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शेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति; किं कृत्वा ? पूर्वं निज- परिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति ।
यो मुक्ति श्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति ।
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम् ।।१५४।।
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः ।
निजबोधके स्थानभूत कारणपरमात्माको निरवशेषरूपसे अन्तर्मुख निज स्वभावनिरत सहज – अवलोकन द्वारा निरंतर देखता है (अर्थात् जो जीव कारणपरमात्माको सर्वथा अन्तर्मुख ऐसा जो निज स्वभावमें लीन सहज - अवलोकन उसके द्वारा निरंतर देखता है — अनुभवता है ); क्या करके देखता है ? पहले निज परिणामको समतावलम्बी करके, परमसंयमीभूतरूपसे रहकर देखता है; वही आलोचनाका स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथके उपदेश द्वारा जान । — ऐसा यह, आलोचनाके भेदोंमें प्रथम भेद हुआ ।
[अब इस १०९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार जो आत्मा आत्माको आत्मा द्वारा आत्मामें अविचल निवासवाला देखता है, वह अनंग - सुखमय (अतीन्द्रिय आनन्दमय) ऐसे मुक्तिलक्ष्मीके विलासोंको अल्प कालमें प्राप्त करता है । वह आत्मा सुरेशोंसे, संयमधरोंकी पंक्तियोंसे, खेचरोंसे ( – विद्याधरोंसे) तथा भूचरोंसे ( – भूमिगोचरियोंसे) वंद्य है । मैं उस सर्ववंद्य सकलगुणनिधिको ( – सर्वसे वंद्य ऐसे समस्त गुणोंके भण्डारको) उसके गुणोंकी अपेक्षासे ( – अभिलाषासे) वंदन करता हूँ ।१५४।
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न्नारातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः ।।१५५।।
विमुक्त सकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम् ।
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ।।१५६।।
बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति ।
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम् ।।१५७।।
जो पुराण ( – सनातन) है ऐसा आत्मा परमसंयमियोंके चित्तकमलमें स्पष्ट है । वह आत्मा संसारी जीवोंके वचन - मनोमार्गसे अतिक्रांत ( – वचन तथा मनके मार्गसे अगोचर) है । इस निकट परमपुरुषमें विधि क्या और निषेध क्या ? १५५।
इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वरने वास्तवमें व्यवहार - आलोचनाके प्रपंचका १उपहास किया है ।
[श्लोकार्थ : — ] जो सकल इन्द्रियोंके समूहसे उत्पन्न होनेवाले कोलाहलसे विमुक्त है, जो नय और अनयके समूहसे दूर होने पर भी योगियोंको गोचर है, जो सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियोंको परम दूर है, ऐसा यह २अनघ - चैतन्यमय सहजतत्त्व अत्यन्त जयवन्त है ।१५६।
[श्लोकार्थ : — ] निज सुखरूपी सुधाके सागरमें डूबते हुए इस शुद्धात्माको १ – उपहास = हँसी; मजाक; खिल्ली; तिरस्कार । २ – अनघ = निर्दोष; मल रहित; शुद्ध ।
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निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्त म् ।
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय ।।१५८।।
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि ।
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्त म् ।।१५९।।
अभावकी दृष्टिसे जो सिद्धिसे उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी
(अद्भुत) सहज तत्त्वको मैं भी सदा अति - अपूर्व रीतिसे अत्यन्त भाता हूँ ।१५७।
[श्लोकार्थ : — ] सर्व संगसे निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभावसे मुक्त ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं निर्वाणरूपी स्त्रीसे उत्पन्न होनेवाले अनंग सुखके लिये नित्य संभाता हूँ ( – सम्यक्रूपसे भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ ।१५८।
[श्लोकार्थ : — ] निज भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्रको मैं भाता हूँ । संसारसागरको तर जानेके लिये, अभेद कहे हुए ( – जिसे जिनेन्द्रोंने भेद रहित कहा है ऐसे) मुक्तिके मार्गको भी मैं नित्य नमन करता हूँ ।१५९।
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स्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः । अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम्, इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्मविषवृक्ष- मूलनिर्मूलनसमर्थः त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मो- दयबलेन कुद्रष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव । नित्यनिगोदक्षेत्र- ज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति ।
गाथा : ११० अन्वयार्थ : — [कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः ] कर्मरूपी वृक्षका मूल छेदनेमें समर्थ ऐसा जो [समभावः ] समभावरूप [स्वाधीनः ] स्वाधीन [स्वकीयपरिणामः ] निज परिणाम [आलुंछनम् इति समुद्दिष्टम् ] उसे आलुञ्छन कहा है ।
भव्यको पारिणामिकभावरूप स्वभाव होनेके कारण परम स्वभाव है । वह पंचम भाव औदयिकादि चार विभावस्वभावोंको अगोचर है । इसीलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोंसे रहित है । इस कारणसे इस एकको परमपना है, शेष चार विभावोंको अपरमपना है । समस्त कर्मरूपी विषवृक्षके मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा यह परमभाव, त्रिकाल - निरावरण निज कारणपरमात्माके स्वरूपकी श्रद्धासे प्रतिपक्ष तीव्र मिथ्यात्वकर्मके उदयके कारण कुदृष्टिको, सदा निश्चयसे विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टिको उस परमभावके विद्यमानपनेकी श्रद्धा नहीं है ) । नित्यनिगोदके जीवोंको भी शुद्धनिश्चयनयसे वह परमभाव ‘अभव्यत्वपारिणामिक’ ऐसे नाम सहित नहीं है (परन्तु शुद्धरूपसे ही है ) । जिसप्रकार मेरुके अधोभागमें स्थित सुवर्णराशिको भी सुवर्णपना है, उसीप्रकार अभव्योंको भी परमस्वभावपना है; वह वस्तुनिष्ठ है, व्यवहारयोग्य नहीं है (अर्थात् जिसप्रकार मेरुके नीचे स्थित सुवर्णराशिका सुवर्णपना सुवर्णराशिमें विद्यमान है किन्तु वह काममें — उपयोगमें नहीं आता, उसीप्रकार अभव्योंका परमस्वभावपना आत्मवस्तुमें विद्यमान है किन्तु वह काममें नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परमस्वभावका आश्रय करनेके
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यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं, न व्यवहारयोग्यम् । सुद्रशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्; यतः सकलकर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवा- लुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति ।
कर्मारातिस्फु टितसहजावस्थया संस्थितो यः ।
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ।।१६०।।
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा ।
मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति ।।१६१।।
लिये अयोग्य हैं ) । सुदृष्टियोंको — अति आसन्नभव्य जीवोंको — यह परमभाव सदा निरंजनपनेके कारण (अर्थात् सदा निरंजनरूपसे प्रतिभासित होनेके कारण) सफल हुआ है; जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति - आसन्नभव्य जीवको निश्चय - परम - आलोचनाके भेदरूपसे उत्पन्न होनेवाला ‘आलुंछन’ नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम - विषवृक्षके विशाल मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ है ।
[अब इस ११०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो कर्मकी दूरीके कारण प्रगट सहजावस्थापूर्वक विद्यमान है, जो आत्मनिष्ठापरायण (आत्मस्थित) समस्त मुनियोंको मुक्तिका मूल है, जो एकाकार है (अर्थात् सदा एकरूप है ), जो निज रसके फै लावसे भरपूर होनेके कारण पवित्र है और जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध - शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवन्त है ।१६०।
[श्लोकार्थ : — ] अनादि संसारसे समस्त जनताको ( – जनसमूहको) तीव्र मोहके उदयके कारण ज्ञानज्योति सदा मत्त है, कामके वश है और निज आत्मकार्यमें
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यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-[निलयं मध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति । मूढ़ है । मोहके अभावसे यह ज्ञानज्योति शुद्धभावको प्राप्त करती है — कि जिस शुद्धभावने दिशामण्डलको धवलित ( – उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है ।१६१।
गाथा : १११ अन्वयार्थ : — [मध्यस्थभावनायाम् ] जो मध्यस्थभावनामें [कर्मणः भिन्नम् ] कर्मसे भिन्न [आत्मानं ] आत्माको — [विमलगुणनिलयं ] कि जो विमल गुणोंका निवास है उसे — [भावयति ] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम् ] उस जीवको अविकृतिकरण जानना ।
टीका : — यहाँ शुद्धोपयोगी जीवकी परिणतिविशेषका (मुख्य परिणतिका) कथन है ।
पापरूपी अटवीको जलानेके लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न आत्माको — कि जो सहज गुणोंका निधान है उसे — मध्यस्थभावनामें भाता है, उसे अविकृतिकरण-नामक परम - आलोचनाका स्वरूप वर्तता ही है ।
[अब इस १११वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ श्लोक कहते हैं : ]
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रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः ।
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ।।१६२।।
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः ।
ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ।।१६३।।
र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने ।
यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ।।१६४।।
