Niyamsar (Hindi). Gatha: 126-136 ; Adhikar-10 : Param Bhakti Adhikar.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 15 of 21

 

Page 254 of 388
PDF/HTML Page 281 of 415
single page version

गाथा : १२६ अन्वयार्थ :[यः ] जो [स्थावरेषु ] स्थावर [वा ] अथवा
[त्रसेषु ] त्रस [सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [समः ] समभाववाला है, [तस्य ] उसे
[सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके
शासनमें कहा है
टीका :यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदिमें आरूढ़ होकर स्थित परममुमुक्षुका
स्वरूप कहा है
जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि (अर्थात् परम
सहजवैराग्यवन्त मुनि) विकारके कारणभूत समस्त मोहरागद्वेषके अभावके कारण
भेदकल्पना विमुक्त परम समरसीभाव सहित होनेसे त्रस
- स्थावर (समस्त)
जीवनिकायोंके प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वरको सामायिक नामका व्रत
सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञके मार्गमें सिद्ध है
[अब इस १२६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ
श्लोक कहते हैं : ]
जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२६।।
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२६।।
परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्त म्
यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः विकारकारणनिखिलमोहरागद्वेषाभावाद् भेद-
कल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्र्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिन-
योगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति
स्थावर तथा त्रस सर्व जीवसमूह प्रति समता लहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ।।१२६।।

Page 255 of 388
PDF/HTML Page 282 of 415
single page version

[श्लोकार्थ : ] परम जिनमुनियोंका जो चित्त (चैतन्यपरिणमन) निरंतर त्रस
जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके वधसे अत्यन्त विमुक्त है, और जो (चित्त) अंतिम
अवस्थाको प्राप्त तथा निर्मल है, उसे मैं कर्मसे मुक्त होनेके हेतु नमन करता हूँ, स्तवन करता
हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ
२०४
[श्लोकार्थ : ] कोई जीव अद्वैतमार्गमें स्थित हैं और कोई जीव द्वैतमार्गमें स्थित
हैं; द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त मार्गमें (अर्थात् जिसमें द्वैत या अद्वैतके विकल्प नहीं हैं ऐसे
मार्गमें) हम वर्तते हैं
२०५
[श्लोकार्थ : ] कोई जीव अद्वैतकी इच्छा करते हैं और अन्य कोई जीव द्वैतकी
इच्छा करते हैं; मैं द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त आत्माको नमन करता हूँ २०६
[श्लोकार्थ : ] मैंसुखकी इच्छा रखनेवाला आत्माअजन्म और
अविनाशी ऐसे निज आत्माको आत्मा द्वारा ही आत्मामें स्थित रहकर बारम्बार भाता
हूँ
२०७
(मालिनी)
त्रसहतिपरिमुक्तं स्थावराणां वधैर्वा
परमजिनमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम्
अपि चरमगतं यन्निर्मलं कर्ममुक्त्यै
तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि
।।२०४।।
(अनुष्टुभ्)
केचिदद्वैतमार्गस्थाः केचिद्द्वैतपथे स्थिताः
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्त मार्गे वर्तामहे वयम् ।।२०५।।
(अनुष्टुभ्)
कांक्षंत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्त मात्मानमभिनौम्यहम् ।।२०६।।
(अनुष्टुभ्)
अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम्
आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ।।२०७।।

Page 256 of 388
PDF/HTML Page 283 of 415
single page version

[श्लोकार्थ : ] भवके करनेवाले ऐसे इन विकल्प-कथनोंसे बस होओ, बस
होओ जो अखण्डानन्दस्वरूप है वह (यह आत्मा) समस्त नयराशिका अविषय है;
इसलिये यह कोई (अवर्णनीय) आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है (अर्थात् द्वैत - अद्वैतके
विकल्पोंसे पर है ) उस एकको मैं अल्प कालमें भवभयका नाश करनेके लिये सतत
वंदन करता हूँ २०८
[श्लोकार्थ : ] योनिमें सुख और दुःख सुकृत और दुष्कृतके समूहसे होता है
(अर्थात् चार गतिके जन्मोंमें सुखदुःख शुभाशुभ कृत्योंसे होता है ) और दूसरे प्रकारसे
(निश्चयनयसे), आत्माको शुभका भी अभाव है तथा अशुभ परिणति भी नहीं हैनहीं
है, क्योंकि इस लोकमें एक आत्माको (अर्थात् आत्मा सदा एकरूप होनेसे उसे) अवश्य
भवका परिचय बिलकुल नहीं है
इसप्रकार जो भवगुणोंके समूहसे संन्यस्त है (अर्थात्
जो शुभ - अशुभ, राग - द्वेष आदि भवके गुणोंसेविभावोंसेरहित है ) उसका (नित्यशुद्ध
आत्माका) मैं स्तवन करता हूँ २०९
[श्लोकार्थ : ] सदा शुद्ध - शुद्ध ऐसा यह (प्रत्यक्ष) चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्व
(शिखरिणी)
विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरैः
अखंडानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः
अयं द्वैताद्वैतो न भवति ततः कश्चिदचिरात
तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ।।२०८।।
(शिखरिणी)
सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितव्रातजनितं
शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च
यदेकस्याप्युच्चैर्भवपरिचयो बाढमिह नो
य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम्
।।२०९।।
(मालिनी)
इदमिदमघसेनावैजयन्तीं हरेत्तां
स्फु टितसहजतेजःपुंजदूरीकृतांहः-
प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्धं
जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम्
।।२१०।।

Page 257 of 388
PDF/HTML Page 284 of 415
single page version

जगतमें नित्य जयवन्त हैकि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्वधर्मत्यागरूप
(मोहरूप) अतिप्रबल तिमिरसमूहको दूर किया है और जो उस अघसेनाकी ध्वजाको
हर लेता है २१०
[श्लोकार्थ : ] यह अनघ (निर्दोष) आत्मतत्त्व जयवन्त हैकि जिसने
संसारको अस्त किया है, जो महामुनिगणके अधिनाथके (गणधरोंके) हृदयारविन्दमें
स्थित है, जिसने भवका कारण छोड़ दिया है, जो एकान्तसे शुद्ध प्रगट हुआ है
(अर्थात् जो सर्वथा
- शुद्धरूपसे स्पष्ट ज्ञात होता है ) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण
चैतन्यसामान्यरूप) निज महिमामें लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है २११
गाथा : १२७ अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसे [संयमे ] संयममें, [नियमे ] नियममें
और [तपसि ] तपमें [आत्मा ] आत्मा [सन्निहितः ] समीप है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ]
सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) भी आत्मा ही उपादेय है ऐसा कहा है
(पृथ्वी)
जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं
महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम्
विमुक्त भवकारणं स्फु टितशुद्धमेकान्ततः
सदा निजमहिम्नि लीनमपि स
द्रºशां गोचरम् ।।२११।।
जस्स संणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२७।।
यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२७।।
अत्राप्यात्मैवोपादेय इत्युक्त :
अघ = दोष; पाप
संयमनियमतपमें अहो ! आत्मा समीप जिसे रहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ।।१२७।।

Page 258 of 388
PDF/HTML Page 285 of 415
single page version

बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख और समस्त इन्द्रियव्यापारको जीते हुए ऐसे जिस भावी
जिनको पापक्रियाकी निवृत्तिरूप बाह्यसंयममें, काय - वचन - मनोगुप्तिरूप, समस्त
इन्द्रियव्यापार रहित अभ्यंतरसंयममें, मात्र परिमित (मर्यादित) कालके आचरणस्वरूप
नियममें, निजस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप, चिन्मय
- परमब्रह्ममें नियत (निश्चल रहे हुए)
ऐसे निश्चयअन्तर्गत-आचारमें (अर्थात् निश्चय - अभ्यंतर नियममें), व्यवहारसे प्रपंचित
(ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचाररूप) पंचाचारमें (अर्थात् व्यवहारतपश्चरणमें), तथा
पंचमगतिके हेतुभूत, किंचित् भी परिग्रहप्रपंचसे सर्वथा रहित, सकल दुराचारकी निवृत्तिके
कारणभूत ऐसे परम तपश्चरणमें (
इन सबमें) परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त किया हुआ निरंजन
निज कारणपरमात्मा सदा समीप है (अर्थात् जिस मुनिको संयममें, नियममें और तपमें निज
कारणपरमात्मा सदा निकट है ), उस परद्रव्यपराङ्मुख परमवीतराग
- सम्यक्दृष्टि वीतराग -
चारित्रवंतको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा केवलियोंके शासनमें कहा है
[अब इस १२७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] यदि शुद्धदृष्टिवन्त (सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि
परम मुनिको तपमें, नियममें, संयममें और सत्चारित्रमें सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है
यस्य खलु बाह्यप्रपंचपराङ्मुखस्य निर्जिताखिलेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पाप-
क्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाङ्मनोगुप्तिरूपसकलेन्द्रियव्यापारवर्जितेऽभ्यन्तरात्मनि
परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्मयनियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे
व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहीणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे
परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सन्निहित इति
केवलिनां शासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्
द्रष्टेर्वीतरागचारित्रभाजः
सामायिकव्रतं स्थायि भवतीति
(मंदाक्रांता)
आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे
तिष्ठत्युच्चैः परमयमिनः शुद्ध
द्रष्टेर्मनश्चेत
तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे
साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे
।।२१२।।
प्रपंचित = दर्शाये गये; विस्तारको प्राप्त

Page 259 of 388
PDF/HTML Page 286 of 415
single page version

(अर्थात् प्रत्येक कार्यमें निरन्तर शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ
कि) रागके नाशके कारण
अभिराम ऐसे उस भवभयहर भावि तीर्थाधिनाथको यह
साक्षात् सहज - समता अवश्य है २१२
गाथा : १२८ अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसे [रागः तु ] राग या [द्वेषः तु ]
द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं ] विकृति [न तु जनयति ] उत्पन्न नहीं करता,
[तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा
केवलीके शासनमें कहा है
टीका :यहाँ रागद्वेषके अभावसे अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है
पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमीको राग
या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्दके अभिलाषी जीवकोकि
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२८।।
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२८।।
इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्त म्
यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपावकस्य रागो वा द्वेषो वा विकृतिं
नावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्र-
अभिराम = मनोहर; सुन्दर (भवभयके हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्करने रागका नाश किया होनेसे
वह मनोहर है )
अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता
विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणतिसे विरुद्ध परिणति [परमवीतरागसंयमीको समतास्वभावी
शुद्धात्मद्रव्यका दृढ़ आश्रय होनेसे विकृतिभूत (विभावभूत) विषमता (रागद्वेषपरिणति) नहीं होती, परन्तु
प्रकृतिभूत (स्वभावभूत) समतापरिणाम होता है
]
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृति लहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२८।।

Page 260 of 388
PDF/HTML Page 287 of 415
single page version

जिसे पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रह है उसेसामायिक नामका व्रत
शाश्वत है ऐसा केवलियोंके शासनमें प्रसिद्ध है
[अब इस १२८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूपी घोर अंधकारका नाश
किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृतका पूर (अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व)
जहाँ निकट है, वहाँ वे रागद्वेष विकृति करनेमें समर्थ नहीं ही है
उस नित्य
(शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्वमें विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी
आत्मतत्त्वमें ‘यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है’ ऐसे विधिनिषेधके
विकल्परूप स्वभाव न होनेसे उस आत्मतत्त्वका दृढ़तासे आलम्बन लेनेवाले मुनिको
स्वभावपरिणमन होनेके कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधिनिषेधके
विकल्परूप
रागद्वेषरूप परिणाम नहीं होते ) २१३
परिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति
(मंदाक्रांता)
रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थौ
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे
आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः
।।२१३।।
जो दु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२९।।
रे ! आर्त्त - रौद्र दुध्यानका नित ही जिसे वर्जन रहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२९।।

Page 261 of 388
PDF/HTML Page 288 of 415
single page version

गाथा : १२९ अन्वयार्थ :[यः तु ] जो [आर्त्तं ] आर्त [च ] और
[रौद्रं च ] रौद्र [ध्यानं ] ध्यानको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ]
उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा
केवलीके शासनमें कहा है
टीका :यह, आर्त और रौद्र ध्यानके परित्याग द्वारा सनातन (शाश्वत)
सामायिकव्रतके स्वरूपका कथन है
नित्य - निरंजन निज कारणसमयसारके स्वरूपमें नियत (नियमसे स्थित) शुद्ध -
निश्चय - परम - वीतराग - सुखामृतके पानमें परायण ऐसा जो जीव तिर्यंचयोनि, प्रेतवास और
नारकादिगतिकी योग्यताके हेतुभूत आर्त और रौद्र दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है, उसे
वास्तवमें केवलदर्शनसिद्ध (
केवलदर्शनसे निश्चित हुआ) शाश्वत सामायिकव्रत
है
[अब इस १२९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार, जो मुनि आर्त और रौद्र नामके दो ध्यानोंको
नित्य छोड़ता है उसे जिनशासनसिद्ध (जिनशासनसे निश्चित हुआ) अणुव्रतरूप
सामायिकव्रत है २१४
यस्त्वार्त्तं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२९।।
आर्तरौद्रध्यानपरित्यागात् सनातनसामायिकव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
यस्तु नित्यनिरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपनियतशुद्धनिश्चयपरमवीतरागसुखामृत-
पानपरायणो जीवः तिर्यग्योनिप्रेतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं
नित्यशः संत्यजति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्धं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति
(आर्या)
इति जिनशासनसिद्धं सामायिकव्रतमणुव्रतं भवति
यस्त्यजति मुनिर्नित्यं ध्यानद्वयमार्तरौद्राख्यम् ।।२१४।।

Page 262 of 388
PDF/HTML Page 289 of 415
single page version

गाथा : १३० अन्वयार्थ :[यः तु ] जो [पुण्यं च ] पुण्य तथा [पापं भावं
च ] पापरूप भावको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ]
सामायिक [स्थायी ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है
टीका :यह, शुभाशुभ परिणामसे उत्पन्न होनेवाले सुकृतदुष्कृतरूप कर्मके
संन्यासकी विधिका (शुभाशुभ कर्मके त्यागकी रीतिका) कथन है
बाह्य - अभ्यंतर परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित परमजिनयोगीश्वरोंका
चरणकमलप्रक्षालन, चरणकमलसंवाहन आदि वैयावृत्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली
शुभपरिणतिविशेषसे (विशिष्ट शुभ परिणतिसे) उपार्जित पुण्यकर्मको तथा हिंसा, असत्य,
चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहके परिणामसे उत्पन्न होनेवाले अशुभकर्मको, वे दोनों कर्म
संसाररूपी स्त्रीके
विलासविभ्रमका जन्मभूमिस्थान होनेसे, जो सहज वैराग्यरूपी महलके
शिखरका शिखामणि (जो परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) छोड़ता है, उसे नित्य
केवलीमतसिद्ध (केवलियोंके मतमें निश्चित हुआ) सामायिकव्रत है
जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३०।।
यस्तु पुण्यं च पापं च भावं वर्जयति नित्यशः
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३०।।
शुभाशुभपरिणामसमुपजनितसुकृतदुरितकर्मसंन्यासविधानाख्यानमेतत
बाह्याभ्यन्तरपरित्यागलक्षणलक्षितानां परमजिनयोगीश्वराणां चरणनलिनक्षालन-
संवाहनादिवैयावृत्यकरणजनितशुभपरिणतिविशेषसमुपार्जितं पुण्यकर्म, हिंसानृतस्तेयाब्रह्म-
परिग्रहपरिणामसंजातमशुभकर्म, यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः संसृतिपुरंध्रिका-
विलासविभ्रमजन्मभूमिस्थानं तत्कर्मद्वयमिति त्यजति, तस्य नित्यं केवलिमतसिद्धं
सामायिकव्रतं भवतीति
चरणकमलसंवाहन = पाँव दबाना; पगचंपी करना
विलासविभ्रम = विलासयुक्त हावभाव; क्रीड़ा
जो पुण्य - पाप विभावभावोंका सदा वर्जन करे
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१३०।।

Page 263 of 388
PDF/HTML Page 290 of 415
single page version

[अब इस १३०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] सम्यग्दृष्टि जीव संसारके मूलभूत सर्व पुण्यपापको छोड़कर,
नित्यानन्दमय, सहज, शुद्धचैतन्यरूप जीवास्तिकायको प्राप्त करता है; वह शुद्ध
जीवास्तिकायमें सदा विहरता है और फि र त्रिभुवनजनोंसे (तीन लोकके जीवोंसे) अत्यन्त
पूजित ऐसा जिन होता है
२१५
[श्लोकार्थ : ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान पापपुण्यरूपी वनको जलानेवाली अग्नि है,
महामोहांधकारनाशक अतिप्रबल तेजमय है, विमुक्तिका मूल है और निरुपधि महा
आनन्दसुखका दायक है भवभवका ध्वंस करनेमें निपुण ऐसे इस ज्ञानको मैं नित्य पूजता
हूँ २१६
[श्लोकार्थ : ] यह जीव अघसमूहके वश संसृतिवधूका पतिपना प्राप्त करके
(अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके वश संसाररूपी स्त्रीका पति बनकर) कामजनित सुखके लिये
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा सर्वं सुकृतदुरितं संसृतेर्मूलभूतं
नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम्
तस्मिन् सद्दृग् विहरति सदा शुद्धजीवास्तिकाये
पश्चादुच्चैः त्रिभुवनजनैरर्चितः सन् जिनः स्यात।।२१५।।
(शिखरिणी)
स्वतःसिद्धं ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं
महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम्
विनिर्मुक्तेर्मूलं निरुपधिमहानंदसुखदं
यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम्
।।२१६।।
(शिखरिणी)
अयं जीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधू-
धवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः
क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं
तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति
।।२१७।।
निरुपधि = छलरहित; सच्चे; वास्तविक

Page 264 of 388
PDF/HTML Page 291 of 415
single page version

आकुल मतिवाला होकर जी रहा है कभी भव्यत्व द्वारा शीघ्र मुक्तिसुखको प्राप्त करता
है, उसके पश्चात् फि र उस एकको छोड़कर वह सिद्ध चलित नहीं होता (अर्थात् एक
मुक्तिसुख ही ऐसा अनन्य, अनुपम तथा परिपूर्ण है कि उसे प्राप्त करके उसमें आत्मा
सदाकाल तृप्त
- तृप्त रहता है, उसमेंसे कभी च्युत होकर अन्य सुख प्राप्त करनेके लिये आकुल
नहीं होता) २१७
गाथा : १३१-१३२ अन्वयार्थ :[यः तु ] जो [हास्यं ] हास्य, [रतिं ]
रति, [शोकं ] शोक और [अरतिं ] अरतिको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है,
[तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा
केवलीके शासनमें कहा है
[यः ] जो [जुगुप्सां ] जुगुप्सा [भयं ] भय और [सर्वं वेदं ] सर्व वेदको
[नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक
[स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है
जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३१।।
जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३२।।
यस्तु हास्यं रतिं शोकं अरतिं वर्जयति नित्यशः
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३१।।
यः जुगुप्सां भयं वेदं सर्वं वर्जयति नित्यशः
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३२।।
जो नित्य वर्जे हास्य, अरु रति, अरति, शोकविरत रहे
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१३१।।
जो नित्य वर्जे भय जुगुप्सा, सर्व वेद समूह रे
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१३२।।

Page 265 of 388
PDF/HTML Page 292 of 415
single page version

टीका :यह, नौ नोकषायकी विजय द्वारा प्राप्त होनेवाले सामायिकचारित्रके
स्वरूपका कथन है
मोहनीयकर्मजनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय
और जुगुप्सा नामके नौ नोकषायसे होनेवाले कलंकपंकस्वरूप (मल-कीचड़स्वरूप)
समस्त विकारसमूहको परम समाधिके बलसे जो निश्चयरत्नत्रयात्मक परम तपोधन
छोड़ता है, उसे वास्तवमें केवलीभट्टारकके शासनसे सिद्ध हुआ परम सामायिक नामका
व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रोंसे कहा है
[अब इन १३११३२वीं गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज
श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] संसारस्त्रीजनित सुखदुःखावलिका करनेवाला नौ
कषायात्मक यह सब (नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) मैं वास्तवमें प्रमोदसे छोड़ता
हूँकि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहांध जीवोंको निरन्तर सुलभ है तथा
निरन्तर आनन्दित मनवाले समाधिनिष्ठ (समाधिमें लीन) जीवोंको अति दुर्लभ है २१८
नवनोकषायविजयेन समासादितसामायिकचारित्रस्वरूपाख्यानमेतत
मोहनीयकर्मसमुपजनितस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साभिधाननवनोकषाय-
कलितकलंकपंकात्मकसमस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मक-
परमतपोधनः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासनसिद्धपरमसामायिकाभिधानव्रतं
शाश्वतरूपमनेन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति
(शिखरिणी)
त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं
मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम्
महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं
समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम्
।।२१८।।
सुखदुःखावलि = सुखदुःखकी आवलि; सुखदुःखकी पंक्तिश्रेणी (नौ नोकषायात्मक विकार संसाररूपी
स्त्रीसे उत्पन्न सुखदुःखकी श्रेणीका करनेवाला है )

Page 266 of 388
PDF/HTML Page 293 of 415
single page version

गाथा : १३३ अन्वयार्थ :[यः तु ] जो [धर्मं च ] धर्मध्यान [शुक्लं च
ध्यानं ] और शुक्लध्यानको [नित्यशः ] नित्य [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे
[सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके
शासनमें कहा है
टीका :यह, परम - समाधि अधिकारके उपसंहारका कथन है
जो सकलविमल केवलज्ञानदर्शनका लोलुप (सर्वथा निर्मल केवलज्ञान और
केवलदर्शनकी तीव्र अभिलाषावालाभावनावाला) परम जिनयोगीश्वर स्वात्माश्रित
निश्चय - धर्मध्यान द्वारा और समस्त विकल्पजाल रहित निश्चय - शुक्लध्यान द्वारा
स्वात्मनिष्ठ (निज आत्मामें लीन ऐसी) निर्विकल्प परम समाधिरूप सम्पत्तिके
कारणभूत ऐसे उन धर्म
- शुक्ल ध्यानों द्वारा, अखण्ड-अद्वैत - सहज - चिद्विलासलक्षण
(अर्थात् अखण्ड अद्वैत स्वाभाविक चैतन्यविलास जिसका लक्षण है ऐसे), अक्षय
आनन्दसागरमें मग्न होनेवाले (डूबनेवाले), सकल बाह्यक्रियासे पराङ्मुख, शाश्वतरूपसे
(सदा) अन्तःक्रियाके अधिकरणभूत, सदाशिवस्वरूप आत्माको निरन्तर ध्याता है, उसे
जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३३।।
यस्तु धर्मं च शुक्लं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३३।।
परमसमाध्यधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्
यस्तु सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनलोलुपः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म-
ध्यानेन निखिलविकल्पजालनिर्मुक्त निश्चयशुक्लध्यानेन च अनवरतमखंडाद्वैतसहजचिद्विलास-
लक्षणमक्षयानन्दाम्भोधिमज्जंतं सकलबाह्यक्रियापराङ्मुखं शश्वदंतःक्रियाधिकरणं स्वात्मनिष्ठ-
निर्विकल्पपरमसमाधिसंपत्तिकारणाभ्यां ताभ्यां धर्मशुक्लध्यानाभ्यां सदाशिवात्मकमात्मानं
जो नित्य उत्तम धर्मशुक्ल सुध्यानमें ही रत रहे
स्थायी समायिक है उसे यों केवलीशासन कहे ।।१३३।।

Page 267 of 388
PDF/HTML Page 294 of 415
single page version

वास्तवमें जिनेश्वरके शासनसे निष्पन्न हुआ, नित्यशुद्ध, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी परम
समाधि जिसका लक्षण है ऐसा, शाश्वत सामायिकव्रत है
[अब इस परम - समाधि अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] इस अनघ (निर्दोष) परमानन्दमय तत्त्वके आश्रित धर्मध्यानमें
और शुक्लध्यानमें जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है ऐसा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी
विशाल तत्त्वको अत्यन्त प्राप्त करता है कि जिसमेंसे (
जिस तत्त्वमेंसे) महा दुःखसमूह
नष्ट हुआ है और जो (तत्त्व) भेदोंके अभावके कारण जीवोंको वचन तथा मनके मार्गसे
दूर है
२१९
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
परम-समाधि अधिकार नामका नववाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ
ध्यायति हि तस्य खलु जिनेश्वरशासननिष्पन्नं नित्यं शुद्धं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणं शाश्वतं
सामायिकव्रतं भवतीति
(मंदाक्रांता)
शुक्लध्याने परिणतमतिः शुद्धरत्नत्रयात्मा
धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन्
प्राप्नोत्युच्चैरपगतमहद्दुःखजालं विशालं
भेदाभावात
् किमपि भविनां वाङ्मनोमार्गदूरम् ।।२१९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः ।।

Page 268 of 388
PDF/HTML Page 295 of 415
single page version

अब भक्ति अधिकार कहा जाता है
गाथा : १३४ अन्वयार्थ :[यः श्रावकः श्रमणः ] जो श्रावक अथवा श्रमण
[सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी [भक्तिं ] भक्ति
[करोति ] करता है, [तस्य तु ] उसे [निर्वृत्तिभक्तिः भवति ] निर्वृत्तिभक्ति (निर्वाणकी
भक्ति) है [इति ] ऐसा [जिनैः प्रज्ञप्तम् ] जिनोंने कहा है
टीका :यह, रत्नत्रयके स्वरूपका कथन है
चतुर्गति संसारमें परिभ्रमणके कारणभूत तीव्र मिथ्यात्वकर्मकी प्रकृतिसे प्रतिपक्ष
१०
परम-भक्ति अधिकार
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।।१३४।।
सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः
तस्य तु निर्वृतिभक्ति र्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।।१३४।।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत
चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतीव्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक् -
श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्ति राराधनेत्यर्थः एकादशपदेषु
सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रकी श्रावक श्रमण भक्ति करे
उसको कहें निर्वाण - भक्ति परम जिनवर देव रे ।।१३४।।

