Niyamsar (Hindi). Gatha: 14-24 ; Adhikar-2 : ajiv adhikAr.

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इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्त : विभावदर्शनोपयोगोऽप्युत्तर-
सूत्रस्थितत्वात् तत्रैव द्रश्यत इति
(इन्द्रवज्रा)
द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकमेकमेव
चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्त्वम्
मुक्ति स्पृहाणामयनं तदुच्चै-
रेतेन मार्गेण विना न मोक्षः
।।२३।।
चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठि त्ति
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ।।१४।।
चक्षुरचक्षुरवधयस्तिस्रोपि भणिता विभावद्रष्टय इति
पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः ।।१४।।
इसप्रकार कार्यरूप और कारणरूपसे स्वभावदर्शनोपयोग कहा विभावदर्शनोपयोग
अगले सूत्रमें (१४वीं गाथामें) होनेसे वहीं दर्शाया जायेगा
[अब, १३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] दृशि - ज्ञप्ति - वृत्तिस्वरूप (दर्शनज्ञानचारित्ररूपसे परिणमित) ऐसा
जो एक ही चैतन्यसामान्यरूप निज आत्मतत्त्व, वह मोक्षेच्छुओंको (मोक्षका) प्रसिद्ध मार्ग
है; इस मार्ग बिना मोक्ष नहीं है
२३
गाथा : १४ अन्वयार्थ :[चक्षुरचक्षुरवधयः ] चक्षु, अचक्षु और अवधि
[तिस्रः अपि ] यह तीनों [विभावदृष्टयः ] विभावदर्शन [इति भणिताः ] कहे गये हैं
[पर्यायः द्विविकल्पः ] पर्याय द्विविध है : [स्वपरापेक्षः ] स्वपरापेक्ष (स्व और परकी
अपेक्षा युक्त) [च ] और [निरपेक्षः ] निरपेक्ष
चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन ये विभाविक दर्श हैं
निरपेक्ष, स्वपरापेक्षये पर्याय द्विविध विकल्प हैं ।।१४।।

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अशुद्धद्रष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम्
मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्तं वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीय-
कर्मक्षयोपशमेन मूर्तं वस्तु पश्यति च यथा श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेण
द्रव्यश्रुतनिगदितमूर्तामूर्तसमस्तं वस्तुजातं परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुर्दर्शनावरणीय-
कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च
यथा
अवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंतं मूर्तद्रव्यं जानाति तथा अवधि-
दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यति च
अत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति
पर्यायः अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मः
आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढानिवृद्धिविकल्पयुतः अनंतभागवृद्धिः असंख्यात-
टीका :यह, अशुद्ध दर्शनकी तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी सूचना है
जिसप्रकार मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) मूर्त वस्तुको जानता है,
उसीप्रकार चक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) मूर्त वस्तुको देखता है
जिसप्रकार श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) श्रुत द्वारा द्रव्यश्रुतने कहे हुए मूर्त
अमूर्त समस्त वस्तुसमूहको परोक्ष रीतिसे जानता है, उसीप्रकार अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके
क्षयोपशमसे (जीव) स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र द्वारा उस-उसके योग्य विषयोंको देखता
है
जिसप्रकार अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) शुद्धपुद्गलपर्यंत
(परमाणु तकके) मूर्तद्रव्यको जानता है, उसीप्रकार अवधिदर्शनावरणीय कर्मके
क्षयोपशमसे (जीव) समस्त मूर्त पदार्थको देखता है
(उपरोक्तानुसार) उपयोगका व्याख्यान करनेके पश्चात् यहाँ पर्यायका स्वरूप कहा
जाता है :
परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः अर्थात् जो सर्व ओरसे भेदको प्राप्त करे
सो पर्याय है
उसमें, स्वभावपर्याय छह द्रव्योंको साधारण है, अर्थपर्याय है, वाणी और मनके
अगोचर है, अति सूक्ष्म है, आगमप्रमाणसे स्वीकारकरनेयोग्य तथा छह हानिवृद्धिके भेदों
सहित है अर्थात् अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण
१-देखना = सामान्यरूपसे अवलोकन करना; सामान्य प्रतिभास होना

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भागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनंतगुणवृद्धिः, तथा
हानिश्च नीयते
अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति
(मालिनी)
अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम्
भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२४।।
(मालिनी)
इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां
हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा
सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम्
।।२५।।
(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः
क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः
वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि सहित होती है और इसीप्रकार (वृद्धिकी
भाँति) हानि भी लगाई जाती है
अशुद्धपर्याय नर - नारकादि व्यंजनपर्याय है
[अब, १४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते
हैं :]
[श्लोेकार्थ :] परभाव होने पर भी, सहजगुणमणिकी खानरूप तथा पूर्णज्ञानवाले
शुद्ध आत्माको एकको जो तीक्ष्णबुद्धिवाला शुद्धदृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी
कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका) वल्लभ बनता है
२४
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार पर गुणपर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषोंके हृदय-
कमलमें कारणआत्मा विराजमान है अपनेसे उत्पन्न ऐसे उस परमब्रह्मरूप समयसारको
कि जिसे तू भज रहा है उसे, हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है २५
[श्लोेकार्थ :] जीवतत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित ×विलसता हैदिखाई देता है,
× विलसना = दिखाई देना; दिखना; झलकना; आविर्भूत होना; प्रगट होना

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सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं
नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा
।।२६।।
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ।।१५।।
नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति भणिताः
कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायास्ते स्वभावा इति भणिताः ।।१५।।
स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्ति रियम्
तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावद् द्विप्रकारेणोच्यते कारण-
शुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभाव-
शुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्व-
क्वचित् अशुद्धरूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज पर्यायों सहित विलसता है
और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे
रहित है ऐसे इस जीवतत्त्वको मैं सकल अर्थकी सिद्धिके लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ
२६
गाथा : १५ अन्वयार्थ :[नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायाः ] मनुष्य, नारक,
तिर्यञ्च और देवरूप पर्यायें [ते ] वे [विभावाः ] विभावपर्यायें [इति भणिताः ] कही गई
हैं; [कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायाः ] कर्मोपाधि रहित पर्यायें [ते ] वे [स्वभावाः ]
स्वभावपर्यायें [इति भणिताः ] कही गई हैं
टीका :यह, स्वभावपर्यायों तथा विभावपर्यायोंका संक्षेपकथन है
वहाँ, स्वभावपर्यायों और विभावपर्यायोंके बीच प्रथम स्वभावपर्याय दो प्रकारसे कही
जाती है : कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय
यहाँ सहज शुद्ध निश्चयसे, अनादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले और शुद्ध
ऐसे सहजज्ञान - सहजदर्शन - सहजचारित्र - सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध-अन्तःतत्त्वस्वरूप
तिर्यञ्च, नारकि, देव, नर पर्याय हैं वैभाविकी
पर्याय कर्मोपाधिवर्जित हैं कही स्वाभाविकी ।।१५।।

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भावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः
साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवल-
शक्ति युक्त फलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्ध-
पर्यायश्च
अथवा पूर्वसूत्रोपात्तसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षड्द्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि
अर्थपर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः उक्त : समासतः शुद्धपर्यायविकल्पः
इदानीं व्यंजनपर्याय उच्यते व्यज्यते प्रकटीक्रियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः कुतः ?
लोचनगोचरत्वात् पटादिवत अथवा सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्,
द्रश्यमानविनाशस्वरूपत्वात
व्यंजनपर्यायश्चपर्यायिनमात्मानमन्तरेण पर्यायस्वभावात् शुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा
जो स्वभाव-अनन्तचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पंचमभावपरिणति (उसके
साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली जो पूज्य ऐसी पारिणामिकभावकी परिणति) वही
कारणशुद्धपर्याय है, ऐसा अर्थ है
सादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, केवलज्ञान
केवलदर्शन - केवलसुख - केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्तचतुष्टयके साथकी (अनन्त-
चतुष्टयके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली) जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्धपरिणति वही
कार्यशुद्धपर्याय है अथवा, पूर्व सूत्रमें कहे हुए सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयके अभिप्रायसे, छह
द्रव्योंको साधारण और सूक्ष्म ऐसी वे अर्थपर्यायें शुद्ध जानना (अर्थात् वे अर्थपर्यायें ही
शुद्धपर्यायें हैं
)
(इसप्रकार) शुद्धपर्यायके भेद संक्षेपमें कहे
अब व्यंजनपर्याय कही जाती है : जिससे व्यक्त होप्रगट हो वह व्यंजनपर्याय
है किस कारण ? पटादिकी (वस्त्रादिकी) भाँति चक्षुगोचर होनेसे (प्रगट होती है );
अथवा, सादि - सांत मूर्त विजातीयविभावस्वभाववाली होनेसे, दिखकर नष्ट होनेके
स्वरूपवाली होनेसे (प्रगट होती है )
पर्यायी आत्माके ज्ञान बिना आत्मा पर्यायस्वभाववाला होता है; इसलिये
सहजज्ञानादि स्वभाव - अनन्तचतुष्टययुक्त कारणशुद्धपर्यायमेंसे केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टययुक्त कार्यशुद्धपर्याय
प्रगट होती है । पूजनीय परमपारिणामिकभावपरिणति वह कारणशुद्धपर्याय है और शुद्ध
क्षायिकभावपरिणति वह कार्यशुद्धपर्याय है ।

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व्यवहारेण नरो जातः, तस्य नराकारो नरपर्यायः; केवलेनाशुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा नारको
जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः; किञ्चिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो
व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यक्पर्यायः; केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो
देवपर्यायश्चेति
अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे द्रष्टव्य इति
(मालिनी)
अपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धद्रष्टिः
सहजपरमतत्त्वाभ्यासनिष्णातबुद्धिः
सपदि समयसारान्नान्यदस्तीति मत्त्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।२७।।
माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा
सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदेण ।।१६।।
शुभाशुभरूप मिश्र परिणामसे आत्मा व्यवहारसे मनुष्य होता है, उसका मनुष्याकार वह
मनुष्यपर्याय है; केवल अशुभ कर्मसे व्यवहारसे आत्मा नारक होता है, उसका नारक
आकार वह नारकपर्याय है; किंचित्शुभमिश्रित मायापरिणामसे आत्मा व्यवहारसे
तिर्यंचकायमें जन्मता है, उसका आकार वह तिर्चंयपर्याय है; और केवल शुभ कर्मसे
व्यवहारसे आत्मा देव होता है, उसका आकार वह देवपर्याय है
यह व्यंजनपर्याय है
इस पर्यायका विस्तार अन्य आगममें देख लेना चाहिये
[अब, १५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] बहु विभाव होने पर भी, सहज परम तत्त्वके अभ्यासमें
जिसकी बुद्धि प्रवीण है ऐसा यह शुद्धदृष्टिवाला पुरुष, ‘समयसारसे अन्य कुछ नहीं है’
ऐसा मानकर, शीघ्र परमश्रीरूपी सुन्दरीका वल्लभ होता है
२७
हैं कर्मभूमिज, भोगभूमिजमनुजकी दो जातियाँ
अरु सप्त पृथ्वीभेदसे हैं सप्त नारक राशियाँ ।।१६।।

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चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा
एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ।।१७।।
मानुषा द्विविकल्पाः कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः
सप्तविधा नारका ज्ञातव्याः पृथ्वीभेदेन ।।१६।।
चतुर्दशभेदा भणितास्तिर्यञ्चः सुरगणाश्चतुर्भेदाः
एतेषां विस्तारो लोकविभागेषु ज्ञातव्यः ।।१७।।
चतुर्गतिस्वरूपनिरूपणाख्यानमेतत
मनोरपत्यानि मनुष्याः ते द्विविधाः, कर्मभूमिजा भोगभूमिजाश्चेति तत्र
कर्मभूमिजाश्च द्विविधाः, आर्या म्लेच्छाश्चेति आर्याः पुण्यक्षेत्रवर्तिनः म्लेच्छाः
पापक्षेत्रवर्तिनः भोगभूमिजाश्चार्यनामधेयधरा जघन्यमध्यमोत्तमक्षेत्रवर्तिनः एकद्वित्रि-
गाथा : १६-१७ अन्वयार्थ :[मानुषाः द्विविकल्पाः] मनुष्योंके दो भेद हैं :
[कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः ] कर्मभूमिमें जन्मे हुए और भोगभूमिमें जन्मे हुए; [पृथ्वीभेदेन ]
पृथ्वीके भेदसे [नारकाः ] नारक [सप्तविधाः ज्ञातव्याः ] सात प्रकारके जानना; [तिर्यंञ्चः ]
तिर्यंचोंके [चतुर्दशभेदाः ] चौदहभेद [भणिताः ] कहे हैं; [सुरगणाः ] देवसमूहोंके
[चतुर्भेदाः ] चार भेद हैं
[एतेषां विस्तारः ] इनका विस्तार [लोकविभागेषु ज्ञातव्यः ]
लोकविभागमेंसे जान लेना
टीका* :यह, चार गतिके स्वरूपनिरूपणरूप कथन है
मनुकी सन्तान वह मनुष्य हैं वे दो प्रकारके हैं : कर्मभूमिज और
भोगभूमिज उनमें कर्मभूमिज मनुष्य भी दो प्रकारके हैं : आर्य और म्लेच्छ
पुण्यक्षेत्रमें रहनेवाले वे आर्य हैं और पापक्षेत्रमें रहनेवाले वे म्लेच्छ हैं भोगभूमिज
भोगभूमिके अन्तमें और कर्मभूमिके आदिमें होनेवाले कुलकर मनुष्योंको आजीविकाके साधन सिखाकर
लालित
पालित करते हैं इसलिये वे मनुष्योंके पिता समान हैं कुलकरको मनु कहा जाता है
तिर्यञ्च चौदह भेदवाले, देव चार प्रकारके
इन सर्वका विस्तार है, ज्ञातव्य लोकविभागसे ।।१७।।

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पल्योपमायुषः रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभिधानसप्तपृथ्वीनां भेदान्नारकजीवाः
सप्तधा भवन्ति प्रथमनरकस्य नारका ह्येकसागरोपमायुषः द्वितीयनरकस्य नारकाः
त्रिसागरोपमायुषः तृतीयस्य सप्त चतुर्थस्य दश पंचमस्य सप्तदश षष्ठस्य द्वाविंशतिः
सप्तमस्य त्रयस्त्रिंशत अथ विस्तरभयात् संक्षेपेणोच्यते तिर्यञ्चः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तका-
पर्याप्तकबादरैकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकद्वींद्रियपर्याप्तकापर्याप्तकत्रीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तक-
चतुरिन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा-
च्चतुर्दशभेदा भवन्ति
भावनव्यंतरज्योतिःकल्पवासिकभेदाद्देवाश्चतुर्णिकायाः एतेषां चतुर्गति-
जीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे द्रष्टव्यः इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति
मनुष्य आर्य नामको धारण करते हैं; जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम क्षेत्रमें रहनेवाले हैं
और एक पल्योपम, दो पल्योपम अथवा तीन पल्योपमकी आयुवाले हैं
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा
नामकी सात पृथ्वीके भेदोंके कारण नारक जीव सात प्रकारके हैं पहले नरकके नारकी
एक सागरोपमकी आयुवाले हैं, दूसरे नरकके नारकी तीन सागरोपमकी आयुवाले हैं तीसरे
नरकके नारकी सात सागरोपमकी आयुवाले हैं, चौथे नरकके नारकी दस सागरोपम, पाँचवें
नरकके सत्रह सागरोपम, छठवें नरकके बाईस सागरोपम और सातवें नरकके नारकी तेतीस
सागरोपमकी आयुवाले हैं
अब विस्तारके भयके कारण संक्षेपसे कहा जाता है :
तिर्यंचोंके चौदह भेद हैं : (१-२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त,
(३-४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (५-६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त,
(७-८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (९-१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त,
(११-१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (१३-१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और
अपर्याप्त
देवोंके चार निकाय (समूह) हैं : (१) भवनवासी, (२) व्यंतर, (३) ज्योतिष्क
और (४) कल्पवासी
इन चार गतिके जीवोंके भेदोंके भेद लोकविभाग नामक परमागममें देख लें यहाँ
(इस परमागममें) आत्मस्वरूपके निरूपणमें अन्तरायका हेतु होगा इसलिये सूत्रकर्ता
पूर्वाचार्यमहाराजने (वे विशेष भेद) नहीं कहे हैं

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पूर्वसूरिभिः सूत्रकृद्भिरनुक्त इति
(मन्दाक्रांता)
स्वर्गे वाऽस्मिन्मनुजभुवने खेचरेन्द्रस्य दैवा-
ज्ज्योतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे
अन्यस्मिन् वा जिनपतिभवने कर्मणां नोऽस्तु सूतिः
भूयो भूयो भवतु भवतः पादपङ्केजभक्ति :
।।२८।।
(शार्दूलविक्रीडित)
नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु
तच्छक्ति र्जिननाथपादकमलद्वन्द्वार्चनायामियं
भक्ति स्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि
।।9।।
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ।।१८।।
[अब इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] (हे जिनेन्द्र !) दैवयोगसे मैं स्वर्गमें होऊँ , इस मनुष्यलोकमें होऊँ,
विद्याधरके स्थानमें होऊँ , ज्योतिष्क देवोंके लोकमें होऊँ , नागेन्द्रके नगरमें होऊँ , नारकोंके
निवासमें होऊँ , जिनपतिके भवनमें होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे
कर्मका उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पादपंकजकी भक्ति हो
२८
[श्लोेकार्थ :] नराधिपतियोंके अनेकविध महा वैभवोंको सुनकर तथा देखकर,
हे जड़मति, तू यहाँ व्यर्थ ही क्लेश क्यों प्राप्त करता है ! वे वैभव सचमुच पुण्यसे प्राप्त
होते हैं
वह (पुण्योपार्जनकी) शक्ति जिननाथके पादपद्मयुगलकी पूजामें है; यदि तुझे उन
जिनपादपद्मोंकी भक्ति हो, तो वे बहुविध भोग तुझे (अपने आप) होंगे २९
है जीव कर्ताभोगता जड़कर्मका व्यवहारसे
है कर्मजन्य विभावका कर्ता नियत नय द्वारसे ।।१८।।

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कर्ता भोक्ता आत्मा पुद्गलकर्मणो भवति व्यवहारात
कर्मजभावेनात्मा कर्ता भोक्ता तु निश्चयतः ।।१८।।
कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकारकथनमिदम्
आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानां
भोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च,
अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां
कर्ता
इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्त म्
(मालिनी)
अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको यः
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात
गाथा : १८ अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गल-
कर्मका [कर्ता भोक्ता ] कर्ता - भोक्ता [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भवति ] है [तु ] और
[आत्मा ] आत्मा [कर्मजभावेन ] कर्मजनित भावका [कर्ता भोक्ता ] कर्ता - भोक्ता
[निश्चयतः ] (अशुद्ध) निश्चयसे है
टीका :यह, कर्तृत्व - भोक्तृत्वके प्रकारका कथन है
आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मका कर्ता और
उसके फलरूप सुखदुःखका भोक्ता है, अशुद्ध निश्चयनयसे समस्त मोहरागद्वेषादि
भावकर्मका कर्ता और भोक्ता है, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारसे (देहादि) नोकर्मका
कर्ता है, उपचरित असद्भूत व्यवहारसे घट
- पट - शकटादिका (घड़ा, वस्त्र, बैलगाड़ी
इत्यादिका) कर्ता है इसप्रकार अशुद्ध जीवका स्वरूप कहा
[अब १८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] सकल मोहरागद्वेषवाला जो कोई पुरुष परम गुरुके
चरणकमलयुगलकी सेवाके प्रसादसे निर्विकल्प सहज समयसारको जानता है, वह पुरुष