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा निरंतर द्रव्यकर्म और नोकर्मके समूहसे भिन्न है, अन्तरंगमें शुद्ध है और शम - दमगुणरूपी कमलोंका राजहंस है (अर्थात् जिसप्रकार राजहंस कमलोंमें केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणोंमें रमता है ) । सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्यचमत्कारकी मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोहके अभावके कारण समस्त परको ( – समस्त परद्रव्यभावोंको) ग्रहण नहीं ही करता ।१६२।
[श्लोकार्थ : — ] जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियोंका समूह है, जिसने सदा विशद - -विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृतके समुद्रमें पापकलंकको धो डाला है तथा जिसने इन्द्रियसमूहके कोलाहलको नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा अंधकारदशाका नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।१६३।
[श्लोकार्थ : — ] संसारके घोर, ❃सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिकसे प्रतिदिन परितप्त ❃ सहज = साथमें उत्पन्न अर्थात् स्वाभाविक । [निरंतर वर्तता हुआ आकुलतारूपी दुःख तो संसारमें स्वाभाविक
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तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात् ।
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ।।१६५।।
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फु टं तद्विदित्वा ।
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ।।१६८।।
होनेवाले इस लोकमें यह मुनिवर समताके प्रमादसे शमामृतमय जो हिम - राशि (बफ र्का ढेर) उसे प्राप्त करते हैं ।१६४।
[श्लोकार्थ : — ] मुक्त जीव विभावसमूहको कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृतका नाश किया है । इसलिये अब मैं सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्मजालको छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग पर जाता हूँ [अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ ] ।१६५।
[श्लोकार्थ : — ] पुद्गलस्कन्धों द्वारा जो अस्थिर है (अर्थात् पुद्गलस्कन्धोंके आने - जानेसे जो एक-सी नहीं रहती) ऐसी इस भवमूर्तिको ( – भवकी मूर्तिरूप कायाको) छोड़कर मैं सदाशुद्ध ऐसा जो ज्ञानशरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ । १६६ ।
[श्लोकार्थ : — ] शुभ और अशुभसे रहित शुद्धचैतन्यकी भावना मेरे अनादि संसाररोगकी उत्तम औषधि है ।१६७।
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न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् ।
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः ।
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।।
परावर्तनरूप) संसारका मूल विविध भेदोंवाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो जन्ममरण रहित है और पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे ( – शुद्धात्माको) मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ ।१६८।
[श्लोकार्थ : — ] इस प्रकार आदि - अन्त रहित ऐसी यह आत्मज्योति सुललित (सुमधुर) वाणीका अथवा सत्य वाणीका भी विषय नहीं है; तथापि गुरुके वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका पति होता है ) ।१६९।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने सहज तेजसे रागरूपी अन्धकारका नाश किया है, जो मुनिवरोंके मनमें वास करता है, जो शुद्ध - शुद्ध है, जो विषयसुखमें रत जीवोंको सर्वदा दुर्लभ है, जो परम सुखका समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है तथा जिसने निद्राका नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध आत्मा) जयवन्त है ।१७०।
— ‘है भावशुद्धि मान, माया, लोभ, मद बिन भाव जो’ ।।११२।।
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भावशुद्धयभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिकारोप- संहारोपन्यासोऽयम् ।
तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुंवेदाभिधाननोकषायविलासो मदः । अत्र मदशब्देन मदनः कामपरिणाम इत्यर्थः । चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धया वा, शतसहस्रकोटिभटाभिधान- प्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपद्वृद्धिविलासेन, अथवा बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणर्द्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्य- रसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः । गुप्तपापतो माया । युक्त स्थले धनव्ययाभावो लोभः;
गाथा : ११२ अन्वयार्थ : — [मदमानमायालोभविवर्जितभावः तु ] मद (मदन), मान, माया और लोभ रहित भाव वह [भावशुद्धिः ] भावशुद्धि है [इति ] ऐसा [भव्यानाम् ] भव्योंको [लोकालोकप्रदर्शिभिः ] लोकालोकके द्रष्टाओंने [परिकथितः ] कहा है ।
