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प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।२२७।।
निरुपम – सहज – ज्ञानदर्शनचारित्ररूप, नित्य आत्मामें आत्माको वास्तवमें सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके, यह आत्मा चैतन्यचमत्कारकी भक्ति द्वारा ❃निरतिशय घरको — कि जिसमेंसे विपदाएँ दूर हुई हैं तथा जो आनन्दसे भव्य (शोभायमान) है उसे — अत्यन्त प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है ।२२७।
गाथा : १३७ अन्वयार्थ : — [यः साधु तु ] जो साधु [रागादिपरिहारे आत्मानं युनक्ति ] रागादिके परिहारमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर रागादिका त्याग करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तियुक्त (योगकी भक्तिवाला) है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार ( – सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परम समाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका परिहार होने पर, जो साधु — आसन्नभव्य ❃ निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।
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सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं युनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त : । इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं योगभक्ति र्भवति ।
[श्लोकार्थ : — ] आत्मप्रयत्नसापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्ममें संयोग होना ( – आत्मप्रयत्नकी अपेक्षावाली विशेष प्रकारकी चित्तपरिणतिका आत्मामें लगना) उसे योग कहा जाता है ।’’
और (इस १३७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो यह आत्मा आत्माको आत्माके साथ निरन्तर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चयसे योगभक्तिवाला है ।२२८।
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मोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमय- सारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्येव, तस्य खलु निश्चययोगभक्ति र्नान्येषाम् इति ।
गाथा : १३८ अन्वयार्थ : — [यः साधु तु ] जो साधु [सर्वविकल्पाभावे आत्मानं युनक्ति ] सर्व विकल्पोंके अभावमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको जोड़कर सर्व विकल्पोंका अभाव करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तिवाला है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
अति – अपूर्व १निरुपराग रत्नत्रयात्मक, २निजचिद्विलासलक्षण निर्विकल्प परमसमाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विकल्पोंका अभाव होने पर, परमसमरसीभावके साथ ३निरवशेषरूपसे अंतर्मुख निज कारणसमयसारस्वरूपको जो अति - आसन्नभव्य जीव सदा जोड़ता ही है, उसे वास्तवमें निश्चययोगभक्ति है; दूसरोंको नहीं ।
[अब इस १३८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] भेदका अभाव होने पर यह ४अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियोंको आत्मलब्धिरूप ऐसी वह ( – प्रसिद्ध) मुक्ति होती है ।२२९। १ – निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध । [परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है । ] २ – परम समाधिका लक्षण निज चैतन्यका विलास है । ३ – निरवशेष = परिपूर्ण । [कारणसमयसारस्वरूप परिपूर्ण अन्तर्मुख है । ] ४ – अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ ।
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इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेश- विवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्त : ।
अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभि- निवेशः । अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि । सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः ।
गाथा : १३९ अन्वयार्थ : — [विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य ] विपरीत अभिनिवेशका परित्याग करके [यः ] जो [जैनकथिततत्त्वेषु ] जैनकथित तत्त्वोंमें [आत्मानं ] आत्माको [युनक्ति ] लगाता है, [निजभावः ] उसका निज भाव [सः योगः भवेत् ] वह योग है ।
टीका : — यहाँ, समस्त गुणोंके धारण करनेवाले गणधरदेव आदि जिनमुनिनाथों द्वारा कहे हुए तत्त्वोंमें विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग है ऐसा कहा है ।
अन्य समयके तीर्थनाथ द्वारा कहे हुए ( – जैन दर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनके तीर्थप्रवर्तक द्वारा कहे हुए) विपरीत पदार्थमें अभिनिवेश — दुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश है । उसका परित्याग करके जैनों द्वारा कहे हुए तत्त्व निश्चयव्यवहारनयसे जानने योग्य हैं, १सकलजिन ऐसे भगवान तीर्थाधिनाथके चरणकमलके २उपजीवक वे जैन हैं; परमार्थसे गणधरदेव आदि ऐसा उसका अर्थ है । उन्होंने ( – गणधरदेव आदि जैनोंने) कहे हुए जो १ – देह सहित होने पर भी तीर्थंकरदेवने रागद्वेष और अज्ञानको सम्पूर्णरूपसे जीता है इसलिये वे सकलजिन हैं । २ – उपजीवक = सेवा करनेवाले; सेवक; आश्रित; दास ।
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तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति , तस्य च निजभाव एव परमयोग इति ।
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु ।
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः ।।२३०।।
