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चित्तमित्यनर्थान्तरम् । अत एव तस्यैव परमधर्मिणो जीवस्य प्रायः प्रकर्षेण चित्तं । यः परमसंयमी नित्यं ताद्रशं चित्तं धत्ते, तस्य खलु निश्चयप्रायश्चित्तं भवतीति ।
[श्लोकार्थ : — ] क्रोधकषायको क्षमासे, मानकषायको मार्दवसे ही, मायाको आर्जवकी प्राप्तिसे और लोभकषायको शौचसे ( – सन्तोषसे) जीतो । १८२ ।
गाथा : ११६ अन्वयार्थ : — [तस्य एव आत्मनः ] उसी (अनन्तधर्मवाले) आत्माका [यः ] जो [उत्कृष्टः बोधः ] उत्कृष्ट बोध, [ज्ञानम् ] ज्ञान अथवा [चित्तम् ] चित्त उसे [यः मुनिः ] जो मुनि [नित्यं धरति ] नित्य धारण करता है, [तस्य ] उसे [प्रायश्चित्तम् भवेत् ] प्रायश्चित्त है ।
उत्कृष्ट ऐसा जो विशिष्ट धर्म वह वास्तवमें परम बोध है — ऐसा अर्थ है । बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं । ऐसा होनेसे ही उसी परमधर्मी जीवको प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे चित्त ( – ज्ञान) है । जो परमसंयमी ऐसे चित्तको नित्य धारण करता है, उसे वास्तवमें निश्चय – प्रायश्चित्त है ।
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प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य ।
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ।।१८३।।
[भावार्थ : — ] जीव धर्मी है और ज्ञानादिक उसके धर्म हैं । परम चित्त अथवा परम ज्ञानस्वभाव जीवका उत्कृष्ट विशेषधर्म है । इसलिये स्वभाव - अपेक्षासे जीवद्रव्यको प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे ज्ञान है । जो परमसंयमी ऐसे चित्तकी ( – परम ज्ञानस्वभावकी) श्रद्धा करता है तथा उसमें लीन रहता है, उसे निश्चयप्रायश्चित्त है । ]
[अब ११६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें जो (मुनीन्द्र) शुद्धात्मज्ञानकी सम्यक् भावनावन्त है, उसे प्रायश्चित्त है ही । जिसने पापसमूहको झाड़ दिया है ऐसे उस मुनीन्द्रको मैं उसके गुणोंकी प्राप्ति हेतु नित्य वंदन करता हूँ । १८३ ।
गाथा : ११७ अन्वयार्थ : — [बहुना ] बहुत [भणितेन तु ] कहनेसे [किम् ] क्या ? [अनेककर्मणाम् ] अनेक कर्मोंके [क्षयहेतुः ] क्षयका हेतु ऐसा जो [महर्षीणाम् ] महर्षियोंका [वरतपश्चरणम् ] उत्तम तपश्चरण [सर्वम् ] वह सब [प्रायश्चित्तं जानीहि ] प्रायश्चित्त जान ।
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चरणानां परमाचरणमित्युक्त म् ।
बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम् । पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परम- जिनयोगीनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त- मिति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम् ।
सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१८४।।
लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि ।।१८५।।
निश्चयप्रायश्चित्त है; इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त समस्त आचरणोंमें परम आचरण है ऐसा कहा है ।
बहुत असत् प्रलापोंसे बस होओ, बस होओ । निश्चयव्यवहारस्वरूप परमतपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगियोंको अनादि संसारसे बँधे हुए द्रव्यभावकर्मोंके निरवशेष विनाशका कारण वह सब शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान ।
[अब इस ११७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] अनशनादितपश्चरणात्मक (अर्थात् स्वरूपप्रतपनरूपसे परिणमित, प्रतापवन्त अर्थात् उग्र स्वरूपपरिणतिसे परिणमित) ऐसा यह सहज - शुद्ध - चैतन्यस्वरूपको जाननेवालोंका १सहजज्ञानकलापरिगोचर सहजतत्त्व २अघक्षयका कारण है ।१८४।
