Niyamsar (Hindi). Gatha: 166-176.

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[निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [आत्मा ] आत्मा [आत्मप्रकाशः ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ]
इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है
टीका :यह, निश्चयनयसे स्वरूपका कथन है
यहाँ निश्चयनयसे शुद्ध ज्ञानका लक्षण स्वप्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व
आवरणसे मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्वप्रकाशक ही है आत्मा वास्तवमें, उसने सर्व
इन्द्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणसे लक्षित है; दर्शन भी, उसने
बहिर्विषयपना छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ही है
इसप्रकार स्वरूपप्रत्यक्ष - लक्षणसे
लक्षित अखण्ड - सहज - शुद्धज्ञानदर्शनमय होनेके कारण, निश्चयसे, त्रिलोक - त्रिकालवर्ती
स्थावर - जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य - प्रकाशकादि
विकल्पोंसे अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूपसंचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा
सर्वथा अंतर्मुख होनेके कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड
- अद्वैत - चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है
[अब इस १६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] निश्चयसे आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट
निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत
निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरणप्रमुक्त शुद्ध-
दर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव आत्मा हि विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षण-
लक्षित इति यावत दर्शनमपि विमुक्त बहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव इत्थं स्वरूप-
प्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंग-
मात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे संज्ञा-
लक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या
द्रष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः
एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि
।।२८१।।
यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है

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किया है ऐसा (स्वप्रकाशक ) जो साक्षात् दर्शन उस - रूप भी आत्मा है एकाकार
निजरसके फै लावसे पूर्ण होनेके कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन ) है ऐसा
यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है
२८१
गाथा : १६६ अन्वयार्थ :[केवली भगवान् ] (निश्चयसे ) केवली
भगवान [आत्मस्वरूपं ] आत्मस्वरूपको [पश्यति ] देखते हैं, [न लोकालोकौ ]
लोकालोकको नहीं
[एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य
च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कुछ दोष नहीं है )
टीका :यह, शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका (परको देखनेका) खण्डन
है
यद्यपि व्यवहारसे एक समयमें तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायोंको
जाननेमें समर्थ सकल - विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओंका धारण करनेवाला है,
तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपनेके
कारण निःशेषरूपसे (सर्वथा ) अन्तर्मुख होनेसे केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमें लीन ऐसे
निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्माको निश्चयसे देखता है (परन्तु
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६६।।
आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान्
यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ।।१६६।।
शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम्
व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविषयद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमल-
केवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिर-
पेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात
् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन
सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्व-
प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना
यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६६।।

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लोकालोकको नहीं )ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्वका वेदन करनेवाला
(जाननेवाला, अनुभव करनेवाला ) परम जिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे कहता
है, उसे वास्तवमें दूषण नहीं है
[अब इस १६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] (निश्चयसे ) आत्मा सहज परमात्माको देखता हैकि जो
परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धिका आवास होनेसे (केवलज्ञानदर्शनादि )
महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मामें अत्यन्त अविचल
होनेसे सर्वदा अन्तर्मग्न है
स्वभावसे महान ऐसे उस आत्मामें व्यवहारप्रपंच है ही नहीं
(अर्थात् निश्चयसे आत्मामें लोकालोकको देखनेरूप व्यवहारविस्तार है ही
नहीं )
२८२
वेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति
(मंदाक्रांता)
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः
।।२८२।।
यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी ऐसा समझना किजिसमें स्वकी ही अपेक्षा हो वह निश्चयकथन है और
जिसमें परकी अपेक्षा आये वह व्यवहारकथन है; इसलिये केवली भगवान लोकालोककोपरको जानते-
देखते हैं ऐसा कहना वह व्यवहारकथन है और केवली भगवान स्वात्माको जानते-देखते हैं ऐसा कहना
वह निश्चयकथन है
यहाँ व्यवहारकथनका वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव
लोकालोकको जानता-देखता ही नहीं है उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते ही नहीं
हैं
छद्मस्थ जीवके साथ तुलनाकी अपेक्षासे तो केवलीभगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं वह बराबर
सत्य हैयथार्थ है, क्योंकि वे त्रिकाल सम्बन्धी सर्व द्रव्यगुणपर्यायोंको यथास्थित बराबर परिपूर्णरूपसे
वास्तवमें जानते-देखते हैं ‘केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं’ ऐसा कहते हुए परकी अपेक्षा
आती है इतना ही सूचित करनेके लिये, तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्वको तद्रूप होकर निजसुखके
संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन
सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना
जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करनेके लिये उसे व्यवहार कहा है

