Page 194 of 388
PDF/HTML Page 221 of 415
single page version
न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः ।।१३५।।
क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् ।
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६।।
[श्लोकार्थ : — ] अप्रमत्त योगीको वही एक आचार है, वही एक आवश्यक क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है ।’’
और (इस १००वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] मेरे सहज सम्यग्दर्शनमें, शुद्ध ज्ञानमें, चारित्रमें, सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्मद्वंद्वके संन्यासकालमें (अर्थात् प्रत्याख्यानमें), संवरमें और शुद्ध योगमें ( – शुद्धोपयोगमें) वह परमात्मा ही है (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि सभीका आश्रय – अवलम्बन शुद्धात्मा ही है ); मुक्तिकी प्राप्तिके लिये जगतमें अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है, नहीं है ।१३५।
[श्लोकार्थ : — ] जो कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखाई देता है, तथा कभी अनिर्मल दिखाई देता है और इससे अज्ञानीके लिये जो गहन है, वही — कि जिसने निजज्ञानरूपी दीपक से पापतिमिरको नष्ट किया है वह (आत्मतत्त्व) ही सत्पुरुषोंके हृदयकमलरूपी घरमें निश्चलरूपसे संस्थित है ।१३६।
Page 195 of 388
PDF/HTML Page 222 of 415
single page version
सनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहार- नयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्रार्थितमपि स्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रय-
गाथा : १०१ अन्वयार्थ : — [जीवः एकः च ] जीव अकेला [म्रियते ] मरता है [च ] और [स्वयम् एकः ] स्वयं अकेला [जीवति ] जन्मता है; [एकस्य ] अकेलेका [मरणं जायते ] मरण होता है और [एकः ] अकेला [नीरजाः ] रज रहित होता हुआ [सिध्यति ] सिद्ध होता है ।
टीका : — यहाँ ( – इस गाथामें), संसारावस्थामें और मुक्तिमें जीव निःसहाय है ऐसा कहा है ।
नित्य मरणमें (अर्थात् प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्मके निषेकोंके क्षयमें) और उस भव सम्बन्धी मरणमें, (अन्य किसीकी) सहायताके बिना व्यवहारसे (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीयविभावव्यंजनपर्यायरूप नरनारकादिपर्यायोंकी उत्पत्तिमें, आसन्न - अनुपचरित - असद्भूत - व्यवहारनयके कथनसे (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है । सर्व बन्धुजनोंसे रक्षण किया जाने पर भी, महाबलपराक्रमवाले जीवका अकेलेका ही, अनिच्छित होने पर भी, स्वयमेव मरण होता
Page 196 of 388
PDF/HTML Page 223 of 415
single page version
निश्चयशुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति ।
भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम् ।
स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ।।’’
तथा हि — है; (जीव) अकेला ही परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चयशुक्लध्यानके बलसे निज आत्माको ध्याकर रजरहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है ।
स्वयं संसारमें भ्रमता है तथा स्वयं संसारसे मुक्त होता है ।’’
और श्री सोमदेवपंडितदेवने (यशस्तिलकचंपूकाव्यमें दूसरे अधिकारमें एकत्वानुप्रेक्षाका वर्णन करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] स्वयं किये हुए कर्मके फलानुबन्धको स्वयं भोगनेके लिये तू अकेला जन्ममें तथा मृत्युमें प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्रीपुत्रमित्रादिक) सुखदुःखके प्रकारोंमें बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविकाके लिये (मात्र अपने स्वार्थके लिये स्त्रीपुत्रमित्रादिक) ठगोंकी टोली तुझे मिली है ।’’
और (इस १०१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
Page 197 of 388
PDF/HTML Page 224 of 415
single page version
कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दुःखम् ।
देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ।।१३७।।
[श्लोकार्थ : — ] जीव अकेला प्रबल दुष्कृतसे जन्म और मृत्युको प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र मोहके कारण स्वसुखसे विमुख होता हुआ कर्मद्वंद्वजनित फलमय ( – शुभ और अशुभ कर्मके फलरूप) सुन्दर सुख और दुःखको बारम्बार भोगता है; जीव अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्वको ( – अवर्णनीय परम चैतन्यतत्त्वको) प्राप्त करके उसमें स्थित रहता है । १३७ ।
गाथा : १०२ अन्वयार्थ : — [ज्ञानदर्शनलक्षणः ] ज्ञानदर्शनलक्षणवाला [शाश्वतः ] शाश्वत [एकः ] एक [आत्मा ] आत्मा [मे ] मेरा है; [शेषाः सर्वे ] शेष सब [संयोगलक्षणाः भावाः ] संयोगलक्षणवाले भाव [मे बाह्याः ] मुझसे बाह्य हैं ।
त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होनेसे निरावरण - ज्ञानदर्शनलक्षणसे लक्षित ऐसा जो कारणपरमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवनके वृक्षोंकी जड़के आसपास क्यारियोंमें
Page 198 of 388
PDF/HTML Page 225 of 415
single page version
भूतद्रव्यभावकर्माभावादेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहल- निर्मुक्त सहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति, यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; ये शुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः, स्वस्वरूपाद्बाह्यास्ते सर्वे; इति मम निश्चयः ।
सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः ।
पानी भरनेके लिये जलप्रवाहसे परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्तिमें हेतुभूत द्रव्यकर्म - भावकर्म रहित होनेसे एक है, और वही (कारणपरमात्मा) समस्त क्रियाकाण्डके आडम्बरके विविध विकल्परूप कोलाहलसे रहित सहजशुद्ध - ज्ञानचेतनाको अतीन्द्रियरूपसे भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूपसे रहता है; जो शुभाशुभ कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य - अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूपसे बाह्य हैं । — ऐसा मेरा निश्चय है ।
[अब इस १०२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] अहो ! मेरा परमात्मा शाश्वत है, एक है, सहज परम चैतन्यचिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनन्त निज दिव्य ज्ञानदर्शनसे समृद्ध है । ऐसा है तो फि र बहु प्रकारके बाह्य भावोंसे मुझे क्या फल है ? १३८।
Page 199 of 388
PDF/HTML Page 226 of 415
single page version
सति यत्किंचिदपि दुश्चरित्रं भवति चेत्तत् सर्वं मनोवाक्कायसंशुद्धया संत्यजामि । सामायिकशब्देन तावच्चारित्रमुक्तं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धयभिधानभेदात्त्रिविधम् । अथवा जघन्यरत्नत्रयमुत्कृष्टं करोमि; नवपदार्थपरद्रव्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं रत्नत्रयं साकारं, तत् स्वस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपस्वभावरत्नत्रयस्वीकारेण निराकारं शुद्धं करोमि इत्यर्थः । किं च, भेदोपचारचारित्रम् अभेदोपचारं करोमि, अभेदोपचारम् अभेदानुपचारं करोमि इति त्रिविधं सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजनिश्चय-
गाथा : १०३ अन्वयार्थ : — [मे ] मेरा [यत् किंचित् ] जो कुछ भी [दुश्चरित्रं ] दुःचारित्र [सर्वं ] उस सर्वको मैं [त्रिविधेन ] त्रिविधसे (मन - वचन - कायासे) [विसृजामि ] छोड़ता हूँ [तु ] और [त्रिविधं सामायिकं ] त्रिविध जो सामायिक ( – चारित्र) [सर्वं ] उस सर्वको [निराकारं करोमि ] निराकार (-निर्विकल्प) करता हूँ ।