[श्लोकार्थ : — ] जो (प्रायश्चित्त) इस स्वद्रव्यका ❃धर्म और शुक्लरूप चिंतन १ — सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य २ — अघ = अशुद्धि; दोष; पाप । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं ।) ❃ धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्वद्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है ।
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ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा ।
प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती ।।१८६।।
र्मयोद्धृता संयमरत्नमाला ।
सालंकृतिर्मुक्ति वधूधवानाम् ।।१८७।।
मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् ।
विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत् ।।१८८।।
है, जो कर्मसमूहके अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा जो अपनी निर्विकार महिमामें लीन है — ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तवमें उत्तम पुरुषोंको होता है ।१८५।
[श्लोकार्थ : — ] यमियोंको ( – संयमियोंको) आत्मज्ञानसे क्रमशः आत्मलब्धि (आत्माकी प्राप्ति) होती है — कि जिस आत्मलब्धिने ज्ञानज्योति द्वारा इन्द्रियसमूहके घोर अन्धकारका नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्मवनसे उत्पन्न (भवरूपी) दावानलकी शिखाजालका (शिखाओंके समूहका) नाश करनेके लिये उस पर सतत शमजलमयी धाराको तेजीसे छोड़ती है — बरसाती है ।१८६।
[श्लोकार्थ : — ] अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृतसमुद्रमेंसे मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला बाहर निकाली है वह (रत्नमाला) मुक्तिवधूके वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियोंके सुकण्ठका आभूषण बनी है ।१८७।
[श्लोकार्थ : — ] मुनीन्द्रोंके चित्तकमलके (हृदयकमलके) भीतर जिसका वास है, जो विमुक्तिरूपी कान्ताके रतिसौख्यका मूल है (अर्थात् जो मुक्तिके अतीन्द्रिय आनन्दका
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अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्त म् ।
आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति, ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् । मूल है ) और जिसने संसारवृक्षके मूलका विनाश किया है — ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं नित्य नमन करता हूँ । १८८ ।
गाथा : ११८ अन्वयार्थ : — [अनन्तानन्तभवेन ] अनन्तानन्त भवों द्वारा [समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ] उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि [तपश्चरणेन ] तपश्चरणसे [विनश्यति ] नष्ट होती है; [तस्मात् ] इसलिये [तपः ] तप [प्रायश्चितम् ] प्रायश्चित्त है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्वमें सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें लीन रहकर प्रतपना — प्रतापवन्त वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है ) ऐसा कहा है ।
अनादि संसारसे ही उपार्जित द्रव्यभावात्मक शुभाशुभ कर्मोंका समूह — कि जो पाँच प्रकारके ( – पाँच परावर्तनरूप) संसारका संवर्धन करनेमें समर्थ है वह — भावशुद्धिलक्षण (भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परमतपश्चरणसे विलयको प्राप्त होता है; इसलिये स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ ( – निज आत्माके आचरणमें लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा कहा गया है ।
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प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् ।
ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ।।१८९।।
[अब इस ११८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो (तप) अनादि संसारसे समृद्ध हुई कर्मोंकी महा अटवीको जला देनेके लिये अग्निकी ज्वालाके समूह समान है, शमसुखमय है और मोक्षलक्ष्मीके लिये भेंट है, उस चिदानन्दरूपी अमृतसे भरे हुए तपको संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं, परन्तु अन्य किसी कार्यको नहीं ।१८९।
गाथा : ११९ अन्वयार्थ : — [आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु ] आत्मस्वरूप जिसका आलम्बन है ऐसे भावसे [जीवः ] जीव [सर्वभावपरिहारं ] सर्वभावोंका परिहार [कर्तुम् शक्नोति ] कर सकता है, [तस्मात् ] इसलिये [ध्यानम् ] ध्यान वह [सर्वम् भवेत् ] सर्वस्व है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान ही सर्व भावोंका अभाव करनेमें समर्थ है ऐसा कहा है ।
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अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्णनित्यनिरावरणसहजपरमपारिणामिकभाव - भावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात्, तत एव पापाटवीपावक इत्युक्त म् । अतः पंच- महाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति ।
समस्त परद्रव्योंके परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित अखण्ड - नित्यनिरावरण - सहजपरमपारिणामिकभावकी भावनासे औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक इन चार भावांतरोंका ❃परिहार करनेमें अति - आसन्नभव्य जीव समर्थ है, इसीलिये उस जीवको पापाटवीपावक ( – पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि) कहा है; ऐसा होनेसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही है (अर्थात् परमपारिणामिक भावकी भावनारूप जो ध्यान वही महाव्रत-प्रायश्चित्तादि सब कुछ है )
[अब इस ११९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ] ❃यहाँ चार भावोंके परिहारमें क्षायिकभावरूप शुद्ध पर्यायका भी परिहार (त्याग) करना कहा है उसका
बैठ गया हो ऐसे जलके समान औपशमिक सम्यक्त्वादिका), क्षायोपशमिकभावोंका (अपूर्ण ज्ञान –
परमपारिणामिकभावकी भावना, ‘मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ’ ऐसी परिणति — इन सबका एक
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नित्यज्योतिःप्रतिहततमःपुंजमाद्यन्तशून्यम् ।
जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः ।।१९०।।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने नित्य ज्योति द्वारा तिमिरपुंजका नाश किया है, जो आदि – अंत रहित है, जो परम कला सहित है तथा जो आनन्दमूर्ति है — ऐसे एक शुद्ध आत्माको जो जीव शुद्ध आत्मामें अविचल १मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है, सो यह २आचारराशि जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है ।१९०।
गाथा : १२० अन्वयार्थ : — [शुभाशुभवचनरचनानाम् ] शुभाशुभ वचन- रचनाका और [रागादिभाववारणम् ] रागादिभावोंका निवारण [कृत्वा ] करके [यः ] जो [आत्मानम् ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य तु ] उसे [नियमात् ] नियमसे ( – निश्चितरूपसे) [नियमः भवेत् ] नियम है
टीका : — यह, शुद्धनिश्चयनियमके स्वरूपका कथन है । १ – मन = भाव । २ – आचारराशि = चारित्रपुंज; चारित्रसमूहरूप ।
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यः परमतत्त्वज्ञानी महातपोधनो दैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चय- प्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मकशुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता- प्रशस्तसमस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, न केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां निवारणं च करोति, पुनरनवरतमखंडाद्वैतसुन्दरानन्द- निष्यन्द्यनुपमनिरंजननिजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्चयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फु टम् ।
भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् ।।१९१।।
