेके
लिये नहीं है और पर्यायार्थिक नयका विषय नहीं है; यह शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम तो उत्पादव्ययनिरपेक्ष
एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है
३- यह नियम सो कारणनियम है, क्योंकि वह सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप कार्यनियमका कारण है
[कारणनियमके आश्रयसे कार्यनियम प्रगट होता है ]
गाथा : ३ अन्वयार्थ :[सः नियमः ] नियम अर्थात् [नियमेन च ] नियमसे
(निश्चित) [यत् कार्यं ] जो करनेयोग्य हो वह अर्थात् [ज्ञानदर्शनचारित्रम् ]
ज्ञानदर्शनचारित्र । [विपरीतपरिहारार्थं ] विपरीतके परिहार हेतुसे (ज्ञानदर्शनचारित्रसे विरुद्ध
भावोंका त्याग करनेके लिये) [खलु ] वास्तवमें [सारम् इति वचनम् ] ‘सार’ ऐसा वचन
[भणितम् ] कहा है
टीका : यहाँ (इस गाथामें), ‘नियम’ शब्दको ‘सार’ शब्द क्यों लगाया है
उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप कहा है
जो सहज परम पारिणामिक भावसे स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक
शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम सो नियम (कारणनियम) है । नियम (कार्यनियम) अर्थात्
निश्चयसे (निश्चित) जो करनेयोग्यप्रयोजनस्वरूपहो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र
उन तीनोंमेंसे प्रत्येकका स्वरूप कहा जाता है : (१) परद्रव्यका अवलंबन लिये बिना

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परमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्य
शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति
चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव अस्य तु नियम-
शब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति
(आर्या)
इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुत्तमं प्रपद्याहम्
अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगशं यामि ।।१०।।
निःशेषरूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमेंसे उपादेय (उपयोगको सम्पूर्णरूपसे अन्तर्मुख
करके ग्रहण करनेयोग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्वका परिज्ञान (जानना) सो ज्ञान है
(२) भगवान परमात्माके सुखके अभिलाषी जीवको शुद्ध अन्तःतत्त्वके विलासका
जन्मभूमिस्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान
वही दर्शन है
(३) निश्चयज्ञानदर्शनात्मक कारणपरमात्मामें अविचल स्थिति
(निश्चलरूपसे लीन रहना) ही चारित्र है यह ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप नियम
निर्वाणका कारण है उस ‘नियम’ शब्दको विपरीतके परिहार हेतु ‘सार’ शब्द जोड़ा
गया है
[अब तीसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार मैं विपरीत रहित (विकल्परहित) अनुत्तम
रत्नत्रयका आश्रय करके मुक्तिरूपी स्त्रीसे उत्पन्न अनङ्ग (अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक)
सुखको प्राप्त करता हूँ १०
१- विलास=क्रीड़ा, आनन्द, मौज
२- कारण जैसा ही कार्य होता है; इसलिये स्वरूपमें स्थिरता करनेका अभ्यास ही वास्तवमें अनन्त काल
तक स्वरूपमें स्थिर रह जानेका उपाय है
३- विपरीत=विरुद्ध [व्यवहाररत्नत्रयरूप विकल्पोंकोपराश्रित भावोंकोछोड़कर मात्र निर्विकल्प
ज्ञानदर्शनचारित्रका हीशुद्धरत्नत्रयका हीस्वीकार करने हेतु ‘नियम’ के साथ ‘सार’ शब्द
जोड़ा है ]
४- अनुत्तम=जिससे उत्तम कोई दूसरा नहीं है ऐसा; सर्वोत्तम; सर्वश्रेष्ठ

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णियमं मोक्खउवाओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ ।।।।
नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम्
एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति ।।।।
रत्नत्रयस्य भेदकरणलक्षणकथनमिदम्
मोक्षः साक्षादखिलकर्मप्रध्वंसनेनासादितमहानन्दलाभः पूर्वोक्त निरुपचाररत्नत्रय-
परिणतिस्तस्य महानन्दस्योपायः अपि चैषां ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणां प्रत्येकप्ररूपणा
भवति कथम्, इदं ज्ञानमिदं दर्शनमिदं चारित्रमित्यनेन विकल्पेन दर्शनज्ञानचारित्राणां
लक्षणं वक्ष्यमाणसूत्रेषु ज्ञातव्यं भवति
गाथा : ४ अन्वयार्थ :[नियमः ] (रत्नत्रयरूप) नियम [मोक्षोपायः ]
मोक्षका उपाय है; [तस्य फलं ] उसका फल [परमनिर्वाणं भवति ] परम निर्वाण है
[अपि च ] पुनश्च (भेदकथन द्वारा अभेद समझानेके हेतु) [एतेषां त्रयाणां ] इन तीनोंका
[प्रत्येकप्ररूपणा ] भेद करके भिन्न-भिन्न निरूपण [भवति ] होता है
टीका :रत्नत्रयके भेद करनेके सम्बन्धमें और उनके लक्षणोंके सम्बन्धमें यह
कथन है
समस्त कर्मोंके नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा आनन्दका लाभ सो
मोक्ष है उस महा आनन्दका उपाय पूर्वोक्त निरुपचार रत्नत्रयरूप परिणति है पुनश्च
(निरुपचार रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमें अन्तर्भूत रहे हुए) इन तीनकाज्ञान, दर्शन और
चारित्रकाभिन्न-भिन्न निरूपण होता है किस प्रकार ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह
चारित्र हैइसप्रकार भेद करके (इस शास्त्रमें) जो गाथासूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें
दर्शन-ज्ञान-चारित्रके लक्षण ज्ञात होंगे
[अब, चौथी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
है नियम मोक्ष - उपाय, उसका फल परम निर्वाण है
इन तीनका ही भेदपूर्वक भिन्न-भिन्न विधान है ।।।।

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[श्लोेकार्थ :] मुनियोंको मोक्षका उपाय शुद्धरत्नत्रयात्मक (शुद्धरत्नत्रय-
परिणतिरूप परिणमित) आत्मा है ज्ञान इससे कोई अन्य नहीं है, दर्शन भी इससे अन्य
नहीं है और शील (चारित्र) भी अन्य नहीं है यह, मोक्षको प्राप्त करनेवालोंने
(अर्हन्तभगवन्तोंने) कहा है इसे जानकर जो जीव माताके उदरमें पुनः नहीं आता, वह
भव्य है ११
गाथा : ५ अन्वयार्थ :[आप्तागमतत्त्वानां ] आप्त, आगम और तत्त्वोंकी
[श्रद्धानात् ] श्रद्धासे [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व [भवति ] होता है; [व्यपगताशेषदोषः ]
जिसके अशेष (समस्त) दोष दूर हुए हैं ऐसा जो [सक लगुणात्मा ] सकलगुणमय पुरुष
[आप्तः भवेत् ] वह आप्त है
टीका :यह, व्यवहारसम्यक्त्वके स्वरूपका कथन है
आप्त अर्थात् शंकारहित शंका अर्थात् सकल मोहरागद्वेषादिक (दोष) आगम
अर्थात् आप्तके मुखारविन्दसे निकली हुई, समस्त वस्तुविस्तारका स्थापन करनेमें समर्थ ऐसी
(मन्दाक्रान्ता)
मोक्षोपायो भवति यमिनां शुद्धरत्नत्रयात्मा
ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं
द्रष्टिरन्याऽपि नैव
शीलं तावन्न भवति परं मोक्षुभिः प्रोक्त मेतद्
बुद्धवा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुः स भव्यः
।।११।।
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं
ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ।।।।
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम्
व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ।।।।
व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत
आप्तः शंकारहितः शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः आगमः तन्मुखारविन्द-
विनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुरवचनसन्दर्भः तत्त्वानि च बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्व-
रे ! आप्त - आगम - तत्त्वका श्रद्धान वह सम्यक्त्व है
निःशेषदोषविहीन जो गुणसकलमय सो आप्त है ।।।।