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गाथा : १६७ अन्वयार्थ :[मूर्तम् अमूर्तम् ] मूर्त-अमूर्त [चेतनम् इतरत् ]
चेतनअचेतन [द्रव्यं ] द्रव्योंको[स्वकं च सर्वं च ] स्वको तथा समस्तको [पश्यतः
तु ] देखनेवाले (जाननेवालेका ) [ज्ञानम् ] ज्ञान [अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय है, [प्रत्यक्षम्
भवति ]
प्रत्यक्ष है
टीका :यह, केवलज्ञानके स्वरूपका कथन है
छह द्रव्योंमें पुद्गलको मूर्तपना है, (शेष ) पाँचको अमूर्तपना है; जीवको ही
चेतनपना है, (शेष ) पाँचको अचेतनपना है त्रिकाल सम्बन्धी मूर्त - अमूर्त चेतन - अचेतन
स्वद्रव्यादि अशेषको (स्व तथा पर समस्त द्रव्योंको ) निरन्तर देखनेवाले भगवान श्रीमद्
अर्हत्परमेश्वरका जो क्रम, इन्द्रिय और
व्यवधान रहित, अतीन्द्रिय सकल-विमल (सर्वथा
निर्मल ) केवलज्ञान वह सकलप्रत्यक्ष है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (५४वीं गाथा
द्वारा ) कहा है कि :
मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ।।१६७।।
मूर्तममूर्तं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्वं च
पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ।।१६७।।
केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत
षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् अमूर्तत्वम्; चेतनत्वं जीवस्यैव
पंचानामचेतनत्वम् मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेषं त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो
भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणव्यवधानापोढं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं
सकलप्रत्यक्षं भवतीति
तथा चोक्तं प्रवचनसारे
व्यवधानके अर्थके लिये २८वें पृष्ठकी टिप्पणी देखो
जो मूर्त और अमूर्त जड़ चेतन स्वपर सब द्रव्य हैं
देखे उन्हें उसको अतीन्द्रिय ज्ञान है, प्रत्यक्ष है ।।१६७।।

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‘‘[गाथार्थ : ] देखनेवालेका जो ज्ञान अमूर्तको, मूर्त पदार्थोंमें भी अतीन्द्रियको,
और प्रच्छन्नको इन सबकोस्वको तथा परकोदेखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ’’
और (इस १६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] केवलज्ञान नामका जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसीसे जिनकी प्रसिद्ध
महिमा है, जो तीन लोकके गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका धाम हैऐसे यह
तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोकको अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन - अचेतन पदार्थोंको सम्यक्
प्रकारसे (बराबर ) जानते हैं २८३
गाथा : १६८ अन्वयार्थ :[नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ] विविध गुणों और
पर्यायोंसे संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं ] पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको [यः ] जो [सम्यक् ]
सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [न च पश्यति ] नहीं देखता, [तस्य ] उसे [परोक्षदृष्टिः
‘‘जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिंदियं च पच्छण्णं
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा
लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च
तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः
।।२८३।।
पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।।१६८।।
पूर्वोक्त सकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्त म्
यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षद्रष्टिर्भवेत्तस्य ।।१६८।।
धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल
जो विविध गुण पर्यायसे संयुक्त सारी सृष्टि है
देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ।।१६८।।

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भवेत् ] परोक्ष दर्शन है
टीका :यहाँ, केवलदर्शनके अभावमें (अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शनके अभावमें )
सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है
समस्त गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथामें कहे हुए ) मूर्तादि
द्रव्योंको जो नहीं देखता; अर्थात् मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण होते हैं, अचेतनके अचेतन गुण
होते हैं, अमूर्तके अमूर्त गुण होते हैं, चेतनके चेतन गुण होते हैं; षट् (छह प्रकारकी )
हानिवृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागमके प्रमाणसे स्वीकार
- करनेयोग्य अर्थपर्यायें छह द्रव्योंको
साधारण हैं, नरनारकादि व्यंजनपर्यायें पांच प्रकारकी संसारप्रपंचवाले जीवोंको होती हैं,
पुद्गलोंको स्थूल - स्थूल आदि स्कन्धपर्यायें होती हैं और धर्मादि चार द्रव्योंको शुद्ध पर्यायें
होती हैं; इन गुणपर्यायोंसे संयुक्त ऐसे उस द्रव्यसमूहको जो वास्तवमें नहीं देखता; उसे
(भले वह सर्वज्ञताके अभिमानसे दग्ध हो तथापि ) संसारियोंकी भाँति परोक्ष दृष्टि है
[अब इस १६८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] सर्वज्ञताके अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही कालमें तीन
अत्र केवलद्रष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्त म्
पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतन-
गुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामा-
ण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां
पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति,
एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्ष
द्रष्टिरिति
(वसंततिलका)
यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी
प्रत्यक्षद्रष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं
सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मनः स्यात।।२८४।।
संसारप्रपंच = संसारविस्तार (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावऐसे पाँच परावर्तनरूप
है )

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जगतको तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा (अर्थात् कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन
नहीं है; उस जड़ आत्माको सर्वज्ञता किसप्रकार होगी ?
२८४
गाथा : १६९ अन्वयार्थ :[केवली भगवान् ] (व्यवहारसे ) केवली
भगवान [लोकालोकौ ] लोकालोकको [जानाति ] जानते हैं, [न एव आत्मानम् ]
आत्माको नहीं
[एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च
किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कोई दोष नहीं है )
टीका :यह, व्यवहारनयकी प्रगटतासे कथन है
पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )’ ऐसे (शास्त्रके) अभिप्रायके
कारण, व्यवहारसे व्यवहारनयकी प्रधानता द्वारा (अर्थात् व्यवहारसे व्यवहारनयको प्रधान
करके), ‘सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर
कामिनीके जो जीवितेश हैं (
मुक्तिसुन्दरीके जो प्राणनाथ हैं ) ऐसे भगवान छह द्रव्योंसे
व्याप्त तीन लोकको और शुद्ध - आकाशमात्र अलोकको जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार )
शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं ही जानते’ऐसा यदि व्यवहारनयकी विवक्षासे कोई जिननाथके
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६९।।
लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान्
यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ।।१६९।।
व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम्
सकलविमलकेवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशः
षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात
व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया
भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्म ना
यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६९।।

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तत्त्वविचारमें निपुण जीव (जिनदेवने कहे हुए तत्त्वके विचारमें प्रवीण जीव ) कदाचित्
कहे, तो उसे वास्तवमें दूषण नहीं है
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री समन्तभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें भी मुनिसुव्रत
भगवानकी स्तुति करते हुए ११४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] हे जिनेन्द्र ! तू वक्ताओंमें श्रेष्ठ है; ‘चराचर (जङ्गम तथा
स्थावर ) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समयमें ) उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणवाला है’ ऐसा यह तेरा
वचन (तेरी ) सर्वज्ञताका चिह्न है
’’
और (इस १६९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] तीर्थनाथ वास्तवमें समस्त लोकको जानते हैं और वे एक,
अनघ (निर्दोष ), निजसौख्यनिष्ठ (निज सुखमें लीन ) स्वात्माको नहीं जानतेऐसा कोई
मुनिवर व्यवहारमार्गसे कहे तो उसे दोष नहीं है २८५
कोपि जिननाथतत्त्वविचारलब्धः (दक्षः) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः
(अपरवक्त्र)
‘‘स्थितिजनननिरोधलक्षणं
चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम्
इति जिन सकलज्ञलांछनं
वचनमिदं वदतांवरस्य ते
।।’’
तथा हि
(वसंततिलका)
जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्
नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद्
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः
।।२८५।।