जो परमतत्त्वज्ञानी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्मकर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ निश्चयप्रायश्चित्तमें परायण रहता हुआ मन – वचन – कायाको नियमित (संयमित) किये होनेसे भवरूपी बेलके मूल - कंदात्मक शुभाशुभस्वरूप प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त वचनरचनाका निवारण करता है, केवल उस वचनरचनाका ही तिरस्कार नहीं करता किन्तु समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका निवारण करता है, और अनवरतरूपसे ( – निरन्तर) अखण्ड, अद्वैत, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर आनन्द – झरते), अनुपम, निरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्वकी सदा शुद्धोपयोगके बलसे सम्भावना (सम्यक् भावना) करता है, उसे (उस महातपोधनको) नियमसे शुद्धनिश्चयनियम है ऐसा भगवान सूत्रकारका अभिप्राय है ।
[अब इस १२०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचनरचनाको छोड़कर सदा स्फु टरूपसे सहजपरमात्माको सम्यक् प्रकारसे भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमीको मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण ऐसा यह शुद्ध नियम नियमसे ( – अवश्य) है ।१९१।
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निखिलनयविलासो न स्फु रत्येव किंचित् ।
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१९२।।
[श्लोकार्थ : — ] जो अनवरतरूपसे ( – निरन्तर) अखण्ड अद्वैत चैतन्यके कारण निर्विकार है उसमें ( – उस परमात्मपदार्थमें) समस्त नयविलास किंचित् स्फु रित ही नहीं होता । जिसमेंसे समस्त भेदवाद ( – नयादि विकल्प) दूर हुए हैं उसे ( – उस परमात्म- पदार्थको) मैं नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ ।१९२।
[श्लोकार्थ : — ] यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है — ऐसे विकल्पजालोंसे जो मुक्त ( – रहित) है उसे ( – उस परमात्मतत्त्वको) मैं नमन करता हूँ ।१९३।
[श्लोकार्थ : — ] जिस योगपरायणमें कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होते हैं (अर्थात् जिस योगनिष्ठ योगीको कभी विकल्प उठते हैं ), उसकी अर्हत्के मतमें मुक्ति होगी या नहीं होगी वह कौन जानता है ? १९४।
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आदिशब्देन क्षेत्रवास्तुकनकरमणीप्रभृतयः । एतेषु सर्वेषु स्थिरभावं सनातनभावं परिहृत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यवहारक्रियाकांडाडम्बरविविध- विकल्पकोलाहलविनिर्मुक्त सहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरण- क्षीरवारांराशिनिशीथिनीहृदयाधीश्वरः, तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासादशिखर- शिखामणेर्निश्चयकायोत्सर्गो भवतीति
गाथा : १२१ अन्वयार्थ : — [कायादिपरद्रव्ये ] कायादि परद्रव्यमें [स्थिर- भावम् परिहृत्य ] स्थिरभाव छोड़कर [यः ] जो [आत्मानम् ] आत्माको [निर्विकल्पेन ] निर्विकल्परूपसे [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [तनूत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [भवेत् ] है ।
सादि - सांत मूर्त विजातीय-विभाव-व्यंजनपर्यायात्मक अपना आकार वह काय । ‘आदि’ शब्दसे क्षेत्र, गृह, कनक, रमणी आदि । इन सबमें स्थिरभाव — सनातनभाव छोड़कर ( – कायादिक स्थिर हैं ऐसा भाव छोड़कर) नित्य - रमणीय निरंजन निज कारणपरमात्माको व्यवहार क्रियाकांडके आडम्बर सम्बन्धी विविध विकल्परूप कोलाहल रहित सहज – परम – योगके बलसे जो सहज - तपश्चरणरूपी क्षीरसागरका चन्द्र ( – सहज तपरूपी क्षीरसागरको उछालनेमें चन्द्र समान ऐसा जो जीव) नित्य ध्याता है, उस सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरके शिखामणिको ( – उस परम सहज- वैराग्यवन्त जीवको) वास्तवमें निश्चयकायोत्सर्ग है ।
