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हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थित्वा अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति द्रष्टान्तपक्षः । दार्ष्टान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीवः क्वचिदासन्नभव्यस्य गुणोदये सति सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्ति सुन्दरीमुख- मकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति ।
गाथा : १५७ अन्वयार्थ : — [एकः ] जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य ) [निधिम् ] निधिको [लब्ध्वा ] पाकर [सुजनत्वेन ] अपने वतनमें (गुप्तरूपसे ) रहकर [तस्य फलम् ] उसके फलको [अनुभवति ] भोगता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी [परततिम् ] पर जनोंके समूहको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञाननिधिम् ] ज्ञाननिधिको [भुंक्ते ] भोगता है ।
कोई एक दरिद्र मनुष्य क्वचित् कदाचित् पुण्योदयसे निधिको पाकर, उस निधिके फलको सौजन्य अर्थात् जन्मभूमि ऐसा जो गुप्त स्थान उसमें रहकर अति गुप्तरूपसे भोगता है; ऐसा दृष्टान्तपक्ष है । १दार्ष्टांतपक्षसे भी (ऐसा है कि ) — सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीव क्वचित् आसन्नभव्यके (आसन्नभव्यतारूप ) गुणका उदय होनेसे सहजवैराग्यसम्पत्ति होनेपर, परम गुरुके चरणकमलयुगलकी निरतिशय (उत्तम ) भक्ति द्वारा मुक्तिसुन्दरीके मुखके २मकरन्द समान सहजज्ञाननिधिको पाकर, ३स्वरूपविकल ऐसे पर जनोंके समूहको ध्यानमें विघ्नका कारण समझकर छोड़ता है ।
[अब इस १५७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ] १ — दार्ष्टांत = वह बात जो दृष्टान्त द्वारा समझाना हो; उपमेय । २ — मकरन्द = पुष्प-रस; पुष्प-पराग । ३ — स्वरूपविकल = स्वरूपप्राप्ति रहित; अज्ञानी ।
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लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम् ।
ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति ।।२६८।।
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम् ।
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः ।।२६९।।
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धनके समूहको पाकर, संगको छोड़कर गुप्त होकर रहता है; उसकी भाँति ज्ञानी (परके संगको छोड़कर गुप्तरूपसे रहकर ) ज्ञानकी रक्षा करता है ।२६८।
[श्लोकार्थ : — ] जन्ममरणरूप रोगके हेतुभूत समस्त संगको छोड़कर, हृदयकमलमें १बुद्धिपूर्वक पूर्णवैराग्यभाव करके, सहज परमानन्द द्वारा जो अव्यग्र (अनाकुल ) है ऐसे निज रूपमें (अपनी ) २शक्तिसे स्थित रहकर, मोह क्षीण होने पर, हम लोकको सदा तृणवत् देखते हैं ।२६९।
गाथा : १५८ अन्वयार्थ : — [सर्वे ] सर्व [पुराणपुरुषाः ] पुराण पुरुष १ — बुद्धिपूर्वक = समझपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक । २ — शक्ति = सामर्थ्य; बल; वीर्य; पुरुषार्थ ।
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वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति ।
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः ।
स स्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ।।२७०।।
[एवम् ] इसप्रकार [आवश्यकं च ] आवश्यक [कृत्वा ] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं ] अप्रमत्तादि स्थानको [प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः ] केवली हुए ।
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप ऐसा जो बाह्य - आवश्यकादि क्रियासे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यक — साक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी ) स्त्रीके अनंग (अशरीरी ) सुखका कारण — उसे करके, सर्व पुराण पुरुष — कि जिनमेंसे तीर्थंकर – परमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वे — अप्रमत्तसे लेकर सयोगीभट्टारक तकके गुणस्थानोंकी पंक्तिमें आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप आत्माराधनाके प्रसादसे केवली — सकलप्रत्यक्षज्ञानधारी — हुए ।
[अब इस निश्चय - परमावश्यक अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] पहले जो सर्व पुराण पुरुष — योगी — निज आत्माकी आराधनासे समस्त कर्मरूपी राक्षसोंके समूहका नाश करके ❃विष्णु और जयवन्त हुए (अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए ), उन्हें जो मुक्तिकी स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य ❃ विष्णु = व्यापक । (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापक
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नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् ।
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय ।।२७१।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव- विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकादशमः श्रुतस्कन्धः ।। मनसे नित्य प्रणाम करता है, वह जीव पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान है और उसके चरणकमलको सर्व जन पूजते हैं ।२७०।
