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दर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव । आत्मा हि विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षण- लक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्त बहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव । इत्थं स्वरूप- प्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंग- मात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु “आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे “संज्ञा- लक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति ।
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि ।।२८१।।
[निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [आत्मा ] आत्मा [आत्मप्रकाशः ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है ।
यहाँ निश्चयनयसे शुद्ध ज्ञानका लक्षण स्वप्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व आवरणसे मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्वप्रकाशक ही है । आत्मा वास्तवमें, उसने सर्व इन्द्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणसे लक्षित है; दर्शन भी, उसने बहिर्विषयपना छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूपप्रत्यक्ष - लक्षणसे लक्षित अखण्ड - सहज - शुद्धज्ञानदर्शनमय होनेके कारण, निश्चयसे, त्रिलोक - त्रिकालवर्ती स्थावर - जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य - प्रकाशकादि विकल्पोंसे अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूपसंचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा सर्वथा अंतर्मुख होनेके कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है ।
[अब इस १६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] निश्चयसे आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट ★ यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।
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केवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिर- पेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्व- किया है ऐसा (स्वप्रकाशक ) जो साक्षात् दर्शन उस - रूप भी आत्मा है । एकाकार निजरसके फै लावसे पूर्ण होनेके कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन ) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है । २८१ ।
गाथा : १६६ अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] (निश्चयसे ) केवली भगवान [आत्मस्वरूपं ] आत्मस्वरूपको [पश्यति ] देखते हैं, [न लोकालोकौ ] लोकालोकको नहीं — [एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कुछ दोष नहीं है । )
टीका : — यह, शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका (परको देखनेका) खण्डन है ।
यद्यपि व्यवहारसे एक समयमें तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायोंको जाननेमें समर्थ सकल - विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओंका धारण करनेवाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपनेके कारण निःशेषरूपसे (सर्वथा ) अन्तर्मुख होनेसे केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमें लीन ऐसे निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्माको निश्चयसे देखता है (परन्तु
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वेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम् ।
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः ।।२८२।।
लोकालोकको नहीं ) — ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्वका वेदन करनेवाला (जाननेवाला, अनुभव करनेवाला ) परम जिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे कहता है, उसे वास्तवमें दूषण नहीं है ।
[अब इस १६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] (❃निश्चयसे ) आत्मा सहज परमात्माको देखता है — कि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धिका आवास होनेसे (केवलज्ञानदर्शनादि ) महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मामें अत्यन्त अविचल होनेसे सर्वदा अन्तर्मग्न है । स्वभावसे महान ऐसे उस आत्मामें ❃व्यवहारप्रपंच है ही नहीं । (अर्थात् निश्चयसे आत्मामें लोकालोकको देखनेरूप व्यवहारविस्तार है ही नहीं ) ।२८२। ❃यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी ऐसा समझना कि — जिसमें स्वकी ही अपेक्षा हो वह निश्चयकथन है और
वह निश्चयकथन है । यहाँ व्यवहारकथनका वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव
हैं । छद्मस्थ जीवके साथ तुलनाकी अपेक्षासे तो केवलीभगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं वह बराबर
संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन
सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना
जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करनेके लिये उसे व्यवहार कहा है ।
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पंचानामचेतनत्वम् । मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेषं त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणव्यवधानापोढं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षं भवतीति ।
चेतन – अचेतन [द्रव्यं ] द्रव्योंको — [स्वकं च सर्वं च ] स्वको तथा समस्तको [पश्यतः तु ] देखनेवाले (जाननेवालेका ) [ज्ञानम् ] ज्ञान [अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय है, [प्रत्यक्षम् भवति ] प्रत्यक्ष है ।
छह द्रव्योंमें पुद्गलको मूर्तपना है, (शेष ) पाँचको अमूर्तपना है; जीवको ही चेतनपना है, (शेष ) पाँचको अचेतनपना है । त्रिकाल सम्बन्धी मूर्त - अमूर्त चेतन - अचेतन स्वद्रव्यादि अशेषको (स्व तथा पर समस्त द्रव्योंको ) निरन्तर देखनेवाले भगवान श्रीमद् अर्हत्परमेश्वरका जो क्रम, इन्द्रिय और ❃
निर्मल ) केवलज्ञान वह सकलप्रत्यक्ष है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (५४वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : — ❃ व्यवधानके अर्थके लिये २८वें पृष्ठकी टिप्पणी देखो ।
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लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च ।
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ।।२८३।।
‘‘[गाथार्थ : — ] देखनेवालेका जो ज्ञान अमूर्तको, मूर्त पदार्थोंमें भी अतीन्द्रियको, और प्रच्छन्नको इन सबको — स्वको तथा परको — देखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ।’’
और (इस १६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] केवलज्ञान नामका जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसीसे जिनकी प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोकके गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका ❃धाम है — ऐसे यह तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोकको अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन - अचेतन पदार्थोंको सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) जानते हैं ।२८३।
गाथा : १६८ अन्वयार्थ : — [नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ] विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं ] पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको [यः ] जो [सम्यक् ] सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [न च पश्यति ] नहीं देखता, [तस्य ] उसे [परोक्षदृष्टिः ❃ धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल ।
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पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतन- गुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामा- ण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षद्रष्टिरिति ।
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी ।
भवेत् ] परोक्ष दर्शन है ।
टीका : — यहाँ, केवलदर्शनके अभावमें (अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शनके अभावमें ) सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है ।
समस्त गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथामें कहे हुए ) मूर्तादि द्रव्योंको जो नहीं देखता; — अर्थात् मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण होते हैं, अचेतनके अचेतन गुण होते हैं, अमूर्तके अमूर्त गुण होते हैं, चेतनके चेतन गुण होते हैं; षट् (छह प्रकारकी ) हानिवृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागमके प्रमाणसे स्वीकार - करनेयोग्य अर्थपर्यायें छह द्रव्योंको साधारण हैं, नरनारकादि व्यंजनपर्यायें पांच प्रकारकी ❃संसारप्रपंचवाले जीवोंको होती हैं, पुद्गलोंको स्थूल - स्थूल आदि स्कन्धपर्यायें होती हैं और धर्मादि चार द्रव्योंको शुद्ध पर्यायें होती हैं; इन गुणपर्यायोंसे संयुक्त ऐसे उस द्रव्यसमूहको जो वास्तवमें नहीं देखता; — उसे (भले वह सर्वज्ञताके अभिमानसे दग्ध हो तथापि ) संसारियोंकी भाँति परोक्ष दृष्टि है ।
[अब इस १६८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] सर्वज्ञताके अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही कालमें तीन ❃ संसारप्रपंच = संसारविस्तार । (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव — ऐसे पाँच परावर्तनरूप
