Niyamsar (Hindi). Gatha: 137-146 ; Adhikar-11 : Nishchay Param Avashyak Adhikar.

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निरुपमसहजज्ञानदर्शनचारित्ररूप, नित्य आत्मामें आत्माको वास्तवमें सम्यक् प्रकारसे
स्थापित करके, यह आत्मा चैतन्यचमत्कारकी भक्ति द्वारा निरतिशय घरकोकि
जिसमेंसे विपदाएँ दूर हुई हैं तथा जो आनन्दसे भव्य (शोभायमान) है उसेअत्यन्त
प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है २२७
गाथा : १३७ अन्वयार्थ :[यः साधु तु ] जो साधु [रागादिपरिहारे आत्मानं
युनक्ति ] रागादिके परिहारमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर
रागादिका त्याग करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तियुक्त (योगकी
भक्तिवाला) है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो
सकता है ?
टीका :यह, निश्चययोगभक्तिके स्वरूपका कथन है
निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार (सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परम
समाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका परिहार होने पर, जो साधुआसन्नभव्य
संस्थाप्यानंदभास्वन्निरतिशयगृहं चिच्चमत्कारभक्त्या
प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः
।।२२७।।
रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३७।।
रागादिपरिहारे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः
स योगभक्ति युक्त : इतरस्य च कथं भवेद्योगः ।।१३७।।
निश्चययोगभक्ति स्वरूपाख्यानमेतत
निरवशेषेणान्तर्मुखाकारपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां परिहारे
निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय
रागादिके परिहारमें जो साधु जोड़े आतमा
है योगकी भक्ति उसे; नहि अन्यको सम्भावना ।।१३७।।

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जीवनिज अखण्ड अद्वैत परमानन्दस्वरूपके साथ निज कारणपरमात्माको जोड़ता है, वह
परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय - उपयोगभक्तिवाला है; दूसरेकोबाह्य प्रपंचमें सुखी हो उसे
योगभक्ति किसप्रकार हो सकती है ?
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :
[श्लोकार्थ : ] आत्मप्रयत्नसापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्ममें संयोग
होना (आत्मप्रयत्नकी अपेक्षावाली विशेष प्रकारकी चित्तपरिणतिका आत्मामें लगना) उसे
योग कहा जाता है ’’
और (इस १३७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] जो यह आत्मा आत्माको आत्माके साथ निरन्तर जोड़ता है, वह
मुनीश्वर निश्चयसे योगभक्तिवाला है २२८
सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं
युनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त :
इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं
योगभक्ति र्भवति
तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः
तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम्
स योगभक्ति युक्त : स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।।२२८।।
सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८।।
सब ही विकल्प अभावमें जो साधु जोड़े आतमा
है योगकी भक्ति उसे; नहिं अन्यको सम्भावना ।।१३८।।

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गाथा : १३८ अन्वयार्थ :[यः साधु तु ] जो साधु [सर्वविकल्पाभावे
आत्मानं युनक्ति ] सर्व विकल्पोंके अभावमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको
जोड़कर सर्व विकल्पोंका अभाव करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तिवाला
है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
टीका :यहाँ भी पूर्व सूत्रकी भाँति निश्चय - योगभक्तिका स्वरूप कहा है
अतिअपूर्व निरुपराग रत्नत्रयात्मक, निजचिद्विलासलक्षण निर्विकल्प परमसमाधि
द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विकल्पोंका अभाव होने पर, परमसमरसीभावके साथ
निरवशेषरूपसे अंतर्मुख निज कारणसमयसारस्वरूपको जो अति - आसन्नभव्य जीव सदा
जोड़ता ही है, उसे वास्तवमें निश्चययोगभक्ति है; दूसरोंको नहीं
[अब इस १३८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] भेदका अभाव होने पर यह अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके
द्वारा योगियोंको आत्मलब्धिरूप ऐसी वह (प्रसिद्ध) मुक्ति होती है २२९
सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः
स योगभक्ति युक्त : इतरस्य च कथं भवेद्योगः ।।१३८।।
अत्रापि पूर्वसूत्रवन्निश्चययोगभक्ति स्वरूपमुक्त म्
अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिजचिद्विलासलक्षणनिर्विकल्पपरमसमाधिना निखिल-
मोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमय-
सारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्येव, तस्य खलु निश्चययोगभक्ति र्नान्येषाम् इति
(अनुष्टुभ्)
भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्ति रनुत्तमा
तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्ति र्भवति योगिनाम् ।।२२९।।
निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध [परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है ]
परम समाधिका लक्षण निज चैतन्यका विलास है
निरवशेष = परिपूर्ण [कारणसमयसारस्वरूप परिपूर्ण अन्तर्मुख है ]
अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ

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गाथा : १३९ अन्वयार्थ :[विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य ] विपरीत अभिनिवेशका
परित्याग करके [यः ] जो [जैनकथिततत्त्वेषु ] जैनकथित तत्त्वोंमें [आत्मानं ] आत्माको
[युनक्ति ] लगाता है, [निजभावः ] उसका निज भाव [सः योगः भवेत् ] वह योग है
टीका :यहाँ, समस्त गुणोंके धारण करनेवाले गणधरदेव आदि जिनमुनिनाथों
द्वारा कहे हुए तत्त्वोंमें विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग है ऐसा
कहा है
अन्य समयके तीर्थनाथ द्वारा कहे हुए (जैन दर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनके
तीर्थप्रवर्तक द्वारा कहे हुए) विपरीत पदार्थमें अभिनिवेशदुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश
है उसका परित्याग करके जैनों द्वारा कहे हुए तत्त्व निश्चयव्यवहारनयसे जानने योग्य हैं,
सकलजिन ऐसे भगवान तीर्थाधिनाथके चरणकमलके उपजीवक वे जैन हैं; परमार्थसे
गणधरदेव आदि ऐसा उसका अर्थ है उन्होंने (गणधरदेव आदि जैनोंने) कहे हुए जो
विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।।१३९।।
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु
यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३९।।
इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेश-
विवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्त :
अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभि-
निवेशः अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि सकलजिनस्य
भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः
देह सहित होने पर भी तीर्थंकरदेवने रागद्वेष और अज्ञानको सम्पूर्णरूपसे जीता है इसलिये वे
सकलजिन हैं
उपजीवक = सेवा करनेवाले; सेवक; आश्रित; दास
विपरीत आग्रह छोड़कर, श्री जिन कथित जो तत्त्व हैं
जोड़े वहाँ निज आतमा, निजभाव उसका योग है ।।१३९।।

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समस्त जीवादि तत्त्व उनमें जो परम जिनयोगीश्वर निज आत्माको लगाता है, उसका
निजभाव ही परम योग है
[अब इस १३९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] इस दुराग्रहको (उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशको) छोड़कर,
जैनमुनिनाथोंके (गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथोंके) मुखारविन्दसे प्रगट हुए, भव्य जनोंके
भवोंका नाश करनेवाले तत्त्वोंमें जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावको साक्षात्
लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है
२३०
गाथा : १४० अन्वयार्थ :[वृषभादिजिनवरेन्द्राः ] वृषभादि जिनवरेन्द्र
[एवम् ] इसप्रकार [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्ति [कृत्वा ] करके
[निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [तस्मात् ] इसलिये [योगवरभक्तिम् ]
योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर
तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति , तस्य च
निजभाव एव परमयोग इति
(वसंततिलका)
तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंद-
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु
त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथः
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः
।।२३०।।
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं
णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।।
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्ति म्
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्ति म् ।।१४०।।
वृषभादि जिनवर भक्ति उत्तम इस तरह कर योगकी
निर्वृति सुख पाया; अतः कर भक्ति उत्तम योगकी ।।१४०।।

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टीका :यह, भक्ति अधिकारके उपसंहारका कथन है
इस भारतवर्षमें पहले श्री नाभिपुत्रसे लेकर श्री वर्धमान तकके चौवीस
तीर्थंकर - परमदेवसर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वरसब,
यथोक्त प्रकारसे निज आत्माके साथ सम्बन्ध रखनेवाली शुद्धनिश्चययोगकी उत्तम भक्ति
करके, परमनिर्वाणवधूके अति पुष्ट स्तनके गाढ़ आलिंगनसे सर्व आत्मप्रदेशमें अत्यन्त
-
आनन्दरूपी परमसुधारसके पूरसे परितृप्त हुए; इसलिये स्फु टितभव्यत्वगुणवाले हे
महाजनो ! तुम निज आत्माको परम वीतराग सुखकी देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति
करो
[अब इस परम-भक्ति अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] गुणमें जो बड़े हैं, जो त्रिलोकके पुण्यकी राशि हैं (अर्थात्
जिनमें मानों कि तीन लोकके पुण्य एकत्रित हुए हैं ), देवेन्द्रोंके मुकुटकी किनारी पर
प्रकाशमान माणिकपंक्तिसे जो पूजित हैं (अर्थात् जिनके चरणारविन्दमें देवेन्द्रोंके मुकुट
भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम्
अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्धमानचरमाः चतुर्विंशति-
तीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे
एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन-
भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः
स्फु टितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति
(शार्दूलविक्रीडित)
नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान्
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान्
पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहतेः
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे
।।२३१।।
स्फु टित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट

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झुकते हैं ), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियोंके साथमें शक्रेन्द्र द्वारा किये
जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्दसे जो शोभित हैं, और
श्री तथा कीर्तिके जो स्वामी
हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोंका मैं स्तवन करता हूँ २३१
[श्लोकार्थ : ] श्री वृषभसे लेकर श्री वीर तकके जिनपति भी यथोक्त
मार्गसे (पूर्वोक्त प्रकारसे) योगभक्ति करके निर्वाणवधूके सुखको प्राप्त हुए हैं २३२
[श्लोकार्थ : ] अपुनर्भवसुखकी (मुक्तिसुखकी) सिद्धिके हेतु मैं शुद्ध
योगकी उत्तम भक्ति करता हूँ; संसारकी घोर भीतिसे सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति
करो
२३३
[श्लोकार्थ : ] गुरुके सान्निध्यमें निर्मलसुखकारी धर्मको प्राप्त करके, ज्ञान
द्वारा जिसने समस्त मोहकी महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेषकी परम्परारूपसे
परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (
एकाग्र, शांत) किये हुए मनसे
आनन्दात्मक तत्त्वमें स्थित रहता हुआ, परब्रह्ममें (परमात्मामें) लीन होता हूँ २३४
(आर्या)
वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्त मार्गेण
कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२।।
(आर्या)
अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्ति म्
संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः
धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि
।।२३४।।
श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता

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[श्लोकार्थ : ] इन्द्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप
(तत्त्वप्राप्तिके लिये अति उत्सुक) जिनका चित्त है, उन्हें सुन्दर - आनन्दझरता उत्तम तत्त्व
प्रगट होता है २३५
[श्लोकार्थ : ] अति अपूर्व निजात्मजनित भावनासे उत्पन्न होनेवाले सुखके
लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तवमें जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं २३६
[श्लोकार्थ : ] जो परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्वमें स्थित नहीं है और अनघ
(निर्दोष, मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः सम्भावना (सम्यक् भावना)
करता हूँ
मुक्तिकी स्पृहावाले तथा भवसुखके प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोकमें उन
अन्यपदार्थसमूहोंसे क्या फल है ? २३७
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
परम-भक्ति अधिकार नामका दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ
(अनुष्टुभ्)
निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम्
सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।।
(अनुष्टुभ्)
अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे
यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।।२३६।।
(वसंततिलका)
अद्वन्द्वनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं
संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम्
किं तैश्च मे फलमिहान्यपदार्थसार्थैः
मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य
।।२३७।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।।
J

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अब व्यवहार छह आवश्यकोंसे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयका (शुद्धनिश्चय - आवश्यकका)
अधिकार कहा जाता है
गाथा : १४१ अन्वयार्थ :[यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्यवश नहीं है
(अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं है ) [तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति ] उसे
आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते
हैं )
[कर्मविनाशनयोगः ] कर्मका विनाश करनेवाला योग (ऐसा जो यह आवश्यक
कर्म) [निर्वृत्तिमार्गः ] वह निर्वाणका मार्ग है [इति प्ररूपितः ] ऐसा कहा है
टीका :यहाँ (इस गाथामें), निरन्तर स्ववशको निश्चय - आवश्यक - कर्म है ऐसा
कहा है
११
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।।१४१।।
यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम्
कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ।।१४१।।
अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्त म्
नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे
यह कर्मनाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध रे ।।१४१।।

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विधि अनुसार परमजिनमार्गके आचरणमें कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखताके
कारण अन्यवश नहीं है परन्तु साक्षात् स्ववश है ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक
क्रियाप्रपंचसे पराङ्मुख जीवको स्वात्माश्रित - निश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म है
ऐसा निरन्तर परमतपश्चरणमें लीन परमजिनयोगीश्वर कहते हैं और, सकल कर्मके
विनाशका हेतु ऐसा जो त्रिगुप्तिगुप्त - परमसमाधिलक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्षका कारण
होनेसे निर्वाणका मार्ग है ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका
नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म
होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूपसे परिणमित होता हुआ नित्य आनन्दके फै लावसे सरस
(अर्थात् जो शाश्वत आनन्दके फै लावसे रसयुक्त हैं ) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर,
यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति
किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रय-
निश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा
वदन्ति
किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव
साक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्ति र्व्युत्पत्तिरिति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(मंदाक्रांता)
‘‘आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय
प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशां
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम्
।।’’
‘अन्यवश नहीं है’ इस कथनका ‘साक्षात् स्ववश है’ ऐसा अर्थ है
निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान परम आवश्यक कर्ममें प्रधान है
परम योगका लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त (अंतर्मुख) ऐसी परम समाधि है [परम आवश्यक कर्म
ही परम योग है और परम योग वह निर्वाणका मार्ग है ]

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अत्यन्त अविचलपनेके कारण, देदीप्यमान ज्योतिवाले और सहजरूपसे विलसित
(
स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप - प्रकाशवाली शोभाको प्राप्त होता है
(अर्थात् रत्नदीपककी भाँति स्वभावसे ही निष्कंपरूपसे अत्यन्त प्रकाशित होता रहता
है
जानता रहता है ) ’’
और (इस १४१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] स्ववशतासे उत्पन्न आवश्यक - कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म
नियमसे (अवश्य) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मामें (सत् - चिद् - आनन्दस्वरूप आत्मामें )
अतिशयरूपसे होता है ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म ), कर्मक्षय करनेमें कुशल ऐसा
निर्वाणका एक मार्ग है उसीसे मैं शीघ्र किसी (अद्भुत ) निर्विकल्प सुखको प्राप्त
करता हूँ २३८
गाथा : १४२ अन्वयार्थ :[न वशः अवशः ] जो (अन्यके) वश नहीं है
वह ‘अवश’ है [वा ] और [अवशस्य कर्म ] अवशका कर्म वह [आवश्यकम् ]
तथा हि
(मंदाक्रांता)
आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्तौ
धर्मः साक्षात
् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम्
सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्गः
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम्
।।२३८।।
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं
जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ।।१४२।।
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम्
युक्ति रिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्ति : ।।१४२।।
जो वश नहीं वह ‘अवश’, आवश्यक अवशका कर्म है
वह युक्ति या उपाय है, निरवयव कर्ता धर्म है ।।१४२।।

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‘आवश्यक’ है [इति बोद्धव्यम् ] ऐसा जानना; [युक्तिः इति ] वह (अशरीरी होनेकी)
युक्ति है, [उपायः इति च ] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति ] उससे
जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है
[निरुक्तिः ] ऐसी निरुक्ति है
टीका :यहाँ, अवश परमजिनयोगीश्वरको परम आवश्यक कर्म अवश्य है ऐसा
कहा है
जो योगी निज आत्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता और
इसीलिये जिसे ‘अवश’ कहा जाता है, उस अवश परमजिनयोगीश्वरको
निश्चयधर्मध्यानस्वरूप परम
- आवश्यक - कर्म अवश्य है ऐसा जानना (वह परम -
आवश्यक - कर्म ) निरवयवपनेका उपाय है, युक्ति है अवयव अर्थात् काय; उसका
(कायका) अभाव वह अवयवका अभाव (अर्थात् निरवयवपना) परद्रव्योंको अवश जीव
निरवयव होता है (अर्थात् जो जीव परद्रव्योंको वश नहीं होता वह अकाय होता है )
इसप्रकार निरुक्तिव्युत्पत्तिहै
[अब इस १४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] कोई योगी स्वहितमें लीन रहता हुआ शुद्धजीवास्तिकायके
अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति (अर्थात्
अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्त म्
यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश
इत्युक्त :, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं
भवतीति बोद्धव्यम्
निरवयवस्योपायो युक्ति : अवयवः कायः, अस्याभावात
अवयवाभावः अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति : व्युत्पत्तिश्चेति
(मंदाक्रांता)
योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकायाद्
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति :
तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं
स्फू र्जज्ज्योतिःस्फु टितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात
।।२३९।।
अवश = परके वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र

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अवशपनेका व्युत्पत्ति - अर्थ ) है ऐसा करनेसे (अपनेमें लीन रहकर परको वश न
होनेसे ) दुरितरूपी तिमिरपुंजका जिसने नाश किया है ऐसे उस योगीको सदा प्रकाशमान
ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होनेसे अमूर्तपना होता है २३९
गाथा : १४३ अन्वयार्थ :[यः ] जाे [अशुभभावेन ] अशुभ भाव सहित
[वर्तते ] वर्तता है, [सः श्रमणः ] वह श्रमण [अन्यवशः भवति ] अन्यवश है;
[तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म
[न भवेत् ] नहीं है
टीका :यहाँ, भेदोपचार - रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना नहीं है ऐसा
कहा है
जो श्रमणाभासद्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह
निज स्वरूपसे अन्य (भिन्न ) ऐसे परद्रव्योंके वश है; इसलिये उस जघन्य
रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म
नहीं है (वह श्रमणाभास ) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्मकार्यसे विमुख
वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण
तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ।।१४३।।
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत।।१४३।।
इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तीत्युक्त म्
अप्रशस्तरागाद्यशुभभावेन यः श्रमणाभासो द्रव्यलिङ्गी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषां
परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यान-
लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन्
दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें दुरित हैं )
वर्ते अशुभ परिणाममें, वह श्रमण है वश अन्यके
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ।।१४३।।

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रहता हुआ परम तपश्चरणादिके प्रति भी उदासीन (लापरवाह ) रहकर जिनेन्द्रमन्दिर
अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है
[अब इस १४३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] त्रिलोकरूपी मकानमें रहे हुए (महा ) तिमिरपुंज जैसा
मुनियोंका यह (कोई ) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले ) वे तीव्र वैराग्यभावसे घासके
घरको भी छोड़कर (फि र ) ‘हमारा वह अनुपम घर !’ ऐसा स्मरण करते हैं
! २४०
[श्लोकार्थ : ] कलिकालमें भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप
मलकीचड़से रहित और सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है जिसने अनेक परिग्रहोंके
विस्तारको छोड़ा है और जो पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस
काल भूतलमें तथा देवलोकमें देवोंसे भी भलीभाँति पुजाता है
२४१
परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति
मनश्चकारेति
(मालिनी)
अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम्
तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति
।।२४०।।
(शार्दूलविक्रीडित)
कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः
सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः
।।२४१।।
सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि (रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे
अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि )

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[श्लोकार्थ : ] इस लोकमें तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियोंको प्राणप्यारी है; वह
योग्य तपश्चर्या सो इन्द्रोंको भी सतत वंदनीय है उसे प्राप्त करके जो कोई जीव
कामान्धकारयुक्त संसारजनित सुखमें रमता है, वह जड़मति अरेरे ! कलिसे हना हुआ है
(
कलिकालसे घायल हुआ है ) २४२
[श्लोकार्थ : ] जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी
है, नित्य दुःखका भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वरसे किंचित्
न्यून है (अर्थात् उसमें जिनेश्वरदेवकी अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है )
२४३
[श्लोकार्थ : ] ऐसा होनेसे ही जिननाथके मार्गमें मुनिवर्गमें स्ववश मुनि सदा
शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकरके समूहोंमें राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता
है (अर्थात् जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश
मुनि शोभा नहीं देता )
२४४
(शिखरिणी)
तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्
परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः
।।२४२।।
(आर्या)
अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङ्नित्यम्
स्ववशो जीवन्मुक्त : किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः ।।२४३।।
(आर्या)
अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत।।२४४।।
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ।।१४४।।
राजवल्लभ = जो (खुशामदसे) राजाका मानीता (माना हुआ) बन गया हो
संयत चरे शुभभावमें, वह श्रमण है वश अन्यके
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ।।१४४।।

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गाथा : १४४ अन्वयार्थ :[यः ] जो (जीव ) [संयतः ] संयत रहता हुआ
[खलु ] वास्तवमें [शुभभावे ] शुभ भावमें [चरति ] चरताप्रवर्तता है, [सः ] वह
[अन्यवशः भवेत् ] अन्यवश है; [तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं
कर्म ]
आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत् ] नहीं है
टीका :यहाँ भी (इस गाथामें भी ), अन्यवश ऐसे अशुद्धअन्तरात्मजीवका
लक्षण कहा है
जो (श्रमण ) वास्तवमें जिनेन्द्रके मुखारविन्दसे निकले हुए परम-आचारशास्त्रके
क्रमसे (रीतिसे ) सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोगमें चरताप्रवर्तता है; व्यावहारिक
धर्मध्यानमें परिणत रहता है इसीलिये चरणकरणप्रधान है; स्वाध्यायकालका अवलोकन
करता हुआ (स्वाध्याययोग्य कालका ध्यान रखकर ) स्वाध्यायक्रिया करता है, प्रतिदिन
भोजन करके चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान करता है, तीन संध्याओंके समय (प्रातः,
मध्याह्न तथा सायंकाल ) भगवान अर्हत् परमेश्वरकी लाखों स्तुति मुखकमलसे बोलता है,
तीनों काल नियमपरायण रहता है (अर्थात् तीनों समयके नियमोंमें तत्पर रहता है ),
इसप्रकार अहर्निश (दिन-रात मिलकर) ग्यारह क्रियाओंमें तत्पर रहता है; पाक्षिक,
मासिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण सुननेसे उत्पन्न हुए सन्तोषसे जिसका
धर्मशरीर रोमांचसे छा जाता है; अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त
शय्यासन और कायक्लेश नामके छह बाह्य तपमें जो सतत उत्साहपरायण रहता है;
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत।।१४४।।
अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम्
यः खलु जिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन् शुभोपयोगे
चरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन्
स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु
संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः
इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णन-
चरणकरणप्रधान = शुभ आचरणके परिणाम जिसे मुख्य हैं ऐसा

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स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरणसे च्युत होनेपर पुनः उसमें स्थापनस्वरूप प्रायश्चित्त, विनय,
वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक अभ्यन्तर तपोंके अनुष्ठानमें (आचरणमें ) जो कुशल-
बुद्धिवाला है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-
कर्मको
निश्चयसे परमात्मतत्त्वमें विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको
नहीं जानता; इसलिये परद्रव्यमें परिणत होनेसे उसे अन्यवश कहा गया है जिसका चित्त
तपश्चरणमें लीन है ऐसा यह अन्यवश श्रमण देवलोकादिके क्लेशकी परम्परा प्राप्त होनेसे
शुभोपयोगके फलस्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारोंसे सिकता हुआ, आसन्नभव्यतारूपी गुणका
उदय होने पर परमगुरुके प्रसादसे प्राप्त परमतत्त्वके श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध-
निश्चय-रत्नत्रयपरिणति द्वारा निर्वाणको प्राप्त होता है (अर्थात् कभी शुद्ध-निश्चय-
रत्नत्रयपरिणतिको प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाणको प्राप्त करता है )
[अब इस १४४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं :]
[श्लोकार्थ : ] मुनिवर देवलोकादिके क्लेशके प्रति रति छोड़ो और निर्वाणके
समुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यान-
विविक्त शयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यान-
शुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु
च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म
निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः
परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त :
अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादि-
क्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्नभव्यतागुणोदये
सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या
निर्वाणमुपयातीति
(हरिणी)
त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो
भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम्
निर्वाणका कारण परमशुद्धोपयोग है और परमशुद्धोपयोगका कारण सहजपरमात्मा है

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कारणका कारण ऐसे सहजपरमात्माको भजोकि जो सहजपरमात्मा परमानन्दमय है,
सर्वथा निर्मल ज्ञानका आवास है, निरावरणस्वरूप है तथा नय-अनयके समूहसे (सुनयों
तथा कुनयोंके समूहसे ) दूर है
२४५
गाथा : १४५ अन्वयार्थ :[यः ] जो [द्रव्यगुणपर्यायाणां ] द्रव्य-गुण-
पर्यायोंमें (अर्थात् उनके विकल्पोंमें ) [चित्तं करोति ] मन लगाता है, [सः अपि ] वह
भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण
[ई
द्रशम् ] ऐसा [कथयन्ति ] कहते हैं
टीका :यहाँ भी अन्यवशका स्वरूप कहा है
भगवान अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए (कहे गये ) मूल और उत्तर पदार्थोंका
सार्थ (अर्थ सहित ) प्रतिपादन करनेमें समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि ) कभी
छह द्रव्योंमें चित्त लगाता है, कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोंमें मन लगाता है
और फि र कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है, परन्तु त्रिकाल-
निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः
।।२४५।।
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।।१४५।।
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः
मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीद्रशम् ।।१४५।।
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्त म्
यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन-
समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये
जो जोड़ता चित द्रव्य - गुण - पर्यायचिन्तनमें अरे !
रे मोह-विरहित - श्रमण कहते अन्यके वश ही उसे ।।१४५।।

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सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधारभूत निज आत्मतत्त्वमें कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस
तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही ) अन्यवश
कहा गया है
जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहका नाश किया है
और परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न वीतरागसुखामृतके पानमें जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे
श्रमण वास्तवमें महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा
(
उपरोक्तानुसार ) स्वरूप कहते हैं
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] आत्मकार्यको छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्टसे विरुद्ध ऐसी उस
चिन्तासे (प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे विरुद्ध ऐसे विकल्पोंसे ) ब्रह्मनिष्ठ यतियोंको क्या प्रयोजन
है ?’’
और (इस १४५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धिको प्राप्त होती है (अर्थात् जब
मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरण-
नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-
तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त :
प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग-
सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम्
अन्यवशस्य स्वरूपमिति
तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया
यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।।२४६।।

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तक ईंधन है तब तक अग्निकी वृद्धि होती है ), उसीप्रकार जब तक जीवोंको चिन्ता
(विकल्प ) है तब तक संसार है
२४६
गाथा : १४६ अन्वयार्थ :[परभावं परित्यज्य ] जो परभावको परित्याग
कर [निर्मलस्वभावम् ] निर्मल स्वभाववाले [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता
है, [सः खलु ] वह वास्तवमें [आत्मवशः भवति ] आत्मवश है [तस्य तु ] और
उसे [आवश्यमकर्म ] आवश्यक कर्म [भणन्ति ] (जिन ) कहते हैं
टीका :यहाँ वास्तवमें साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरका स्वरूप कहा है
जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होनेके कारण औदयिकादि
परभावोंके समुदायको परित्याग कर, निज कारणपरमात्माकोकि जो
(कारणपरमात्मा ) काया, इन्द्रिय और वाणीको अगोचर है, सदा निरावरण होनेसे
निर्मल स्वभाववाला है और समस्त
दुरघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके ध्वजको
लूटनेवाला है उसेध्याता है, उसीको (उस श्रमणको ही ) आत्मवश कहा गया
है उस अभेदअनुपचाररत्नत्रयात्मक श्रमणको समस्त बाह्यक्रियाकांड - आडम्बरके
परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं
अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ।।१४६।।
परित्यज्य परभावं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम्
आत्मवशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम् ।।१४६।।
अत्र हि साक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्त म्
यस्तु निरुपरागनिरंजनस्वभावत्वादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य काय-
करणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकं
निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त :
तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य
दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप (अशुभ तथा शुभ कर्म दोनों दुरघ हैं )
जो छोड़कर परभाव ध्यावे शुद्ध निर्मल आत्म रे
वह आत्मवश है श्रमण, आवश्यक करम होता उसे ।।१४६।।