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सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः
।।३०।।
(अनुष्टुभ्)
भावकर्मनिरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम्
द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ।।३१।।
(वसन्ततिलका)
संज्ञानभावपरिमुक्त विमुग्धजीवः
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म
निर्मुक्ति मार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके
।।३२।।
(वसन्ततिलका)
यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं
निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे
मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः
।।३३।।
परमश्रीरूपी सुन्दरीका प्रिय कान्त होता है ३०
[श्लोेकार्थ :] भावकर्मके निरोधसे द्रव्यकर्मका निरोध होता है; द्रव्यकर्मके
निरोधसे संसारका निरोध होता है ३१
[श्लोेकार्थ :] जो जीव सम्यग्ज्ञानभावरहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) है, वह
जीव शुभाशुभ अनेकविध कर्मको करता हुआ मोक्षमार्गको लेशमात्र भी वांछना नहीं
जानता; उसे लोकमें (कोई) शरण नहीं है
३२
[श्लोेकार्थ :] जो समस्त कर्मजनित सुखसमूहको परिहरण करता है, वह
भव्य पुरुष निष्कर्म सुखसमूहरूपी अमृतके सरोवरमें मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशय-
चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज भावको प्राप्त क रता है
३३

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(मालिनी)
असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः
सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्
हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं
न खलु न खलु मुक्ति र्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात
।।३४।।
(मालिनी)
भविनि भवगुणाः स्युः सिद्धजीवेऽपि नित्यं
निजपरमगुणाः स्युः सिद्धिसिद्धाः समस्ताः
व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि-
र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम्
।।३५।।
दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया
पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ।।9।।
द्रव्यार्थिकेन जीवा व्यतिरिक्ताः पूर्वभणितपर्यायात
पर्यायनयेन जीवाः संयुक्ता भवन्ति द्वाभ्याम् ।।9।।
[श्लोेकार्थ :] (हमारे आत्मस्वभावमें) विभाव असत् होनेसे उसकी हमें चिन्ता
नहीं है; हम तो हृदयकमलमें स्थित, सर्व कर्मसे विमुक्त, शुद्ध आत्माका एकका सतत
अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं हि है
३४
[श्लोेकार्थ :] संसारीमें सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीवमें सदा समस्त
सिद्धिसिद्ध (मोक्षसे सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण हुए) निज परमगुण होते हैंइसप्रकार
व्यवहारनय है निश्चयसे तो सिद्ध भी नहीं है और संसार भी नहीं है यह बुध पुरुषोंका
निर्णय है ३५
गाथा : १९ अन्वयार्थ :[द्रव्यार्थिकेन] द्रव्यार्थिक नयसे [जीवाः] जीव
है उक्त पर्ययशून्य आत्मा द्रव्यद्रष्टिसे सदा
है उक्त पर्यायों सहित पर्यायनयसे वह कहा ।।१९।।

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इह हि नयद्वयस्य सफलत्वमुक्त म्
द्वौ हि नयौ भगवदर्हत्परमेश्वरेण प्रोक्तौ, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति द्रव्यमेवार्थः
प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः न खलु एकनया-
यत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयनयायत्तोपदेशः सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्त -
व्यञ्जनपर्यायेभ्यः सकाशान्मुक्तामुक्त समस्तजीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव कुतः ? ‘‘सव्वे
सुद्धा हु सुद्धणया’’ इति वचनात विभावव्यंजनपर्यायार्थिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता
भवन्ति किंच सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनर्व्यंजनपर्यायैः सह परिणतिरिति
कुतः ? सदा निरंजनत्वात सिद्धानां सदा निरंजनत्वे सति तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्याम्
[पूर्वभणितपर्यायात् ] पूर्वकथित पर्यायसे [व्यतिरिक्ताः] व्यतिरिक्त है; [पर्यायनयेन]
पर्यायनयसे [जीवाः ] जीव [संयुक्ताः भवन्ति ] उस पर्यायसे संयुक्त हैं [द्वाभ्याम् ]
इसप्रकार जीव दोनों नयोंसे संयुक्त हैं
टीका :यहाँ दोनों नयोंका सफलपना कहा है
भगवान अर्हत् परमेश्वरने दो नय कहे हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक द्रव्य ही
जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक है और पर्याय ही जिसका अर्थ अर्थात्
प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है
एक नयका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य
नहीं है किन्तु उन दोनों नयोंका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य है
सत्ताग्राहक (द्रव्यकी सत्ताको ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके बलसे पूर्वोक्त
व्यंजनपर्यायोंसे मुक्त तथा अमुक्त (सिद्ध तथा संसारी) समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त
ही है क्यों ? ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनयसे सर्व जीव वास्तवमें शुद्ध हैं )’’ ऐसा
(शास्त्रका) वचन होनेसे विभावव्यंजनपर्यायार्थिक नयके बलसे वे सर्व जीव (पूर्वोक्त
व्यंजनपर्यायोंसे) संयुक्त हैं विशेष इतना किसिद्ध जीवोंके अर्थपर्यायों सहित परिणति
है, परन्तु व्यंजनपर्यायों सहित परिणति नहीं है क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होनेसे
(प्रश्न :) यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक
दोनों नयोंसे संयुक्त हैं (अर्थात् सर्व जीवोंको दोनों नय लागू होते हैं ) ऐसा सूत्रार्थ (गाथाका
अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है
(उत्तर :व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि) निगम अर्थात्
व्यतिरिक्त = भिन्न; रहित; शून्य ।