[अब इस शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव पाँच श्लोक कहते हैं : ]
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कायोद्भूतप्रबलतरसत्कर्ममुक्ते : सकाशात् ।
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।१९५।।
तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या ।
स्फु टितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम् ।।१९७।।
[श्लोकार्थ : — ] जो निरंतर स्वात्मनिष्ठापरायण ( – निज आत्मामें लीन) हैं उन संयमियोंको, कायासे उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कर्मोंके ( – काया सम्बन्धी प्रबल क्रियाओंके) त्यागके कारण, वाणीके जल्पसमूहकी विरतिके कारण और मानसिक भावोंकी (विकल्पोंकी) निवृत्तिके कारण, तथा निज आत्माके ध्यानके कारण, निश्चयसे सतत कायोत्सर्ग है ।१९५।
[श्लोकार्थ : — ] सहज तेजःपुंजमें निमग्न ऐसा वह प्रकाशमान सहज परम तत्त्व जयवन्त है — कि जिसने मोहांधकारको दूर किया है (अर्थात् जो मोहांधकार रहित है ), जो सहज परम दृष्टिसे परिपूर्ण है और जो वृथा - उत्पन्न भवभवके परितापोंसे तथा कल्पनाओंसे मुक्त है ।१९६।
[श्लोकार्थ : — ] अल्प ( – तुच्छ) और कल्पनामात्ररम्य ( – मात्र कल्पनासे ही रमणीय लगनेवाला) ऐसा जो भवभवका सुख वह सब मैं आत्मशक्तिसे नित्य सम्यक् प्रकारसे छोड़ता हूँ; (और) जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्यवाला है तथा जो चैतन्यचमत्कारमात्र है, उसका ( – उस आत्मतत्त्वका) मैं सर्वदा अनुभवन करता हूँ ।१९७।
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समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा ।
प्रभुत्वगुणशक्ति तः खलु हतोस्मि हा संसृतौ ।।१९८।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव- विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः अष्टमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] अहो ! मेरे हृदयमें स्फु रायमान इस निज आत्मगुणसंपदाको — कि जो समाधिका विषय है उसे — मैंने पहले एक क्षण भी नहीं जाना । वास्तवमें, तीन लोकके वैभवके प्रलयके हेतुभूत दुष्कर्मोंकी प्रभुत्वगुणशक्तिसे ( – दुष्ट कर्मोंके प्रभुत्वगुणकी शक्तिसे), अरेरे ! मैं संसारमें मारा गया हूँ ( – हैरान हो गया हूँ) ।१९८।
[श्लोकार्थ : — ] भवोत्पन्न ( – संसारमें उत्पन्न होनेवाले) विषवृक्षके समस्त फलको दुःखका कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मामें उत्पन्न विशुद्धसौख्यका अनुभवन करता हूँ ।१९९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार नामका आठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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अब समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंके विध्वंसके हेतुभूत परम - समाधि अधिकार कहा जाता है ।
गाथा : १२२ अन्वयार्थ : — [वचनोच्चारणक्रियां ] वचनोच्चारणकी क्रिया [परित्यज्य ] परित्याग कर [वीतरागभावेन ] वीतराग भावसे [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [परमसमाधिः ] परम समाधि [भवेत् ] है ।
कभी ❃अशुभवंचनार्थ वचनविस्तारसे शोभित परमवीतराग सर्वज्ञका स्तवनादि परम ❃ अशुभवंचनार्थ = अशुभसे छूटनेके लिये; अशुभसे बचनेके लिये; अशुभके त्यागके लिये ।
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जिनयोगीश्वरेणापि । परमार्थतः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवाग्विषयव्यापारो न कर्तव्यः । अत एव वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त प्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन त्रिकालनिरावरणनित्यशुद्धकारणपरमात्मानं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैक- स्वरूपनिरतपरमशुक्लध्यानेन च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति, तस्य खलु द्रव्यभावकर्मवरूथिनीलुंटाकस्य परमसमाधिर्भवतीति ।
हृदि स्फु रन्तीं समतानुयायिनीम् ।
न माद्रशां या विषया विदामहि ।।२००।।
जिनयोगीश्वरको भी करनेयोग्य है । परमार्थसे प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त वचनसम्बन्धी व्यापार करनेयोग्य नहीं है । ऐसा होनेसे ही, वचनरचना परित्यागकर जो समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़से विमुक्त है और जिसमेंसे भावकर्म नष्ट हुए हैं ऐसे भावसे — परम वीतराग भावसे — त्रिकाल - निरावरण नित्य-शुद्ध कारणपरमात्माको स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानसे तथा टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वरूपमें लीन परमशुक्लध्यानसे जो परमवीतराग तपश्चरणमें लीन, निरुपराग (निर्विकार) संयमी ध्याता है, उस द्रव्यकर्म - भावकर्मकी सेनाको लूटनेवाले संयमीको वास्तवमें परम समाधि है ।
[अब इस १२२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] किसी ऐसी ( – अवर्णनीय, परम) समाधि द्वारा उत्तम आत्माओंके हृदयमें स्फु रित होनेवाली, समताकी १अनुयायिनी सहज आत्मसम्पदाका जबतक हम अनुभव नहीं करते, तबतक हमारे जैसोंका जो २विषय है उसका हम अनुभवन नहीं करते ।२००। १ — अनुयायिनी = अनुगामिनी; साथ-साथ रहनेवाली; पीछे-पीछे आनेवाली । (सहज आत्मसम्पदा समाधिकी
२ — सहज आत्मसम्पदा मुनियोंका विषय है ।
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नमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपनम् । सकलबाह्यक्रियाकांडाडम्बरपरित्यागलक्षणान्तः- क्रियाधिकरणमात्मानं निरवधित्रिकालनिरुपाधिस्वरूपं यो जानाति, तत्परिणतिविशेषः स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानम् । ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादिविविधविकल्पनिर्मुक्तान्तर्मुखाकार-
गाथा : १२३ अन्वयार्थ : — [संयमनियमतपसा तु ] संयम, नियम और तपसे तथा [धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [परमसमाधिः ] परम समाधि [भवेत् ] है ।
समस्त इन्द्रियोंके व्यापारका परित्याग सो संयम है । निज आत्माकी आराधनामें तत्परता सो नियम है । जो आत्माको आत्मामें आत्मासे धारण कर रखता है – टिका रखता है – जोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है । समस्त बाह्यक्रियाकांडके आडम्बरका परित्याग जिसका लक्षण है ऐसी अंतःक्रियाके ❃अधिकरणभूत आत्माको — कि जिसका स्वरूप अवधि रहित तीनों काल (अनादि कालसे अनन्त काल तक) निरुपाधिक है उसे — जो जीव जानता है, उस जीवकी परिणतिविशेष वह स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान है । ध्यान - ध्येय - ध्याता, ध्यानका फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त (अर्थात् ऐसे विकल्पोंसे रहित), अंतर्मुखाकार (अर्थात् अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसा), ❃ अधिकरण = आधार । (अंतरंग क्रियाका आधार आत्मा है ।)
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निखिलकरणग्रामागोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपं निश्चयशुक्लध्यानम् । एभिः सामग्रीविशेषैः सार्धमखंडाद्वैतपरमचिन्मयमात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु परमसमाधिर्भवतीति ।
है, उसे वास्तवमें परम समाधि है ।
[अब इस १२३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधिमें रहता है, उस द्वैताद्वैतविमुक्त (द्वैत-अद्वैतके विकल्पोंसे मुक्त) आत्माको मैं नमन करता हूँ । २०१ ।
गाथा : १२४ अन्वयार्थ : — [वनवासः ] वनवास, [कायक्लेशः विचित्रोपवासः ] कायक्लेशरूप अनेक प्रकारके उपवास, [अध्ययनमौनप्रभृतयः ] अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [समतारहितस्य श्रमणस्य ] समतारहित श्रमणको [किं करिष्यति ] क्या करते हैं ( – क्या लाभ करते हैं) ?