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परमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति
तेषां सम्यक्श्रद्धानं व्यवहारसम्यक्त्वमिति
(आर्या)
भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्ति रत्र न समस्ति
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ।।१२।।
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू
सेदं खेद मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो ।।।।
क्षुधा तृष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रुजा मृत्युः
स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ।।।।
चतुर वचनरचना । तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्मतत्त्व ऐसे (दो) भेदोंवाले
हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदोंके कारण सात
प्रकारके हैं
उनका (आप्तका, आगमका और तत्त्वका) सम्यक् श्रद्धान सो
व्यवहारसम्यक्त्व है
[अब, पाँचवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
[श्लोेकार्थ :] भवके भयका भेदनकरनेवाले इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति
नहीं है ? तो तू भवसमुद्रके मध्यमें रहनेवाले मगरके मुखमें है १२
गाथा : ६ अन्वयार्थ :[क्षुधा ] क्षुधा, [तृष्णा ] तृषा, [भयं ] भय,
[रोषः ] रोष (क्रोध), [रागः ] राग, [मोहः ] मोह, [चिन्ता ] चिन्ता, [जरा ] जरा,
[रुजा ] रोग, [मृत्युः ] मृत्यु, [स्वेदः ] स्वेद (पसीना), [खेदः ] खेद, [मदः ] मद,
[रतिः ] रति, [विस्मयनिद्रे ] विस्मय, निद्रा, [जन्मोद्वेगौ ] जन्म और उद्वेग
(यह
अठारह दोष हैं )
है दोष अष्टादश कहे रति, मोह, चिन्ता, मद, जरा
भय, दोष, राग, रु जन्म, निद्रा, रोग, खेद, क्षुधा, तृषा ।।।।

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अष्टादशदोषस्वरूपाख्यानमेतत
असातावेदनीयतीव्रमंदक्लेशकरी क्षुधा असातावेदनीयतीव्रतीव्रतरमंदमंदतरपीडया
समुपजाता तृषा इहलोकपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदनाकस्मिकभेदात् सप्तधा भवति भयम्
क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च; दानशीलोपवासगुरुजनवैयावृत्त्या-
दिसमुद्भवः प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्त विकथालापाकर्णनकौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः
चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं
टीका :यह, अठारह दोषोंके स्वरूपका कथन है
(१) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र अथवा मंद क्लेशकी करनेवाली वह क्षुधा
है (अर्थात् विशिष्टखास प्रकारकेअसातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो
विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष जाकर मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो
खानेकी इच्छारूप दुःख वह क्षुधा है)
(२) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र, तीव्रतर
(अधिक तीव्र), मन्द अथवा मन्दतर पीड़ासे उत्पन्न होनेवाली वह तृषा है (अर्थात्
विशिष्ट असातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष
जाक र करनेसे मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो पीनेकी इच्छारूप दुःख वह तृषा
है)
(३) इस लोकका भय, परलोकका भय, अरक्षाभय, अगुप्तिभय, मरणभय,
वेदनाभय तथा अकस्मातभय इसप्रकार भय सात प्रकारके हैं (४) क्रोधी पुरुषका
तीव्र परिणाम वह रोष है (५) राग प्रशस्त और अप्रशस्त होता है; दान, शील, उपवास
तथा गुरुजनोंकी वैयावृत्त्य आदिमें उत्पन्न होनेवाला वह प्रशस्त राग है और स्त्री सम्बन्धी,
राजा सम्बन्धी, चोर सम्बन्धी तथा भोजन सम्बन्धी विकथा कहने तथा सुननेके
कौतूहलपरिणाम वह अप्रशस्त राग है
(६)चार प्रकारके श्रमणसंघके प्रति वात्सल्य
सम्बन्धी मोह वह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त ही है (७) धर्मरूप
तथा शुक्लरूप चिन्तन (चिन्ता, विचार) प्रशस्त है और उसके अतिरिक्त (आर्तरूप
तथा रौद्ररूप चिन्तन) अप्रशस्त ही है (८) तिर्यंचों तथा मनुष्योंको वयकृत देहविकार
१ श्रमणके चार प्रकार इसप्रकार हैंः(१) ऋषि, (२) मुनि, (३) यति और (४) अनगार ऋद्धिवाले
श्रमण वे ऋषि हैं; अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अथवा केवलज्ञानवाले श्रमण वे मुनि हैं; उपशमक अथवा
क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ श्रमण वे यति हैं; और सामान्य साधु वे अनगार हैं
ऐसे चार प्रकारका श्रमणसंघ
है