Page 269 of 388
PDF/HTML Page 296 of 415
single page version

(विरुद्ध) निज परमात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरणस्वरूपशुद्धरत्नत्रय -
परिणामोंका जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है एकादशपदी
श्रावकोंमें जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं यह सब शुद्धरत्नत्रयकी
भक्ति करते हैं तथा भवभयभीरु, परमनैष्कर्म्यवृत्तिवाले (परम निष्कर्म परिणतिवाले)
परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रयकी भक्ति करते हैं उन परम श्रावकों तथा
परम तपोधनोंको जिनवरोंकी कही हुई निर्वाणभक्तिअपुनर्भवरूपी स्त्रीकी सेवा
वर्तती है
[अब इस १३४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जो जीव भवभयके हरनेवाले इस सम्यक्त्वकी, शुद्ध ज्ञानकी
और चारित्रकी भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट
पापसमूहसे मुक्त चित्तवाला जीव
श्रावक हो अथवा संयमी होनिरन्तर भक्त है,
भक्त है २२०
श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति
अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति तेषां परम-
श्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्ति रपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति
(मंदाक्रांता)
सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे
भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम्
कामक्रोधाद्यखिलदुरघव्रातनिर्मुक्त चेताः
भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा
।।२२०।।
एकादशपदी = जिनके ग्यारह पद (गुणानुसार भूमिकाएँ) हैं ऐसे [श्रावकोंके निम्नानुसार ग्यारह पद
हैं : (१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषधोपवास, (५) सचित्तत्याग, (६) रात्रिभोजन-
त्याग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उद्दिष्टाहार-
त्याग
उनमें छठवें पद तक (छठवीं प्रतिमा तक) जघन्य श्रावक हैं, नौवें पद तक मध्यम श्रावक
हैं और दसवें तथा ग्यारहवें पद पर हों वे उत्तम श्रावक हैं यह सब पद सम्यक्त्वपूर्वक, हठ रहित
सहज दशाके हैं यह ध्यानमें रखने योग्य हैं ]

Page 270 of 388
PDF/HTML Page 297 of 415
single page version

गाथा : १३५ अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [मोक्षगतपुरुषाणाम् ] मोक्षगत
पुरुषोंका [गुणभेदं ] गुणभेद [ज्ञात्वा ] जानकर [तेषाम् अपि ] उनकी भी
[परमभक्तिं ] परम भक्ति [करोति ] करता है, [व्यवहारनयेन ] उस जीवको
व्यवहारनयसे [परिकथितम् ] निर्वाणभक्ति कही है
टीका :यह, व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्तिके स्वरूपका कथन है
जो पुराण पुरुष समस्तकर्मक्षयके उपायके हेतुभूत कारणपरमात्माकी अभेद -
अनुपचार - रत्नत्रयपरिणतिसे सम्यक्रूपसे आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि
शुद्ध गुणोंके भेदको जानकर निर्वाणकी परम्पराहेतुभूत ऐसी परम भक्ति जो आसन्नभव्य
जीव करता है, उस मुमुक्षुको व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति है
[अब इस १३५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह
श्लोक कहते हैं : ]
मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि
जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।।१३५।।
मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि
यः करोति परमभक्तिं व्यवहारनयेन परिकथितम् ।।१३५।।
व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्ति स्वरूपाख्यानमेतत
ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुभूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रय-
परिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां
परमभक्ति मासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृतिभक्ति र्भवतीति
जो मुक्तिगत हैं उन पुरुषकी भक्ति जो गुणभेदसे
करता, वही व्यवहारसे निर्वाणभक्ति वेद रे
।।१३५।।

Page 271 of 388
PDF/HTML Page 298 of 415
single page version

[श्लोकार्थ : ] जिन्होंने कर्मसमूहको खिरा दिया है, जो सिद्धिवधूके (मुक्तिरूपी
स्त्रीके) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्यको संप्राप्त किया है तथा जो कल्याणके धाम
हैं, उन सिद्धोंको मैं नित्य वंदन करता हूँ
२२१
[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार (सिद्धभगवन्तोंकी भक्तिको) व्यवहारनयसे
निर्वाणभक्ति जिनवरोंने कहा है; निश्चय - निर्वाणभक्ति रत्नत्रयभक्तिको कहा है २२२
[श्लोकार्थ : ] आचार्योंने सिद्धत्वको निःशेष (समस्त) दोषसे दूर,
केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका धाम और शुद्धोपयोगका फल कहा है २२३
[श्लोकार्थ : ] जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभवके क्लेशरूपी समुद्रके
पारको प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाणवधूके पुष्ट स्तनके आलिंगनसे उत्पन्न सौख्यकी खान हैं तथा
जो शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न कैवल्यसम्पदाके (
मोक्षसम्पदाके) महा गुणोंवाले हैं, उन
पापाटवीपावक (पापरूपी वनको जलानेमें अग्नि समान) सिद्धोंको मैं प्रतिदिन नमन
करता हूँ २२४
(अनुष्टुभ्)
उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान्
संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ।।२२१।।
(आर्या)
व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृतिभक्ति र्जिनोत्तमैः प्रोक्ता
निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्ति रित्युक्ता ।।२२२।।
(आर्या)
निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं
शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ।।२२३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता
ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः
ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणाः
तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान्
।।२२४।।