टीका : — यह, भावशुद्धिनामक परम - आलोचनाके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा शुद्ध- निश्चय - आलोचना अधिकारके उपसंहारका कथन है ।
तीव्र चारित्रमोहके उदयके कारण पुरुषवेद नामक नोकषायका विलास वह मद है । यहाँ ‘मद’ शब्दका अर्थ ‘मदन’ अर्थात् कामपरिणाम है । (१) चतुर वचनरचनावाले ❃
(२) माता - पिता सम्बन्धी कुल - जातिकी विशुद्धिसे, (३) प्रधान ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा उपार्जित लक्षकोटि सुभट समान निरुपम बलसे, (४) दानादि शुभ कर्म द्वारा उपार्जित सम्पत्तिकी वृद्धिके विलाससे, (५) बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल और अक्षीण — इन सात ऋद्धियोंसे, अथवा (६) सुन्दर कामिनियोंके लोचनको आनन्द प्राप्त करानेवाले शरीरलावण्यरसके विस्तारसे होनेवाला जो आत्म - अहङ्कार (आत्माका अहंकारभाव) वह मान है । गुप्त पापसे माया होती है । योग्य स्थान पर धनव्ययका अभाव वह लोभ है; ❃ वैदर्भकवि = एक प्रकारकी साहित्यप्रसिद्ध सुन्दर काव्यरचनामें कुशल कवि
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निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्र- द्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्त : शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्य- प्राणिनां लोकालोकप्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्भिरर्हद्भिरभिहित इति ।
परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७१।।
निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम् ।
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२।।
निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसे निरंजन निज परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है । — इन चारों भावोंसे परिमुक्त ( – रहित) शुद्धभाव वही भावशुद्धि है ऐसा भव्य जीवोंको लोकालोकदर्शी, परमवीतराग सुखामृतके पानसे परितृप्त अर्हंतभगवन्तोंने कहा है ।
[अब इस परम - आलोचना अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो भव्य लोक (भव्यजनसमूह) जिनपतिके मार्गमें कहे हुए समस्त आलोचनाके भेदजालको देखकर तथा निज स्वरूपको जानकर सर्व ओरसे परभावको छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका पति होता है ) ।१७१।
[श्लोकार्थ : — ] संयमियोंको सदा मोक्षमार्गका फल देनेवाली तथा शुद्ध आत्मतत्त्वमें ❃नियत आचरणके अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे संयमीको वास्तवमें कामधेनुरूप हो ।१७२। ❃ नियत = निश्चित; दृढ; लीन; परायण । [आचरण शुद्ध आत्मतत्त्वके आश्रित होता है । ]
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बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः ।
सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।१७३।।
निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् ।
तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम् ।।१७४।।
विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि ।
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम् ।।१७५।।
[श्लोकार्थ : — ] मुमुक्षु जीव तीन लोकको जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्वको भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धिके हेतु शुद्ध शीलका (चारित्रका) आचरण करके, सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है — सिद्धिको प्राप्त करता है ।१७३।
[श्लोकार्थ : — ] तत्त्वमें मग्न ऐसे जिनमुनिके हृदयकमलकी केसरमें जो आनन्द सहित विराजमान है, जो बाधा रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेवके बाणोंकी गहन ( – दुर्भेद्य) सेनाको जला देनेके लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियोंके मनोगृहके घोर अंधकारका नाश किया है, उसे — साधुओं द्वारा वंद्य तथा जन्मार्णवको लाँघ जानेमें नौकारूप उस शुद्ध तत्त्वको — मैं वंदन करता हूँ ।१७४।
[श्लोकार्थ : — ] हम पूछते हैं कि — जो समग्र बुद्धिमान होने पर भी दूसरेको ‘यह नवीन पाप कर’ ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तवमें तपस्वी हैं ? अहो ! खेद है
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सततसुलभं भास्वत्सम्यग्द्रशां समतालयम् ।
स्फु टितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ।।१७६।।
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् ।
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।।
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः ।
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः ।।१७८।।
कि वे हृदयमें विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम ❃पिंडरूप इस पदको जानकर पुनः भी सरागताको प्राप्त होते हैं ! १७५।
[श्लोकार्थ : — ] तत्त्वोंमें वह सहज तत्त्व जयवन्त है — कि जो सदा अनाकुल है, जो निरन्तर सुलभ है, जो प्रकाशमान है, जो सम्यग्दृष्टियोंको समताका घर है, जो परम कला सहित विकसित निज गुणोंसे प्रफु ल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था स्फु टित ( – प्रकटित) है और जो निरन्तर निज महिमामें लीन है ।१७६।
[श्लोकार्थ : — ] सात तत्त्वोंमें सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल - विमल (सर्वथा विमल) ज्ञानका आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय) है, स्पष्ट - स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख है और मुनिको भी मनसे तथा वाणीसे अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं ।१७७।
[श्लोकार्थ : — ] जो (जिन) शान्त रसरूपी अमृतके समुद्रको (उछालनेके ❃ पिंड = (१) पदार्थ; (२) बल ।
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प्रहतदारुणरागकदम्बकः ।
जयति यः परमात्मपदस्थितः ।।१७९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमालोचनाधिकारः सप्तमः श्रुतस्कन्धः ।। लिये) प्रतिदिन उदयमान सुन्दर चन्द्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे मोहतिमिरके समूहका नाश किया है, वह जिन जयवन्त है ।१७८।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने जन्म - जरा - मृत्युके समूहको जीत लिया है, जिसने दारुण रागके समूहका हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकारके समूहके लिये सूर्य समान है तथा जो परमात्मपदमें स्थित है, वह जयवन्त है ।१७९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम - आलोचना अधिकार नामका सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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अब समस्त द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्मके संन्यासके हेतुभूत शुद्धनिश्चय- प्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है ।
गाथा : ११३ अन्वयार्थ : — [व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः ] व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा [करणनिग्रहः भावः ] इन्द्रियनिग्रहरूप भाव [सः ] वह [प्रायश्चित्तम् ] प्रायश्चित्त [भवति ] है [च एव ] और वह [अनवरतं ] निरंतर [कर्तव्यः ] कर्तव्य है ।
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पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स खलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार- परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति ।
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः ।
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।१८०।।
पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियोंके तथा मनवचनकायाके संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियोंका निरोध — यह परिणतिविशेष सो प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त — प्रचुररूपसे निर्विकार चित्त । अन्तर्मुखाकार परमसमाधिसे युक्त, परम जिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवीको (जलानेके लिये) अग्नि समान, पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस - झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभको यह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है ।
[अब इस ११३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मुनियोंको स्वात्माका चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुखमें रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पापको झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । यदि मुनियोंको (स्वात्माके अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पापको उत्पन्न करते हैं । — इसमें क्या आश्चर्य है ? १८०।
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सत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूप- सहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति ।
कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च ।
सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ।।१८१।।
गाथा : ११४ अन्वयार्थ : — [क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां ] क्रोध आदि स्वकीय भावोंके ( – अपने विभावभावोंके) क्षयादिककी भावनामें [निर्ग्रहणम् ] रहना [च ] और [निजगुणचिन्ता ] निज गुणोंका चिंतन करना वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [प्रायश्चित्तं भणितम् ] प्रायश्चित्त कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) सकल कर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा निश्चय - प्रायश्चित्त कहा गया है ।