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षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया जगतको तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा (अर्थात् कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्माको सर्वज्ञता किसप्रकार होगी ? ।२८४।
गाथा : १६९ अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] (व्यवहारसे ) केवली भगवान [लोकालोकौ ] लोकालोकको [जानाति ] जानते हैं, [न एव आत्मानम् ] आत्माको नहीं — [एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कोई दोष नहीं है । )
‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )’ ऐसे (शास्त्रके) अभिप्रायके कारण, व्यवहारसे व्यवहारनयकी प्रधानता द्वारा (अर्थात् व्यवहारसे व्यवहारनयको प्रधान करके), ‘सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर कामिनीके जो जीवितेश हैं ( – मुक्तिसुन्दरीके जो प्राणनाथ हैं ) ऐसे भगवान छह द्रव्योंसे व्याप्त तीन लोकको और शुद्ध - आकाशमात्र अलोकको जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार ) शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं ही जानते’ — ऐसा यदि व्यवहारनयकी विवक्षासे कोई जिननाथके
— यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६९।।
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कोपि जिननाथतत्त्वविचारलब्धः (दक्षः) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति ।
चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् ।
वचनमिदं वदतांवरस्य ते ।।’’
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् ।
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः ।।२८५।।
तत्त्वविचारमें निपुण जीव ( – जिनदेवने कहे हुए तत्त्वके विचारमें प्रवीण जीव ) कदाचित् कहे, तो उसे वास्तवमें दूषण नहीं है ।
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री समन्तभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें भी मुनिसुव्रत भगवानकी स्तुति करते हुए ११४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] हे जिनेन्द्र ! तू वक्ताओंमें श्रेष्ठ है; ‘चराचर (जङ्गम तथा स्थावर ) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समयमें ) उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणवाला है’ ऐसा यह तेरा वचन (तेरी ) सर्वज्ञताका चिह्न है ।’’
और (इस १६९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] तीर्थनाथ वास्तवमें समस्त लोकको जानते हैं और वे एक, अनघ (निर्दोष ), निजसौख्यनिष्ठ (निज सुखमें लीन ) स्वात्माको नहीं जानते — ऐसा कोई मुनिवर व्यवहारमार्गसे कहे तो उसे दोष नहीं है ।२८५।
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निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्ति सुंदरीनाथं बहिर्व्यावृत्तकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववादः । अस्य विपरीतो वितर्कः स खलु विभाववादः प्राथमिकशिष्याभिप्रायः । कथमिति चेत्, पूर्वोक्त स्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा, स्वरूपाव-
गाथा : १७० अन्वयार्थ : — [ज्ञानं ] ज्ञान [जीवस्वरूपं ] जीवका स्वरूप है, [तस्मात् ] इसलिये [आत्मा ] आत्मा [आत्मकं ] आत्माको [जानाति ] जानता है; [आत्मानं न अपि जानाति ] यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो [आत्मनः ] आत्मासे [व्यतिरिक्तम् ] व्यतिरिक्त (पृथक् ) [भवति ] सिद्ध हो !
टीका : — यहाँ (इस गाथामें ) ‘जीव ज्ञानस्वरूप है’ ऐसा वितर्कसे (दलीलसे ) कहा है ।
प्रथम तो, ज्ञान वास्तवमें जीवका स्वरूप है; उस हेतुसे, जो अखण्ड अद्वैत स्वभावमें लीन है, जो १निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्तिसुन्दरीका नाथ है और बाह्यमें जिसने २कौतूहल व्यावृत्त किया है (अर्थात् बाह्य पदार्थों सम्बन्धी कुतूहलका जिसने अभाव किया है ) ऐसे निज परमात्माको कोई आत्मा — भव्य जीव — जानता है । — ऐसा यह वास्तवमें स्वभाववाद है । इससे विपरीत वितर्क ( – विचार ) वह वास्तवमें विभाववाद है, प्राथमिक शिष्यका अभिप्राय है । १-निरतिशय = कोई दूसरा जिससे बढ़कर नहीं है ऐसी; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय । २ कौतूहल = उत्सुकता; आश्चर्य; कौतुक ।
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स्थितः संतिष्ठति । यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पा- भावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति । हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः । किं बहुना । तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति । तन्न खलु सम्मतं स्वभाववादिनामिति ।