Page 272 of 388
PDF/HTML Page 299 of 415
single page version

[श्लोकार्थ : ] जो तीन लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं, जो गुणमें बड़े
हैं, जो ज्ञेयरूपी महासागरके पारको प्राप्त हुए हैं, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके
सूर्य हैं, जो स्वाधीन सुखके सागर हैं, जिन्होंने अष्ट गुणोंको सिद्ध (
प्राप्त) किया है,
जो भवका नाश करनेवाले हैं तथा जिन्होंने आठ कर्मोंके समूहको नष्ट किया है, उन
पापाटवीपावक (
पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान) नित्य (अविनाशी)
सिद्धभगवन्तोंकी मैं निरन्तर शरण ग्रहण क रता हूँ २२५
[श्लोकार्थ : ] जो मनुष्योंके तथा देवोंके समूहकी परोक्ष भक्तिके योग्य हैं,
जो सदा शिवमय हैं, जो श्रेष्ठ हैं तथा जो प्रसिद्ध हैं, वे सिद्धभगवन्त सुसिद्धिरूपी रमणीके
रमणीय मुखकमलके महा
मकरन्दके भ्रमर हैं (अर्थात् अनुपम मुक्तिसुखका निरन्तर
अनुभव करते हैं ) २२६
(शार्दूलविक्रीडित)
त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून् ज्ञेयाब्धिपारंगतान्
मुक्ति श्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान्
सिद्धान् सिद्धगुणाष्टकान् भवहरान् नष्टाष्टकर्मोत्करान्
नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान्
।।२२५।।
(वसंततिलका)
ये मर्त्यदैवनिकुरम्बपरोक्षभक्ति -
योग्याः सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः
सिद्धाः सुसिद्धिरमणीरमणीयवक्त्र-
पंकेरुहोरुमकरंदमधुव्रताः स्युः
।।२२६।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती
तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं ।।१३६।।
मकरन्द = फू लका पराग, फू लका रस, फू लका केसर
रे ! जोड़ निजको मुक्तिपथमें भक्ति निर्वृतिकी करे
अतएव वह असहाय - गुण - सम्पन्न निज आत्मा वरे ।।१३६।।

Page 273 of 388
PDF/HTML Page 300 of 415
single page version

गाथा : १३६ अन्वयार्थ :[मोक्षपथे ] मोक्षमार्गमें [आत्मानं ] (अपने)
आत्माको [संस्थाप्य च ] सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके [निर्वृत्तेः ] निर्वृत्तिकी (निर्वाणकी)
[भक्तिम् ] भक्ति [करोति ] करता है, [तेन तु ] उससे [जीवः ] जीव [असहायगुणं ]
असहायगुणवाले [निजात्मानम् ] निज आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है
टीका :यह, निज परमात्माकी भक्तिके स्वरूपका कथन है
निरंजन निज परमात्माका आनन्दामृत पान करनेमें अभिमुख जीव भेदकल्पनानिरपेक्ष
निरुपचार - रत्नत्रयात्मक निरुपराग मोक्षमार्गमें अपने आत्माको सम्यक् प्रकारसे स्थापित
करके निर्वृतिकेमुक्तिरूपी स्त्रीकेचरणकमलकी परम भक्ति करता है, उस कारणसे
वह भव्य जीव भक्तिगुण द्वारा निज आत्माकोकि जो निरावरण सहज ज्ञानगुणवाला होनेसे
असहायगुणात्मक है उसेप्राप्त करता है
[अब इस १३६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] इस अविचलित - महाशुद्ध - रत्नत्रयवाले, मुक्तिके हेतुभूत
मोक्षपथे आत्मानं संस्थाप्य च करोति निर्वृतेर्भक्ति म्
तेन तु जीवः प्राप्नोत्यसहायगुणं निजात्मानम् ।।१३६।।
निजपरमात्मभक्ति स्वरूपाख्यानमेतत
भेदकल्पनानिरपेक्षनिरुपचाररत्नत्रयात्मके निरुपरागमोक्षमार्गे निरंजननिजपरमात्मानंद-
पीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मुक्त्यङ्गनायाः चरणनलिने
परमां भक्तिं, तेन कारणेन स भव्यो भक्ति गुणेन निरावरणसहजज्ञानगुणत्वादसहायगुणात्मकं
निजात्मानं प्राप्नोति
(स्रग्धरा)
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन्
नित्ये निर्मुक्ति हेतौ निरुपमसहजज्ञान
द्रक्शीलरूपे
असहायगुणवाला = जिसे किसीकी सहायता नहीं है ऐसे गुणवाला [आत्मा स्वतःसिद्ध सहज स्वतंत्र
गुणवाला होनेसे असहायगुणवाला है ]
निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार; निर्मल; शुद्ध