[श्लोकार्थ : — ] हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह उसे छोड़कर, हे चित्त ! निर्मल सुखके हेतु परम गुरु द्वारा धर्मको प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप (शांतस्वरूपी ) परमात्मामें — कि जो (परमात्मा ) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणोंसे अलंकृत है तथा दिव्य ज्ञानवाला है उसमें — शीघ्र प्रवेश कर । २७१ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें ) निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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गाथा : १५९ अन्वयार्थ : — [व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [केवली भगवान् ] केवली भगवान [सर्वं ] सब [जानाति पश्यति ] जानते हैं और देखते हैं; [नियमेन ] निश्चयसे [केवलज्ञानी ] केवलज्ञानी [आत्मानम् ] आत्माको (स्वयंको ) [जानाति पश्यति ] जानता है और देखता है ।
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नयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् । शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यग्राहकत्वदर्शकत्व- ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः“ (?) स भगवान् त्रिकाल- निरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य- परमात्मापि जानाति पश्यति च । किं कृत्वा ? ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् । घटादिप्रमितेः प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योतिःस्वरूपत्वात् स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति ।
उक्तं च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः — व्यवहारनयसे वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणोंका घात करनेवाले घातिकर्मोंके नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोंको एक समयमें जानते हैं और देखते हैं । शुद्धनिश्चयसे परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतरागको, परद्रव्यके ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदिके विविध विकल्पोंकी सेनाकी उत्पत्ति मूलध्यानमें अभावरूप होनेसे (? ), वे भगवान त्रिकाल - निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित ), नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारणपरमात्माको, स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी, जानते हैं और देखते हैं । किसप्रकार ? इस ज्ञानका धर्म तो, दीपककी भाँति, स्वपरप्रकाशकपना है । घटादिकी प्रमितिसे प्रकाश – दीपक (कथंचित् ) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होनेसे स्व और परको प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योतिस्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्माको (स्वयंको ) प्रकाशित करता है ।
९६ पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करनेसे जिन्होंने विशाल कीर्ति प्राप्त की है ऐसे महासेनपंडितदेवने भी (श्लोक द्वारा ) कहा है कि : — ★ यहाँ संस्कृत टीकामें अशुद्धि मालूम होती है, इसलिये संस्कृत टीकामें तथा उसके अनुवादमें शंकाको
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अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव- निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अतःकारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानातीति ।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] वस्तुका यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान, दीपककी भाँति, स्वके और (पर ) पदार्थोंके निर्णयात्मक है तथा प्रमितिसे (ज्ञप्तिसे ) कथंचित् भिन्न है ।’’
अब ‘स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे, (ज्ञानको ) सतत ❃निरुपराग निरंजन स्वभावमें लीनताके कारण निश्चयपक्षसे भी स्वपरप्रकाशकपना है ही । (वह इसप्रकार : ) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षणसे (तथा भिन्न प्रयोजनसे ) जाना जाता है तथापि वस्तुवृत्तिसे (अखण्ड वस्तुकी अपेक्षासे ) भिन्न नहीं है; इस कारणसे यह (सहजज्ञान ) आत्मगत (आत्मामें स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदिको जानता है और स्वात्माको — कारणपरमात्माके स्वरूपको — भी जानता है ।
(सहजज्ञान स्वात्माको तो स्वाश्रित निश्चयनयसे जानता ही है और इसप्रकार स्वात्माको जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं । अब सहजज्ञानने जो यह जाना उसमें भेद - अपेक्षासे देखें तो सहजज्ञानके लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त अन्य सब — दर्शन, सुख आदि — पर है; इसलिये इस अपेक्षासे ऐसा सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्षसे भी ज्ञान स्वको तथा परको जानता है । )
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें १९२वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : — ❃ निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार ।
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न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् ।
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।’’
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति ।
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] कर्मबन्धके छेदनसे अतुल अक्षय (अविनाशी ) मोक्षका अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्तशुद्ध ( – कर्मका मैल न रहनेसे जो अत्यन्त शुद्ध हुआ है ऐसा ), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित ) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा ( – सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ ), अपनी अचल महिमामें लीन हुआ ।’’
और (इस १५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] व्यवहारनयसे यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्वको वास्तवमें जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीके कोमल मुखकमल पर कामपीड़ाको तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फै लाता है । निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेशको नष्ट किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपको अत्यन्त जानते हैं ।२७२।
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सहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञान- केवलदर्शने च युगपद् वर्तेते । किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं भवति इति ।
गाथा : १६० अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानिनः ] केवलज्ञानीको [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा च ] तथा [दर्शनं ] दर्शन [युगपद् ] युगपद् [वर्तते ] वर्तते हैं । [दिनकर- प्रकाशतापौ ] सूर्यके प्रकाश और ताप [यथा ] जिसप्रकार [वर्तेते ] (युगपद् ) वर्तते हैं [तथा ज्ञातव्यम् ] उसी प्रकार जानना ।
टीका : — यहाँ वास्तवमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका युगपद् वर्तना दृष्टान्त द्वारा कहा है ।
यहाँ दृष्टान्तपक्षसे किसी समय बादलोंकी बाधा न हो तब आकाशके मध्यमें स्थित सूर्यके प्रकाश और ताप जिसप्रकार युगपद् वर्तते हैं, उसीप्रकार भगवान परमेश्वर तीर्थाधिनाथको त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर - जङ्गम द्रव्यगुणपर्यायात्मक ज्ञेयोंमें सकल - विमल (सर्वथा निर्मल ) केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् वर्तते हैं । और (विशेष इतना समझना कि ), संसारियोंको दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है (अर्थात् प्रथम दर्शन और फि र ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते) ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (६१वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
[गाथार्थ : — ] ज्ञान पदार्थोंके पारको प्राप्त है और दर्शन लोकालोकमें विस्तृत है; सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है ।’’
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तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ।।२७३।।
और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित बृहद्द्रव्यसंग्रहमें ४४वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (अर्थात् पहले दर्शन और फि र ज्ञान होता है ), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते; केवलीनाथको वे दोनों युगपद् होते हैं ।’’
और (इस १६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो धर्मतीर्थके अधिनाथ (नायक ) हैं, जो असदृश हैं (अर्थात् जिनके समान अन्य कोई नहीं है ) और जो सकल लोकके एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं । जिसने समस्त तिमिरसमूहका नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्यमें जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपद् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं (अर्थात् सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं ), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद् ) होते हैं (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान प्रगट होता है ) ।२७३।
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मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता ।
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम् ।।२७४।।
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित् ।
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः ।।२७५।।
