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उसे [यः मुनिः ] जो मुनि [नित्यं धरति ] नित्य धारण करता है, [तस्य ] उसे [प्रायश्चित्तम्
भवेत् ] प्रायश्चित्त है
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महर्षियोंका [वरतपश्चरणम् ] उत्तम तपश्चरण [सर्वम् ] वह सब [प्रायश्चित्तं जानीहि ]
प्रायश्चित्त जान
प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम्
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निरवशेष विनाशका कारण वह सब शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान
मिति हे शिष्य त्वं जानीहि
सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम्
सहजतत्त्वमघक्षयकारणम्
लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि
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निर्विकार महिमामें लीन है
शिखाजालका (शिखाओंके समूहका) नाश करनेके लिये उस पर सतत शमजलमयी
धाराको तेजीसे छोड़ती है
आभूषण बनी है
ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा
प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती
र्मयोद्धृता संयमरत्नमाला
सालंकृतिर्मुक्ति वधूधवानाम्
मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम्
विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत
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[विनश्यति ] नष्ट होती है; [तस्मात् ] इसलिये [तपः ] तप [प्रायश्चितम् ] प्रायश्चित्त है
स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम्
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भेंट है, उस चिदानन्दरूपी अमृतसे भरे हुए तपको संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते
हैं, परन्तु अन्य किसी कार्यको नहीं
[कर्तुम् शक्नोति ] कर सकता है, [तस्मात् ] इसलिये [ध्यानम् ] ध्यान वह [सर्वम्
भवेत् ] सर्वस्व है
प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम्
ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः
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क्षायोपशमिक इन चार भावांतरोंका
आदि सब ध्यान ही है (अर्थात् परमपारिणामिक भावकी भावनारूप जो ध्यान वही
महाव्रत-प्रायश्चित्तादि सब कुछ है )
कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात
बैठ गया हो ऐसे जलके समान औपशमिक सम्यक्त्वादिका), क्षायोपशमिकभावोंका (अपूर्ण ज्ञान
परमपारिणामिकभावकी भावना, ‘मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ’ ऐसी परिणति
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[आत्मानम् ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य तु ] उसे [नियमात् ] नियमसे
(
नित्यज्योतिःप्रतिहततमःपुंजमाद्यन्तशून्यम्
जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः
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किन्तु समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका निवारण करता है, और अनवरतरूपसे
(
करता है, उसे (उस महातपोधनको) नियमसे शुद्धनिश्चयनियम है ऐसा भगवान
सूत्रकारका अभिप्राय है
मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण ऐसा यह शुद्ध नियम नियमसे (
प्रशस्तसमस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, न केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु
निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां निवारणं च करोति, पुनरनवरतमखंडाद्वैतसुन्दरानन्द-
निष्यन्द्यनुपमनिरंजननिजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन
शुद्धनिश्चयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फु टम्
भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्
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होगी वह कौन जानता है ? १९४
निखिलनयविलासो न स्फु रत्येव किंचित
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि
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निर्विकल्परूपसे [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [तनूत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [भवेत् ] है
कोलाहल रहित सहज
विकल्पकोलाहलविनिर्मुक्त सहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरण-
क्षीरवारांराशिनिशीथिनीहृदयाधीश्वरः, तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासादशिखर-
शिखामणेर्निश्चयकायोत्सर्गो भवतीति
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(विकल्पोंकी) निवृत्तिके कारण, तथा निज आत्माके ध्यानके कारण, निश्चयसे सतत
कायोत्सर्ग है
प्रकारसे छोड़ता हूँ; (और) जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्यवाला
है तथा जो चैतन्यचमत्कारमात्र है, उसका (
कायोद्भूतप्रबलतरसत्कर्ममुक्ते : सकाशात
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम्
तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या
स्फु टितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम्
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करता हूँ
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा
प्रभुत्वगुणशक्ति तः खलु हतोस्मि हा संसृतौ
श्रुतस्कन्धः
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आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [परमसमाधिः ] परम समाधि [भवेत् ] है
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लीन, निरुपराग (निर्विकार) संयमी ध्याता है, उस द्रव्यकर्म
त्रिकालनिरावरणनित्यशुद्धकारणपरमात्मानं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैक-
स्वरूपनिरतपरमशुक्लध्यानेन च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति,
तस्य खलु द्रव्यभावकर्मवरूथिनीलुंटाकस्य परमसमाधिर्भवतीति
हृदि स्फु रन्तीं समतानुयायिनीम्
न मा
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आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [परमसमाधिः ] परम समाधि [भवेत् ] है
निरुपाधिक है उसे
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानम्
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है, उसे वास्तवमें परम समाधि है
अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [समतारहितस्य श्रमणस्य ] समतारहित श्रमणको [किं
करिष्यति ] क्या करते हैं (
परमसमाधिर्भवतीति
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बैठनेसे और हेमंतऋतुमें रात्रिमें दिगम्बरदशामें रहनेसे, (२) त्वचा और अस्थिरूप (मात्र
हाड़-चामरूप) हो गये सारे शरीरको क्लेशदायक महा उपवाससे, (३) सदा
अध्ययनपटुतासे (अर्थात् सदा शास्त्रपठन करनेसे), अथवा (४) वचनसम्बन्धी व्यापारकी
निवृत्तिस्वरूप सतत मौनव्रतसे क्या किंचित् भी
रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफलेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा,
सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं
फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति
स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा-
मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः
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तथा होमसे ब्रह्मकी (आत्माकी) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई ! तू गुरुओं द्वारा उससे
अन्य प्रकारको ढूँढ
किया है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है
समतया रहितस्य यतेर्न हि
भज मुने समताकुलमंदिरम्
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है ऐसा कहा है
इन्द्रियों द्वारा उस
करता है (अर्थात् शाश्वत समतामय शुद्ध चारित्रको प्राप्त करता है )
नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ्मानसानाम्
बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति