Niyamsar (Hindi). Gatha: 158-165 ; Adhikar-12 : Shuddhopayog Adhikar.

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गाथा : १५७ अन्वयार्थ :[एकः ] जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य ) [निधिम् ]
निधिको [लब्ध्वा ] पाकर [सुजनत्वेन ] अपने वतनमें (गुप्तरूपसे ) रहकर [तस्य फलम् ]
उसके फलको [अनुभवति ] भोगता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी [परततिम् ] पर
जनोंके समूहको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञाननिधिम् ] ज्ञाननिधिको [भुंक्ते ] भोगता है
टीका :यहाँ दृष्टान्त द्वारा सहजतत्त्वकी आराधनाकी विधि कही है
कोई एक दरिद्र मनुष्य क्वचित् कदाचित् पुण्योदयसे निधिको पाकर, उस निधिके
फलको सौजन्य अर्थात् जन्मभूमि ऐसा जो गुप्त स्थान उसमें रहकर अति गुप्तरूपसे भोगता
है; ऐसा दृष्टान्तपक्ष है
दार्ष्टांतपक्षसे भी (ऐसा है कि )सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीव क्वचित्
आसन्नभव्यके (आसन्नभव्यतारूप ) गुणका उदय होनेसे सहजवैराग्यसम्पत्ति होनेपर, परम
गुरुके चरणकमलयुगलकी निरतिशय (उत्तम ) भक्ति द्वारा मुक्तिसुन्दरीके मुखके
मकरन्द
समान सहजज्ञाननिधिको पाकर, स्वरूपविकल ऐसे पर जनोंके समूहको ध्यानमें विघ्नका
कारण समझकर छोड़ता है
[अब इस १५७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं : ]
लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं भुंक्ते त्यक्त्वा परततिम् ।।१५७।।
अत्र द्रष्टान्तमुखेन सहजतत्त्वाराधनाविधिरुक्त :
कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतोदयेन निधिं लब्ध्वा तस्य निधेः फलं
हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थित्वा अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति द्रष्टान्तपक्षः
दार्ष्टान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीवः क्वचिदासन्नभव्यस्य गुणोदये सति
सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्ति सुन्दरीमुख-
मकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं
ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति
दार्ष्टांत = वह बात जो दृष्टान्त द्वारा समझाना हो; उपमेय
मकरन्द = पुष्प-रस; पुष्प-पराग
स्वरूपविकल = स्वरूपप्राप्ति रहित; अज्ञानी

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[श्लोकार्थ : ] इस लोकमें कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धनके
समूहको पाकर, संगको छोड़कर गुप्त होकर रहता है; उसकी भाँति ज्ञानी (परके संगको
छोड़कर गुप्तरूपसे रहकर ) ज्ञानकी रक्षा करता है
२६८
[श्लोकार्थ : ] जन्ममरणरूप रोगके हेतुभूत समस्त संगको छोड़कर,
हृदयकमलमें बुद्धिपूर्वक पूर्णवैराग्यभाव करके, सहज परमानन्द द्वारा जो अव्यग्र
(अनाकुल ) है ऐसे निज रूपमें (अपनी ) शक्तिसे स्थित रहकर, मोह क्षीण होने पर,
हम लोकको सदा तृणवत् देखते हैं २६९
गाथा : १५८ अन्वयार्थ :[सर्वे ] सर्व [पुराणपुरुषाः ] पुराण पुरुष
(शालिनी)
अस्मिन् लोके लौकिकः कश्चिदेकः
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्
गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्त संगो
ज्ञानी तद्वत
् ज्ञानरक्षां करोति ।।२६८।।
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा संगं जननमरणातंकहेतुं समस्तं
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्
स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः
।।२६९।।
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ।।१५८।।
सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा
अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ।।१५८।।
बुद्धिपूर्वक = समझपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक
शक्ति = सामर्थ्य; बल; वीर्य; पुरुषार्थ
यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकोंकी विधि धरी
पाकर अरे अप्रमत्त स्थान हुए नियत प्रभु केवली ।।१५८।।

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[एवम् ] इसप्रकार [आवश्यकं च ] आवश्यक [कृत्वा ] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं ]
अप्रमत्तादि स्थानको [प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः ] केवली हुए
टीका :यह, परमावश्यक अधिकारके उपसंहारका कथन है
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप ऐसा जो बाह्य -
आवश्यकादि क्रियासे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यकसाक्षात् अपुनर्भवरूपी
(मुक्तिरूपी ) स्त्रीके अनंग (अशरीरी ) सुखका कारणउसे करके, सर्व पुराण पुरुष
कि जिनमेंसे तीर्थंकरपरमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वेअप्रमत्तसे
लेकर सयोगीभट्टारक तकके गुणस्थानोंकी पंक्तिमें आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप
आत्माराधनाके प्रसादसे केवली
सकलप्रत्यक्षज्ञानधारीहुए
[अब इस निश्चय - परमावश्यक अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] पहले जो सर्व पुराण पुरुषयोगीनिज आत्माकी
आराधनासे समस्त कर्मरूपी राक्षसोंके समूहका नाश करके विष्णु और जयवन्त हुए
(अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए ), उन्हें जो मुक्तिकी स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमा-
वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः
स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः
केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात
् जाताश्चेति
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्ति स्पृहो निस्पृहः
स स्यात
् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ।।२७०।।
विष्णु = व्यापक (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापक
कहा जाता है)

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मनसे नित्य प्रणाम करता है, वह जीव पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान है और
उसके चरणकमलको सर्व जन पूजते हैं
२७०
[श्लोकार्थ : ] हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह उसे
छोड़कर, हे चित्त ! निर्मल सुखके हेतु परम गुरु द्वारा धर्मको प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप
(शांतस्वरूपी ) परमात्मामें
कि जो (परमात्मा ) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणोंसे
अलंकृत है तथा दिव्य ज्ञानवाला है उसमेंशीघ्र प्रवेश कर २७१
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें )
निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ
(मंदाक्रांता)
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं
नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम्
चेतः शीघ्रं प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय
।।२७१।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-
विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकादशमः
श्रुतस्कन्धः
।।
8

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अब समस्त कर्मके प्रलयके हेतुभूत शुद्धोपयोगका अधिकार कहा जाता है
गाथा : १५९ अन्वयार्थ :[व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [केवली
भगवान् ] केवली भगवान [सर्वं ] सब [जानाति पश्यति ] जानते हैं और देखते हैं;
[नियमेन ] निश्चयसे [केवलज्ञानी ] केवलज्ञानी [आत्मानम् ] आत्माको (स्वयंको )
[जानाति पश्यति ] जानता है और देखता है
टीका :यहाँ, ज्ञानीको स्व-पर स्वरूपका प्रकाशकपना कथंचित् कहा है
‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे,
१२
शुद्धोपयोग अधिकार
अथ सकलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५९।।
जानाति पश्यति सर्वं व्यवहारनयेन केवली भगवान्
केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ।।१५९।।
अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्त म्
आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासादितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां व्यवहार-
व्यवहारसे प्रभु केवली सब जानते अरु देखते
निश्चयनयात्मक-द्वारसे निज आत्मको प्रभु पेखते ।।१५९।।