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गाथा : १७० अन्वयार्थ :[ज्ञानं ] ज्ञान [जीवस्वरूपं ] जीवका स्वरूप है,
[तस्मात् ] इसलिये [आत्मा ] आत्मा [आत्मकं ] आत्माको [जानाति ] जानता है;
[आत्मानं न अपि जानाति ] यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो [आत्मनः ] आत्मासे
[व्यतिरिक्तम् ] व्यतिरिक्त (पृथक् ) [भवति ] सिद्ध हो !
टीका :यहाँ (इस गाथामें ) ‘जीव ज्ञानस्वरूप है’ ऐसा वितर्कसे (दलीलसे )
कहा है
प्रथम तो, ज्ञान वास्तवमें जीवका स्वरूप है; उस हेतुसे, जो अखण्ड अद्वैत स्वभावमें
लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्तिसुन्दरीका नाथ है और बाह्यमें जिसने
कौतूहल व्यावृत्त किया है (अर्थात् बाह्य पदार्थों सम्बन्धी कुतूहलका जिसने अभाव किया
है ) ऐसे निज परमात्माको कोई आत्माभव्य जीवजानता है ऐसा यह वास्तवमें
स्वभाववाद है इससे विपरीत वितर्क (विचार ) वह वास्तवमें विभाववाद है, प्राथमिक
शिष्यका अभिप्राय है
णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा
अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।।१७०।।
ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा
आत्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्त म् ।।१७०।।
अत्र ज्ञानस्वरूपो जीव इति वितर्केणोक्त :
इह हि ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखंडाद्वैतस्वभावनिरतं
निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्ति सुंदरीनाथं बहिर्व्यावृत्तकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति
कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववादः
अस्य विपरीतो वितर्कः स खलु विभाववादः
प्राथमिकशिष्याभिप्रायः कथमिति चेत्, पूर्वोक्त स्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा, स्वरूपाव-
१-निरतिशय = कोई दूसरा जिससे बढ़कर नहीं है ऐसी; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय
२ कौतूहल = उत्सुकता; आश्चर्य; कौतुक
है ज्ञान जीवस्वरूप, इससे जीव जाने जीवको
निजको न जाने ज्ञान तो वह आतमासे भिन्न हो ।।१७०।।

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वह (विपरीत वितर्कप्राथमिक शिष्यका अभिप्राय ) किसप्रकार है ? (वह
इसप्रकार है : ) ‘पूर्वोक्तस्वरूप (ज्ञानस्वरूप ) आत्माको आत्मा वास्तवमें जानता नहीं
है, स्वरूपमें अवस्थित रहता है (आत्मामें मात्र स्थित रहता है ) जिसप्रकार
उष्णतास्वरूप अग्निके स्वरूपको (अर्थात् अग्निको ) क्या अग्नि जानती है ? (नहीं ही
जानती
) उसीप्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्पके अभावसे यह आत्मा आत्मामें (मात्र )
स्थित रहता है (आत्माको जानता नहीं है )
(उपरोक्त वितर्कका उत्तर : ) ‘हे प्राथमिक शिष्य ! अग्निकी भाँति क्या यह
आत्मा अचेतन है (कि जिससे वह अपनेको न जाने ) ? अधिक क्या कहा जाये ?
(संक्षेपमें, ) यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति,
अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा, और इसलिये वह आत्मासे भिन्न सिद्ध होगा ! वह तो
(अर्थात् ज्ञान और आत्माकी सर्वथा भिन्नता तो ) वास्तवमें स्वभाववादियोंको संमत नहीं
है
(इसलिये निर्णय कर कि ज्ञान आत्माको जानता है )’
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें १७४वें श्लोक
द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] आत्मा ज्ञानस्वभाव है; स्वभावकी प्राप्ति वह अच्युति
स्थितः संतिष्ठति यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पा-
भावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः किं
बहुना तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव
आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति तन्न खलु सम्मतं स्वभाववादिनामिति
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(अनुष्टुभ्)
‘‘ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः
तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।।’’
अर्थक्रियाकारी = प्रयोजनभूत क्रिया करनेवाला (जिसप्रकार देवदत्तके बिना अकेली कुल्हाड़ी
अर्थक्रियाकाटनेकी क्रियानहीं करती, उसीप्रकार यदि ज्ञान आत्माको न जानता हो तो ज्ञानने भी
अर्थक्रियाजाननेकी क्रियानहीं की; इसलिये जिसप्रकार अर्थक्रियाशून्य कुल्हाड़ी देवदत्तसे भिन्न है
उसीप्रकार अर्थक्रियाशून्य ज्ञान आत्मासे भिन्न होना चाहिये ! परन्तु वह तो स्पष्टरूपसे विरुद्ध है इसलिये
ज्ञान आत्माको जानता ही है

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(अविनाशी दशा ) है; इसलिये अच्युतिको (अविनाशीपनेको, शाश्वत दशाको )
चाहनेवाले जीवको ज्ञानकी भावना भाना चाहिये
’’
और (इस १७०वीं गाथाकी टीकाके कलशरूपसे टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] ज्ञान तो बराबर शुद्धजीवका स्वरूप है; इसलिये (हमारा ) निज
आत्मा अभी (साधक दशामें ) एक (अपने ) आत्माको नियमसे (निश्चयसे ) जानता है
और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा (प्रत्यक्षरूपसे ) आत्माको न जाने
तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूपसे अवश्य भिन्न सिद्ध होगा ! २८६
और इसीप्रकार (अन्यत्र गाथा द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ : ] ज्ञान जीवसे अभिन्न है इसलिये वह आत्माको जानता है; यदि
ज्ञान आत्माको न जाने तो वह जीवसे भिन्न सिद्ध होगा !’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं
स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम्
तच्च ज्ञानं स्फु टितसहजावस्थयात्मानमारात
नो जानाति स्फु टमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात।।२८६।।
तथा चोक्त म्
‘‘णाणं अव्विदिरित्तं जीवादो तेण अप्पगं मुणइ
जदि अप्पगं ण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो ।।’’
अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो
तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि ।।१७१।।
संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आतमा है ज्ञान रे
अतएव निजपरके प्रकाशक ज्ञान - दर्शन मान रे ।।१७१।।

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गाथा : १७१ अन्वयार्थ :[आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] आत्माको ज्ञान जान,
और [ज्ञानम् आत्मकः विद्धि ] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; [न संदेहः ] इसमें संदेह
नहीं है [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा ] तथा [दर्शनं ] दर्शन
[स्वपरप्रकाशं ] स्वपरप्रकाशक [भवति ] है
टीका :यह, गुण - गुणीमें भेदका अभाव होनेरूप स्वरूपका कथन है
हे शिष्य ! सर्व परद्रव्यसे पराङ्मुख आत्माको तू निज स्वरूपको जाननेमें समर्थ
सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान इसलिये तत्त्व (स्वरूप ) ऐसा
है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं इसमें सन्देह नहीं है
[अब इस १७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] आत्माको ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शनको आत्मा जान; स्व
और पर ऐसे तत्त्वको (समस्त पदार्थोंको ) आत्मा स्पष्टरूपसे प्रकाशित करता है २८७
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्धयात्मको न संदेहः
तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।।१७१।।
गुणगुणिनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत
सकलपरद्रव्यपराङ्मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र
संदेहो नास्ति
(अनुष्टुभ्)
आत्मानं ज्ञानद्रग्रूपं विद्धि द्रग्ज्ञानमात्मकं
स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फु टम् ।।२८७।।
जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।।१७२।।
जानें तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है
अतएव ‘केवलज्ञानी’ वे अतएव ही ‘निर्बन्ध’ है ।।१७२।।

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गाथा : १७२ अन्वयार्थ :[जानन् पश्यन् ] जानते और देखते हुए भी,
[केवलिनः ] केवलीको [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक (वर्तन ) [न भवति ] नहीं होता;
[तस्मात् ] इसलिये उन्हें [केवलज्ञानी ] ‘केवलज्ञानी’ कहा है; [तेन तु ] और इसलिये
[सः अबन्धकः भणितः ] अबन्धक कहा है
टीका :यहाँ, सर्वज्ञ वीतरागको वांछाका अभाव होता है ऐसा कहा है
भगवान अर्हंत परमेष्ठी सादि - अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्ध-
सद्भूतव्यवहारसे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके आधारभूत होनेके कारण विश्वको निरन्तर जानते
हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवलीको मनप्रवृत्तिका (मनकी प्रवृत्तिका,
भावमनपरिणतिका ) अभाव होनेसे इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान
‘केवलज्ञानी’ रूपसे प्रसिद्ध हैं; और उस कारणसे वे भगवान अबन्धक हैं
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (५२वीं गाथा
द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ :] (केवलज्ञानी ) आत्मा पदार्थोंको जानता हुआ भी उन - रूप
परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थोंरूपमें उत्पन्न नहीं होता इसलिये
उसे अबन्धक कहा है
’’
जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः
केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भणितः ।।१७२।।
सर्वज्ञवीतरागस्य वांछाभावत्वमत्रोक्त म्
भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि-
शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात् विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं
वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः,
पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अबन्धक इति
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे
‘‘ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्ठेसु
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।’’

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अब (इस १७२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] सहजमहिमावंत देवाधिदेव जिनेश लोकरूपी भवनके भीतर
स्थित सर्व पदार्थोंको जानते हुए भी, तथा देखते हुए भी, मोहके अभावके कारण समस्त
परको (
किसी भी परपदार्थको ) नित्य (कदापि ) ग्रहण नहीं ही करते; (परन्तु )
जिन्होंने ज्ञानज्योति द्वारा मलरूप क्लेशका नाश किया है ऐसे वे जिनेश सर्व लोकके एक
साक्षी (
केवल ज्ञातादृष्टा ) हैं २८८
गाथा : १७३-१७४ अन्वयार्थ :[परिणामपूर्ववचनं ] परिणामपूर्वक (मन-
परिणाम पूर्वक ) वचन [जीवस्य च ] जीवको [बंधकारणं ] बन्धका कारण [भवति ]
तथा हि
(मंदाक्रांता)
जानन् सर्वं भुवनभवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थं
पश्यन् तद्वत
् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं
ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी
।।२८८।।
परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ
परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ।।१७३।।
ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ
ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ।।१७४।।
परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति
परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ।।१७३।।
रे बन्ध कारण जीवको परिणामपूर्वक वचन हैं
है बन्ध ज्ञानीको नहीं परिणाम विरहित वचन है ।।१७३।।
है बन्ध कारण जीवको इच्छा सहित वाणी अरे
इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ।।१७४।।

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है; [परिणामरहितवचनं ] (ज्ञानीको ) परिणामरहित वचन होता है [तस्मात् ] इसलिये
[ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ] बंध नहीं है
[ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [वचनं ] वचन [जीवस्य च ] जीवको [बंधकारणं ]
बन्धका कारण [भवति ] है; [ईहारहितं वचनं ] (ज्ञानीको ) इच्छारहित वचन होता है
[तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ]
बंध नहीं है
टीका :यहाँ वास्तवमें ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) बन्धके अभावका स्वरूप
कहा है
सम्यग्ज्ञानी (केवलज्ञानी ) जीव कहीं कभी स्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन-
परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता क्यों ? ‘‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’’
ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे इस कारणसे (ऐसा समझना कि)जीवको
मनपरिणतिपूर्वक वचन बन्धका कारण है ऐसा अर्थ है और मनपरिणतिपूर्वक वचन तो
केवलीको होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही
साभिलाषस्वरूप जीवको बन्धका
कारण है और केवलीके मुखारविन्दसे निकलती हुई, समस्त जनोंके हृदयको आह्लादके
कारणभूत दिव्यध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छारहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानीको
(केवलज्ञानीको) बन्धका अभाव है
[अब इन १७३ - १७४वीं गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज
तीन श्लोक कहते हैं :]
ईहापूर्वं वचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति
ईहारहितं वचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ।।१७४।।
इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्त म्
सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धिपूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमनःपरिणाम-
पूर्वकमिति यावत कुतः ? ‘‘अमनस्काः केवलिनः’’ इति वचनात अतः कारणाज्जीवस्य
मनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मनःपरिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति;
ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो
दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति
साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे

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[श्लोकार्थ : ] इनमें (केवली भगवानमें ) इच्छापूर्वक वचनरचनाका स्वरूप
नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट - महिमावंत हैं और समस्त लोकके एक (अनन्य) नाथ हैं
उन्हें द्रव्यभावस्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोहके अभावके कारण
उन्हें वास्तवमें समस्त रागद्वेषादि समूह तो है नहीं
२८९
[श्लोकार्थ : ] तीन लोकके जो गुरु हैं, चार कर्मोंका जिन्होंने नाश किया है और
समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थसमूह जिनके सद्ज्ञानमें स्थित हैं, वे (जिन भगवान)
एक ही देव हैं
उन निकट (साक्षात्) जिन भगवानमें न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न
तो कोई मूर्छा है न कोई चेतना (क्योंकि द्रव्यसामान्यका पूर्ण आश्रय है ) २९०
[श्लोकार्थ : ] इन जिन भगवानमें वास्तवमें धर्म और कर्मका प्रपंच नहीं है
(अर्थात् साधकदशामें जो शुद्धि और अशुद्धिके भेदप्रभेद वर्तते हैं वे जिन भगवानमें नहीं
(मंदाक्रांता)
ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव
तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता
अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्द्रव्यभावात्मकोऽयं
मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ।।२८९।।
(मंदाक्रांता)
एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्धः
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम्
आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च
।।२९०।।
(मंदाक्रांता)
न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः
एषः श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनीशो
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात
।।२९१।।
मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा
चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा

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हैं ); रागके अभावके कारण अतुल - महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूपसे विराजते
हैं वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निजसुखमें लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणीके नाथ हैं और
ज्ञानज्योति द्वारा उन्होंने लोकके विस्तारको सर्वतः छा दिया है २९१
गाथा : १७५ अन्वयार्थ :[केवलिनः ] केवलीको [स्थाननिषण्णविहाराः ]
खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [न भवन्ति ] नहीं होते, [तस्मात् ]
इसलिये [बंध न भवति ] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको
[साक्षार्थम् ] इन्द्रियविषयसहितरूपसे बन्ध होता है
टीका :यह, केवली भट्टारकको मनरहितपनेका प्रकाशन है (अर्थात् यहाँ
केवलीभगवानका मनरहितपना दर्शाया है )
अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मीसे विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवलीभगवानको
इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि
मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा
श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि ‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’ ऐसा
शास्त्रका वचन है
इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेवको द्रव्यभावस्वरूप चतुर्विध बंध
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो
तम्हा ण होइ बंधो साक्खट्ठं मोहणीयस्स ।।१७५।।
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः
तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ।।१७५।।
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत
भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न
किमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनः
इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति ततस्तस्य
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं
निर्बन्ध इससे, बन्ध करता मोह - वश साक्षार्थ ही ।।१७५।।

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(प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ) नहीं होता
और, वह बंध (१) किस कारणसे होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध
मोहनीयकर्मके विलाससे उत्पन्न होता है (२) ‘अक्षार्थ’ अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय
विषय); अक्षार्थ सहित हो वह ‘साक्षार्थ’; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन
(
इन्द्रियविषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियोंको ही बंध होता है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (४४वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ :] उन अर्हंतभगवंतोंको उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और
धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भाँति, स्वाभाविक हीप्रयत्न बिना हीहोते हैं ’’
[अब इस १७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : ] देवेन्द्रोंके आसन कम्पायमान होनेके कारणभूत महा केवल-
ज्ञानका उदय होने पर, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं और सद्धर्मके
तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति स च बंधः पुनः किमर्थं जातः
कस्य संबंधश्च ? मोहनीयकर्मविलासविजृंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति
साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे
‘‘ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ।।’’
(शार्दूलविक्रीडित)
देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः
सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत
सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ।।२९२।।

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रक्षामणि हैं ऐसे पुराण पुरुषको सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये
वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तवमें अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वनको
जलानेवाली अग्नि समान हैं
२९२
गाथा : १७६ अन्वयार्थ :[पुनः ] फि र (केवलीको) [आयुषः क्षयेण ]
आयुके क्षयसे [शेषप्रकृतीनाम् ] शेष प्रकृतियोंका [निर्नाशः ] सम्पूर्ण नाश [भवति ]
होता है; [पश्चात् ] फि र वे [शीघ्रं ] शीघ्र [समयमात्रेण ] समयमात्रमें [लोकाग्रं ]
लोकाग्रमें [प्राप्नोति ] पहुँचते हैं
टीका :यह, शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके उपायका कथन है
स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणत, छह अपक्रमसे रहित, सिद्धक्षेत्रसम्मुख भगवानको
परम शुक्लध्यान द्वाराकि जो (शुक्लध्यान) ध्यान - ध्येय - ध्याता सम्बन्धी, उसकी
फलप्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पोंसे रहित है और निज स्वरूपमें
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं
पच्छा पावइ सिग्घं लोयग्गं समयमेत्तेण ।।१७६।।
आयुषः क्षयेण पुनः निर्नाशो भवति शेषप्रकृतीनाम्
पश्चात्प्राप्नोति शीघ्रं लोकाग्रं समयमात्रेण ।।१७६।।
शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम्
स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षटकापक्रमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य
ध्यानध्येयध्यातृतत्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन
आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति
शुद्धनिश्चयनयेन
१ रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि
(केवलीभगवान सद्धर्मकी रक्षाके लियेअसद्धर्मसे बचनेके लियेरक्षामणि हैं )
२ संसारी जीवको अन्य भवमें जाते समय ‘छहदिशाओंमें गमन’ होता है; उसे ‘‘छह अपक्रम’’ कहा
जाता है
हो आयुक्षयसे शेष सब ही कर्मप्रकृति विनाश रे
सत्वर समयमें पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ।।१७६।।

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अविचल स्थितिरूप है उसके द्वाराआयुकर्मका क्षय होने पर, वेदनीय, नाम और गोत्र
नामकी शेष प्रकृतियोंका सम्पूर्ण नाश होता है (अर्थात् भगवानको शुक्लध्यान द्वारा
आयुकर्मका क्षय होने पर शेष तीन कर्मोंका भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्रकी ओर
स्वभावगतिक्रिया होती है )
शुद्धनिश्चयनयसे सहजमहिमावाले निज स्वरूपमें लीन होने पर
भी व्यवहारसे वे भगवान अर्ध क्षणमें (समयमात्रमें ) लोकाग्रमें पहुँचते हैं
[अब इस १७६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जो छह अपक्रम सहित हैं ऐसे भववाले जीवोंके
(संसारियोंके ) लक्षणसे सिद्धोंका लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊ र्ध्वगामी हैं और
सदा शिव (निरन्तर सुखी) हैं २९३
[श्लोकार्थ : ] बन्धका छेदन होनेसे जिनकी अतुल महिमा है ऐसे (अशरीरी
और लोकाग्रस्थित) सिद्धभगवान अब देवों और विद्याधरोंके प्रत्यक्ष स्तवनका विषय नहीं
ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है
वे देवाधिदेव व्यवहारसे लोकके अग्रमें सुस्थित हैं और निश्चयसे
निज आत्मामें ज्योंके त्यों अत्यन्त अविचलरूपसे रहते हैं २९४
[श्लोकार्थ : ] (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावऐसे पाँच परावर्तनरूप)
स्वस्वरूपे सहजमहिम्नि लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धेन लोकाग्रं प्राप्नोतीति
(अनुष्टुभ्)
षटकापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक्
सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ।।२९३।।
(मंदाक्रांता)
बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां
प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः
लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते
।।२९४।।
(अनुष्टुभ्)
पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्त ये
पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् ।।२९५।।