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द्वाभ्याम् संयुक्ताः सर्वे जीवा इति सूत्रार्थो व्यर्थः निगमो विकल्पः, तत्र भवो नैगमः
च नैगमनयस्तावत् त्रिविधः, भूतनैगमः वर्तमाननैगमः भाविनैगमश्चेति अत्र
भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति पूर्वकाले ते
भगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्वयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(मालिनी)
‘‘उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै-
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव
’’
तथा हि
विकल्प; उसमें हो वह नैगम वह नैगमनय तीन प्रकारका है; भूत नैगम, वर्तमान नैगम
और भावी नैगम यहाँ भूत नैगमनयकी अपेक्षासे भगवन्त सिद्धोंको भी व्यंजनपर्यायवानपना
और अशुद्धपना सम्भवित होता है, क्योंकि पूर्वकालमें वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार
है
बहु कथनसे क्या ? सर्व जीव दो नयोंके बलसे शुद्ध तथा अशुद्ध हैं ऐसा अर्थ है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद्अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] दोनों नयोंके विरोधको नष्ट करनेवाले, स्यात्पदसे अडिकत
जिनवचनमें जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयमेव मोहका वमन करके, अनूतन (अनादि) और
कुनयके पक्षसे खण्डित न होनेवाली ऐसी उत्तम परमज्योतिकोसमयसारकोशीघ्र
देखते ही हैं ’’
और (इस जीव अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार
जो भूतकालकी पर्यायको वर्तमानवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), भविष्यकालकी पर्यायको
वर्तमानवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), अथवा किंचित् निष्पन्नतायुक्त और किंचित् अनिष्पन्नतायुक्त
वर्तमान पर्यायको सर्वनिष्पन्नवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), उस ज्ञानको (अथवा वचनको) नैगमनय
कहते हैं ।

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(मालिनी)
अथ नययुगयुक्तिं लंघयन्तो न सन्तः
परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः
सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति
क्षितिषु परमतोक्ते : किं फलं सज्जनानाम्
।।३६।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव -
विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकारः प्रथमश्रुतस्कन्धः ।।
मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :)
[श्लोेकार्थ :] जो दो नयोंके सम्बन्धका उल्लंघन न करते हुए परमजिनके
पादपंकजयुगलमें मत्त हुए भ्रमर समान हैं ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसारको अवश्य
प्राप्त करते हैं
पृथ्वीपर पर मतके कथनसे सज्जनोंको क्या फल है (अर्थात् जगतके जैनेतर
दर्शनोंके मिथ्या कथनोंसे सज्जनोंको क्या लाभ है )? ३६
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिनको परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
जीव अधिकार नामका प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ

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अजीव अधिकार
अथेदानीमजीवाधिकार उच्यते
अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं
खंधा हु छप्पयारा परमाणू चेव दुवियप्पो ।।२०।।
अणुस्कन्धविकल्पेन तु पुद्गलद्रव्यं भवति द्विविकल्पम्
स्कन्धाः खलु षट्प्रकाराः परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ।।२०।।
पुद्गलद्रव्यविकल्पोपन्यासोऽयम्
पुद्गलद्रव्यं तावद् विकल्पद्वयसनाथम्, स्वभावपुद्गलो विभावपुद्गलश्चेति तत्र
अब अजीव अधिकार कहा जाता है
गाथा : २० अन्वयार्थ :[अणुस्कन्धविकल्पेन तु ] परमाणु और स्कन्ध
ऐसे दो भेदसे [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [द्विविकल्पम् भवति ] दो भेदवाला है;
[स्कन्धाः ] स्कन्ध [खलु ] वास्तवमें [षट्प्रकाराः ] छह प्रकारके हैं [परमाणुः च एव
द्विविकल्पः ]
और परमाणुके दो भेद हैं
टीका :यह, पुद्गलद्रव्यके भेदोंका कथन है
प्रथम तो पुद्गलद्रव्यके दो भेद हैं : स्वभावपुद्गल और विभावपुद्गल उनमें,
परमाणु एवं स्कन्ध हैं दो भेद पुद्गलद्रव्यके
है स्कन्ध छै विधि और द्विविध विकल्प है परमाणुके ।।२०

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स्वभावपुद्गलः परमाणुः, विभावपुद्गलः स्कन्धः कार्यपरमाणुः कारणपरमाणुरिति स्वभाव-
पुद्गलो द्विधा भवति स्कंधाः षट्प्रकाराः स्युः, पृथ्वीजलच्छायाचतुरक्षविषय-
कर्मप्रायोग्याप्रायोग्यभेदाः तेषां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रेषूच्यते विस्तरेणेति
(अनुष्टुभ्)
गलनादणुरित्युक्त : पूरणात्स्कन्धनामभाक्
विनानेन पदार्थेन लोकयात्रा न वर्तते ।।३७।।
अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च
सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं ।।२१।।
भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा
थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेल्लमादीया ।।२२।।
परमाणु वह स्वभावपुद्गल है और स्कन्ध वह विभावपुद्गल है स्वभावपुद्गल
कार्यपरमाणु और कारणपरमाणु ऐसे दो प्रकारसे है स्कन्धोंके छह प्रकार हैं : (१) पृथ्वी,
(२) जल, (३) छाया, (४) (चक्षुके अतिरिक्त) चार इन्द्रियोंके विषयभूत स्कन्ध,
(५) कर्मयोग्य स्कन्ध और (६) कर्मके अयोग्य स्कन्ध
ऐसे छह भेद हैं स्कन्धोंके
भेद अब कहे जानेवाले सूत्रोंमें (अगली चार गाथाओंमें) विस्तारसे कहे जायेंगे
[अब, २०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] (पुद्गलपदार्थ) गलन द्वारा (अर्थात् भिन्न हो जानेसे) ‘परमाणु’
कहलाता है और पूरण द्वारा (अर्थात् संयुक्त होनेसे) ‘स्कन्ध’ नामको प्राप्त होता है इस
पदार्थके बिना लोकयात्रा नहीं हो सकती ३७
अतिथूलथूल, थूल, थूलसूक्षम, सूक्ष्मथूल अरु सूक्ष्म ये
अतिसूक्ष्मयेहि धरादि पुद्गगलस्कन्धके छ विकल्प हैं ।।२१।।
भूपर्वतादिक स्कन्ध अतिथूलथूल जिनवरने कहा
घृत-तैल-जल इत्यादि इनको स्थूल पुद्गल जानना ।।२२।।

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छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि
सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य ।।२३।।
सुहुमा हवंति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो
तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंति ।।२४।।
अतिस्थूलस्थूलाः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाश्च
सूक्ष्मा अतिसूक्ष्मा इति धरादयो भवन्ति षड्भेदाः ।।२१।।
भूपर्वताद्या भणिता अतिस्थूलस्थूला इति स्कंधाः
स्थूला इति विज्ञेयाः सर्पिर्जलतैलाद्याः ।।२२।।
छायातपाद्याः स्थूलेतरस्कन्धा इति विजानीहि
सूक्ष्मस्थूला इति भणिताः स्कन्धाश्चतुरक्षविषयाश्च ।।२३।।
गाथा : २१-२२-२३-२४ अन्वयार्थ :[अतिस्थूलस्थूलाः ]
अतिस्थूलस्थूल, [स्थूलाः ] स्थूल, [स्थूलसूक्ष्माः च ] स्थूलसूक्ष्म, [सूक्ष्मस्थूलाः च ]
सूक्ष्मस्थूल, [सूक्ष्माः ] सूक्ष्म और [अतिसूक्ष्माः ] अतिसूक्ष्म [इति ] ऐसे [धरादयः
षड्भेदाः भवन्ति ]
पृथ्वी आदि स्कन्धोंके छह भेद हैं
[भूपर्वताद्याः ] भूमि, पर्वत आदि [अतिस्थूलस्थूलाः इति स्कन्धाः ]
अतिस्थूलस्थूल स्कन्ध [भणिताः ] कहे गये हैं; [सप्पिर्जलतैलाद्याः ] घी, जल, तेल आदि
[स्थूलाः इति विज्ञेयाः ] स्थूल स्कन्ध जानना
[छायातपाद्याः ] छाया, आतप (धूप) आदि [स्थूलेतरस्कन्धाः इति ] स्थूलसूक्ष्म
स्कन्ध [विजानीहि ] जान [च ] और [चतुरक्षविषयाः स्कन्धाः ] चार इन्द्रियोंके विषयभूत
स्कन्धोंको [सूक्ष्मस्थूलाः इति ] सूक्ष्मस्थूल [भणिताः ] कहा गया है
आताप, छाया स्थूलसूक्ष्म स्कन्ध निश्चय कीजिये
अरु स्कन्ध सूक्ष्मस्थूल चारों अक्षसे गहि लीजिये ।।२३।।
कार्माणवर्गण योग्य पञ्चम स्कन्ध सूक्ष्म स्कन्ध है
विपरीत जो इस योग्य नहिं अतिसूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध है ।।२४।।