निजभाव ही परम योग है ।
[अब इस १३९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस दुराग्रहको ( – उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशको) छोड़कर, जैनमुनिनाथोंके ( – गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथोंके) मुखारविन्दसे प्रगट हुए, भव्य जनोंके भवोंका नाश करनेवाले तत्त्वोंमें जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावको साक्षात् लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है ।२३०।
गाथा : १४० अन्वयार्थ : — [वृषभादिजिनवरेन्द्राः ] वृषभादि जिनवरेन्द्र [एवम् ] इसप्रकार [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्ति [कृत्वा ] करके [निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [तस्मात् ] इसलिये [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर ।
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तीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन- भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः स्फु टितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति ।
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान् ।
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे ।।२३१।।
इस भारतवर्षमें पहले श्री नाभिपुत्रसे लेकर श्री वर्धमान तकके चौवीस तीर्थंकर - परमदेव — सर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वर — सब, यथोक्त प्रकारसे निज आत्माके साथ सम्बन्ध रखनेवाली शुद्धनिश्चययोगकी उत्तम भक्ति करके, परमनिर्वाणवधूके अति पुष्ट स्तनके गाढ़ आलिंगनसे सर्व आत्मप्रदेशमें अत्यन्त - आनन्दरूपी परमसुधारसके पूरसे परितृप्त हुए; इसलिये ❃स्फु टितभव्यत्वगुणवाले हे महाजनो ! तुम निज आत्माको परम वीतराग सुखकी देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति करो ।
[अब इस परम-भक्ति अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] गुणमें जो बड़े हैं, जो त्रिलोकके पुण्यकी राशि हैं (अर्थात् जिनमें मानों कि तीन लोकके पुण्य एकत्रित हुए हैं ), देवेन्द्रोंके मुकुटकी किनारी पर प्रकाशमान माणिकपंक्तिसे जो पूजित हैं (अर्थात् जिनके चरणारविन्दमें देवेन्द्रोंके मुकुट ❃ स्फु टित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट ।
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शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः ।
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ।।२३४।।
झुकते हैं ), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियोंके साथमें शक्रेन्द्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्दसे जो शोभित हैं, और ❃
हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोंका मैं स्तवन करता हूँ ।२३१।
[श्लोकार्थ : — ] श्री वृषभसे लेकर श्री वीर तकके जिनपति भी यथोक्त मार्गसे (पूर्वोक्त प्रकारसे) योगभक्ति करके निर्वाणवधूके सुखको प्राप्त हुए हैं ।२३२।
[श्लोकार्थ : — ] अपुनर्भवसुखकी (मुक्तिसुखकी) सिद्धिके हेतु मैं शुद्ध योगकी उत्तम भक्ति करता हूँ; संसारकी घोर भीतिसे सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति करो ।२३३।
[श्लोकार्थ : — ] गुरुके सान्निध्यमें निर्मलसुखकारी धर्मको प्राप्त करके, ज्ञान द्वारा जिसने समस्त मोहकी महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेषकी परम्परारूपसे परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित ( – एकाग्र, शांत) किये हुए मनसे आनन्दात्मक तत्त्वमें स्थित रहता हुआ, परब्रह्ममें (परमात्मामें) लीन होता हूँ ।२३४। ❃ श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता ।
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संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् ।
मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य ।।२३७।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] इन्द्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप (तत्त्वप्राप्तिके लिये अति उत्सुक) जिनका चित्त है, उन्हें सुन्दर - आनन्दझरता उत्तम तत्त्व प्रगट होता है । २३५ ।
[श्लोकार्थ : — ] अति अपूर्व निजात्मजनित भावनासे उत्पन्न होनेवाले सुखके लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तवमें जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं । २३६ ।
[श्लोकार्थ : — ] जो परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्वमें स्थित नहीं है और अनघ (निर्दोष, मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः सम्भावना (सम्यक् भावना) करता हूँ । मुक्तिकी स्पृहावाले तथा भवसुखके प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोकमें उन अन्यपदार्थसमूहोंसे क्या फल है ? २३७ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-भक्ति अधिकार नामका दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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अब व्यवहार छह आवश्यकोंसे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयका (शुद्धनिश्चय - आवश्यकका) अधिकार कहा जाता है ।
गाथा : १४१ अन्वयार्थ : — [यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्यवश नहीं है (अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं है ) [तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति ] उसे आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते हैं ) । [कर्मविनाशनयोगः ] कर्मका विनाश करनेवाला योग ( – ऐसा जो यह आवश्यक कर्म) [निर्वृत्तिमार्गः ] वह निर्वाणका मार्ग है [इति प्ररूपितः ] ऐसा कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निरन्तर स्ववशको निश्चय - आवश्यक - कर्म है ऐसा कहा है ।
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यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः । तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रय- निश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति । किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्ति र्व्युत्पत्तिरिति ।
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय ।
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।’’
विधि अनुसार परमजिनमार्गके आचरणमें कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखताके कारण अन्यवश नहीं है परन्तु साक्षात् स्ववश है १ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक क्रियाप्रपंचसे पराङ्मुख जीवको २स्वात्माश्रित - निश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म है ऐसा निरन्तर परमतपश्चरणमें लीन परमजिनयोगीश्वर कहते हैं । और, सकल कर्मके विनाशका हेतु ऐसा जो ३त्रिगुप्तिगुप्त - परमसमाधिलक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्षका कारण होनेसे निर्वाणका मार्ग है । ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूपसे परिणमित होता हुआ नित्य आनन्दके फै लावसे सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्दके फै लावसे रसयुक्त हैं ) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर, १ – ‘अन्यवश नहीं है’ इस कथनका ‘साक्षात् स्ववश है’ ऐसा अर्थ है । २ – निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान परम आवश्यक कर्ममें प्रधान है । ३ – परम योगका लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ( – अंतर्मुख) ऐसी परम समाधि है । [परम आवश्यक कर्म
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धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् ।
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम् ।।२३८।।
( – स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप - प्रकाशवाली शोभाको प्राप्त होता है
है — जानता रहता है ) ।’’
और (इस १४१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] स्ववशतासे उत्पन्न आवश्यक - कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म नियमसे (अवश्य) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मामें (सत् - चिद् - आनन्दस्वरूप आत्मामें ) अतिशयरूपसे होता है । ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म ), कर्मक्षय करनेमें कुशल ऐसा निर्वाणका एक मार्ग है । उसीसे मैं शीघ्र किसी ( – अद्भुत ) निर्विकल्प सुखको प्राप्त करता हूँ ।२३८।
गाथा : १४२ अन्वयार्थ : — [न वशः अवशः ] जो (अन्यके) वश नहीं है वह ‘अवश’ है [वा ] और [अवशस्य कर्म ] अवशका कर्म वह [आवश्यकम् ]
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इत्युक्त :, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्ति : । अवयवः कायः, अस्याभावात् अवयवाभावः । अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति : व्युत्पत्तिश्चेति ।
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति : ।
स्फू र्जज्ज्योतिःस्फु टितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात् ।।२३९।।
‘आवश्यक’ है [इति बोद्धव्यम् ] ऐसा जानना; [युक्तिः इति ] वह (अशरीरी होनेकी) युक्ति है, [उपायः इति च ] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति ] उससे जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है । [निरुक्तिः ] ऐसी निरुक्ति है ।
टीका : — यहाँ, ❃अवश परमजिनयोगीश्वरको परम आवश्यक कर्म अवश्य है ऐसा कहा है ।
जो योगी निज आत्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता और इसीलिये जिसे ‘अवश’ कहा जाता है, उस अवश परमजिनयोगीश्वरको निश्चयधर्मध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म अवश्य है ऐसा जानना । (वह परम - आवश्यक - कर्म ) निरवयवपनेका उपाय है, युक्ति है । अवयव अर्थात् काय; उसका (कायका) अभाव वह अवयवका अभाव (अर्थात् निरवयवपना) । परद्रव्योंको अवश जीव निरवयव होता है (अर्थात् जो जीव परद्रव्योंको वश नहीं होता वह अकाय होता है ) । इसप्रकार निरुक्ति — व्युत्पत्ति — है ।
[अब इस १४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] कोई योगी स्वहितमें लीन रहता हुआ शुद्धजीवास्तिकायके अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता । इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति (अर्थात् ❃ अवश = परके वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र ।
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परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यान- लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन् अवशपनेका व्युत्पत्ति - अर्थ ) है । ऐसा करनेसे ( – अपनेमें लीन रहकर परको वश न होनेसे ) ❃दुरितरूपी तिमिरपुंजका जिसने नाश किया है ऐसे उस योगीको सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होनेसे अमूर्तपना होता है । २३९ ।
गाथा : १४३ अन्वयार्थ : — [यः ] जाे [अशुभभावेन ] अशुभ भाव सहित [वर्तते ] वर्तता है, [सः श्रमणः ] वह श्रमण [अन्यवशः भवति ] अन्यवश है; [तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत् ] नहीं है ।
टीका : — यहाँ, भेदोपचार - रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना नहीं है ऐसा कहा है ।
जो श्रमणाभास – द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह निज स्वरूपसे अन्य ( – भिन्न ) ऐसे परद्रव्योंके वश है; इसलिये उस जघन्य रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म नहीं है । (वह श्रमणाभास ) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्मकार्यसे विमुख ❃ दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें दुरित हैं ।)
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परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति मनश्चकारेति ।
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम् ।
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति ।।२४०।।
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः ।
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।।२४१।।
रहता हुआ परम तपश्चरणादिके प्रति भी उदासीन (लापरवाह ) रहकर जिनेन्द्रमन्दिर अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है ।
[अब इस १४३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] त्रिलोकरूपी मकानमें रहे हुए (महा ) तिमिरपुंज जैसा मुनियोंका यह (कोई ) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले ) वे तीव्र वैराग्यभावसे घासके घरको भी छोड़कर (फि र ) ‘हमारा वह अनुपम घर !’ ऐसा स्मरण करते हैं ! २४०।
[श्लोकार्थ : — ] कलिकालमें भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मलकीचड़से रहित और ❃सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है । जिसने अनेक परिग्रहोंके विस्तारको छोड़ा है और जो पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस काल भूतलमें तथा देवलोकमें देवोंसे भी भलीभाँति पुजाता है ।२४१। ❃सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि । (रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे
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नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् ।
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः ।।२४२।।
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियोंको प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या सो इन्द्रोंको भी सतत वंदनीय है । उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसारजनित सुखमें रमता है, वह जड़मति अरेरे ! कलिसे हना हुआ है ( – कलिकालसे घायल हुआ है ) ।२४२।
[श्लोकार्थ : — ] जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःखका भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वरसे किंचित् न्यून है (अर्थात् उसमें जिनेश्वरदेवकी अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है ) ।२४३।
[श्लोकार्थ : — ] ऐसा होनेसे ही जिननाथके मार्गमें मुनिवर्गमें स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकरके समूहोंमें ❃राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता है (अर्थात् जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश मुनि शोभा नहीं देता ) ।२४४। ❃ राजवल्लभ = जो (खुशामदसे) राजाका मानीता (माना हुआ) बन गया हो ।
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चरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन् स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णन-
गाथा : १४४ अन्वयार्थ : — [यः ] जो (जीव ) [संयतः ] संयत रहता हुआ [खलु ] वास्तवमें [शुभभावे ] शुभ भावमें [चरति ] चरता — प्रवर्तता है, [सः ] वह [अन्यवशः भवेत् ] अन्यवश है; [तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत् ] नहीं है ।
टीका : — यहाँ भी (इस गाथामें भी ), अन्यवश ऐसे अशुद्धअन्तरात्मजीवका लक्षण कहा है ।
जो (श्रमण ) वास्तवमें जिनेन्द्रके मुखारविन्दसे निकले हुए परम-आचारशास्त्रके क्रमसे (रीतिसे ) सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोगमें चरता — प्रवर्तता है; व्यावहारिक धर्मध्यानमें परिणत रहता है इसीलिये ❃चरणकरणप्रधान है; स्वाध्यायकालका अवलोकन करता हुआ ( – स्वाध्याययोग्य कालका ध्यान रखकर ) स्वाध्यायक्रिया करता है, प्रतिदिन भोजन करके चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान करता है, तीन संध्याओंके समय ( – प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल ) भगवान अर्हत् परमेश्वरकी लाखों स्तुति मुखकमलसे बोलता है, तीनों काल नियमपरायण रहता है (अर्थात् तीनों समयके नियमोंमें तत्पर रहता है ), — इसप्रकार अहर्निश (दिन-रात मिलकर) ग्यारह क्रियाओंमें तत्पर रहता है; पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण सुननेसे उत्पन्न हुए सन्तोषसे जिसका धर्मशरीर रोमांचसे छा जाता है; अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश नामके छह बाह्य तपमें जो सतत उत्साहपरायण रहता है; ❃ चरणकरणप्रधान = शुभ आचरणके परिणाम जिसे मुख्य हैं ऐसा ।
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समुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यान- विविक्त शयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यान- शुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त : । अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादि- क्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्नभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति ।
भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् ।
स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरणसे च्युत होनेपर पुनः उसमें स्थापनस्वरूप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक अभ्यन्तर तपोंके अनुष्ठानमें (आचरणमें ) जो कुशल- बुद्धिवाला है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक- कर्मको — निश्चयसे परमात्मतत्त्वमें विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको — नहीं जानता; इसलिये परद्रव्यमें परिणत होनेसे उसे अन्यवश कहा गया है । जिसका चित्त तपश्चरणमें लीन है ऐसा यह अन्यवश श्रमण देवलोकादिके क्लेशकी परम्परा प्राप्त होनेसे शुभोपयोगके फलस्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारोंसे सिकता हुआ, आसन्नभव्यतारूपी गुणका उदय होने पर परमगुरुके प्रसादसे प्राप्त परमतत्त्वके श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध- निश्चय-रत्नत्रयपरिणति द्वारा निर्वाणको प्राप्त होता है (अर्थात् कभी शुद्ध-निश्चय- रत्नत्रयपरिणतिको प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाणको प्राप्त करता है )
[अब इस १४४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : — ]
[श्लोकार्थ : — ] मुनिवर देवलोकादिके क्लेशके प्रति रति छोड़ो और ❃निर्वाणके ❃ निर्वाणका कारण परमशुद्धोपयोग है और परमशुद्धोपयोगका कारण सहजपरमात्मा है ।
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सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः ।।२४५।।
समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये कारणका कारण ऐसे सहजपरमात्माको भजो — कि जो सहजपरमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञानका आवास है, निरावरणस्वरूप है तथा नय-अनयके समूहसे (सुनयों तथा कुनयोंके समूहसे ) दूर है ।२४५।
गाथा : १४५ अन्वयार्थ : — [यः ] जो [द्रव्यगुणपर्यायाणां ] द्रव्य-गुण- पर्यायोंमें (अर्थात् उनके विकल्पोंमें ) [चित्तं करोति ] मन लगाता है, [सः अपि ] वह भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण [ईद्रशम् ] ऐसा [कथयन्ति ] कहते हैं ।
भगवान अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए ( – कहे गये ) मूल और उत्तर पदार्थोंका सार्थ ( – अर्थ सहित ) प्रतिपादन करनेमें समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि ) कभी छह द्रव्योंमें चित्त लगाता है, कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोंमें मन लगाता है और फि र कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है, परन्तु त्रिकाल- निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन
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मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरण- नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म- तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त : ।
प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग- सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम् अन्यवशस्य स्वरूपमिति ।
सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधारभूत निज आत्मतत्त्वमें कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही ) अन्यवश कहा गया है ।
जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहका नाश किया है और परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न वीतरागसुखामृतके पानमें जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे श्रमण वास्तवमें महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा ( – उपरोक्तानुसार ) स्वरूप कहते हैं ।
चिन्तासे ( – प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे विरुद्ध ऐसे विकल्पोंसे ) ब्रह्मनिष्ठ यतियोंको क्या प्रयोजन है ?’’
और (इस १४५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
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करणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त : । तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य तक ईंधन है तब तक अग्निकी वृद्धि होती है ), उसीप्रकार जब तक जीवोंको चिन्ता (विकल्प ) है तब तक संसार है । २४६ ।
गाथा : १४६ अन्वयार्थ : — [परभावं परित्यज्य ] जो परभावको परित्याग कर [निर्मलस्वभावम् ] निर्मल स्वभाववाले [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [सः खलु ] वह वास्तवमें [आत्मवशः भवति ] आत्मवश है [तस्य तु ] और उसे [आवश्यम् कर्म ] आवश्यक कर्म [भणन्ति ] (जिन ) कहते हैं ।
जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होनेके कारण औदयिकादि परभावोंके समुदायको परित्याग कर, निज कारणपरमात्माको — कि जो (कारणपरमात्मा ) काया, इन्द्रिय और वाणीको अगोचर है, सदा निरावरण होनेसे निर्मल स्वभाववाला है और समस्त ❃
लूटनेवाला है उसे — ध्याता है, उसीको ( – उस श्रमणको ही ) आत्मवश कहा गया है । उस अभेद – अनुपचाररत्नत्रयात्मक श्रमणको समस्त बाह्यक्रियाकांड - आडम्बरके ❃ दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप । (अशुभ तथा शुभ कर्म दोनों दुरघ हैं ।)