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व्यवहारनयसे वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणोंका घात करनेवाले
घातिकर्मोंके नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा
त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोंको एक समयमें जानते हैं और
देखते हैं
शुद्धनिश्चयसे परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतरागको, परद्रव्यके ग्राहकत्व,
दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदिके विविध विकल्पोंकी सेनाकी उत्पत्ति मूलध्यानमें अभावरूप
होनेसे (? ), वे भगवान त्रिकाल
- निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित ), नित्यशुद्ध ऐसे
सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारणपरमात्माको, स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर
भी, जानते हैं और देखते हैं
किसप्रकार ? इस ज्ञानका धर्म तो, दीपककी भाँति,
स्वपरप्रकाशकपना है घटादिकी प्रमितिसे प्रकाशदीपक (कथंचित् ) भिन्न होने पर
भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होनेसे स्व और परको प्रकाशित करता है; आत्मा भी
ज्योतिस्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप
आत्माको (स्वयंको ) प्रकाशित करता है
९६ पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करनेसे जिन्होंने विशाल कीर्ति प्राप्त की है ऐसे
महासेनपंडितदेवने भी (श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
नयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति
च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यग्राहकत्वदर्शकत्व-
ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः
(?) स भगवान् त्रिकाल-
निरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य-
परमात्मापि जानाति पश्यति च
किं कृत्वा ? ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं
प्रदीपवत घटादिप्रमितेः प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परं
च प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योतिःस्वरूपत्वात
स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति
उक्तं च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः
यहाँ संस्कृत टीकामें अशुद्धि मालूम होती है, इसलिये संस्कृत टीकामें तथा उसके अनुवादमें शंकाको
सूचित करनेके लिये प्रश्नवाचक चिह्न दिया है

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‘‘[श्लोकार्थ : ] वस्तुका यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान,
दीपककी भाँति, स्वके और (पर ) पदार्थोंके निर्णयात्मक है तथा प्रमितिसे (ज्ञप्तिसे )
कथंचित् भिन्न है
’’
अब ‘स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे,
(ज्ञानको ) सतत निरुपराग निरंजन स्वभावमें लीनताके कारण निश्चयपक्षसे भी
स्वपरप्रकाशकपना है ही (वह इसप्रकार : ) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा, लक्षण और
प्रयोजनकी अपेक्षासे भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षणसे (तथा भिन्न प्रयोजनसे ) जाना जाता है
तथापि वस्तुवृत्तिसे (अखण्ड वस्तुकी अपेक्षासे ) भिन्न नहीं है; इस कारणसे यह
(सहजज्ञान ) आत्मगत (आत्मामें स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदिको जानता है और
स्वात्माको
कारणपरमात्माके स्वरूपकोभी जानता है
(सहजज्ञान स्वात्माको तो स्वाश्रित निश्चयनयसे जानता ही है और इसप्रकार
स्वात्माको जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं अब सहजज्ञानने जो यह
जाना उसमें भेद - अपेक्षासे देखें तो सहजज्ञानके लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त
अन्य सबदर्शन, सुख आदिपर है; इसलिये इस अपेक्षासे ऐसा सिद्ध हुआ कि
निश्चयपक्षसे भी ज्ञान स्वको तथा परको जानता है )
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १९२वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
(अनुष्टुभ्)
‘‘यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।’’
अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव-
निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात
संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति,
अतःकारणात
् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि
जानातीति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार

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‘‘[श्लोकार्थ : ] कर्मबन्धके छेदनसे अतुल अक्षय (अविनाशी ) मोक्षका
अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था
जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्तशुद्ध (
कर्मका मैल न रहनेसे जो अत्यन्त शुद्ध
हुआ है ऐसा ), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित ) निजरसकी
अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा (
सर्वथा
शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ ), अपनी अचल महिमामें लीन हुआ ’’
और (इस १५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] व्यवहारनयसे यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्वको
वास्तवमें जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीके कोमल मुखकमल पर कामपीड़ाको
तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फै लाता है
निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेशको नष्ट
किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपको अत्यन्त जानते हैं २७२
(मंदाक्रांता)
‘‘बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति
शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति
।।२७२।।
जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा
दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।।
ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते
त्यों केवलीको ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ।।१६०।।

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गाथा : १६० अन्वयार्थ :[केवलज्ञानिनः ] केवलज्ञानीको [ज्ञानं ] ज्ञान
[तथा च ] तथा [दर्शनं ] दर्शन [युगपद् ] युगपद् [वर्तते ] वर्तते हैं [दिनकर-
प्रकाशतापौ ] सूर्यके प्रकाश और ताप [यथा ] जिसप्रकार [वर्तेते ] (युगपद् ) वर्तते हैं
[तथा ज्ञातव्यम् ] उसी प्रकार जानना
टीका :यहाँ वास्तवमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका युगपद् वर्तना दृष्टान्त द्वारा
कहा है
यहाँ दृष्टान्तपक्षसे किसी समय बादलोंकी बाधा न हो तब आकाशके मध्यमें स्थित
सूर्यके प्रकाश और ताप जिसप्रकार युगपद् वर्तते हैं, उसीप्रकार भगवान परमेश्वर
तीर्थाधिनाथको त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर
- जङ्गम द्रव्यगुणपर्यायात्मक ज्ञेयोंमें
सकल - विमल (सर्वथा निर्मल ) केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् वर्तते हैं और
(विशेष इतना समझना कि ), संसारियोंको दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है (अर्थात् प्रथम दर्शन
और फि र ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते)
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (६१वीं गाथा
द्वारा ) कहा है कि :
[गाथार्थ : ] ज्ञान पदार्थोंके पारको प्राप्त है और दर्शन लोकालोकमें विस्तृत है;
सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है ’’
युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा
दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ।।१६०।।
इह हि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं द्रष्टान्तमुखेनोक्त म्
अत्र द्रष्टान्तपक्षे क्वचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य मध्यगतस्य
सहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञान-
केवलदर्शने च युगपद् वर्तेते
किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं भवति इति
तथा चोक्तं प्रवचनसारे
‘‘णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी
णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ।।’’

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और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित बृहद्द्रव्यसंग्रहमें ४४वीं गाथा
द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ : ] छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (अर्थात् पहले दर्शन
और फि र ज्ञान होता है ), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते;
केवलीनाथको वे दोनों युगपद् होते हैं
’’
और (इस १६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार
श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] जो धर्मतीर्थके अधिनाथ (नायक ) हैं, जो असदृश हैं
(अर्थात् जिनके समान अन्य कोई नहीं है ) और जो सकल लोकके एक नाथ हैं
ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं
जिसने
समस्त तिमिरसमूहका नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्यमें जिसप्रकार यह उष्णता
और प्रकाश (युगपद् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं (अर्थात्
सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं ), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद् )
होते हैं (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और
सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान प्रगट होता है )
२७३
अन्यच्च
‘‘दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओग्गा
जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
वर्तेते ज्ञानद्रष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे
सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसद्रशे विश्वलोकैकनाथे
एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन्
तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्
।।२७३।।

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[श्लोकार्थ : ] (हे जिननाथ ! ) सद्ज्ञानरूपी नौकामें आरोहण करके
भवसागरको लाँघकर, तू शीघ्रतासे शाश्वतपुरीमें पहुँच गया अब मैं जिननाथके उस मार्गसे
(जिस मार्गसे जिननाथ गये उसी मार्गसे ) उसी शाश्वतपुरीमें जाता हूँ; (क्योंकि ) इस
लोकमें उत्तम पुरुषोंको (उस मार्गके अतिरिक्त ) अन्य क्या शरण है ? २७४
[श्लोकार्थ : ] केवलज्ञानभानु (केवलज्ञानरूपी प्रकाशको धारण करनेवाले
सूर्य ) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवन्त हैं वे जिनदेव समरसमय अनंग (अशरीरी,
अतीन्द्रिय ) सौख्यकी देनेवाली ऐसी उस मुक्तिके मुखकमल पर वास्तवमें किसी
अवर्णनीय कान्तिको फै लाते हैं; (क्योंकि ) कौन (अपनी ) स्नेहपात्र प्रियाको निरन्तर
सुखोत्पत्तिका कारण नहीं होता ? २७५
[श्लोकार्थ : ] उन जिनेन्द्रदेवने मुक्तिकामिनीके मुखकमलके प्रति
भ्रमरलीलाको धारण किया (अर्थात् वे उसमें भ्रमरकी भाँति लीन हुए ) और वास्तवमें
अद्वितीय अनंग (आत्मिक ) सुखको प्राप्त किया
२७६
(वसंततिलका)
सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि-
मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता
तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्
।।२७४।।
(मंदाक्रांता)
एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित
मुक्ते स्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः
।।२७५।।
(अनुष्टुभ्)
जिनेन्द्रो मुक्ति कामिन्याः मुखपद्मे जगाम सः
अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ।।२७६।।

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गाथा : १६१ अन्वयार्थ :[ज्ञानं परप्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशक ही है
[च ] और [दृष्टिः आत्मप्रकाशिका एव ] दर्शन स्वप्रकाशक ही है [आत्मा
स्वपरप्रकाशः भवति ]
तथा आत्मा स्वपरप्रकाशक है [इति हि यदि खलु मन्यसे ]
ऐसा यदि वास्तवमें तू मानता हो तो उसमें विरोध आता है
टीका :यह, आत्माके स्वपरप्रकाशकपने सम्बन्धी विरोधकथन है
प्रथम तो, आत्माको स्वपरप्रकाशकपना किसप्रकार है ? (उस पर विचार किया
जाता है ) ‘आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणोंसे समृद्ध है; उसका ज्ञान शुद्ध आत्माको
प्रकाशित करनेमें असमर्थ होनेसे परप्रकाशक ही है; इसप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल
अभ्यन्तरमें आत्माको प्रकाशित करता है (अर्थात् स्वप्रकाशक ही है )
इस विधिसे आत्मा
स्वपरप्रकाशक है इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धिके
अभावके कारण मानता हो, तो वास्तवमें तुझसे अन्य कोई पुरुष जड़ (मूर्ख ) नहीं है
इसलिये अविरुद्ध ऐसी स्याद्वादविद्यारूपी देवी सज्जनों द्वारा सम्यक् प्रकारसे
णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।।१६१।।
ज्ञानं परप्रकाशं द्रष्टिरात्मप्रकाशिका चैव
आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु ।।१६१।।
आत्मनः स्वपरप्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोऽयम्
इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत ज्ञानदर्शनादिविशेषगुणसमृद्धो
ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् परप्रकाशकमेव, यद्येवं द्रष्टिर्निरंकुशा केवल-
मभ्यन्तरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हंहो जडमते
प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्धेरभावात् एवं मन्यसे, न खलु जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः
अथ ह्यविरुद्धा स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम् तत्रैकान्ततो ज्ञानस्य
दर्शन प्रकाशक आत्मका, परका प्रकाशक ज्ञान है
निज पर प्रकाशक आत्मा,रे यह विरुद्ध विधान है ।।१६१।।

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निरन्तर आराधना करने योग्य है वहाँ (स्याद्वादमतमें ), एकान्तसे ज्ञानको
परप्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमतमें दर्शन भी केवल शुद्धात्माको ही नहीं देखता
(अर्थात् मात्र स्वप्रकाशक ही नहीं है )
आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मोंका
आधार है (वहाँ ) व्यवहारपक्षसे भी ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो, सदा
बाह्यस्थितपनेके कारण, (ज्ञानको ) आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और
(इसलिये )
आत्मप्रतिपत्तिके अभावके कारण सर्वगतपना (भी ) नहीं बनेगा इस
कारणसे, यह ज्ञान होगा ही नहीं (अर्थात् ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं होगा ),
मृगतृष्णाके जलकी भाँति आभासमात्र ही होगा
इसीप्रकार दर्शनपक्षमें भी, दर्शन
केवल अभ्यन्तरप्रतिपत्तिका ही कारण नहीं है, (सर्वप्रकाशनका कारण है );
(क्योंकि ) चक्षु सदैव सर्वको देखता है, अपने अभ्यन्तरमें स्थित कनीनिकाको नहीं
देखता (इसलिये चक्षुकी बातसे ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तरको देखे
और बाह्यस्थित पदार्थोंको न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता )
इससे, ज्ञान
और दर्शनको (दोनोंको ) स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है इसलिये (इसप्रकार )
ज्ञानदर्शनलक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें
चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि :
परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्यान्मते दर्शनमपि शुद्धात्मानं पश्यति दर्शनज्ञान-
प्रभृत्यनेकधर्माणामाधारो ह्यात्मा व्यवहारपक्षेऽपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न
चात्मसम्बन्धः सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्तेरभावात् न सर्वगतत्वम्;
अतःकारणादिदं ज्ञानं न भवति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव दर्शनपक्षेऽपि तथा न
केवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति सदैव सर्वं पश्यति हि चक्षुः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां
कनीनिकां न पश्यत्येव अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव ततः
स्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
आत्मप्रतिपत्ति = आत्माका ज्ञान; स्वको जानना सो
अभ्यन्तरप्रतिपत्ति = अन्तरंगका प्रकाशन; स्वको प्रकाशना सो

