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निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्ल- ध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति ।
प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः ।
सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम् ।।२४७।।
विविध विकल्पोंके महा कोलाहलसे प्रतिपक्ष ❃महा - आनन्दानन्दप्रद निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप परमावश्यक - कर्म है ।
[अब इस १४६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ श्लोक कहते हैं : — ]
[श्लोकार्थ : — ] उदार जिसकी बुद्धि है, भवका कारण जिसने नष्ट किया है, पूर्व कर्मावलिका जिसने हनन कर दिया है और स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्धबोधस्वरूप सदाशिवमय सम्पूर्ण मुक्तिको जो प्रमोदसे प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवन्त है ।२४७।
[श्लोकार्थ : — ] कामदेवका जिन्होंने नाश किया है और (ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप - वीर्यात्मक ) पंचाचारसे सुशोभित जिनकी आकृति है — ऐसे अवंचक (मायाचार रहित ) गुरुका वाक्य मुक्तिसम्पदाका कारण है ।२४८।
[श्लोकार्थ : — ] निर्वाणका कारण ऐसा जो जिनेन्द्रका मार्ग उसे इसप्रकार ❃परम आवश्यक कर्म निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप है — कि जो ध्यान महा आनन्द –
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प्रहतचारुवधूकनकस्पृह ।
स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम् ।।२५०।।
तनुविशोषणमेव न चापरम् ।
स्ववश जन्म सदा सफलं मम ।।२५१।।
स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात् ।
स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ।।२५२।।
जानकर जो निर्वाणसम्पदाको प्राप्त करता है, उसे मैं पुनः पुनः वन्दन करता हूँ ।२४९।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने सुन्दर स्त्री और सुवर्णकी स्पृहाको नष्ट किया है ऐसे हे योगीसमूहमें श्रेष्ठ स्ववश योगी ! तू हमारा — कामदेवरूपी भीलके तीरसे घायल चित्तवालेका — भवरूपी अरण्यमें शरण है ।२५०।
[श्लोकार्थ : — ] अनशनादि तपश्चरणोंका फल शरीरका शोषण ( – सूखना ) ही है, दूसरा नहीं । (परन्तु ) हे स्ववश ! (हे आत्मवश मुनि ! ) तेरे चरणकमलयुगलके चिंतनसे मेरा जन्म सदा सफल है ।२५१।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने निज रसके विस्ताररूपी पूर द्वारा पापोंको सर्व ओरसे धो डाला है, जो सहज समतारससे पूर्ण भरा होनेसे पवित्र है, जो पुराण (सनातन ) है, जो स्ववश मनमें सदा सुस्थित है (अर्थात् जो सदा मनको – भावको स्ववश करके विराजमान है ) और जो शुद्ध सिद्ध है (अर्थात् जो शुद्ध सिद्धभगवान समान है ) — ऐसा सहज तेजराशिमें मग्न जीव जयवन्त है ।२५२।
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[श्लोकार्थ : — ] सर्वज्ञ - वीतरागमें और इस स्ववश योगीमें कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरेरे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं । २५३ ।
[श्लोकार्थ : — ] इस जन्ममें स्ववश महामुनि एक ही सदा धन्य है कि जो अनन्यबुद्धिवाला रहता हुआ ( – निजात्माके अतिरिक्त अन्यके प्रति लीन न होता हुआ ) सर्व कर्मोंसे बाहर रहता है । २५४ ।
गाथा : १४७ अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि तू [आवश्यकम् इच्छसि ] आवश्यकको चाहता है तो तू [आत्मस्वभावेषु ] आत्मस्वभावोंमें [स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [करोषि ] करता है; [तेन तु ] उससे [जीवस्य ] जीवको [सामायिकगुणं ] सामायिकगुण [सम्पूर्णं भवति ] सम्पूर्ण होता है ।
टीका : — यह, शुद्धनिश्चय - आवश्यककी प्राप्तिका जो उपाय उसके स्वरूपका कथन है ।
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इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वानश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्ध- निश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्त- विकल्पजालविनिर्मुक्त निरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुख- प्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेन निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति ।
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः ।
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।’’
बाह्य षट् - आवश्यकप्रपंचरूपी नदीके कोलाहलके श्रवणसे ( – व्यवहार छह आवश्यकके विस्ताररूपी नदीकी कलकलाहटके श्रवणसे ) पराङ्मुख हे शिष्य ! शुद्धनिश्चय - धर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय – शुक्लध्यानस्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यकको — कि जो संसाररूपी लताके मूलको छेदनेका कुठार है उसे — यदि तू चाहता है, तो तू समस्त विकल्पजाल रहित निरंजन निज परमात्माके भावोंमें — सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र और सहज सुख आदिमें — सतत - निश्चल स्थिरभाव करता है; उस हेतुसे (अर्थात् उस कारण द्वारा ) निश्चयसामायिकगुण उत्पन्न होनेपर, मुमुक्षु जीवको बाह्य छह आवश्यकक्रियाओंसे क्या उत्पन्न हुआ ? ❃
(मुक्तिरूपी ) स्त्रीके संभोग और हास्य प्राप्त करनेमें प्रवीण ऐसे निष्क्रिय परम – आवश्यकसे जीवको सामायिकचारित्र सम्पूर्ण होता है ।
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री योगीन्द्रदेवने (अमृताशीतिमें ६४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] यदि किसी प्रकार मन निज स्वरूपसे चलित हो और उससे बाहर भटके तो तुझे सर्व दोषका प्रसंग आता है, इसलिये तू सतत अंतर्मग्न और ❃ अनुपादेय = हेय; पसन्द न करने योग्य; प्रशंसा न करने योग्य ।
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मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् ।
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः ।।२५५।।
१संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धामका अधिपति बनेगा ।’’
और (इस १४७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] यदि इसप्रकार (जीवको ) संसारदुःखनाशक २निजात्मनियत चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) सुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले सुखका अतिशयरूपसे कारण होता है; — ऐसा जानकर जो (मुनिवर ) निर्दोष समयके सारको सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपति — कि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वह — पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है ।२५५।
गाथा : १४८ अन्वयार्थ : — [आवश्यकेन हीनः ] आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [चरणतः ] चरणसे [प्रभ्रष्टः भवति ] प्रभ्रष्ट (अति भ्रष्ट ) है; [तस्मात् पुनः ] और इसलिये [पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वोक्त क्रमसे (पहले कही हुई विधिसे ) १- संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त । २- निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलम्बन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निज
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श्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्त निर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमा- वश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्त स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति ।
कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम् ।
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति ।।२५६।।
[आवश्यकं कुर्यात् ] आवश्यक करना चाहिये ।
यहाँ (इस लोकमें ) व्यवहारनयसे भी, समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि छह आवश्यकसे रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रसे सर्वथा भ्रष्ट) है; शुद्धनिश्चयसे, परम - अध्यात्मभाषासे जिसे निर्विकल्प - समाधिस्वरूप कहा जाता है ऐसी परम आवश्यक क्रियासे रहित श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट है; — ऐसा अर्थ है । (इसलिये ) स्ववश परमजिनयोगीश्वरके निश्चय - आवश्यकका जो क्रम पहले कहा गया है उस क्रमसे ( – उस विधिसे ), स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय - धर्मध्यान तथा निश्चय - शुक्लध्यानस्वरूपसे, परम मुनि सदा आवश्यक करो ।
[अब इस १४८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्माको अवश्य मात्र सहज - परम - आवश्यक एकको ही — कि जो ❃अघसमूहका नाशक है और मुक्तिका मूल ( – कारण ) है उसीको — अतिशयरूपसे करना चाहिये । (ऐसा करनेसे, ) सदा निज रसके फै लावसे पूर्ण भरा होनेके कारण पवित्र और पुराण (सनातन ) ऐसा वह आत्मा वाणीसे दूर (वचन - अगोचर ) ऐसे किसी सहज ❃ अघ = दोष; पाप । (अशुभ तथा शुभ दोनों अघ हैं ।)
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शाश्वत सुखको प्राप्त करता है ।२५६।
[श्लोकार्थ : — ] स्ववश मुनीन्द्रको उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन ) होता है; और यह (निजात्मानुभवनरूप ) आवश्यक कर्म (उसे ) मुक्तिसौख्यका कारण होता है ।२५७।
गाथा : १४९ अन्वयार्थ : — [आवश्यकेन युक्तः ] आवश्यक सहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [अंतरंगात्मा ] अन्तरात्मा [भवति ] है; [आवश्यकपरिहीणः ] आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है ।
टीका : — यहाँ, आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता है ऐसा कहा है ।
अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक ❃स्वात्मानुष्ठानमें नियत परमावश्यक - कर्मसे निरंतर संयुक्त ऐसा जो ‘स्ववश’ नामका परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा ❃ स्वात्मानुष्ठान = निज आत्माका आचरण । (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयस्वरूप
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वशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदवीं परिप्राप्य स्थितो महात्मा । असंयतसम्यग्द्रष्टिर्जघन्यांतरात्मा । अनयोर्मध्यमाः सर्वे मध्यमान्तरात्मानः । निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति ।
तथा हि — सोलह कषायोंके अभाव द्वारा क्षीणमोहपदवीको प्राप्त करके स्थित है । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है । इन दोके मध्यमें स्थित सर्व मध्यम अन्तरात्मा हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंसे प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया उससे जो रहित हो वह बहिरात्मा है ।
[श्लोकार्थ : — ] अन्यसमय (अर्थात् परमात्माके अतिरिक्त जीव ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकारके हैं; उनमें बहिरात्मा देह-इन्द्रिय आदिमें आत्मबुद्धिवाला होता है ।’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] अंतरात्माके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन ) भेद हैं; अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य ) अंतरात्मा है, क्षीणमोह वह अन्तिम (उत्कृष्ट ) अंतरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है ।’’
और (इस १४९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
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संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती ।
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः ।।२५८।।
बहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति
[श्लोकार्थ : — ] योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्मसे युक्त रहता हुआ संसारजनित प्रबल सुखदुःखरूपी अटवीसे दूरवर्ती होता है इसलिये वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मासे भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्वमें लीन ) बहिरात्मा है ।२५८।
गाथा : १५० अन्वयार्थ : — [यः ] जो [अन्तरबाह्यजल्पे ] अन्तर्बाह्य जल्पमें [वर्तते ] वर्तता है, [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है; [यः ] जो [जल्पेषु ] जल्पोंमें [न वर्तते ] नहीं वर्तता, [सः ] वह [अन्तरंगात्मा ] अन्तरात्मा [उच्यते ] कहलाता है ।
जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्मकी कांक्षासे स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि बहिर्जल्प करता है और अशन, शयन, गमन, स्थिति आदिमें ( – खाना, सोना, गमन करना, स्थिर रहना इत्यादि कार्योंमें ) सत्कारादिकी प्राप्तिका लोभी वर्तता हुआ अन्तर्जल्पमें
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स बहिरात्मा जीव इति । स्वात्मध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तर्मुखः प्रशस्ताप्रशस्त- समस्तविकल्पजालकेषु कदाचिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः साक्षादंतरात्मेति ।
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् ।
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।’’
स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् ।
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ।।२५९।।
मनको लगाता है, वह बहिरात्मा जीव है । निज आत्माके ध्यानमें परायण वर्तता हुआ निरवशेषरूपसे (सम्पूर्णरूपसे ) अन्तर्मुख रहकर (परम तपोधन ) प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त विकल्पजालोंमें कभी भी नहीं वर्तता इसीलिये परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ९०वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार जिसमें बहु विकल्पोंके जाल अपनेआप उठते हैं ऐसी विशाल नयपक्षकक्षाको (नयपक्षकी भूमिको ) लाँघकर (तत्त्ववेदी ) भीतर और बाहर समता - रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने भावको ( – स्वरूपको ) प्राप्त होता है ।’’
और (इस १५०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] भवभयके करनेवाले, बाह्य तथा अभ्यन्तर जल्पको छोड़कर, समरसमय (समतारसमय ) एक चैतन्यचमत्कारका सदा स्मरण करके, ज्ञानज्योति द्वारा
