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रागादिका त्याग करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तियुक्त (योगकी
भक्तिवाला) है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो
सकता है ?
प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः
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युनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त :
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जोड़कर सर्व विकल्पोंका अभाव करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तिवाला
है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
सारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्येव, तस्य खलु निश्चययोगभक्ति र्नान्येषाम् इति
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[युनक्ति ] लगाता है, [निजभावः ] उसका निज भाव [सः योगः भवेत् ] वह योग है
सकलजिन हैं
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निजभाव ही परम योग है
लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है
[निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [तस्मात् ] इसलिये [योगवरभक्तिम् ]
योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर
निजभाव एव परमयोग इति
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः
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करके, परमनिर्वाणवधूके अति पुष्ट स्तनके गाढ़ आलिंगनसे सर्व आत्मप्रदेशमें अत्यन्त
करो
प्रकाशमान माणिकपंक्तिसे जो पूजित हैं (अर्थात् जिनके चरणारविन्दमें देवेन्द्रोंके मुकुट
एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन-
भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः
स्फु टितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान्
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे
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जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्दसे जो शोभित हैं, और
करो
परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि
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करता हूँ
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम्
मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य
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आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते
हैं )
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(अर्थात् जो शाश्वत आनन्दके फै लावसे रसयुक्त हैं ) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर,
वदन्ति
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम्
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(
है
धर्मः साक्षात
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम्
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युक्ति है, [उपायः इति च ] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति ] उससे
जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है
निश्चयधर्मध्यानस्वरूप परम
भवतीति बोद्धव्यम्
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति :
स्फू र्जज्ज्योतिःस्फु टितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात
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[तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म
[न भवेत् ] नहीं है
लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन्
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अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है
घरको भी छोड़कर (फि र ) ‘हमारा वह अनुपम घर !’ ऐसा स्मरण करते हैं
काल भूतलमें तथा देवलोकमें देवोंसे भी भलीभाँति पुजाता है
मनश्चकारेति
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः
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(
न्यून है (अर्थात् उसमें जिनेश्वरदेवकी अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है )
मुनि शोभा नहीं देता )
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः
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कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत् ] नहीं है
तीनों काल नियमपरायण रहता है (अर्थात् तीनों समयके नियमोंमें तत्पर रहता है ),
धर्मशरीर रोमांचसे छा जाता है; अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त
शय्यासन और कायक्लेश नामके छह बाह्य तपमें जो सतत उत्साहपरायण रहता है;
स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु
संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः
इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णन-
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वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक अभ्यन्तर तपोंके अनुष्ठानमें (आचरणमें ) जो कुशल-
बुद्धिवाला है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-
कर्मको
शुभोपयोगके फलस्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारोंसे सिकता हुआ, आसन्नभव्यतारूपी गुणका
उदय होने पर परमगुरुके प्रसादसे प्राप्त परमतत्त्वके श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध-
निश्चय-रत्नत्रयपरिणति द्वारा निर्वाणको प्राप्त होता है (अर्थात् कभी शुद्ध-निश्चय-
रत्नत्रयपरिणतिको प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाणको प्राप्त करता है )
विविक्त शयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यान-
शुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु
च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म
निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः
परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त :
सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या
निर्वाणमुपयातीति
भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम्
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तथा कुनयोंके समूहसे ) दूर है
भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण
[ई
और फि र कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है, परन्तु त्रिकाल-
निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः
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तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही ) अन्यवश
कहा गया है
श्रमण वास्तवमें महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा
(
नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-
तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त :
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(विकल्प ) है तब तक संसार है
है, [सः खलु ] वह वास्तवमें [आत्मवशः भवति ] आत्मवश है [तस्य तु ] और
उसे [आवश्यम् कर्म ] आवश्यक कर्म [भणन्ति ] (जिन ) कहते हैं
निर्मल स्वभाववाला है और समस्त
निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त :