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अत्र समतामन्तरेण द्रव्यलिङ्गधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणं नास्तीत्युक्त म् ।
सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त महानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासावासेन प्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीव्रकरकरसंतप्तपर्वताग्रग्रावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफलेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा, सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति ।
स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा- ।
मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः ।।’’
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), समताके बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको किंचित् परलोकका कारण नहीं है (अर्थात् किंचित् मोक्षका साधन नहीं है ) ऐसा कहा है ।
केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़से विमुक्त महा आनन्दके हेतुभूत परमसमताभाव बिना, (१) वनवासमें वसकर वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे स्थिति करनेसे, ग्रीष्मऋतुमें प्रचंड सूर्यकी किरणोंसे संतप्त पर्वतके शिखरकी शिला पर बैठनेसे और हेमंतऋतुमें रात्रिमें दिगम्बरदशामें रहनेसे, (२) त्वचा और अस्थिरूप (मात्र हाड़-चामरूप) हो गये सारे शरीरको क्लेशदायक महा उपवाससे, (३) सदा अध्ययनपटुतासे (अर्थात् सदा शास्त्रपठन करनेसे), अथवा (४) वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिस्वरूप सतत मौनव्रतसे क्या किंचित् भी ❃उपादेय फल है ? (अर्थात् मोक्षके साधनरूप फल किंचित् भी नहीं है ।)
इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] पर्वतकी गहन गुफा आदिमें अथवा वनके शून्य प्रदेशमें ❃ उपादेय = चाहने योग्य; प्रशंसा योग्य ।
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समतया रहितस्य यतेर्न हि ।
भज मुने समताकुलमंदिरम् ।।२०२।।
तथा होमसे ब्रह्मकी (आत्माकी) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई ! तू गुरुओं द्वारा उससे
अन्य प्रकारको ढूँढ ।’’
अब (इस १२४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] वास्तवमें समता रहित यतिको अनशनादि तपश्चरणोंसे फल नहीं है; इसलिये, हे मुनि ! समताका ❃कुलमंदिर ऐसा जो यह अनाकुल निज तत्त्व उसे भज ।२०२ ।
गाथा : १२५ अन्वयार्थ : — [सर्वसावद्ये विरतः ] जो सर्व सावद्यमें विरत है, [त्रिगुप्तः ] जो तीन गुप्तिवाला है और [पिहितेन्द्रियः ] जिसने इन्द्रियोंको बन्द (निरुद्ध) किया है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है । [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है । ❃ कुलमन्दिर = (१) उत्तम घर; (२) वंशपरम्पराका घर ।
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इह हि सकलसावद्यव्यापाररहितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सकलेन्द्रियव्यापारविमुखस्य तस्य च मुनेः सामायिकं व्रतं स्थायीत्युक्त म् ।
अथात्रैकेन्द्रियादिप्राणिनिकुरंबक्लेशहेतुभूतसमस्तसावद्यव्यासंगविनिर्मुक्त :, प्रशस्ता- प्रशस्तसमस्तकायवाङ्मनसां व्यापाराभावात् त्रिगुप्तः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधान- पंचेन्द्रियाणां मुखैस्तत्तद्योग्यविषयग्रहणाभावात् पिहितेन्द्रियः, तस्य खलु महामुमुक्षोः परमवीतरागसंयमिनः सामायिकं व्रतं शाश्वत् स्थायि भवतीति ।
नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ्मानसानाम् ।
बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति ।।२०३।।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), जो सर्व सावद्य व्यापारसे रहित है, जो त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त है तथा जो समस्त इन्द्रियोंके व्यापारसे विमुख है, उस मुनिको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा कहा है ।
यहाँ (इस लोकमें) जो एकेन्द्रियादि प्राणीसमूहको क्लेशके हेतुभूत समस्त सावद्यके ❃
कारण त्रिगुप्त (तीन गुप्तिवाला) है और स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र नामक पाँच इन्द्रियों द्वारा उस – उस इन्द्रियके योग्य विषयके ग्रहणका अभाव होनेसे बन्द की हुई इन्द्रियोंवाला है, उस महामुमुक्षु परमवीतरागसंयमीको वास्तवमें सामायिकव्रत शाश्वत – स्थायी है ।
[अब इस १२५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार भवभयके करनेवाले समस्त सावद्यसमूहको छोड़कर, काय - वचन - मनकी विकृतिको निरन्तर नाश प्राप्त कराके, अंतरंग शुद्धिसे परम कला सहित (परम ज्ञानकला सहित) एक आत्माको जानकर जीव स्थिरशममय शुद्ध शीलको प्राप्त करता है (अर्थात् शाश्वत समतामय शुद्ध चारित्रको प्राप्त करता है ) ।२०३। ❃ व्यासंग = गाढ संग; संग; आसक्ति ।