क्रोधादिक समस्त मोहरागद्वेषरूप विभावस्वभावोंके क्षयके कारणभूत निज कारणपरमात्माके स्वभावकी भावना होने पर निसर्गवृत्तिके कारण (अर्थात् स्वाभाविक – सहज परिणति होनेके कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्माके गुणात्मक ऐसे जो शुद्ध - अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूपके सहजज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना वह प्रायश्चित्त है ।
[अब इस ११४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
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मां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा । अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । वधे सत्यमूर्तस्य अथवा तो अपने ज्ञानकी जो संभावना ( – सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है । सन्तोंने आत्मप्रवादमें ऐसा जाना है (अर्थात् जानकर कहा है ) । १८१ ।
गाथा : ११५ अन्वयार्थ : — [क्रोधं क्षमया ] क्रोधको क्षमासे, [मानं स्वमार्दवेन ] मानको निज मार्दवसे, [मायां च आर्जवेन ] मायाको आर्जवसे [च ] तथा [लोभं संतोषेण ] लोभको संतोषसे — [चतुर्विधकषायान् ] इसप्रकार चतुर्विध कषायोंको [खलु जयति ] (योगी) वास्तवमें जीतते हैं ।
जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे (तीन) भेदोंके कारण क्षमा तीन (प्रकारकी) है । (१) ‘बिना-कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टिको बिना-कारण मुझे त्रास देनेका उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ;’ – ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है । (२) ‘(मुझे) बिना-कारण त्रास देनेवालेको १ताड़नका और २वधका परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृतसे दूर हुआ;’ — ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है । (३) वध १ – ताड़न = मार मारना वह । २ – वध = मार डालना वह ।
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परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा । आभिः क्षमाभिः क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति ।
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ।।’’
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् ।
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति ।।’’
होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती — ऐसा समझकर परम समरसीभावमें स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है । इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोधकषायको जीतकर, १मार्दव द्वारा मानकषायको, २आर्जव द्वारा मायाकषायको तथा परमतत्त्वकी प्राप्तिरूप सन्तोषसे लोभकषायको (योगी) जीतते हैं ।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६, २१७, २२१ तथा २२३वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
[श्लोकार्थ : — ] कामदेव (अपने) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे जला दिया । (चित्तमें रहनेवाला कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर अवस्थाको ( – कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए । क्रोधके उदयसे ( – क्रोध उत्पन्न होनेसे) किसे कार्यहानि नहीं होती ?’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (युद्धमें भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र १ – मार्दव = कोमलता; नरमाई; निर्मानता । २ – आर्जव = ऋजुता; सरलता ।
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किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः ।
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।।’’
तथा हि — बाहुबलिके दाहिने हाथमें आकर स्थिर हो गया ।) अपने दाहिने हाथमें स्थित (उस) चक्रको छोड़कर जब बाहुबलिने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु वे (मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) क्लेशको प्राप्त हुए । थोड़ा भी मान महा हानि करता है !’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जिसमें ( – जिस गड्ढेमें) छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते रहना योग्य है ।’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] ❃वनचरके भयसे भागती हुई सुरा गायकी पूँछ दैवयोगसे बेलमें उलझ जाने पर जड़ताके कारण बालोंके गुच्छेके प्रति लोलुपतावाली वह गाय (अपने सुन्दर बालोंको न टूटने देनेके लोभमें) वहाँ अविचलरूपसे खड़ी रह गई, और अरेरे ! उस गायको वनचर द्वारा प्राणसे भी विमुक्त कर दिया गया ! (अर्थात् उस गायने बालोंके लोभमें प्राण भी गँवा दिये !) जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही विपत्तियाँ आती हैं ।’’
और (इस ११५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : — ❃ वनचर = वनमें रहनेवाले, भील आदि मनुष्य अथवा शेर आदि जङ्गली पशु ।