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कल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्र्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिन- योगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति ।
गाथा : १२६ अन्वयार्थ : — [यः ] जो [स्थावरेषु ] स्थावर [वा ] अथवा [त्रसेषु ] त्रस [सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [समः ] समभाववाला है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है
टीका : — यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदिमें आरूढ़ होकर स्थित परममुमुक्षुका स्वरूप कहा है ।
जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि (अर्थात् परम सहजवैराग्यवन्त मुनि) विकारके कारणभूत समस्त मोहरागद्वेषके अभावके कारण भेदकल्पना विमुक्त परम समरसीभाव सहित होनेसे त्रस - स्थावर (समस्त) जीवनिकायोंके प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वरको सामायिक नामका व्रत सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञके मार्गमें सिद्ध है ।
[अब इस १२६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ श्लोक कहते हैं : ]
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परमजिनमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम् ।
तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।२०४।।
[श्लोकार्थ : — ] परम जिनमुनियोंका जो चित्त (चैतन्यपरिणमन) निरंतर त्रस जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके वधसे अत्यन्त विमुक्त है, और जो (चित्त) अंतिम अवस्थाको प्राप्त तथा निर्मल है, उसे मैं कर्मसे मुक्त होनेके हेतु नमन करता हूँ, स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ ।२०४।
[श्लोकार्थ : — ] कोई जीव अद्वैतमार्गमें स्थित हैं और कोई जीव द्वैतमार्गमें स्थित हैं; द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त मार्गमें (अर्थात् जिसमें द्वैत या अद्वैतके विकल्प नहीं हैं ऐसे मार्गमें) हम वर्तते हैं ।२०५।
[श्लोकार्थ : — ] कोई जीव अद्वैतकी इच्छा करते हैं और अन्य कोई जीव द्वैतकी इच्छा करते हैं; मैं द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त आत्माको नमन करता हूँ ।२०६।
[श्लोकार्थ : — ] मैं — सुखकी इच्छा रखनेवाला आत्मा — अजन्म और अविनाशी ऐसे निज आत्माको आत्मा द्वारा ही आत्मामें स्थित रहकर बारम्बार भाता हूँ ।२०७।
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अखंडानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः ।
शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च ।
य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम् ।।२०९।।
स्फु टितसहजतेजःपुंजदूरीकृतांहः- ।
जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम् ।।२१०।।
[श्लोकार्थ : — ] भवके करनेवाले ऐसे इन विकल्प-कथनोंसे बस होओ, बस होओ । जो अखण्डानन्दस्वरूप है वह (यह आत्मा) समस्त नयराशिका अविषय है; इसलिये यह कोई (अवर्णनीय) आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है (अर्थात् द्वैत - अद्वैतके विकल्पोंसे पर है ) । उस एकको मैं अल्प कालमें भवभयका नाश करनेके लिये सतत वंदन करता हूँ ।२०८।
[श्लोकार्थ : — ] योनिमें सुख और दुःख सुकृत और दुष्कृतके समूहसे होता है (अर्थात् चार गतिके जन्मोंमें सुखदुःख शुभाशुभ कृत्योंसे होता है ) । और दूसरे प्रकारसे ( – निश्चयनयसे), आत्माको शुभका भी अभाव है तथा अशुभ परिणति भी नहीं है — नहीं है, क्योंकि इस लोकमें एक आत्माको (अर्थात् आत्मा सदा एकरूप होनेसे उसे) अवश्य भवका परिचय बिलकुल नहीं है । इसप्रकार जो भवगुणोंके समूहसे संन्यस्त है (अर्थात् जो शुभ - अशुभ, राग - द्वेष आदि भवके गुणोंसे — विभावोंसे – रहित है ) उसका ( – नित्यशुद्ध आत्माका) मैं स्तवन करता हूँ ।२०९।
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महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् ।
सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्रºशां गोचरम् ।।२११।।
अत्राप्यात्मैवोपादेय इत्युक्त : । जगतमें नित्य जयवन्त है — कि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्वधर्मत्यागरूप (मोहरूप) अतिप्रबल तिमिरसमूहको दूर किया है और जो उस ❃अघसेनाकी ध्वजाको हर लेता है ।२१०।