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सूक्ष्मा भवन्ति स्कन्धाः प्रायोग्याः कर्मवर्गणस्य पुनः
तद्विपरीताः स्कन्धाः अतिसूक्ष्मा इति प्ररूपयन्ति ।।२४।।
विभावपुद्गलस्वरूपाख्यानमेतत
अतिस्थूलस्थूला हि ते खलु पुद्गलाः सुमेरुकुम्भिनीप्रभृतयः घृततैलतक्रक्षीर-
जलप्रभृतिसमस्तद्रव्याणि हि स्थूलपुद्गलाश्च छायातपतमःप्रभृतयः स्थूलसूक्ष्मपुद्गलाः
स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियाणां विषयाः सूक्ष्मस्थूलपुद्गलाः शब्दस्पर्शरसगन्धाः शुभाशुभ-
परिणामद्वारेणागच्छतां शुभाशुभकर्मणां योग्याः सूक्ष्मपुद्गलाः एतेषां विपरीताः सूक्ष्म-
सूक्ष्मपुद्गलाः कर्मणामप्रायोग्या इत्यर्थः अयं विभावपुद्गलक्रमः
[पुनः ] और [कर्मवर्गणस्य प्रायोग्याः ] कर्मवर्गणाके योग्य [स्कन्धाः ] स्कन्ध
[सूक्ष्माः भवन्ति ] सूक्ष्म हैं; [तद्विपरीताः ] उनसे विपरीत (अर्थात् कर्मवर्गणाके अयोग्य)
[स्कन्धाः ] स्कन्ध [अतिसूक्ष्माः इति ] अतिसूक्ष्म [प्ररूपयन्ति ] कहे जाते हैं
टीका :यह, विभावपुद्गलके स्वरूपका कथन है
सुमेरु, पृथ्वी आदि (घन पदार्थ) वास्तवमें अतिस्थूलस्थूल पुद्गल हैं घी, तेल,
मट्ठा, दूध, जल आदि समस्त (प्रवाही) पदार्थ स्थूल पुद्गल हैं छाया, आतप,
अन्धकारादि स्थूलसूक्ष्म पुद्गल हैं स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रियके
विषयस्पर्श, रस, गन्ध और शब्दसूक्ष्मस्थूल पुद्गल हैं शुभाशुभ परिणाम द्वारा
आनेवाले ऐसे शुभाशुभ कर्मोंके योग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्म पुद्गल हैं उनसे विपरीत अर्थात्
कर्मोंके अयोग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्मसूक्ष्म पुद्गल हैं ऐसा (इन गाथाओंका) अर्थ है
यह विभावपुद्गलका क्रम है
[भावार्थ:स्कन्ध छह प्रकारके हैं : (१) काष्ठपाषाणादिक जो स्कन्ध छेदन
किये जाने पर स्वयमेव जुड़ नहीं सकते वे स्कन्ध अतिस्थूलस्थूल हैं (२) दूध, जल
आदि जो स्कन्ध छेदन किये जाने पर पुनः स्वयमेव जुड़ जाते हैं वे स्कन्ध स्थूल हैं
(३) धूप, छाया, चाँदनी, अन्धकार इत्यादि जो स्कन्ध स्थूल ज्ञात होने पर भी भेदे नहीं
जा सकते या हस्तादिकसे ग्रहण नहीं किये जा सकते वे स्कन्ध स्थूलसूक्ष्म हैं
(४)
आँखसे न दिखनेवाले ऐसे जो चार इन्द्रियोंके विषयभूत स्कन्ध सूक्ष्म होने पर भी स्थूल
ज्ञात होते हैं (
स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्श किये जा सकते हैं, जीभसे आस्वादन किये जा सकते
हैं, नाकसे सूंघे जा सकते हैं अथवा कानसे सुने जा सकते हैं ) वे स्कन्ध सूक्ष्मस्थूल हैं

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तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये
‘‘पुढवी जलं च छाया चउरिंदियविसयकम्मपाओग्गा
क म्मातीदा एवं छब्भेया पोग्गला होंति ।।’’
उक्तं च मार्गप्रकाशे
(अनुष्टुभ्)
‘‘स्थूलस्थूलास्ततः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्मास्ततः परे
सूक्ष्मस्थूलास्ततः सूक्ष्माः सूक्ष्मसूक्ष्मास्ततः परे ’’
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(वसंततिलका)
‘‘अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाटये
वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः
(५) इन्द्रियज्ञानके अगोचर ऐसे जो कर्मवर्गणारूप स्कन्ध वे स्कन्ध सूक्ष्म हैं
(६) कर्मवर्गणासे नीचेके (कर्मवर्गणातीत) जो अत्यन्तसूक्ष्म द्वि-अणुकपर्यंत स्कन्ध वे
स्कन्ध सूक्ष्मसूक्ष्म हैं
]
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमयमें (गाथा
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थः] पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियोंके विषयभूत, कर्मके योग्य और
कर्मातीतइसप्रकार पुद्गल (स्कन्ध) छह प्रकारके हैं ’’
और मार्गप्रकाशमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] स्थूलस्थूल, पश्चात् स्थूल, तत्पश्चात् स्थूलसूक्ष्म, पश्चात्
सूक्ष्मस्थूल, पश्चात् सूक्ष्म और तत्पश्चात् सूक्ष्मसूक्ष्म (इसप्रकार स्कन्ध छह प्रकारके हैं ) ’’
इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें ४४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] इस अनादिकालीन महा अविवेकके नाटकमें अथवा नाचमें
वर्णादिमान् पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक
देखो, श्री परमश्रुतप्रभावकमण्डल द्वारा प्रकाशित पंचास्तिकाय, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ१३०