वह (विपरीत वितर्क — प्राथमिक शिष्यका अभिप्राय ) किसप्रकार है ? (वह इसप्रकार है : — ) ‘पूर्वोक्तस्वरूप (ज्ञानस्वरूप ) आत्माको आत्मा वास्तवमें जानता नहीं है, स्वरूपमें अवस्थित रहता है ( – आत्मामें मात्र स्थित रहता है ) । जिसप्रकार उष्णतास्वरूप अग्निके स्वरूपको (अर्थात् अग्निको ) क्या अग्नि जानती है ? (नहीं ही जानती । ) उसीप्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्पके अभावसे यह आत्मा आत्मामें (मात्र ) स्थित रहता है ( – आत्माको जानता नहीं है ) ।’
(उपरोक्त वितर्कका उत्तर : — ) ‘हे प्राथमिक शिष्य ! अग्निकी भाँति क्या यह आत्मा अचेतन है (कि जिससे वह अपनेको न जाने ) ? अधिक क्या कहा जाये ? (संक्षेपमें, ) यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति, ❃
(अर्थात् ज्ञान और आत्माकी सर्वथा भिन्नता तो ) वास्तवमें स्वभाववादियोंको संमत नहीं है । (इसलिये निर्णय कर कि ज्ञान आत्माको जानता है । )’
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें १७४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] आत्मा ज्ञानस्वभाव है; स्वभावकी प्राप्ति वह अच्युति ❃ अर्थक्रियाकारी = प्रयोजनभूत क्रिया करनेवाला । (जिसप्रकार देवदत्तके बिना अकेली कुल्हाड़ी
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स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम् ।
(अविनाशी दशा ) है; इसलिये अच्युतिको (अविनाशीपनेको, शाश्वत दशाको ) चाहनेवाले जीवको ज्ञानकी भावना भाना चाहिये ।’’
और (इस १७०वीं गाथाकी टीकाके कलशरूपसे टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञान तो बराबर शुद्धजीवका स्वरूप है; इसलिये (हमारा ) निज आत्मा अभी (साधक दशामें ) एक (अपने ) आत्माको नियमसे (निश्चयसे ) जानता है । और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा (प्रत्यक्षरूपसे ) आत्माको न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूपसे अवश्य भिन्न सिद्ध होगा ! २८६ ।
ज्ञान आत्माको न जाने तो वह जीवसे भिन्न सिद्ध होगा !’’
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त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि । तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र संदेहो नास्ति ।
गाथा : १७१ अन्वयार्थ : — [आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] आत्माको ज्ञान जान, और [ज्ञानम् आत्मकः विद्धि ] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; — [न संदेहः ] इसमें संदेह नहीं है । [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा ] तथा [दर्शनं ] दर्शन [स्वपरप्रकाशं ] स्वपरप्रकाशक [भवति ] है ।
हे शिष्य ! सर्व परद्रव्यसे पराङ्मुख आत्माको तू निज स्वरूपको जाननेमें समर्थ सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान । इसलिये तत्त्व ( – स्वरूप ) ऐसा है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं । इसमें सन्देह नहीं है ।
[अब इस १७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्माको ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शनको आत्मा जान; स्व और पर ऐसे तत्त्वको (समस्त पदार्थोंको ) आत्मा स्पष्टरूपसे प्रकाशित करता है ।२८७।
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शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात् विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः, पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अबन्धक इति ।
गाथा : १७२ अन्वयार्थ : — [जानन् पश्यन् ] जानते और देखते हुए भी, [केवलिनः ] केवलीको [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक (वर्तन ) [न भवति ] नहीं होता; [तस्मात् ] इसलिये उन्हें [केवलज्ञानी ] ‘केवलज्ञानी’ कहा है; [तेन तु ] और इसलिये [सः अबन्धकः भणितः ] अबन्धक कहा है ।
भगवान अर्हंत परमेष्ठी सादि - अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्ध- सद्भूतव्यवहारसे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके आधारभूत होनेके कारण विश्वको निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवलीको मनप्रवृत्तिका (मनकी प्रवृत्तिका, भावमनपरिणतिका ) अभाव होनेसे इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान ‘केवलज्ञानी’ रूपसे प्रसिद्ध हैं; और उस कारणसे वे भगवान अबन्धक हैं
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (५२वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] (केवलज्ञानी ) आत्मा पदार्थोंको जानता हुआ भी उन - रूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थोंरूपमें उत्पन्न नहीं होता इसलिये उसे अबन्धक कहा है ।’’