[श्लोकार्थ : — ] यह अनघ (निर्दोष) आत्मतत्त्व जयवन्त है — कि जिसने संसारको अस्त किया है, जो महामुनिगणके अधिनाथके ( – गणधरोंके) हृदयारविन्दमें स्थित है, जिसने भवका कारण छोड़ दिया है, जो एकान्तसे शुद्ध प्रगट हुआ है (अर्थात् जो सर्वथा - शुद्धरूपसे स्पष्ट ज्ञात होता है ) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण चैतन्यसामान्यरूप) निज महिमामें लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है ।२११।
गाथा : १२७ अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिसे [संयमे ] संयममें, [नियमे ] नियममें और [तपसि ] तपमें [आत्मा ] आत्मा [सन्निहितः ] समीप है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) भी आत्मा ही उपादेय है ऐसा कहा है । ❃ अघ = दोष; पाप ।
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यस्य खलु बाह्यप्रपंचपराङ्मुखस्य निर्जिताखिलेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पाप- क्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाङ्मनोगुप्तिरूपसकलेन्द्रियव्यापारवर्जितेऽभ्यन्तरात्मनि परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्मयनियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहीणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सन्निहित इति केवलिनां शासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्द्रष्टेर्वीतरागचारित्रभाजः सामायिकव्रतं स्थायि भवतीति ।
तिष्ठत्युच्चैः परमयमिनः शुद्धद्रष्टेर्मनश्चेत् ।
साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे ।।२१२।।
बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख और समस्त इन्द्रियव्यापारको जीते हुए ऐसे जिस भावी जिनको पापक्रियाकी निवृत्तिरूप बाह्यसंयममें, काय - वचन - मनोगुप्तिरूप, समस्त इन्द्रियव्यापार रहित अभ्यंतरसंयममें, मात्र परिमित (मर्यादित) कालके आचरणस्वरूप नियममें, निजस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप, चिन्मय - परमब्रह्ममें नियत (निश्चल रहे हुए) ऐसे निश्चयअन्तर्गत-आचारमें (अर्थात् निश्चय - अभ्यंतर नियममें), व्यवहारसे ❃प्रपंचित (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचाररूप) पंचाचारमें (अर्थात् व्यवहार – तपश्चरणमें), तथा पंचमगतिके हेतुभूत, किंचित् भी परिग्रहप्रपंचसे सर्वथा रहित, सकल दुराचारकी निवृत्तिके कारणभूत ऐसे परम तपश्चरणमें ( – इन सबमें) परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त किया हुआ निरंजन निज कारणपरमात्मा सदा समीप है (अर्थात् जिस मुनिको संयममें, नियममें और तपमें निज कारणपरमात्मा सदा निकट है ), उस परद्रव्यपराङ्मुख परमवीतराग - सम्यक्दृष्टि वीतराग - चारित्रवंतको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा केवलियोंके शासनमें कहा है ।
[अब इस १२७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] यदि शुद्धदृष्टिवन्त ( – सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि परम मुनिको तपमें, नियममें, संयममें और सत्चारित्रमें सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है ❃ प्रपंचित = दर्शाये गये; विस्तारको प्राप्त ।
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नावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्र- (अर्थात् प्रत्येक कार्यमें निरन्तर शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ कि) रागके नाशके कारण १अभिराम ऐसे उस भवभयहर भावि तीर्थाधिनाथको यह साक्षात् सहज - समता अवश्य है । २१२ ।
गाथा : १२८ अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिसे [रागः तु ] राग या [द्वेषः तु ] द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं ] विकृति [न तु जनयति ] उत्पन्न नहीं करता, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमीको राग या द्वेष ❃विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्दके अभिलाषी जीवको — कि १ – अभिराम = मनोहर; सुन्दर । (भवभयके हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्करने रागका नाश किया होनेसे
२ – अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता । ❃ विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणतिसे विरुद्ध परिणति । [परमवीतरागसंयमीको समतास्वभावी
प्रकृतिभूत (स्वभावभूत) समतापरिणाम होता है । ]
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परिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति ।
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे ।
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः ।।२१३।।
[अब इस १२८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूपी घोर अंधकारका नाश किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृतका पूर (अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व) जहाँ निकट है, वहाँ वे रागद्वेष विकृति करनेमें समर्थ नहीं ही है । उस नित्य (शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्वमें विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी आत्मतत्त्वमें ‘यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है’ ऐसे विधिनिषेधके विकल्परूप स्वभाव न होनेसे उस आत्मतत्त्वका दृढ़तासे आलम्बन लेनेवाले मुनिको स्वभावपरिणमन होनेके कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधिनिषेधके विकल्परूप — रागद्वेषरूप परिणाम नहीं होते ।) ।२१३।
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पानपरायणो जीवः तिर्यग्योनिप्रेतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशः संत्यजति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्धं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति ।
गाथा : १२९ अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [आर्त्तं ] आर्त [च ] और [रौद्रं च ] रौद्र [ध्यानं ] ध्यानको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यह, आर्त और रौद्र ध्यानके परित्याग द्वारा सनातन (शाश्वत) सामायिकव्रतके स्वरूपका कथन है ।
नित्य - निरंजन निज कारणसमयसारके स्वरूपमें नियत ( – नियमसे स्थित) शुद्ध - निश्चय - परम - वीतराग - सुखामृतके पानमें परायण ऐसा जो जीव तिर्यंचयोनि, प्रेतवास और नारकादिगतिकी योग्यताके हेतुभूत आर्त और रौद्र दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है, उसे वास्तवमें केवलदर्शनसिद्ध ( – केवलदर्शनसे निश्चित हुआ) शाश्वत सामायिकव्रत है ।
[अब इस १२९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार, जो मुनि आर्त और रौद्र नामके दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है उसे जिनशासनसिद्ध ( – जिनशासनसे निश्चित हुआ) अणुव्रतरूप सामायिकव्रत है ।२१४।
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संवाहनादिवैयावृत्यकरणजनितशुभपरिणतिविशेषसमुपार्जितं पुण्यकर्म, हिंसानृतस्तेयाब्रह्म- परिग्रहपरिणामसंजातमशुभकर्म, यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः संसृतिपुरंध्रिका- विलासविभ्रमजन्मभूमिस्थानं तत्कर्मद्वयमिति त्यजति, तस्य नित्यं केवलिमतसिद्धं सामायिकव्रतं भवतीति ।
गाथा : १३० अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [पुण्यं च ] पुण्य तथा [पापं भावं च ] पापरूप भावको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायी ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यह, शुभाशुभ परिणामसे उत्पन्न होनेवाले सुकृतदुष्कृतरूप कर्मके संन्यासकी विधिका ( – शुभाशुभ कर्मके त्यागकी रीतिका) कथन है ।
बाह्य - अभ्यंतर परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित परमजिनयोगीश्वरोंका चरणकमलप्रक्षालन, १चरणकमलसंवाहन आदि वैयावृत्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली शुभपरिणतिविशेषसे (विशिष्ट शुभ परिणतिसे) उपार्जित पुण्यकर्मको तथा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहके परिणामसे उत्पन्न होनेवाले अशुभकर्मको, वे दोनों कर्म संसाररूपी स्त्रीके २विलासविभ्रमका जन्मभूमिस्थान होनेसे, जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि ( – जो परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) छोड़ता है, उसे नित्य केवलीमतसिद्ध (केवलियोंके मतमें निश्चित हुआ) सामायिकव्रत है । १ – चरणकमलसंवाहन = पाँव दबाना; पगचंपी करना । २ – विलासविभ्रम = विलासयुक्त हावभाव; क्रीड़ा ।
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नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम् ।
महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम् ।
यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम् ।।२१६।।
तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।।२१७।।
[अब इस १३०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] सम्यग्दृष्टि जीव संसारके मूलभूत सर्व पुण्यपापको छोड़कर, नित्यानन्दमय, सहज, शुद्धचैतन्यरूप जीवास्तिकायको प्राप्त करता है; वह शुद्ध जीवास्तिकायमें सदा विहरता है और फि र त्रिभुवनजनोंसे (तीन लोकके जीवोंसे) अत्यन्त पूजित ऐसा जिन होता है ।२१५।
[श्लोकार्थ : — ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान पापपुण्यरूपी वनको जलानेवाली अग्नि है, महामोहांधकारनाशक अतिप्रबल तेजमय है, विमुक्तिका मूल है और ❃निरुपधि महा आनन्दसुखका दायक है । भवभवका ध्वंस करनेमें निपुण ऐसे इस ज्ञानको मैं नित्य पूजता हूँ ।२१६।
[श्लोकार्थ : — ] यह जीव अघसमूहके वश संसृतिवधूका पतिपना प्राप्त करके (अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके वश संसाररूपी स्त्रीका पति बनकर) कामजनित सुखके लिये ❃ निरुपधि = छलरहित; सच्चे; वास्तविक ।
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मुक्तिसुख ही ऐसा अनन्य, अनुपम तथा परिपूर्ण है कि उसे प्राप्त करके उसमें आत्मा
सदाकाल तृप्त - तृप्त रहता है, उसमेंसे कभी च्युत होकर अन्य सुख प्राप्त करनेके लिये आकुल
गाथा : १३१-१३२ अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [हास्यं ] हास्य, [रतिं ] रति, [शोकं ] शोक और [अरतिं ] अरतिको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
[यः ] जो [जुगुप्सां ] जुगुप्सा [भयं ] भय और [सर्वं वेदं ] सर्व वेदको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
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मोहनीयकर्मसमुपजनितस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साभिधाननवनोकषाय- कलितकलंकपंकात्मकसमस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मक- परमतपोधनः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासनसिद्धपरमसामायिकाभिधानव्रतं शाश्वतरूपमनेन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति ।
मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम् ।
समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम् ।।२१८।।
टीका : — यह, नौ नोकषायकी विजय द्वारा प्राप्त होनेवाले सामायिकचारित्रके स्वरूपका कथन है ।
मोहनीयकर्मजनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नामके नौ नोकषायसे होनेवाले कलंकपंकस्वरूप (मल-कीचड़स्वरूप) समस्त विकारसमूहको परम समाधिके बलसे जो निश्चयरत्नत्रयात्मक परम तपोधन छोड़ता है, उसे वास्तवमें केवलीभट्टारकके शासनसे सिद्ध हुआ परम सामायिक नामका व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रोंसे कहा है
[अब इन १३१ – १३२वीं गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] संसारस्त्रीजनित ❃सुखदुःखावलिका करनेवाला नौ कषायात्मक यह सब ( – नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) मैं वास्तवमें प्रमोदसे छोड़ता हूँ — कि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहांध जीवोंको निरन्तर सुलभ है तथा निरन्तर आनन्दित मनवाले समाधिनिष्ठ (समाधिमें लीन) जीवोंको अति दुर्लभ है ।२१८। ❃ सुखदुःखावलि = सुखदुःखकी आवलि; सुखदुःखकी पंक्ति — श्रेणी । (नौ नोकषायात्मक विकार संसाररूपी
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ध्यानेन निखिलविकल्पजालनिर्मुक्त निश्चयशुक्लध्यानेन च अनवरतमखंडाद्वैतसहजचिद्विलास- लक्षणमक्षयानन्दाम्भोधिमज्जंतं सकलबाह्यक्रियापराङ्मुखं शश्वदंतःक्रियाधिकरणं स्वात्मनिष्ठ- निर्विकल्पपरमसमाधिसंपत्तिकारणाभ्यां ताभ्यां धर्मशुक्लध्यानाभ्यां सदाशिवात्मकमात्मानं
गाथा : १३३ अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [धर्मं च ] धर्मध्यान [शुक्लं च ध्यानं ] और शुक्लध्यानको [नित्यशः ] नित्य [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
जो सकल – विमल केवलज्ञानदर्शनका लोलुप (सर्वथा निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शनकी तीव्र अभिलाषावाला – भावनावाला) परम जिनयोगीश्वर स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यान द्वारा और समस्त विकल्पजाल रहित निश्चय - शुक्लध्यान द्वारा — स्वात्मनिष्ठ (निज आत्मामें लीन ऐसी) निर्विकल्प परम समाधिरूप सम्पत्तिके कारणभूत ऐसे उन धर्म - शुक्ल ध्यानों द्वारा, अखण्ड-अद्वैत - सहज - चिद्विलासलक्षण (अर्थात् अखण्ड अद्वैत स्वाभाविक चैतन्यविलास जिसका लक्षण है ऐसे), अक्षय आनन्दसागरमें मग्न होनेवाले (डूबनेवाले), सकल बाह्यक्रियासे पराङ्मुख, शाश्वतरूपसे (सदा) अन्तःक्रियाके अधिकरणभूत, सदाशिवस्वरूप आत्माको निरन्तर ध्याता है, उसे
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ध्यायति हि तस्य खलु जिनेश्वरशासननिष्पन्नं नित्यं शुद्धं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति ।
धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन् ।
भेदाभावात् किमपि भविनां वाङ्मनोमार्गदूरम् ।।२१९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः ।। वास्तवमें जिनेश्वरके शासनसे निष्पन्न हुआ, नित्यशुद्ध, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी परम समाधि जिसका लक्षण है ऐसा, शाश्वत सामायिकव्रत है ।
[अब इस परम - समाधि अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस अनघ (निर्दोष) परमानन्दमय तत्त्वके आश्रित धर्मध्यानमें और शुक्लध्यानमें जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है ऐसा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी विशाल तत्त्वको अत्यन्त प्राप्त करता है कि जिसमेंसे ( – जिस तत्त्वमेंसे) महा दुःखसमूह नष्ट हुआ है और जो (तत्त्व) भेदोंके अभावके कारण जीवोंको वचन तथा मनके मार्गसे दूर है ।२१९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-समाधि अधिकार नामका नववाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्ति राराधनेत्यर्थः । एकादशपदेषु
गाथा : १३४ अन्वयार्थ : — [यः श्रावकः श्रमणः ] जो श्रावक अथवा श्रमण [सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी [भक्तिं ] भक्ति [करोति ] करता है, [तस्य तु ] उसे [निर्वृत्तिभक्तिः भवति ] निर्वृत्तिभक्ति (निर्वाणकी भक्ति) है [इति ] ऐसा [जिनैः प्रज्ञप्तम् ] जिनोंने कहा है ।
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श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । तेषां परम- श्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्ति रपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति ।
भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम् ।
भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा ।।२२०।।
(विरुद्ध) निज परमात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरणस्वरूपशुद्धरत्नत्रय - परिणामोंका जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है । ❃एकादशपदी श्रावकोंमें जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं । — यह सब शुद्धरत्नत्रयकी भक्ति करते हैं । तथा भवभयभीरु, परमनैष्कर्म्यवृत्तिवाले (परम निष्कर्म परिणतिवाले) परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रयकी भक्ति करते हैं । उन परम श्रावकों तथा परम तपोधनोंको जिनवरोंकी कही हुई निर्वाणभक्ति — अपुनर्भवरूपी स्त्रीकी सेवा — वर्तती है ।
[अब इस १३४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो जीव भवभयके हरनेवाले इस सम्यक्त्वकी, शुद्ध ज्ञानकी और चारित्रकी भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूहसे मुक्त चित्तवाला जीव — श्रावक हो अथवा संयमी हो — निरन्तर भक्त है, भक्त है । ।२२०। ❃एकादशपदी = जिनके ग्यारह पद (गुणानुसार भूमिकाएँ) हैं ऐसे । [श्रावकोंके निम्नानुसार ग्यारह पद
त्याग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उद्दिष्टाहार-
त्याग । उनमें छठवें पद तक (छठवीं प्रतिमा तक) जघन्य श्रावक हैं, नौवें पद तक मध्यम श्रावक
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परिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्ति मासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृतिभक्ति र्भवतीति ।
गाथा : १३५ अन्वयार्थ : — [यः ] जो जीव [मोक्षगतपुरुषाणाम् ] मोक्षगत पुरुषोंका [गुणभेदं ] गुणभेद [ज्ञात्वा ] जानकर [तेषाम् अपि ] उनकी भी [परमभक्तिं ] परम भक्ति [करोति ] करता है, [व्यवहारनयेन ] उस जीवको व्यवहारनयसे [परिकथितम् ] निर्वाणभक्ति कही है ।
जो पुराण पुरुष समस्तकर्मक्षयके उपायके हेतुभूत कारणपरमात्माकी अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयपरिणतिसे सम्यक्रूपसे आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके भेदको जानकर निर्वाणकी परम्पराहेतुभूत ऐसी परम भक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है, उस मुमुक्षुको व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति है ।
[अब इस १३५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं : ]
करता, वही व्यवहारसे निर्वाणभक्ति वेद रे ।।१३५।।
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ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः ।
तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ।।२२४।।
[श्लोकार्थ : — ] जिन्होंने कर्मसमूहको खिरा दिया है, जो सिद्धिवधूके (मुक्तिरूपी स्त्रीके) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्यको संप्राप्त किया है तथा जो कल्याणके धाम हैं, उन सिद्धोंको मैं नित्य वंदन करता हूँ ।२२१।
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार (सिद्धभगवन्तोंकी भक्तिको) व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति जिनवरोंने कहा है; निश्चय - निर्वाणभक्ति रत्नत्रयभक्तिको कहा है ।२२२।
[श्लोकार्थ : — ] आचार्योंने सिद्धत्वको निःशेष (समस्त) दोषसे दूर, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका धाम और शुद्धोपयोगका फल कहा है ।२२३।
[श्लोकार्थ : — ] जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभवके क्लेशरूपी समुद्रके पारको प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाणवधूके पुष्ट स्तनके आलिंगनसे उत्पन्न सौख्यकी खान हैं तथा जो शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न कैवल्यसम्पदाके ( – मोक्षसम्पदाके) महा गुणोंवाले हैं, उन पापाटवीपावक ( – पापरूपी वनको जलानेमें अग्नि समान) सिद्धोंको मैं प्रतिदिन नमन करता हूँ ।२२४।
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मुक्ति श्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान् ।
नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान् ।।२२५।।
योग्याः सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः ।
पंकेरुहोरुमकरंदमधुव्रताः स्युः ।।२२६।।
[श्लोकार्थ : — ] जो तीन लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं, जो गुणमें बड़े हैं, जो ज्ञेयरूपी महासागरके पारको प्राप्त हुए हैं, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं, जो स्वाधीन सुखके सागर हैं, जिन्होंने अष्ट गुणोंको सिद्ध ( – प्राप्त) किया है, जो भवका नाश करनेवाले हैं तथा जिन्होंने आठ कर्मोंके समूहको नष्ट किया है, उन पापाटवीपावक ( – पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान) नित्य (अविनाशी) सिद्धभगवन्तोंकी मैं निरन्तर शरण ग्रहण क रता हूँ । २२५ ।
[श्लोकार्थ : — ] जो मनुष्योंके तथा देवोंके समूहकी परोक्ष भक्तिके योग्य हैं, जो सदा शिवमय हैं, जो श्रेष्ठ हैं तथा जो प्रसिद्ध हैं, वे सिद्धभगवन्त सुसिद्धिरूपी रमणीके रमणीय मुखकमलके महा ❃
अनुभव करते हैं ) ।२२६। ❃ मकरन्द = फू लका पराग, फू लका रस, फू लका केसर ।
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पीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मुक्त्यङ्गनायाः चरणनलिने परमां भक्तिं, तेन कारणेन स भव्यो भक्ति गुणेन निरावरणसहजज्ञानगुणत्वादसहायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति ।
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् नित्ये निर्मुक्ति हेतौ निरुपमसहजज्ञानद्रक्शीलरूपे ।
गाथा : १३६ अन्वयार्थ : — [मोक्षपथे ] मोक्षमार्गमें [आत्मानं ] (अपने) आत्माको [संस्थाप्य च ] सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके [निर्वृत्तेः ] निर्वृत्तिकी (निर्वाणकी) [भक्तिम् ] भक्ति [करोति ] करता है, [तेन तु ] उससे [जीवः ] जीव [असहायगुणं ] १असहायगुणवाले [निजात्मानम् ] निज आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है ।
निरंजन निज परमात्माका आनन्दामृत पान करनेमें अभिमुख जीव भेदकल्पनानिरपेक्ष निरुपचार - रत्नत्रयात्मक २निरुपराग मोक्षमार्गमें अपने आत्माको सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके निर्वृतिके — मुक्तिरूपी स्त्रीके — चरणकमलकी परम भक्ति करता है, उस कारणसे वह भव्य जीव भक्तिगुण द्वारा निज आत्माको — कि जो निरावरण सहज ज्ञानगुणवाला होनेसे असहायगुणात्मक है उसे — प्राप्त करता है ।
[अब इस १३६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस अविचलित - महाशुद्ध - रत्नत्रयवाले, मुक्तिके हेतुभूत १ – असहायगुणवाला = जिसे किसीकी सहायता नहीं है ऐसे गुणवाला । [आत्मा स्वतःसिद्ध सहज स्वतंत्र
२ – निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार; निर्मल; शुद्ध ।