मुझे परम – तपोधनको, भेदविज्ञानी होने पर भी, पूर्वसंचित कर्मोंके उदयके कारण चारित्रमोहका उदय होने पर यदि कुछ भी दुःचारित्र हो, तो उस सर्वको मन - वचन - कायाकी संशुद्धिसे मैं सम्यक् प्रकारसे छोड़ता हूँ । ‘सामायिक’ शब्दसे चारित्र कहा है — कि जो (चारित्र) सामायिक, छेदोपस्थापन और परिहारविशुद्धि नामके तीन भेदोंके कारण तीन प्रकारका है । (मैं उस चारित्रको निराकार करता हूँ ।) अथवा मैं जघन्य रत्नत्रयको उत्कृष्ट करता हूँ; नव पदार्थरूप परद्रव्यके श्रद्धान - ज्ञान - आचरणस्वरूप रत्नत्रय साकार ( – सविकल्प) है, उसे निजस्वरूपके श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप स्वभावरत्नत्रयके स्वीकार ( – अंगीकार) द्वारा निराकार – शुद्ध करता हूँ, ऐसा अर्थ है । और (दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो), मैं भेदोपचार चारित्रको अभेदोपचार करता हूँ तथा अभेदोपचार चारित्रको अभेदानुपचार करता हूँ — इसप्रकार त्रिविध सामायिकको ( – चारित्रको)
Page 200 of 388
PDF/HTML Page 227 of 415
single page version
चारित्रं, निराकारतत्त्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति ।
द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् ।
द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।’’
उत्तरोत्तर स्वीकृत (अंगीकृत) करनेसे सहज परम तत्त्वमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चयचारित्र होता है — कि जो (निश्चयचारित्र) निराकार तत्त्वमें लीन होनेसे निराकार चारित्र है ।
इसीप्रकार श्री प्रवचनसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामक) टीकामें (१२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है — इसप्रकार वे दोनों परस्पर अपेक्षासहित हैं; इसलिये या तो द्रव्यका आश्रय करके अथवा तो चरणका आश्रय करके मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्गमें आरोहण करो ।’’
और (इस १०३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जिनकी बुद्धि चैतन्यतत्त्वकी भावनामें आसक्त (रत, लीन) है ऐसे यति यममें प्रयत्नशील रहते हैं (अर्थात् संयममें सावधान रहते हैं ) — कि जो यम ( – संयम) यातनाशील यमके ( – दुःखमय मरणके) नाशका कारण है ।१३९।
Page 201 of 388
PDF/HTML Page 228 of 415
single page version
परिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरम्; सहजवैराग्यपरिणतेः न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति ।
गाथा : १०४ अन्वयार्थ : — [सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [मे ] मुझे [साम्यं ] समता है, [मह्यं ] मुझे [केनचित् ] किसीके साथ [वैरं न ] वैर नहीं है; [नूनम् ] वास्तवमें [आशाम् उत्सृज्य ] आशाको छोड़कर [समाधिः प्रतिपद्यते ] मैं समाधिको प्राप्त करता हूँ ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) अंतर्मुख परम - तपोधनकी भावशुद्धिका कथन है ।
जिसने समस्त इन्द्रियोंके व्यापारको छोड़ा है ऐसे मुझे भेदविज्ञानियों तथा अज्ञानियोंके प्रति समता है; मित्र - अमित्ररूप (मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणतिके अभावके कारण मुझे किसी प्राणीके साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्यपरिणतिके कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभावसंयुक्त परम समाधिका मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधिको प्राप्त करता हूँ ) ।
इसीप्रकार श्री योगीन्द्रदेवने (अमृताशीतिमें २१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
Page 202 of 388
PDF/HTML Page 229 of 415
single page version
स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम् ।
मज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ।।’’
दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम् ।
या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।।१४०।।
निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा ।
मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि ।।१४१।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] हे भाई ! स्वाभाविक बलसम्पन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर, उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवीका स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोहशत्रुका नाश करनेवाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्रको शीघ्र ग्रहण कर ।’’
अब (इस १०४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो (समता) मुक्तिसुन्दरीकी सखी है, जो मोक्षसौख्यका मूल है, जो दुर्भावनारूपी तिमिरसमूहको (नष्ट करनेके लिये) चन्द्रके प्रकाश समान है और जो संयमियोंको निरंतर संमत है, उस समताको मैं अत्यंत भाता हूँ ।१४०।
[श्लोकार्थ : — ] जो योगियोंको भी दुर्लभ है, जो निजाभिमुख सुखके सागरमें ज्वार लानेके लिये पूर्ण चन्द्रकी प्रभा (समान) है, जो परम संयमियोंकी दीक्षारूपी स्त्रीके मनको प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरोंके समूहका तथा तीन लोकका भी अतिशयरूपसे आभूषण है, वह समता सदा जयवन्त है ।१४१।
Page 203 of 388
PDF/HTML Page 230 of 415
single page version
अखिलपरीषहमहाभटविजयोपार्जितनिजशूरगुणस्य निश्चयपरमतपश्चरणनिरतशुद्धभावस्य संसार- दुःखभीतस्य व्यवहारेण चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम् । किं च पुनः व्यवहारप्रत्याख्यानं
गाथा : १०५ अन्वयार्थ : — [निःकषायस्य ] जो निःकषाय है, [दान्तस्य ] १दान्त है, [शूरस्य ] शूरवीर है, [व्यवसायिनः ] व्यवसायी ( – शुद्धताके प्रति उद्यमवन्त) है और [संसारभयभीतस्य ] संसारसे भयभीत है, उसे [सुखं प्रत्याख्यानं ] सुखमय प्रत्याख्यान (अर्थात् निश्चयप्रत्याख्यान) [भवेत् ] होता है ।
टीका : — जो जीव निश्चयप्रत्याख्यानके योग्य हो ऐसे जीवके स्वरूपका यह कथन है ।
जो समस्त कषायकलंकरूप कीचड़से विमुक्त है, सर्व इन्द्रियोंके व्यापार पर विजय प्राप्त कर लेनेसे जिसने परम दान्तरूपता प्राप्त की है, सकल परिषहरूपी महा सुभटोंको जीत लेनेसे जिसने निज शूरगुण प्राप्त किया है, निश्चय - परम - तपश्चरणमें २निरत ऐसा शुद्धभाव जिसे वर्तता है तथा जो संसारदुःखसे भयभीत है, उसे (यथोचित शुद्धता सहित) व्यवहारसे चार आहारके त्यागरूप प्रत्याख्यान है । परन्तु (शुद्धतारहित) व्यवहार - प्रत्याख्यान तो कुदृष्टि ( – मिथ्यात्वी) पुरुषको भी चारित्रमोहके उदयके हेतुभूत द्रव्यकर्म १ – दान्त = जिसने इन्द्रियोंका दमन किया हो ऐसा; जिसने इन्द्रियोंको वश किया हो ऐसा; संयमी । २ – निरत = रत; तत्पर; परायण; लीन ।
Page 204 of 388
PDF/HTML Page 231 of 415
single page version
कुद्रष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदयहेतुभूतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित् संभवति । अत एव निश्चयप्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्यजीवानाम्; यतः स्वर्णनाम- धेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिर्वेगता निश्चय- प्रत्याख्यानस्य कारणं, पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविभावानां परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भवविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्ध- निश्चयप्रत्याख्यानम् इति ।
परमयमिनामेतन्निर्वाणसौख्यकरं परम् ।
मुनिप शृणु ते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ।।१४२।।
-भावकर्मके क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है । इसीलिये निश्चयप्रत्याख्यान अति - आसन्नभव्य जीवोंको हितरूप है; क्योंकि जिसप्रकार ❃सुवर्णपाषाण नामक पाषाण उपादेय है उसीप्रकार अन्धपाषाण नहीं है । इसलिये (यथोचित् शुद्धता सहित) संसार तथा शरीर सम्बन्धी भोगकी निर्वेगता निश्चयप्रत्याख्यानका कारण है और भविष्य कालमें होनेवाले समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विभावोंका परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है अथवा अनागत कालमें उत्पन्न होनेवाले विविध अन्तर्जल्पोंका ( – विकल्पोंका) परित्याग वह शुद्ध निश्चयप्रत्याख्यान है ।
[अब इस १०५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] हे मुनिवर ! सुन; जिनेन्द्रके मतमें उत्पन्न होनेवाला प्रत्याख्यान सतत जयवन्त है । वह प्रत्याख्यान परम संयमियोंको उत्कृष्टरूपसे निर्वाणसुखका करनेवाला है, सहज समतादेवीके सुन्दर कर्णका महा आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी प्रिय स्त्रीके अतिशय यौवनका कारण है ।१४२। ❃ जिस पाषाणमें सुवर्ण होता है उसे सुवर्णपाषाण कहते हैं और जिस पाषाणमें सुवर्ण नहीं होता उसे अंधपाषाण
Page 205 of 388
PDF/HTML Page 232 of 415
single page version
रनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदं भेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति ।
सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः ।
स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ।।१४३।।
गाथा : १०६ अन्वयार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [यः ] जो [नित्यम् ] सदा [जीवकर्मणोः ] जीव और कर्मके [भेदाभ्यासं ] भेदका अभ्यास [करोति ] करता है, [सः संयतः ] वह संयत [नियमात् ] नियमसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [धर्तुं ] धारण करनेको [शक्तः ] शक्तिमान है ।
श्रीमद् अर्हंतके मुखारविंदसे निकले हुए परमागमके अर्थका विचार करनेमें समर्थ ऐसा जो परम संयमी अनादि बन्धनरूप सम्बन्धवाले अशुद्ध अन्तःतत्त्व और कर्मपुद्गलका भेद भेदाभ्यासके बलसे करता है, वह परम संयमी निश्चयप्रत्याख्यान तथा व्यवहारप्रत्याख्यानको स्वीकृत ( – अंगीकृत) करता है ।
[अब, इस निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]
Page 206 of 388
PDF/HTML Page 233 of 415
single page version
द्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः ।
भावयाम्यहमतो जितमोहः ।।१४४।।
भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्टबुद्धेः ।
भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा ।।१४५।।
कथं कांक्षंत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः ।।१४६।।
मैं हूँ’ इसप्रकार मुनिश्वरको मलसे मुक्त होनेके लिये परिपूर्ण सौख्यके निधानभूत निर्मल निज स्वरूपको प्रतिदिन भाना चाहिये ।१४३।
[श्लोकार्थ : — ] घोर संसारमहार्णवकी यह (परम तत्त्व) दैदीप्यमान नौका है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है; इसलिये मैं मोहको जीतकर निरन्तर परम तत्त्वको तत्त्वतः ( – पारमार्थिक रीतिसे) भाता हूँ ।१४४।
[श्लोकार्थ : — ] भ्रान्तिके नाशसे जिसकी बुद्धि सहज - परमानन्दयुक्त चेतनमें निष्ठित ( – लीन, एकाग्र) है ऐसे शुद्धचारित्रमूर्तिको सतत प्रत्याख्यान है । परसमयमें ( – अन्य दर्शनमें) जिनका स्थान है ऐसे अन्य योगियोंको प्रत्याख्यान नहीं होता; उन संसारियोंको पुनःपुनः घोर संसरण ( – परिभ्रमण) होता है ।१४५।
[श्लोकार्थ : — ] जो शाश्वत महा आनन्दानन्द जगतमें प्रसिद्ध है, वह निर्मल गुणवाले सिद्धात्मामें अतिशयरूपसे तथा नियतरूपसे रहता है । (तो फि र,) अरेरे ! यह विद्वान भी कामके तीक्ष्ण शस्त्रोंसे घायल होते हुए क्लेशपीड़ित होकर उसकी (कामकी) इच्छा क्यों करते हैं ! वे जड़बुद्धि हैं ।१४६।
Page 207 of 388
PDF/HTML Page 234 of 415
single page version
सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् ।
यत्किंभूतं सहजसुखदं शीलमूलं मुनीनाम् ।।१४७।।
हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् ।
स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फू र्तिमात्रम् ।।१४८।।
भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् ।
नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ।।१४9।।
[श्लोकार्थ : — ] जो दुष्ट पापरूपी वृक्षोंकी घनी अटवीको जलानेके लिये अग्निरूप है ऐसा प्रगट शुद्ध-शुद्ध सत्चारित्र संयमियोंको प्रत्याख्यानसे होता है; (इसलिये) हे भव्यशार्दूल ! ( – भव्योत्तम !) तू शीघ्र अपनी मतिमें तत्त्वको नित्य धारण कर — कि जो तत्त्व सहज सुखका देनेवाला तथा मुनियोंके चारित्रका मूल है ।१४७।
[श्लोकार्थ : — ] तत्त्वमें निष्णात बुद्धिवाले जीवके हृदयकमलरूप अभ्यंतरमें जो सुस्थित है, वह सहज तत्त्व जयवन्त है । उस सहज तेजने मोहान्धकारका नाश किया है और वह (सहज तेज) निज रसके विस्तारसे प्रकाशित ज्ञानके प्रकाशनमात्र है ।१४८।
[श्लोकार्थ : — ] और, जो (सहज तत्त्व) अखण्डित है, शाश्वत है, सकल दोषसे दूर है, उत्कृष्ट है, भवसागरमें डूबे हुए जीवसमूहको नौका समान है तथा प्रबल संकटोंके समूहरूपी दावानलको (शांत करनेके लिये) जल समान है, उस सहज तत्त्वको मैं प्रमोदसे सतत नमस्कार करता हूँ ।१४९।
Page 208 of 388
PDF/HTML Page 235 of 415
single page version
मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम् ।
प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम् ।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव - विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः षष्ठः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] जो जिनप्रभुके मुखारविंदसे विदित (प्रसिद्ध) है, जो स्वरूपमें स्थित है, जो मुनीश्वरोंके मनोगृहके भीतर सुन्दर रत्नदीपकी भाँति प्रकाशित है, जो इस लोकमें दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियोंसे नमस्कार करने योग्य है तथा जो सुखका मन्दिर है, उस सहज तत्त्वको मैं सदा अत्यन्त नमस्कार करता हूँ । १५० ।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने पापकी राशिको नष्ट किया है, जिसने पुण्यकर्मके समूहको हना है, जिसने मदन ( – काम) आदिको झाड़ दिया है, जो प्रबल ज्ञानका महल है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं, जो प्रकरणके नाशस्वरूप है (अर्थात् जिसे कोई कार्य करना शेष नहीं है — जो कृतकृत्य है ), जो पुष्ट गुणोंका धाम है तथा जिसने मोहरात्रिका नाश किया है, उसे ( – उस सहज तत्त्वको) हम नमस्कार करते हैं । १५१ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार नामका छठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
Page 209 of 388
PDF/HTML Page 236 of 415
single page version
गाथा : १०७ अन्वयार्थ : — [नोकर्मकर्मरहितं ] नोकर्म और कर्मसे रहित तथा [विभावगुणपर्ययैः व्यतिरिक्तम् ] विभावगुणपर्यायोंसे ❃व्यतिरिक्त [आत्मानं ] आत्माको [यः ] जो [ध्यायति ] ध्याता है, [श्रमणस्य ] उस श्रमणको [आलोचना ] आलोचना [भवति ] है ।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वे नोकर्म हैं; ज्ञानावरण, ❃ व्यतिरिक्त = रहित; भिन्न ।
Page 210 of 388
PDF/HTML Page 237 of 415
single page version
वरणांतरायमोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यकर्माणि । कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ता- ग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्त म् । मतिज्ञानादयो विभावगुणा नरनारकादिव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः । सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाश्च । एभिः समस्तैः व्यतिरिक्तं , स्वभावगुणपर्यायैः संयुक्तं, त्रिकालनिरावरणनिरंजन- परमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंच- पराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति ।
त्रिकाल - निरावरण निरंजन परमात्माको त्रिगुप्तिगुप्त ( – तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी) परमसमाधि
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें २२७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] मोहके विलाससे फै ला हुआ जो यह उदयमान ( – उदयमें आनेवाला) कर्म उस समस्तको आलोचकर ( – उन सर्व कर्मोंकी आलोचना करके), मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – स्वयंसे ही) निरंतर वर्तता हूँ ।’’ ❃ शुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनय कर्मोपाधिकी अपेक्षा रहित सत्ताको ही ग्रहण करता है ।