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‘‘[श्लोकार्थ : ] जिसने कर्मोंको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान
और भावि समस्त विश्वको (अर्थात् तीनों कालकी पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको) युगपद्
जानता होने पर भी मोहके अभावके कारण पररूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये अब,
जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों
लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है
’’
और (इस १६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] ज्ञान एक सहजपरमात्माको जानकर लोकालोकको अर्थात्
लोकालोकसम्बन्धी (समस्त) ज्ञेयसमूहको प्रगट करता है (जानता है ) नित्य-शुद्ध ऐसा
क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्वपरविषयक है (अर्थात् वह भी स्वपरको साक्षात् प्रकाशित
करता है )
उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन) द्वारा आत्मदेव स्वपरसम्बन्धी ज्ञेयराशिको जानता
है (अर्थात् आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदार्थोंको प्रकाशित करता है ) २७७
(स्रग्धरा)
‘‘जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत-
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा
लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्गतं ज्ञेयजालम्
द्रष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा
ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।।२७७।।
णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६२।।
पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञानसे दृग् भिन्न रे
‘परद्रव्यगत नहिं दर्श !’ वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ।।१६२।।

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गाथा : १६२ अन्वयार्थ :[ज्ञानं परप्रकाशं ] यदि ज्ञान (केवल)
परप्रकाशक हो [तदा ] तो [ज्ञानेन ] ज्ञानसे [दर्शनं ] दर्शन [भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध होगा,
[दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक)
नहीं है ऐसा (पूर्व सूत्रमें तेरा मन्तव्य) वर्णन किया गया है
टीका :यह, पूर्व सूत्रमें (१६१वीं गाथामें ) कहे हुए पूर्वपक्षके सिद्धान्त
सम्बन्धी कथन है
यदि ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो इस परप्रकाशनप्रधान (परप्रकाशक) ज्ञानसे
दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; (क्योंकि) सह्याचल और विंध्याचलकी भाँति अथवा गङ्गा
और श्रीपर्वतकी भाँति, परप्रकाशक ज्ञानको और आत्मप्रकाशक दर्शनको सम्बन्ध
किसप्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ (
आत्मामें स्थित) है वह तो दर्शन ही है और
उस ज्ञानको तो, निराधारपनेके कारण (अर्थात् आत्मारूपी आधार न रहनेसे),
शून्यताकी आपत्ति ही आयेगी; अथवा तो जहाँ
जहाँ ज्ञान पहुँचेगा (अर्थात् जिस जिस
द्रव्यको ज्ञान पहुँचेगा) वे वे सर्व द्रव्य चेतनताको प्राप्त होंगे, इसलिये तीन लोकमें
कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा यह महान दोष प्राप्त होगा इसीलिये (उपरोक्त
दोषके भयसे), हे शिष्य ! ज्ञान केवल परप्रकाशक नहीं है ऐसा यदि तू कहे, तो
दर्शन भी केवल आत्मगत (स्वप्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा
जा चुका है
इसलिये वास्तवमें सिद्धान्तके हार्दरूप ऐसा यही समाधान है कि ज्ञान
ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम्
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात।।१६२।।
पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्ति रियम्
केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं
भिन्नमेव परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति
चेत् सह्यविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव,
निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्द्रव्यं
सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः पदार्थः इति महतो
दूषणस्यावतारः
तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपि
न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञान-

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और दर्शनको कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना है ही
इसीप्रकार श्री महासेनपंडितदेवने (श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] आत्मा ज्ञानसे (सर्वथा) भिन्न नहीं है, (सर्वथा) अभिन्न
नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो यह आत्मा है ऐसा
कहा है ’’
और (इस १६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन
भी नहीं ही है; वह उभययुक्त (ज्ञानदर्शनयुक्त) आत्मा स्वपर विषयको अवश्य जानता
है और देखता है
अघसमूहके (पापसमूहके) नाशक आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें संज्ञा -
भेदसे भेद उत्पन्न होता है (अर्थात् संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे
उनमें उपरोक्तानुसार भेद है ), परमार्थसे अग्नि और उष्णताकी भाँति उनमें (
आत्मामें
और ज्ञानदर्शनमें ) वास्तवमें भेद नहीं है (अभेदता है ) २७८
दर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति
तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः
‘‘ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत
ताभ्यां युक्त : स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम्
संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानद्रष्टयोः
भेदो जातो न खलु परमार्थेन वह्नयुष्णवत्सः ।।२७८।।
पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहलेका और बादका

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गाथा : १६३ अन्वयार्थ :[आत्मा परप्रकाशः ] यदि आत्मा (केवल)
परप्रकाशक हो [तदा ] तो [आत्मना ] आत्मासे [दर्शनं ] दर्शन [भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध
होगा, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत
(परप्रकाशक) नहीं है ऐसा (पहले तेरा मंतव्य) वर्णन किया गया है
टीका :यह, एकान्तसे आत्माको परप्रकाशकपना होनेकी बातका खण्डन है
जिसप्रकार पहले (१६२वीं गाथामें) एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना खण्डित
किया गया है, उसीप्रकार अब यदि ‘आत्मा केवल परप्रकाशक है’ ऐसा माना जाये तो
वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि ×भाव और भाववान एक अस्तित्वसे
रचित होते हैं
पहले (१६२वीं गाथामें ) ऐसा बतलाया था कि यदि ज्ञान (केवल)
परप्रकाशक हो तो ज्ञानसे दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! यहाँ (इस गाथामें ) ऐसा समझना कि
यदि आत्मा (केवल) परप्रकाशक हो तो आत्मासे ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि
अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६३।।
आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम्
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात।।१६३।।
एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोऽयम्
यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलं
परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं, भावभाववतोरेकास्तित्वनिर्वृत्तत्वात पुरा किल ज्ञानस्य
परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं ज्ञातम् अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति
तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् अपि चात्मा न परद्रव्यगत इति चेत
तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् ततः खल्वात्मा स्वपरप्रकाशक इति यावत यथा
× ज्ञान भाव है और आत्मा भाववान है
पर ही प्रकाशे जीव तो हो आत्मसे दृग् भिन्न रे
परद्रव्यगत नहिं दर्शवर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ।।१६३।।

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‘आत्मा परद्रव्यगत नहीं है (अर्थात् आत्मा केवल परप्रकाशक नहीं है, स्वप्रकाशक भी
है )’ ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मासे दर्शनकी (सम्यक् प्रकारसे ) अभिन्नता सिद्ध
होगी ऐसा समझना
इसलिये वास्तवमें आत्मा स्वपरप्रकाशक है जिसप्रकार (१६२वीं
गाथामें ) ज्ञानका कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्माका भी समझना,
क्योंकि अग्नि और उष्णताकी भाँति धर्मी और धर्मका एक स्वरूप होता है
[अब इस १६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] ज्ञानदर्शनधर्मोंसे युक्त होनेके कारण आत्मा वास्तवमें धर्मी है
सकल इन्द्रियसमूहरूपी हिमको (नष्ट करनेके लिये ) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव
उसीमें (ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामें ही ) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्तिको प्राप्त
होता है
कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूपसे सुस्थित है २७९
गाथा : १६४ अन्वयार्थ :[व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [ज्ञानं ] ज्ञान
कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात
पावकोष्णवदिति
(मंदाक्रांता)
आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानद्रग्धर्मयुक्त :
तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम्
सम्यग्द्रष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्
मुक्तिं याति स्फु टितसहजावस्थया संस्थितां ताम् ।।२७९।।
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा
अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।।१६४।।
ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात
आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात।।१६४।।
व्यवहारसे है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है
व्यवहारसे है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ।।१६४।।