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स्य षोडशकषायाणामभावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत एव सहज- चिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वयेन नित्यं ध्यायति । आभ्यां जिसने निज अभ्यन्तर अङ्ग प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा, मोह क्षीण होने पर, किसी (अद्भुत ) परम तत्त्वको अन्तरमें देखता है ।२५९।
गाथा : १५१ अन्वयार्थ : — [यः ] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें [परिणतः ] परिणत है [सः अपि ] वह भी [अन्तरंगात्मा ] अन्तरात्मा है; [ध्यानविहीनः ] ध्यानविहीन [श्रमणः ] श्रमण [बहिरात्मा ] बहिरात्मा है [इति विजानीहि ] ऐसा जान ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें ), स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यान और निश्चय - शुक्लध्यान यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ऐसा कहा है ।
यहाँ (इस लोकमें ) वास्तवमें साक्षात् अन्तरात्मा भगवान क्षीणकषाय हैं । वास्तवमें उन भगवान क्षीणकषायको सोलह कषायोंका अभाव होनेके कारण दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओंके दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे (भगवान क्षीणकषाय ) ❃
धर्मध्यान और शुद्धनिश्चय - शुक्लध्यान इन दो ध्यानों द्वारा नित्य ध्याते हैं । इन दो ध्यानों ❃ सहजचिद्विलासलक्षण = जिसका लक्षण ( – चिह्न अथवा स्वरूप) सहज चैतन्यका विलास है ऐसे
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ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ ।
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये ।।२६०।।
रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।
[श्लोकार्थ : — ] कोई मुनि सतत - निर्मल धर्मशुक्ल - ध्यानामृतरूपी समरसमें सचमुच वर्तता है; (वह अन्तरात्मा है; ) इन दो ध्यानोंसे रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है । मैं पूर्वोक्त (समरसी ) योगीकी शरण लेता हूँ ।२६०।
और (इस १५१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज द्वारा श्लोक द्वारा ) केवल शुद्धनिश्चयनयका स्वरूप कहा जाता है : —
[श्लोकार्थ : — ] (शुद्ध आत्मतत्त्वमें ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियोंको होता है; संसाररूपी रमणीको प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियोंको नहीं होता ।२६१।
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व्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति ।
तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम् ।।२६२।।
गाथा : १५२ अन्वयार्थ : — [प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां ] प्रतिक्रमणादि क्रियाको — [निश्चयस्य चारित्रम् ] निश्चयके चारित्रको — [कुर्वन् ] (निरन्तर ) करता रहता है [तेन तु ] इसलिये [श्रमणः ] वह श्रमण [विरागचरिते ] वीतराग चारित्रमें [अभ्युत्थितः भवति ] आरूढ़ है ।
जिसने ऐहिक व्यापार (सांसारिक कार्य ) छोड़ दिया है ऐसा जो साक्षात् अपुनर्भवका (मोक्षका ) अभिलाषी महामुमुक्षु सकल इन्द्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे निश्चयप्रतिक्रमणादि सत्क्रियाको करता हुआ स्थित है (अर्थात् निरन्तर करता है ), वह परम तपोधन उस कारणसे निजस्वरूपविश्रान्तिलक्षण परमवीतराग - चारित्रमें स्थित है (अर्थात् वह परम श्रमण, निश्चयप्रतिक्रमणादि निश्चयचारित्रमें स्थित होनेके कारण, जिसका लक्षण निज स्वरूपमें विश्रांति है ऐसे परमवीतराग चारित्रमें स्थित है ) ।
[अब इस १५२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके नष्ट हुए हैं ऐसा जो अतुल महिमावाला आत्मा संसारजनित सुखके कारणभूत कर्मको छोड़कर मुक्तिका मूल ऐसे
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द्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्यान- नियमालोचनाश्च । पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति । मलरहित चारित्रमें स्थित है, वह आत्मा चारित्रका पुंज है । समरसरूपी सुधाके सागरको उछालनेमें पूर्ण चन्द्र समान उस आत्माको मैं वन्दन करता हूँ ।२६२।
गाथा : १५३ अन्वयार्थ : — [वचनमयं प्रतिक्रमणं ] वचनमय प्रतिक्रमण, [वचनमयं प्रत्याख्यानं ] वचनमय प्रत्याख्यान, [नियमः ] (वचनमय ) नियम [च ] और [वचनमयम् आलोचनं ] वचनमय आलोचना — [तत् सर्वं ] यह सब [स्वाध्यायम् ] (प्रशस्त अध्यवसायरूप ) स्वाध्याय [जानीहि ] जान ।
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणक्रियाका कारण ऐसा जो निर्यापक आचार्यके मुखसे निकला हुआ, समस्त पापक्षयके हेतुभूत, सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वह वचनवर्गणायोग्य पुद्गलद्रव्यात्मक होनेसे ग्राह्य नहीं है । प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी (पुद्गलद्रव्यात्मक होनेसे) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । वह सब पौद्गलिक वचनमय होनेसे स्वाध्याय है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।
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निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः ।
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ।।२६३।।
[श्लोकार्थ : — ] ऐसा होनेसे, मुक्तिरूपी स्त्रीके पुष्ट स्तनयुगलके आलिंगनसौख्यकी स्पृहावाला भव्य जीव समस्त वचनरचनाको सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द आदि अतुल महिमाके धारक निजस्वरूपमें स्थित रहकर, अकेला (निरालम्बरूपसे ) सर्व जगतजालको (समस्त लोकसमूहको ) तृण समान (तुच्छ ) देखता है ।२६३।
इसीप्रकार (श्री मूलाचारमें पंचाचार अधिकारमें २१९वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] परिवर्तन (पढ़े हुए को दुहरा लेना वह ), वाचना (शास्त्रव्याख्यान ), पृच्छना (शास्त्रश्रवण ), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षा ) और धर्मकथा (६३ शलाकापुरुषोंके चरित्र ) — ऐसे पाँच प्रकारका, ❃स्तुति तथा मंगल सहित, स्वाध्याय है ।’’ ❃ स्तुति = देव और मुनिको वन्दन । (धर्मकथा, स्तुति और मंगल मिलकर स्वाध्यायका पाँचवाँ प्रकार
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क्रियाश्चैव कर्तव्याः संहननशक्ति प्रादुर्भावे सति हंहो मुनिशार्दूल परमागममकरंदनिष्यन्दि- मुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पञ्चेन्द्रिय- प्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह । शक्ति हीनो यदि दग्धकालेऽकाले केवलं त्वया निजपरमात्म- तत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति ।
गाथा : १५४ अन्वयार्थ : — [यदि ] य्ादि [कर्तुम् शक्यते ] किया जा सके तो [अहो ] अहो ! [ध्यानमयम् ] ध्यानमय [प्रतिक्रमणादिकं ] प्रतिक्रमणादि [करोषि ] कर; [यदि ] यदि [शक्तिविहीनः ] तू शक्तिविहीन हो तो [यावत् ] तबतक [श्रद्धानं च एव ] श्रद्धान ही [कर्तव्यम् ] कर्तव्य है ।
टीका : — यहाँ, शुद्धनिश्चयधर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य हैं ऐसा कहा है ।
सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरके शिखामणि, परद्रव्यसे पराङ्मुख और स्वद्रव्यमें निष्णात बुद्धिवाले, पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, परमागमरूपी १मकरन्द झरते मुखकमलसे शोभायमान हे मुनिशार्दूल ! (अथवा परमागमरूपी मकरन्द झरते मुखवाले हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल ! ) संहनन और शक्तिका २प्रादुर्भाव हो तो मुक्तिसुन्दरीके प्रथम दर्शनकी भेंटस्वरूप निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रायश्चित्त, निश्चयप्रत्याख्यान आदि शुद्धनिश्चयक्रियाएँ ही कर्तव्य है । यदि इस दग्धकालरूप (हीनकालरूप ) अकालमें तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्मतत्त्वका श्रद्धान ही कर्तव्य है ।
[अब इस १५४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ] १ – मकरन्द = पुष्प-रस, पुष्प-पराग । २ – प्रादुर्भाव = उत्पन्न होना वह; प्राकटय; उत्पत्ति ।
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न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति ।
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।।२६४।।
नयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः
[श्लोकार्थ : — ] असार संसारमें, पापसे भरपूर कलिकालका विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथके मार्गमें मुक्ति नहीं है । इसलिये इस कालमें अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिये निर्मलबुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धाको अंगीकृत करते हैं ।२६४।
गाथा : १५५ अन्वयार्थ : — [जिनकथितपरमसूत्रे ] जिनकथित परम सूत्रमें [प्रतिक्रमणादिकं स्फु टम् परीक्षयित्वा ] प्रतिक्रमणादिककी स्पष्ट परीक्षा करके [मौनव्रतेन ] मौनव्रत सहित [योगी ] योगीको [निजकार्यम् ] निज कार्य [नित्यम् ] नित्य [साधयेत् ] साधना चाहिये ।
श्रीमद् अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए हैं ऐसी चतुरशब्दरचनारूप द्रव्यश्रुतमें शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि
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परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा चैकाकीभूय मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्यं निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति ।
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम् ।
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः ।।२६५।।
मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम् ।
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम् ।।२६६।।
सत्क्रियाको जानकर, केवल स्वकार्यमें परायण परमजिनयोगीश्वरको प्रशस्त – अप्रशस्त समस्त वचनरचनाको परित्यागकर, सर्व संगकी आसक्तिको छोड़कर अकेला होकर, मौनव्रत सहित, समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यों ) द्वारा निन्दा किये जाने पर भी ❃
सम्भोगसौख्यका मूल है उसे — निरन्तर साधना चाहिये ।
[अब इस १५५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्मज्ञानी मुमुक्षु जीव पशुजनकृत लौकिक भयको तथा घोर संसारकी करनेवाली प्रशस्त - अप्रशस्त वचनरचनाको छोड़कर और कनक-कामिनी सम्बन्धी मोहको तजकर, मुक्तिके लिये स्वयं अपनेसे अपनेमें ही अविचल स्थितिको प्राप्त होते हैं ।२६५।
[श्लोकार्थ : — ] आत्मप्रवादमें (आत्मप्रवाद नामक श्रुतमें ) कुशल ऐसा परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनों द्वारा किये जानेवाले भयको छोड़कर और उस (प्रसिद्ध ) सकल ❃ अभिन्न = छिन्नभिन्न हुए बिना; अखण्डित; अच्युत ।
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द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः । भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता लौकिक जल्पजालको (वचनसमूहको ) तजकर, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वको प्राप्त होता है ।२६६।
गाथा : १५६ अन्वयार्थ : — [नानाजीवाः ] नाना प्रकारके जीव हैं, [नानाकर्म ] नाना प्रकारका कर्म है; [नानाविधा लब्धिः भवेत् ] नाना प्रकारकी लब्धि है; [तस्मात् ] इसलिये [स्वपरसमयैः ] स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ (स्वधर्मियों तथा परधर्मियोंके साथ ) [वचनविवादः ] वचनविवाद [वर्जनीयः ] वर्जनेयोग्य है ।
टीका : — यह, वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके हेतुका कथन है (अर्थात् वचनविवाद किसलिये छोड़नेयोग्य है उसका कारण यहाँ कहा है ) ।
जीव नाना प्रकारके हैं : मुक्त हैं और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारी — त्रस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा (पंचेन्द्रिय ) संज्ञी तथा (पंचेन्द्रिय ) असंज्ञी ऐसे भेदोंके कारण त्रस जीव पाँच प्रकारके हैं । पृथ्वी, पानी, तेज, वायु और वनस्पति यह (पाँच प्रकारके ) स्थावर जीव हैं । भविष्य कालमें स्वभाव - अनन्त - चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि गुणोंरूपसे ❃भवनके योग्य (जीव ) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव ) वे वास्तवमें अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदोंके कारण, अथवा (आठ ) मूल प्रकृति और ❃ भवन = परिणमन; होना सो ।
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ह्यभव्याः । कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ तीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपदेशोपशम- प्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा । ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति ।
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम् ।
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम् ।।२६७।।
(एक सौ अड़तालीस ) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोंके कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मंदतर उदयभेदोंके कारण, कर्म नाना प्रकारका है । जीवोंको सुखादिकी प्राप्तिरूप लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदोंके कारण पाँच प्रकारकी है । इसलिये परमार्थके जाननेवालोंको स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ वाद करने योग्य नहीं है ।
[भावार्थ : — ] जगतमें जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकारके हैं; इसलिये सर्व जीव समान विचारोंके हों ऐसा होना असम्भव है । इसलिये पर जीवोंको समझा देनेकी आकुलता करना योग्य नहीं है । स्वात्मावलम्बनरूप निज हितमें प्रमाद न हो इसप्रकार रहना ही कर्तव्य है । ]
[अब इस १५६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जीवोंके, संसारके कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि ) बहुत प्रकारके भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्मका उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकारका है; यह लब्धि भी विमल जिनमार्गमें अनेक प्रकारकी प्रसिद्ध है; इसलिये स्वसमयों और परसमयोंके साथ वचनविवाद कर्तव्य नहीं है ।२६७।