पाँच प्रकारके संसारसे मुक्त, पाँच प्रकारके मोक्षरूपी फलको देनेवाले (अर्थात् द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्तनसे मुक्त करनेवाले), पाँचप्रकार सिद्धोंको (अर्थात् पाँच प्रकारकी मुक्तिको — सिद्धिको — प्राप्त
सिद्धभगवन्तोंको) मैं पाँच प्रकारके संसारसे मुक्त होनेके लिये वन्दन करता हूँ ।२९५।
जरा - मरण रहित, [परमम् ] परम, [कर्माष्टवर्जितम् ] आठ कर्म रहित, [शुद्धम् ] शुद्ध,
[ज्ञानादि-चतुःस्वभावम् ] ज्ञानादिक चार स्वभाववाला, [अक्षयम् ] अक्षय, [अविनाशम् ] अविनाशी और [अच्छेद्यम् ] अच्छेद्य है ।
टीका : — (जिसका सम्पूर्ण आश्रय करनेसे सिद्ध हुआ जाता है ऐसे)
कारणपरमतत्त्वके स्वरूपका यह कथन है ।
(कारणपरमतत्त्व ऐसा है : — ) निसर्गसे (स्वभावसे) संसारका अभाव होनेके
कारण जन्म - जरा - मरण रहित है; परम - पारिणामिकभाव द्वारा परमस्वभाववाला होनेके
कारण परम है; तीनों काल निरुपाधि - स्वरूपवाला होनेके कारण आठ कर्म रहित है;
द्रव्यकर्म और भावकर्म रहित होनेके कारण शुद्ध है; सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजचित्शक्तिमय होनेके कारण ज्ञानादिक चार स्वभाववाला है; सादि - सांत, मूर्त
[पुनरागमन-विरहितम् ] पुनरागमन रहित, [नित्यम् ] नित्य, [अचलम् ] अचल और [अनालंबम् ] निरालम्ब है ।
टीका : — यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्मतत्त्व
कहा है ।
(परमात्मतत्त्व ऐसा है : — ) समस्त दुष्ट १अघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके
धांधलको अगोचर ऐसे सहजज्ञानरूपी गढ़में आवास होनेके कारण अव्याबाध (निर्विघ्न) है; सर्व आत्मप्रदेशमें भरे हुए चिदानन्दमयपनेके कारण अतीन्द्रिय है; तीन तत्त्वोंमें विशिष्ट होनेके कारण (बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनोंमें विशिष्ट — खास
प्रकारका — उत्तम होनेके कारण) अनुपम है; संसाररूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले
मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण पुनरागमन रहित है; ३नित्य मरणके तथा उस भव
सम्बन्धी मरणके कारणभूत कलेवरके (शरीरके) सम्बन्धका अभाव होनेके कारण नित्य है; निज गुणों और पर्यायोंसे च्युत न होनेके कारण अचल है; परद्रव्यके अवलम्बनका अभाव होनेके कारण निरालम्ब है ।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (श्रीगुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधते हैं कि : — ) हे अंध
प्राणियों ! अनादि संसारसे लेकर पर्याय - पर्यायमें यह रागी जीव सदैव मत्त वर्तते हुए जिस
पदमें सो रहे हैं — नींद ले रहे हैं वह पद अर्थात् स्थान अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान
नहीं है,) ऐसा तुम समझो । (दो बार कहनेसे अत्यन्त करुणाभाव सूचित होता है ।) इस
ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो,) तुम्हारा पद यह है — यह है जहाँ शुद्ध -
शुद्ध चैतन्यधातु निज रसकी अतिशयताके कारण स्थायीभावपनेको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है — अविनाशी है । (यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है वह द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धता
सूचित करता है । सर्व अन्यद्रव्योंसे पृथक् होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके
निमित्तसे होनेवाले अपने भावोंसे रहित होनेके कारण भावसे शुद्ध है ।)’’
और (इस १७८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : — )
[श्लोकार्थ : — ] भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (परम-
पारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है, संसारके नाशका कारण है और सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है । बुद्धिमान पुरुष समस्त रागद्वेषके समूहको छोड़कर तथा उस परम पंचम भावको
जानकर, अकेला, कलियुगमें पापवनकी अग्निरूप मुनिवरके रूपमें शोभा देता है (अर्थात् जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भावका उग्ररूपसे आश्रय करता है, वही एक पुरुष पापवनको जलानेमें अग्नि समान मुनिवर है ) ।२९७।
गाथा : १७९ अन्वयार्थ : — [न अपि दुःखं ] जहाँ दुःख नहीं है, [न अपि
सौख्यं ] सुख नहीं है, [न अपि पीड़ा ] पीड़ा नहीं है, [न एव बाधा विद्यते ] बाधा नहीं है, [न अपि मरणं ] मरण नहीं है, [न अपि जननं ] जन्म नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
२सतत अन्तर्मुखाकार परम - अध्यात्मस्वरूपमें लीन ऐसे उस ३निरुपराग –
रत्नत्रयात्मक परमात्माको अशुभ परिणतिके अभावके कारण अशुभ कर्म नहीं है और अशुभ कर्मके अभावके कारण दुःख नहीं है; शुभ परिणतिके अभावके कारण शुभ कर्म नहीं है और शुभ कर्मके अभावके कारण वास्तवमें संसारसुख नहीं है; पीड़ायोग्य
१ – निर्वाण = मोक्ष; मुक्ति । [परमतत्त्व विकाररहित होनेसे द्रव्य-अपेक्षासे सदा मुक्त ही है । इसलिये
मुमुक्षुओंको ऐसा समझना चाहिये कि विकाररहित परमतत्त्वके सम्पूर्ण आश्रयसे ही (अर्थात् उसीके श्रद्धान - ज्ञान - आचरणसे) वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्तपर्यायमें परिणमित होता है । ]
२ – सतत अन्तर्मुखाकार = निरन्तर अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् रूप है ऐसे ।
३ – निरुपराग = निर्विकार; निर्मल ।
दुख-सुख नहीं, पीड़ा जहाँ नहिं और बाधा है नहीं ।
नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानों रे वहीं ।।१७९।।
गाथा : १८० अन्वयार्थ : — [न अपि इन्द्रियाः उपसर्गाः ] जहाँ इन्द्रियाँ नहीं
हैं, उपसर्ग नहीं हैं, [न अपि मोहः विस्मयः ] मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, [न निद्रा च ] निद्रा नहीं है, [नच तृष्णा ] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा ] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् इन्द्रियादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यह, परम निर्वाणके योग्य परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है ।
घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इन्द्रियोंके व्यापार नहीं हैं तथा देव, मानव, तिर्यञ्च और अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिकज्ञानमय और यथाख्यातचारित्रमय होनेके कारण (उसे) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकारका मोहनीय नहीं है; बाह्य प्रपंचसे विमुख होनेके कारण (उसे) विस्मय नहीं है; नित्य - प्रकटित शुद्धज्ञानस्वरूप होनेके कारण
(उसे) निद्रा नहीं है; असातावेदनीय कर्मको निर्मूल कर देनेके कारण (उसे) क्षुधा और
णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८०।।
नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च ।
न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१८०।।
तृषा नहीं है । उस परम ब्रह्ममें ( – परमात्मतत्त्वमें) सदा ब्रह्म ( – निर्वाण) है ।
इसीप्रकार (श्रीयोगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : –
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जहाँ (जिस तत्त्वमें) ज्वर, जन्म और जराकी वेदना नहीं है,