[श्लोकार्थ : — ] (हे जिननाथ ! ) सद्ज्ञानरूपी नौकामें आरोहण करके भवसागरको लाँघकर, तू शीघ्रतासे शाश्वतपुरीमें पहुँच गया । अब मैं जिननाथके उस मार्गसे ( – जिस मार्गसे जिननाथ गये उसी मार्गसे ) उसी शाश्वतपुरीमें जाता हूँ; (क्योंकि ) इस लोकमें उत्तम पुरुषोंको (उस मार्गके अतिरिक्त ) अन्य क्या शरण है ? २७४।
[श्लोकार्थ : — ] केवलज्ञानभानु ( – केवलज्ञानरूपी प्रकाशको धारण करनेवाले सूर्य ) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवन्त हैं । वे जिनदेव समरसमय अनंग ( – अशरीरी, अतीन्द्रिय ) सौख्यकी देनेवाली ऐसी उस मुक्तिके मुखकमल पर वास्तवमें किसी अवर्णनीय कान्तिको फै लाते हैं; (क्योंकि ) कौन (अपनी ) स्नेहपात्र प्रियाको निरन्तर सुखोत्पत्तिका कारण नहीं होता ? २७५।
[श्लोकार्थ : — ] उन जिनेन्द्रदेवने मुक्तिकामिनीके मुखकमलके प्रति भ्रमरलीलाको धारण किया (अर्थात् वे उसमें भ्रमरकी भाँति लीन हुए ) और वास्तवमें अद्वितीय अनंग (आत्मिक ) सुखको प्राप्त किया ।२७६।
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ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् परप्रकाशकमेव, यद्येवं द्रष्टिर्निरंकुशा केवल- मभ्यन्तरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हंहो जडमते प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्धेरभावात् एवं मन्यसे, न खलु जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः । अथ ह्यविरुद्धा स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम् । तत्रैकान्ततो ज्ञानस्य
गाथा : १६१ अन्वयार्थ : — [ज्ञानं परप्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशक ही है [च ] और [दृष्टिः आत्मप्रकाशिका एव ] दर्शन स्वप्रकाशक ही है [आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति ] तथा आत्मा स्वपरप्रकाशक है [इति हि यदि खलु मन्यसे ] ऐसा यदि वास्तवमें तू मानता हो तो उसमें विरोध आता है ।
प्रथम तो, आत्माको स्वपरप्रकाशकपना किसप्रकार है ? (उस पर विचार किया जाता है । ) ‘आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणोंसे समृद्ध है; उसका ज्ञान शुद्ध आत्माको प्रकाशित करनेमें असमर्थ होनेसे परप्रकाशक ही है; इसप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल अभ्यन्तरमें आत्माको प्रकाशित करता है (अर्थात् स्वप्रकाशक ही है ) । इस विधिसे आत्मा स्वपरप्रकाशक है ।’ — इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धिके अभावके कारण मानता हो, तो वास्तवमें तुझसे अन्य कोई पुरुष जड़ (मूर्ख ) नहीं है ।
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परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्यान्मते दर्शनमपि शुद्धात्मानं पश्यति । दर्शनज्ञान- प्रभृत्यनेकधर्माणामाधारो ह्यात्मा । व्यवहारपक्षेऽपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न चात्मसम्बन्धः सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्तेरभावात् न सर्वगतत्वम्; अतःकारणादिदं ज्ञानं न भवति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव । दर्शनपक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति । सदैव सर्वं पश्यति हि चक्षुः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां कनीनिकां न पश्यत्येव । अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव । ततः स्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति ।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः — निरन्तर आराधना करने योग्य है । वहाँ (स्याद्वादमतमें ), एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमतमें दर्शन भी केवल शुद्धात्माको ही नहीं देखता (अर्थात् मात्र स्वप्रकाशक ही नहीं है ) । आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मोंका आधार है । (वहाँ ) व्यवहारपक्षसे भी ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो, सदा बाह्यस्थितपनेके कारण, (ज्ञानको ) आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और (इसलिये ) १आत्मप्रतिपत्तिके अभावके कारण सर्वगतपना (भी ) नहीं बनेगा । इस कारणसे, यह ज्ञान होगा ही नहीं (अर्थात् ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं होगा ), मृगतृष्णाके जलकी भाँति आभासमात्र ही होगा । इसीप्रकार दर्शनपक्षमें भी, दर्शन केवल २अभ्यन्तरप्रतिपत्तिका ही कारण नहीं है, (सर्वप्रकाशनका कारण है ); (क्योंकि ) चक्षु सदैव सर्वको देखता है, अपने अभ्यन्तरमें स्थित कनीनिकाको नहीं देखता (इसलिये चक्षुकी बातसे ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तरको देखे और बाह्यस्थित पदार्थोंको न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता ) । इससे, ज्ञान और दर्शनको (दोनोंको ) स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है । इसलिये (इसप्रकार ) ज्ञानदर्शनलक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – आत्मप्रतिपत्ति = आत्माका ज्ञान; स्वको जानना सो । २ – अभ्यन्तरप्रतिपत्ति = अन्तरंगका प्रकाशन; स्वको प्रकाशना सो ।
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मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा ।
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।।’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जिसने कर्मोंको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान और भावि समस्त विश्वको (अर्थात् तीनों कालकी पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको) युगपद् जानता होने पर भी मोहके अभावके कारण पररूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।’’
और (इस १६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञान एक सहजपरमात्माको जानकर लोकालोकको अर्थात् लोकालोकसम्बन्धी (समस्त) ज्ञेयसमूहको प्रगट करता है ( – जानता है ) । नित्य-शुद्ध ऐसा क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्वपरविषयक है (अर्थात् वह भी स्वपरको साक्षात् प्रकाशित करता है ) । उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन) द्वारा आत्मदेव स्वपरसम्बन्धी ज्ञेयराशिको जानता है (अर्थात् आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदार्थोंको प्रकाशित करता है ) ।२७७।
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भिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत् सह्यविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्द्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपि न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञान-
गाथा : १६२ अन्वयार्थ : — [ज्ञानं परप्रकाशं ] यदि ज्ञान (केवल) परप्रकाशक हो [तदा ] तो [ज्ञानेन ] ज्ञानसे [दर्शनं ] दर्शन [भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध होगा, [दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक) नहीं है ऐसा (पूर्व सूत्रमें तेरा मन्तव्य) वर्णन किया गया है ।
टीका : — यह, पूर्व सूत्रमें (१६१वीं गाथामें ) कहे हुए पूर्वपक्षके सिद्धान्त सम्बन्धी कथन है ।
यदि ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो इस परप्रकाशनप्रधान (परप्रकाशक) ज्ञानसे दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; (क्योंकि) सह्याचल और विंध्याचलकी भाँति अथवा गङ्गा और श्रीपर्वतकी भाँति, परप्रकाशक ज्ञानको और आत्मप्रकाशक दर्शनको सम्बन्ध किसप्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ ( – आत्मामें स्थित) है वह तो दर्शन ही है । और उस ज्ञानको तो, निराधारपनेके कारण (अर्थात् आत्मारूपी आधार न रहनेसे), शून्यताकी आपत्ति ही आयेगी; अथवा तो जहाँ जहाँ ज्ञान पहुँचेगा (अर्थात् जिस जिस द्रव्यको ज्ञान पहुँचेगा) वे वे सर्व द्रव्य चेतनताको प्राप्त होंगे, इसलिये तीन लोकमें कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा यह महान दोष प्राप्त होगा । इसीलिये (उपरोक्त दोषके भयसे), हे शिष्य ! ज्ञान केवल परप्रकाशक नहीं है ऐसा यदि तू कहे, तो दर्शन भी केवल आत्मगत (स्वप्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा जा चुका है । इसलिये वास्तवमें सिद्धान्तके हार्दरूप ऐसा यही समाधान है कि ज्ञान
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दर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति ।
और दर्शनको कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना है ही ।
नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; ❃पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो यह आत्मा है ऐसा कहा है ।’’
और (इस १६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन भी नहीं ही है; वह उभययुक्त (ज्ञानदर्शनयुक्त) आत्मा स्वपर विषयको अवश्य जानता है और देखता है । अघसमूहके (पापसमूहके) नाशक आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें संज्ञा - भेदसे भेद उत्पन्न होता है (अर्थात् संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे उनमें उपरोक्तानुसार भेद है ), परमार्थसे अग्नि और उष्णताकी भाँति उनमें ( – आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें ) वास्तवमें भेद नहीं है ( – अभेदता है ) ।२७८। ❃ पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहलेका और बादका ।
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परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं, भावभाववतोरेकास्तित्वनिर्वृत्तत्वात् । पुरा किल ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं ज्ञातम् । अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् । अपि चात्मा न परद्रव्यगत इति चेत् तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् । ततः खल्वात्मा स्वपरप्रकाशक इति यावत् । यथा
गाथा : १६३ अन्वयार्थ : — [आत्मा परप्रकाशः ] यदि आत्मा (केवल) परप्रकाशक हो [तदा ] तो [आत्मना ] आत्मासे [दर्शनं ] दर्शन [भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध होगा, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक) नहीं है ऐसा (पहले तेरा मंतव्य) वर्णन किया गया है ।
जिसप्रकार पहले (१६२वीं गाथामें) एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना खण्डित किया गया है, उसीप्रकार अब यदि ‘आत्मा केवल परप्रकाशक है’ ऐसा माना जाये तो वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि ×भाव और भाववान एक अस्तित्वसे रचित होते हैं । पहले (१६२वीं गाथामें ) ऐसा बतलाया था कि यदि ज्ञान (केवल) परप्रकाशक हो तो ज्ञानसे दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! यहाँ (इस गाथामें ) ऐसा समझना कि यदि आत्मा (केवल) परप्रकाशक हो तो आत्मासे ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि × ज्ञान भाव है और आत्मा भाववान है ।
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कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात् पावकोष्णवदिति ।
‘आत्मा परद्रव्यगत नहीं है (अर्थात् आत्मा केवल परप्रकाशक नहीं है, स्वप्रकाशक भी है )’ ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मासे दर्शनकी (सम्यक् प्रकारसे ) अभिन्नता सिद्ध होगी ऐसा समझना । इसलिये वास्तवमें आत्मा स्वपरप्रकाशक है । जिसप्रकार (१६२वीं गाथामें ) ज्ञानका कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्माका भी समझना, क्योंकि अग्नि और उष्णताकी भाँति धर्मी और धर्मका एक स्वरूप होता है ।
[अब इस १६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञानदर्शनधर्मोंसे युक्त होनेके कारण आत्मा वास्तवमें धर्मी है । सकल इन्द्रियसमूहरूपी हिमको (नष्ट करनेके लिये ) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव उसीमें (ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामें ही ) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्तिको प्राप्त होता है — कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूपसे सुस्थित है । २७९ ।
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चेतनाचेतनपरद्रव्यगुणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत्, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् व्यवहारनयबलेनेति । ततो दर्शनमपि ताद्रशमेव । त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् । तेन व्यवहार- नयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि ताद्रशमेवेति ।
प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः ।
[परप्रकाशं ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है । [व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [आत्मा ] आत्मा [परप्रकाशः ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है ।
समस्त (ज्ञानावरणीय ) कर्मका क्षय होनेसे प्राप्त होनेवाला सकल-विमल केवलज्ञान पुद्गलादि मूर्त - अमूर्त - चेतन - अचेतन परद्रव्यगुणपर्यायसमूहका प्रकाशक किसप्रकार है — ऐसा यहाँ प्रश्न हो, तो उसका उत्तर यह है कि – ‘पराश्रितो व्यवहार: (व्यवहार पराश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे व्यवहारनयके बलसे ऐसा है (अर्थात् परप्रकाशक है ); इसलिये दर्शन भी वैसा ही ( – व्यवहारनयके बलसे परप्रकाशक) है । और तीन लोकके ❃
कार्यपरमात्मा हैं उन्हें — ज्ञानकी भाँति ही (व्यवहारनयके बलसे ) परप्रकाशकपना है; इसलिये व्यवहारनयके बलसे उन भगवानका केवलदर्शन भी वैसा ही है ।
[श्लोकार्थ : — ] जिन्होंने दोषोंको जीता है, जिनके चरण देवेन्द्रों तथा ❃ प्रक्षोभके अर्थ के लिये ८५वें पृष्ठकी टिप्पणी देखो ।
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प्रकटतरसुद्रष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२८०।।
नरेन्द्रोंके मुकुटोंमें प्रकाशमान मूल्यवान मालाओंसे पुजते हैं (अर्थात् जिनके चरणोंमें इन्द्र तथा चक्रवर्तियोंके मणिमालायुक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यन्त झुकते हैं ), और (लोकालोकके समस्त ) पदार्थ एक-दूसरेमें प्रवेशको प्राप्त न हों इसप्रकार तीन लोक और अलोक जिनमें एक साथ ही व्याप्त हैं (अर्थात् जो जिनेन्द्रको युगपत् ज्ञात होते हैं ), वे जिनेन्द्र जयवन्त हैं ।’’
और (इस १६४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञानपुंज ऐसा यह आत्मा अत्यन्त स्पष्ट दर्शन होने पर (अर्थात् केवलदर्शन प्रगट होने पर ) व्यवहारनयसे सर्व लोकको देखता है तथा (साथमें वर्तते हुए केवलज्ञानके कारण ) समस्त मूर्त - अमूर्त पदार्थसमूहको जानता है । वह (केवल- दर्शनज्ञानयुक्त ) आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका ) वल्लभ होता है ।२८०।
गाथा : १६५ अन्वयार्थ : — [निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [ज्ञानम् ] ज्ञान [आत्मप्रकाशं ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है ।