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पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः ।
ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।।२८८।।
अब (इस १७२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] सहजमहिमावंत देवाधिदेव जिनेश लोकरूपी भवनके भीतर स्थित सर्व पदार्थोंको जानते हुए भी, तथा देखते हुए भी, मोहके अभावके कारण समस्त परको ( – किसी भी परपदार्थको ) नित्य ( – कदापि ) ग्रहण नहीं ही करते; (परन्तु ) जिन्होंने ज्ञानज्योति द्वारा मलरूप क्लेशका नाश किया है ऐसे वे जिनेश सर्व लोकके एक साक्षी ( – केवल ज्ञातादृष्टा ) हैं ।२८८।
गाथा : १७३-१७४ अन्वयार्थ : — [परिणामपूर्ववचनं ] परिणामपूर्वक (मन- परिणाम पूर्वक ) वचन [जीवस्य च ] जीवको [बंधकारणं ] बन्धका कारण [भवति ]
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पूर्वकमिति यावत् । कुतः ? ‘‘अमनस्काः केवलिनः’’ इति वचनात् । अतः कारणाज्जीवस्य मनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मनःपरिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति; ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति । है; [परिणामरहितवचनं ] (ज्ञानीको ) परिणामरहित वचन होता है [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ] बंध नहीं है ।
[ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [वचनं ] वचन [जीवस्य च ] जीवको [बंधकारणं ] बन्धका कारण [भवति ] है; [ईहारहितं वचनं ] (ज्ञानीको ) इच्छारहित वचन होता है [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ] बंध नहीं है ।
टीका : — यहाँ वास्तवमें ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) बन्धके अभावका स्वरूप कहा है ।
सम्यग्ज्ञानी (केवलज्ञानी ) जीव कहीं कभी स्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन- परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता । क्यों ? ‘‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे । इस कारणसे (ऐसा समझना कि) — जीवको मनपरिणतिपूर्वक वचन बन्धका कारण है ऐसा अर्थ है और मनपरिणतिपूर्वक वचन तो केवलीको होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही ❃
कारण है और केवलीके मुखारविन्दसे निकलती हुई, समस्त जनोंके हृदयको आह्लादके कारणभूत दिव्यध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छारहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानीको (केवलज्ञानीको) बन्धका अभाव है ।
[अब इन १७३ - १७४वीं गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं :] ❃ साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे ।
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तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता ।
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् ।
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ।।२९०।।
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः ।
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ।।२९१।।
[श्लोकार्थ : — ] इनमें (केवली भगवानमें ) इच्छापूर्वक वचनरचनाका स्वरूप नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट - महिमावंत हैं और समस्त लोकके एक (अनन्य) नाथ हैं । उन्हें द्रव्यभावस्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोहके अभावके कारण उन्हें वास्तवमें समस्त रागद्वेषादि समूह तो है नहीं ।२८९।
[श्लोकार्थ : — ] तीन लोकके जो गुरु हैं, चार कर्मोंका जिन्होंने नाश किया है और समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थसमूह जिनके सद्ज्ञानमें स्थित हैं, वे (जिन भगवान) एक ही देव हैं । उन निकट (साक्षात्) जिन भगवानमें न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न तो कोई १मूर्छा है न कोई २चेतना (क्योंकि द्रव्यसामान्यका पूर्ण आश्रय है ) ।२९०।
[श्लोकार्थ : — ] इन जिन भगवानमें वास्तवमें धर्म और कर्मका प्रपंच नहीं है (अर्थात् साधकदशामें जो शुद्धि और अशुद्धिके भेदप्रभेद वर्तते हैं वे जिन भगवानमें नहीं १ — मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा । २ — चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा ।
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किमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनः इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति । ततस्तस्य हैं ); रागके अभावके कारण अतुल - महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूपसे विराजते हैं । वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निजसुखमें लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणीके नाथ हैं और ज्ञानज्योति द्वारा उन्होंने लोकके विस्तारको सर्वतः छा दिया है । २९१ ।
गाथा : १७५ अन्वयार्थ : — [केवलिनः ] केवलीको [स्थाननिषण्णविहाराः ] खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [न भवन्ति ] नहीं होते, [तस्मात् ] इसलिये [बंध न भवति ] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको [साक्षार्थम् ] इन्द्रियविषयसहितरूपसे बन्ध होता है ।
टीका : — यह, केवली भट्टारकको मनरहितपनेका प्रकाशन है (अर्थात् यहाँ केवलीभगवानका मनरहितपना दर्शाया है ) ।
अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मीसे विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवलीभगवानको इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि ‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’ ऐसा शास्त्रका वचन है । इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेवको द्रव्यभावस्वरूप चतुर्विध बंध
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तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति । स च बंधः पुनः किमर्थं जातः कस्य संबंधश्च ? मोहनीयकर्मविलासविजृंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति ।
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः ।
(प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ) नहीं होता ।
और, वह बंध (१) किस कारणसे होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीयकर्मके विलाससे उत्पन्न होता है । (२) ‘अक्षार्थ’ अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय – विषय); अक्षार्थ सहित हो वह ‘साक्षार्थ’; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन ( – इन्द्रियविषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियोंको ही बंध होता है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] उन अर्हंतभगवंतोंको उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भाँति, स्वाभाविक ही — प्रयत्न बिना ही — होते हैं ।’’
[अब इस १७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] देवेन्द्रोंके आसन कम्पायमान होनेके कारणभूत महा केवल- ज्ञानका उदय होने पर, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं और सद्धर्मके
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ध्यानध्येयध्यातृतत्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति । शुद्धनिश्चयनयेन १रक्षामणि हैं ऐसे पुराण पुरुषको सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तवमें अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वनको जलानेवाली अग्नि समान हैं ।२९२।
गाथा : १७६ अन्वयार्थ : — [पुनः ] फि र (केवलीको) [आयुषः क्षयेण ] आयुके क्षयसे [शेषप्रकृतीनाम् ] शेष प्रकृतियोंका [निर्नाशः ] सम्पूर्ण नाश [भवति ] होता है; [पश्चात् ] फि र वे [शीघ्रं ] शीघ्र [समयमात्रेण ] समयमात्रमें [लोकाग्रं ] लोकाग्रमें [प्राप्नोति ] पहुँचते हैं ।
स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणत, छह २अपक्रमसे रहित, सिद्धक्षेत्रसम्मुख भगवानको परम शुक्लध्यान द्वारा — कि जो (शुक्लध्यान) ध्यान - ध्येय - ध्याता सम्बन्धी, उसकी फलप्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पोंसे रहित है और निज स्वरूपमें १ रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि ।
२ संसारी जीवको अन्य भवमें जाते समय ‘छह – दिशाओंमें गमन’ होता है; उसे ‘‘छह अपक्रम’’ कहा
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स्वस्वरूपे सहजमहिम्नि लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धेन लोकाग्रं प्राप्नोतीति ।
प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः ।
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ।।२९४।।
आयुकर्मका क्षय होने पर शेष तीन कर्मोंका भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्रकी ओर
स्वभावगतिक्रिया होती है ) । शुद्धनिश्चयनयसे सहजमहिमावाले निज स्वरूपमें लीन होने पर
[अब इस १७६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो छह अपक्रम सहित हैं ऐसे भववाले जीवोंके ( – संसारियोंके ) लक्षणसे सिद्धोंका लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊ र्ध्वगामी हैं और सदा शिव (निरन्तर सुखी) हैं ।२९३।
[श्लोकार्थ : — ] बन्धका छेदन होनेसे जिनकी अतुल महिमा है ऐसे (अशरीरी और लोकाग्रस्थित) सिद्धभगवान अब देवों और विद्याधरोंके प्रत्यक्ष स्तवनका विषय नहीं ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है । वे देवाधिदेव व्यवहारसे लोकके अग्रमें सुस्थित हैं और निश्चयसे निज आत्मामें ज्योंके त्यों अत्यन्त अविचलरूपसे रहते हैं ।२९४।