मृत्यु नहीं है, गति या आगति नहीं है, उस तत्त्वका अति निर्मल चित्तवाले पुरुष, शरीरमें स्थित होने पर भी, गुणमें बड़े ऐसे गुरुके चरणकमलकी सेवाके प्रसादसे अनुभव करते हैं ।’’
और (इस १८०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] अनुपम गुणोंसे अलंकृत और निर्विकल्प ऐसे जिस ब्रह्ममें
(आत्मतत्त्वमें ) इन्द्रियोंका अति विविध और विषम वर्तन किंचित् भी नहीं ही है, तथा संसारके मूलभूत अन्य (मोह - विस्मयादि ) ❃संसारीगुणसमूह नहीं ही हैं, उस ब्रह्ममें सदा
निजसुखमय एक निर्वाण प्रकाशमान है ।३००।
ब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति ।
तथा चोक्त ममृताशीतौ —
(मालिनी)
‘‘ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नो गतिर्वा ।
गाथा : १८१ अन्वयार्थ : — [न अपि कर्म नोकर्म ] जहाँ कर्म और
नोकर्म नहीं है, [न अपि चिन्ता ] चिन्ता नहीं है, [न एव आर्तरौद्रे ] आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं, [न अपिधर्मशुक्लध्याने ] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं हैं, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यह, सर्व कर्मोंसे विमुक्त ( – रहित) तथा शुभ, अशुभ और शुद्ध
ध्यान तथा ध्येयके विकल्पोंसे विमुक्त परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है ।
(परमतत्त्व) सदा निरंजन होनेके कारण (उसे) आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं; तीनों
काल निरुपाधिस्वरूपवाला होनेके कारण (उसे) पाँच नोकर्म नहीं है; मन रहित होनेके कारण चिंता नहीं है; औदयिकादि विभावभावोंका अभाव होनेके कारण आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं; धर्मध्यान और शुक्लध्यानके योग्य चरम शरीरका अभाव होनेके कारण वे दो ध्यान नहीं हैं । वहीं महा आनन्द है ।
[अब इस १८१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि ।
णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८१।।
नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे ।
नापि धर्मशुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१८१।।
करता है, तो वह परमश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) कामिनीका वल्लभ होता है ।३०३।
गाथा : १८४ अन्वयार्थ : — [यावत् धर्मास्तिकः ] जहाँ तक धर्मास्तिकाय
है वहाँ तक [जीवानां पुद्गलानां ] जीवोंका और पुद्गलोंका [गमनं ] गमन [जानीहि ] जान; [धर्मास्तिकायाभावे ] धर्मास्तिकायके अभावमें [तस्मात् परतः ] उससे आगे [न गच्छंति ] वे नहीं जाते ।
टीका : — यहाँ, सिद्धक्षेत्रसे ऊ पर जीव - पुद्गलोंके गमनका निषेध किया है ।
जीवोंकी स्वभावक्रिया सिद्धिगमन (सिद्धक्षेत्रमें गमन) है और विभावक्रिया
(अन्य भवमें जाते समय) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया ❃
द्वि - अणुकादि स्कन्धोंकी गति है । इसलिये इनकी
(जीवपुद्गलोंकी) गतिक्रिया त्रिलोकके शिखरसे ऊ पर नहीं है, क्योंकि आगे गतिहेतु (गतिके निमित्तभूत) धर्मास्तिकायका अभाव है; जिसप्रकार जलके अभावमें मछलियोंकी गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार । इसीसे, जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक
[केचित् ] कोई लोग [सुन्दरं मार्गम् ] सुन्दर मार्गको [निन्दन्ति ] निन्दते हैं [तेषां वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनमार्गके प्रति [अभक्तिं ] अभक्ति [मा कुरुध्वम् ] नहीं करना ।
टीका : — यहाँ भव्यको शिक्षा दी है ।
कोई मंदबुद्धि त्रिकाल - निरावरण, नित्य आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसे
निर्विकल्प निजकारणपरमात्मतत्त्वके सम्यक् - श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयसे
प्रतिपक्ष मिथ्यात्वकर्मोदयके सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रपरायण वर्तते हुए
ईर्षाभावसे अर्थात् मत्सरयुक्त परिणामसे सुन्दरमार्गको — पापक्रियासे निवृत्ति जिसका
लक्षण है ऐसे भेदोपचार - रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार - रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागके
मार्गको — निन्दते हैं, उन स्वरूपविकल (स्वरूपप्राप्ति रहित ) जीवोंके कुहेतु -
कुदृष्टान्तयुक्त कुतर्कवचन सुनकर जिनेश्वरप्रणीत शुद्धरत्नत्रयमार्गके प्रति, हे भव्य ! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है ।
[अब इस १८६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो
श्लोक कहते हैं : ]
ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम् ।
तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्तिं मा कुरुध्वं जिनमार्गे ।।१८६।।
[श्लोकार्थ : — ] देहसमूहरूपी वृक्षपंक्तिसे जो भयंकर है, जिसमें दुःख-
परम्परारूपी जङ्गली पशु (बसते ) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यन्त ×
दुर्गम है, उस संसार-अटवीरूपी
विकट स्थलमें जैन दर्शन एक ही शरण है ।३०६।
तथा —
[श्लोकार्थ : — ] जिन प्रभुका ज्ञानशरीर सदा लोकालोकका निकेतन है
(अर्थात् जिन नेमिनाथप्रभुके ज्ञानमें लोकालोक सदा समाते हैं — ज्ञात होते हैं ), उन
श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वरका — कि जिन्होंने शंखकी ध्वनिसे सारी पृथ्वीको कम्पा दिया था
उनका — स्तवन करनेके लिये तीन लोकमें कौन मनुष्य या देव समर्थ हैं ? (तथापि)
उनका स्तवन करनेका एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं जानता हूँ ।३०७।
और (इस शास्त्रके तात्पर्य सम्बन्धी ऐसा समझना कि ), जो (नियमसारशास्त्र)
वास्तवमें समस्त आगमके अर्थसमूहका प्रतिपादन करनेमें समर्थ है, जिसने नियम - शब्दसे
विशुद्ध मोक्षमार्ग सम्यक् प्रकारसे दर्शाया है, जो शोभित पंचास्तिकाय सहित है (अर्थात् जिसमें पाँच अस्तिकायका वर्णन किया गया है ), जिसमें पंचाचारप्रपंचका संचय किया गया है (अर्थात् जिसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच प्रकारके आचारका कथन किया गया है ), जो छह द्रव्योंसे विचित्र है (अर्थात् जो छह द्रव्योंके निरूपणसे विविध प्रकारका — सुन्दर है ), सात तत्त्व और नव पदार्थ जिसमें
समाये हुए हैं, जो पाँच भावरूप विस्तारके प्रतिपादनमें परायण है, जो निश्चय - प्रतिक्रमण,
परमार्थ क्रियाकांडके आडम्बरसे समृद्ध है (अर्थात् जिसमें परमार्थ क्रियाओंका पुष्कल निरूपण है ) और जो तीन उपयोगोंसे सुसम्पन्न है (अर्थात् जिसमें अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगका पुष्कल कथन है ) — ऐसे इस परमेश्वर शास्त्रका वास्तवमें दो प्रकारका
तात्पर्य है :सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । सूत्रतात्पर्य तो पद्यकथनसे प्रत्येक सूत्रमें
( – पद्य द्वारा प्रत्येक गाथाके अन्तमें ) प्रतिपादित किया गया है । और शास्त्रतात्पर्य यह
निम्नानुसार टीका द्वारा प्रतिपादित किया जाता है : यह (नियमसार शास्त्र ) १भागवत
शास्त्र है । जो (शास्त्र ) निर्वाणसुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले, परमवीतरागात्मक, २निराबाध,
निरन्तर और ३अनंग परमानन्दका देनेवाला है, जो ४निरतिशय, नित्यशुद्ध, निरंजन निज
कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे शोभित है, जो पंचम