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(
नहीं है
है, वही
न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः
क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम्
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अकेलेका [मरणं जायते ] मरण होता है और [एकः ] अकेला [नीरजाः ] रज रहित
होता हुआ [सिध्यति ] सिद्ध होता है
अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीयविभावव्यंजनपर्यायरूप
नरनारकादिपर्यायोंकी उत्पत्तिमें, आसन्न
नयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव
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निज आत्माको ध्याकर रजरहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है
प्रकारोंमें बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविकाके लिये (मात्र अपने स्वार्थके
लिये स्त्रीपुत्रमित्रादिक) ठगोंकी टोली तुझे मिली है
भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम्
स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते
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(
सब [संयोगलक्षणाः भावाः ] संयोगलक्षणवाले भाव [मे बाह्याः ] मुझसे बाह्य हैं
कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दुःखम्
देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन्
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हेतुभूत द्रव्यकर्म
कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य
निर्मुक्त सहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति,
यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात
निश्चयः
सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः
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(
चारित्रको अभेदानुपचार करता हूँ
साकारं, तत
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निश्चयचारित्र होता है
द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम्
द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य
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[नूनम् ] वास्तवमें [आशाम् उत्सृज्य ] आशाको छोड़कर [समाधिः प्रतिपद्यते ] मैं
समाधिको प्राप्त करता हूँ
मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभावसंयुक्त परम समाधिका मैं आश्रय
करता हूँ (अर्थात् परम समाधिको प्राप्त करता हूँ )
परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति
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इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्रको शीघ्र ग्रहण कर
संयमियोंको निरंतर संमत है, उस समताको मैं अत्यंत भाता हूँ
मनको प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरोंके समूहका तथा तीन लोकका भी अतिशयरूपसे
आभूषण है, वह समता सदा जयवन्त है
स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम्
मज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि
दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम्
या संमता भवति संयमिनामजस्रम्
निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा
मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि
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प्रत्याख्यान (अर्थात् निश्चयप्रत्याख्यान) [भवेत् ] होता है
सुभटोंको जीत लेनेसे जिसने निज शूरगुण प्राप्त किया है, निश्चय
सहित) व्यवहारसे चार आहारके त्यागरूप प्रत्याख्यान है
दुःखभीतस्य व्यवहारेण चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम्
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होनेवाले समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विभावोंका परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है
अथवा अनागत कालमें उत्पन्न होनेवाले विविध अन्तर्जल्पोंका (
अतिशय यौवनका कारण है
धेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति
परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भवविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्ध-
निश्चयप्रत्याख्यानम् इति
परमयमिनामेतन्निर्वाणसौख्यकरं परम्
मुनिप शृणु ते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम्
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संयतः ] वह संयत [नियमात् ] नियमसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [धर्तुं ] धारण करनेको
[शक्तः ] शक्तिमान है
भेद भेदाभ्यासके बलसे करता है, वह परम संयमी निश्चयप्रत्याख्यान तथा
व्यवहारप्रत्याख्यानको स्वीकृत (
स्वीकरोतीति
सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः
स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै
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निज स्वरूपको प्रतिदिन भाना चाहिये
(
इच्छा क्यों करते हैं ! वे जड़बुद्धि हैं
द्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः
भावयाम्यहमतो जितमोहः
भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्टबुद्धेः
भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा
कथं कांक्षंत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः
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हे भव्यशार्दूल ! (
संकटोंके समूहरूपी दावानलको (शांत करनेके लिये) जल समान है, उस सहज तत्त्वको
मैं प्रमोदसे सतत नमस्कार करता हूँ
सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम्
यत्किंभूतं सहजसुखदं शीलमूलं मुनीनाम्
हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत
स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फू र्तिमात्रम्
भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम्
नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा
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लोकमें दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियोंसे नमस्कार करने योग्य है तथा जो
सुखका मन्दिर है, उस सहज तत्त्वको मैं सदा अत्यन्त नमस्कार करता हूँ
करना शेष नहीं है
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम्
प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम्
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[भवति ] है
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त्रिकाल
पराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति
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शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे
नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि
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गौतममहर्षिके मुखकमलसे निकली हुई जो चतुर वचनरचना, उसके गर्भमें विद्यमान
राद्धांतादि (
समस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति
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स्वात्मनिष्ठितको (
देखता है, [आलोचनम् ] वह आलोचन है
जीव सदा अंतर्मुखाकार (
मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम्
तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय