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सदाशिवमय सम्पूर्ण मुक्तिको जो प्रमोदसे प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवन्त
है
ध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति
प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः
सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम्
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स्ववश मनमें सदा सुस्थित है (अर्थात् जो सदा मनको
प्रहतचारुवधूकनकस्पृह
स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम्
तनुविशोषणमेव न चापरम्
स्ववश जन्म सदा सफलं मम
स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात
स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः
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[करोषि ] करता है; [तेन तु ] उससे [जीवस्य ] जीवको [सामायिकगुणं ] सामायिकगुण
[सम्पूर्णं भवति ] सम्पूर्ण होता है
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शुद्धनिश्चय
क्या उत्पन्न हुआ ?
विकल्पजालविनिर्मुक्त निरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुख-
प्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य
बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम्
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अतिशयरूपसे कारण होता है;
पुनः ] और इसलिये [पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वोक्त क्रमसे (पहले कही हुई विधिसे )
मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः
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कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम्
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति
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होता है
आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है
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हो वह बहिरात्मा है
होता है
(उत्कृष्ट ) अंतरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है
परिप्राप्य स्थितो महात्मा
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आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मासे भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्वमें लीन )
बहिरात्मा है
जल्पोंमें [न वर्तते ] नहीं वर्तता, [सः ] वह [अन्तरंगात्मा ] अन्तरात्मा [उच्यते ] कहलाता है
संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः
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समता
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्
स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम्
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श
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(अद्भुत ) परम तत्त्वको अन्तरमें देखता है
अन्तरात्मा है; [ध्यानविहीनः ] ध्यानविहीन [श्रमणः ] श्रमण [बहिरात्मा ] बहिरात्मा है
[इति विजानीहि ] ऐसा जान
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओंके दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे
(भगवान क्षीणकषाय )
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नहीं होता
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये
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आरूढ़ है
निश्चयप्रतिक्रमणादि सत्क्रियाको करता हुआ स्थित है (अर्थात् निरन्तर करता है ), वह परम
तपोधन उस कारणसे निजस्वरूपविश्रान्तिलक्षण परमवीतराग
स्वरूपमें विश्रांति है ऐसे परमवीतराग चारित्रमें स्थित है )
परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति
तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्
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[वचनमयम् आलोचनं ] वचनमय आलोचना
पुद्गलद्रव्यात्मक होनेसे ग्राह्य नहीं है
नियमालोचनाश्च
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आदि अतुल महिमाके धारक निजस्वरूपमें स्थित रहकर, अकेला (निरालम्बरूपसे ) सर्व
जगतजालको (समस्त लोकसमूहको ) तृण समान (तुच्छ ) देखता है
धर्मकथा (६३ शलाकापुरुषोंके चरित्र )
निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श
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कर; [यदि ] यदि [शक्तिविहीनः ] तू शक्तिविहीन हो तो [यावत् ] तबतक [श्रद्धानं च
एव ] श्रद्धान ही [कर्तव्यम् ] कर्तव्य है
आदि शुद्धनिश्चयक्रियाएँ ही कर्तव्य है
मुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पञ्चेन्द्रिय-
प्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह
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अंगीकृत करते हैं
मौनव्रत सहित [योगी ] योगीको [निजकार्यम् ] निज कार्य [नित्यम् ] नित्य [साधयेत् ]
साधना चाहिये
न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्
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मौनव्रत सहित, समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यों ) द्वारा निन्दा किये जाने
पर भी
हैं
चैकाकीभूय मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्यं
निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम्
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः
मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम्
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम्
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होता है
[तस्मात् ] इसलिये [स्वपरसमयैः ] स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ (स्वधर्मियों तथा
परधर्मियोंके साथ ) [वचनविवादः ] वचनविवाद [वर्जनीयः ] वर्जनेयोग्य है
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मंदतर उदयभेदोंके कारण, कर्म नाना प्रकारका है
यह लब्धि भी विमल जिनमार्गमें अनेक प्रकारकी प्रसिद्ध है; इसलिये स्वसमयों और
परसमयोंके साथ वचनविवाद कर्तव्य नहीं है
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम्
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्