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[परप्रकाशं ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है
[व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [आत्मा ] आत्मा [परप्रकाशः ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ]
इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है
टीका :यह, व्यवहारनयकी सफलता दर्शानेवाला कथन है
समस्त (ज्ञानावरणीय ) कर्मका क्षय होनेसे प्राप्त होनेवाला सकल-विमल केवलज्ञान
पुद्गलादि मूर्त - अमूर्त - चेतन - अचेतन परद्रव्यगुणपर्यायसमूहका प्रकाशक किसप्रकार है
ऐसा यहाँ प्रश्न हो, तो उसका उत्तर यह है किपराश्रितो व्यवहार: (व्यवहार पराश्रित है )’
ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे व्यवहारनयके बलसे ऐसा है (अर्थात् परप्रकाशक है );
इसलिये दर्शन भी वैसा ही (
व्यवहारनयके बलसे परप्रकाशक) है और तीन लोकके
प्रक्षोभके हेतुभूत तीर्थंकर-परमदेवकोकि जो सौ इन्द्रोंकी प्रत्यक्ष वंदनाके योग्य हैं और
कार्यपरमात्मा हैं उन्हेंज्ञानकी भाँति ही (व्यवहारनयके बलसे ) परप्रकाशकपना है;
इसलिये व्यवहारनयके बलसे उन भगवानका केवलदर्शन भी वैसा ही है
इसीप्रकार श्रुतबिन्दुमें (श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
[श्लोकार्थ : ] जिन्होंने दोषोंको जीता है, जिनके चरण देवेन्द्रों तथा
व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह
इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलविमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्त-
चेतनाचेतनपरद्रव्यगुणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत्, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
व्यवहारनयबलेनेति ततो दर्शनमपि ताद्रशमेव त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य
शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् तेन व्यवहार-
नयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि ताद्रशमेवेति
तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ
(मालिनी)
‘‘जयति विजितदोषोऽमर्त्यमर्त्येन्द्रमौलि-
प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः
त्रिजगदजगती यस्येद्रशौ व्यश्नुवाते
सममिव विषयेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेद्धुम् ।।’’
प्रक्षोभके अर्थ के लिये ८५वें पृष्ठकी टिप्पणी देखो

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नरेन्द्रोंके मुकुटोंमें प्रकाशमान मूल्यवान मालाओंसे पुजते हैं (अर्थात् जिनके चरणोंमें
इन्द्र तथा चक्रवर्तियोंके मणिमालायुक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यन्त झुकते हैं ), और
(लोकालोकके समस्त ) पदार्थ एक-दूसरेमें प्रवेशको प्राप्त न हों इसप्रकार तीन लोक
और अलोक जिनमें एक साथ ही व्याप्त हैं (अर्थात् जो जिनेन्द्रको युगपत् ज्ञात होते
हैं ), वे जिनेन्द्र जयवन्त हैं
’’
और (इस १६४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] ज्ञानपुंज ऐसा यह आत्मा अत्यन्त स्पष्ट दर्शन होने पर (अर्थात्
केवलदर्शन प्रगट होने पर ) व्यवहारनयसे सर्व लोकको देखता है तथा (साथमें वर्तते हुए
केवलज्ञानके कारण ) समस्त मूर्त
- अमूर्त पदार्थसमूहको जानता है वह (केवल-
दर्शनज्ञानयुक्त ) आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका ) वल्लभ होता है २८०
गाथा : १६५ अन्वयार्थ :[निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [ज्ञानम् ] ज्ञान
[आत्मप्रकाशं ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है
तथा हि
(मालिनी)
व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा
प्रकटतरसु
द्रष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी
विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।२८०।।
णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा
अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।।१६५।।
ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात
आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात।।१६५।।
है ज्ञान निश्चय निजप्रकाशक , इसलिये त्यों दर्श है
है जीव निश्चय निजप्रकाशक, इसलिये त्यों दर्श है ।।१६५।।