Page 211 of 388
PDF/HTML Page 238 of 415
single page version
शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे ।
नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि ।।१५२।।
और उपासकाध्ययनमें (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डश्रावकाचारमें १२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापोंकी निष्कपटरूपसे आलोचना करके, मरणपर्यंत रहनेवाला, निःशेष ( – परिपूर्ण) महाव्रत धारण करना ।’’
और (इस १०७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] घोर संसारके मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृतको सदा आलोच- आलोचकर मैं निरुपाधिक ( – स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्माको आत्मासे ही अवलम्बता हूँ । फि र द्रव्यकर्मस्वरूप समस्त प्रकृतिको अत्यन्त नष्ट करके सहजविलसती ज्ञानलक्ष्मीको मैं प्राप्त करूँगा ।१५२।
Page 212 of 388
PDF/HTML Page 239 of 415
single page version
ध्वनिपरिज्ञानकुशलचतुर्थज्ञानधरगौतममहर्षिमुखकमलविनिर्गतचतुरसन्दर्भगर्भीकृतराद्धान्तादि- समस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति । ते वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त इति ।
गाथा : १०८ अन्वयार्थ : — [इह ] अब, [आलोचनलक्षणं ] आलोचनाका स्वरूप [आलोचनम् ] १आलोचन, [आलुंछनम् ] २आलुंछन, [अविकृतिकरणम् ] ३अविकृतिकरण [च ] और [भावशुद्धिः च ] ४भावशुद्धि [चतुर्विधं ] ऐसे चार प्रकारका [समये ] शास्त्रमें [परिकथितम् ] कहा है ।
भगवान अर्हंतके मुखारविंदसे निकली हुई, (श्रवणके लिये आई हुई) सकल जनताको श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हो ऐसी, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर - आनन्दझरती), अनक्षरात्मक जो दिव्यध्वनि, उसके परिज्ञानमें कुशल चतुर्थज्ञानधर (मनःपर्ययज्ञानधारी) गौतममहर्षिके मुखकमलसे निकली हुई जो चतुर वचनरचना, उसके गर्भमें विद्यमान राद्धांतादि ( – सिद्धांतादि) समस्त शास्त्रोंके अर्थसमूहके सारसर्वस्वरूप शुद्ध - निश्चय - परम - आलोचनाके चार भेद हैं । वे भेद अब आगे कहे जाने वाले चार सूत्रोंमें कहे जायेंगे ।
[अब इस १०८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ] १ – स्वयं अपने दोषोंको सूक्ष्मतासे देख लेना अथवा गुरुके समक्ष अपने दोषोंका निवेदन करना सो व्यवहार –
आलोचन है । निश्चय – आलोचनका स्वरूप १०९ वीं गाथामें कहा जायेगा । २ – आलुंछन = (दोषोंका) आलुंचन अर्थात् उखाड़ देना वह । ३ – अविकृतिकरण = विकाररहितता करना वह । ४ – भावशुद्धि = भावोंको शुद्ध करना वह ।
Page 213 of 388
PDF/HTML Page 240 of 415
single page version
मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् ।
तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय ।।१५३।।
थिनीनाथः सदान्तर्मुखाकारमत्यपूर्वं निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरव-
[श्लोकार्थ : — ] मुक्तिरूपी रमणीके संगमके हेतुभूत ऐसे इन आलोचनाके भेदोंको जानकर जो भव्य जीव वास्तवमें निज आत्मामें स्थिति प्राप्त करता है, उस स्वात्मनिष्ठितको ( – उस निजात्मामें लीन भव्य जीवको) नमस्कार हो । १५३ ।
गाथा : १०९ अन्वयार्थ : — [यः ] जो (जीव) [परिणामम् ] परिणामको [समभावे ] समभावमें [संस्थाप्य ] स्थापकर [आत्मानं ] (निज) आत्माको [पश्यति ] देखता है, [आलोचनम् ] वह आलोचन है । [इति ] ऐसा [परमजिनेन्द्रस्य ] परम जिनेन्द्रका [उपदेशम् ] उपदेश [जानीहि ] जान ।
सहजवैराग्यरूपी अमृतसागरके फे न - समूहके श्वेत शोभामण्डलकी वृद्धिके हेतुभूत पूर्ण चन्द्र समान (अर्थात् सहज वैराग्यमें ज्वार लाकर उसकी उज्ज्वलता बढ़ानेवाला) जो जीव सदा अंतर्मुखाकार ( – सदा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), अति अपूर्व, निरंजन