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उसके फलको [अनुभवति ] भोगता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी [परततिम् ] पर
जनोंके समूहको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञाननिधिम् ] ज्ञाननिधिको [भुंक्ते ] भोगता है
है; ऐसा दृष्टान्तपक्ष है
गुरुके चरणकमलयुगलकी निरतिशय (उत्तम ) भक्ति द्वारा मुक्तिसुन्दरीके मुखके
सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्ति सुन्दरीमुख-
मकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं
ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति
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छोड़कर गुप्तरूपसे रहकर ) ज्ञानकी रक्षा करता है
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्
ज्ञानी तद्वत
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः
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अप्रमत्तादि स्थानको [प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः ] केवली हुए
आत्माराधनाके प्रसादसे केवली
स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः
केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः
स स्यात
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उसके चरणकमलको सर्व जन पूजते हैं
(शांतस्वरूपी ) परमात्मामें
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें )
नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम्
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय
श्रुतस्कन्धः
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[नियमेन ] निश्चयसे [केवलज्ञानी ] केवलज्ञानी [आत्मानम् ] आत्माको (स्वयंको )
[जानाति पश्यति ] जानता है और देखता है
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घातिकर्मोंके नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा
त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोंको एक समयमें जानते हैं और
देखते हैं
होनेसे (? ), वे भगवान त्रिकाल
भी, जानते हैं और देखते हैं
ज्योतिस्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप
आत्माको (स्वयंको ) प्रकाशित करता है
च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः
परमात्मापि जानाति पश्यति च
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कथंचित् भिन्न है
तथापि वस्तुवृत्तिसे (अखण्ड वस्तुकी अपेक्षासे ) भिन्न नहीं है; इस कारणसे यह
(सहजज्ञान ) आत्मगत (आत्मामें स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदिको जानता है और
स्वात्माको
अतःकारणात
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जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्तशुद्ध (
अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा (
तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फै लाता है
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति
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[तथा ज्ञातव्यम् ] उसी प्रकार जानना
तीर्थाधिनाथको त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर
और फि र ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते)
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञान-
केवलदर्शने च युगपद् वर्तेते
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केवलीनाथको वे दोनों युगपद् होते हैं
ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं
और प्रकाश (युगपद् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं (अर्थात्
सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं ), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद् )
होते हैं (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और
सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान प्रगट होता है )
तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्
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अवर्णनीय कान्तिको फै लाते हैं; (क्योंकि ) कौन (अपनी ) स्नेहपात्र प्रियाको निरन्तर
सुखोत्पत्तिका कारण नहीं होता ? २७५
अद्वितीय अनंग (आत्मिक ) सुखको प्राप्त किया
मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः
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स्वपरप्रकाशः भवति ] तथा आत्मा स्वपरप्रकाशक है [इति हि यदि खलु मन्यसे ]
ऐसा यदि वास्तवमें तू मानता हो तो उसमें विरोध आता है
अभ्यन्तरमें आत्माको प्रकाशित करता है (अर्थात् स्वप्रकाशक ही है )
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(अर्थात् मात्र स्वप्रकाशक ही नहीं है )
(इसलिये )
मृगतृष्णाके जलकी भाँति आभासमात्र ही होगा
देखता (इसलिये चक्षुकी बातसे ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तरको देखे
और बाह्यस्थित पदार्थोंको न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता )
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जानता होने पर भी मोहके अभावके कारण पररूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये अब,
जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों
लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है
करता है )
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
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[दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक)
नहीं है ऐसा (पूर्व सूत्रमें तेरा मन्तव्य) वर्णन किया गया है
और श्रीपर्वतकी भाँति, परप्रकाशक ज्ञानको और आत्मप्रकाशक दर्शनको सम्बन्ध
किसप्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ (
शून्यताकी आपत्ति ही आयेगी; अथवा तो जहाँ
दर्शन भी केवल आत्मगत (स्वप्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा
जा चुका है
दूषणस्यावतारः
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है और देखता है
उनमें उपरोक्तानुसार भेद है ), परमार्थसे अग्नि और उष्णताकी भाँति उनमें (
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होगा, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत
(परप्रकाशक) नहीं है ऐसा (पहले तेरा मंतव्य) वर्णन किया गया है
वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि ×भाव और भाववान एक अस्तित्वसे
रचित होते हैं
यदि आत्मा (केवल) परप्रकाशक हो तो आत्मासे ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि
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है )’ ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मासे दर्शनकी (सम्यक् प्रकारसे ) अभिन्नता सिद्ध
होगी ऐसा समझना
क्योंकि अग्नि और उष्णताकी भाँति धर्मी और धर्मका एक स्वरूप होता है
उसीमें (ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामें ही ) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्तिको प्राप्त
होता है
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इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है
इसलिये दर्शन भी वैसा ही (
प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः
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इन्द्र तथा चक्रवर्तियोंके मणिमालायुक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यन्त झुकते हैं ), और
(लोकालोकके समस्त ) पदार्थ एक-दूसरेमें प्रवेशको प्राप्त न हों इसप्रकार तीन लोक
और अलोक जिनमें एक साथ ही व्याप्त हैं (अर्थात् जो जिनेन्द्रको युगपत् ज्ञात होते
हैं ), वे जिनेन्द्र जयवन्त हैं
केवलज्ञानके कारण ) समस्त मूर्त
प्रकटतरसु
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः