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एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली, मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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रत्नत्रयके भेदकारण तथा लक्षण सम्बन्धी
अठारह दोषोंका स्वरूप................................ ६
तीर्थंकर परमदेवका स्वरूप ........................... ७
परमागमका स्वरूप ...................................... ८
छह द्रव्योंके पृथक् पृथक् नाम ...................... ९
उपयोगका लक्षण ...................................... १०
ज्ञानके भेद .............................................. ११
दर्शनोपयोगका स्वरूप ................................ १३
अशुद्ध दर्शनकी शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी
चारगतिका स्वरूप निरूपण......................... १६
कर्तृत्व-भोक्तृत्वके प्रकारका कथन................ १८
दोनों नयोंकी सफलता ................................ १९
विभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २१
कारणपरमाणुद्रव्य और कार्यपरमाणुद्रव्यका
स्वभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २७
पुद्गलपर्यायके स्वरूपका कथन ................... २८
पुद्गलद्रव्यके कथनका उपसंहार ................... २९
धर्म-अधर्म-आकाशका संक्षिप्त कथन ............. ३०
व्यवहारकालका स्वरूप और उसके
कालादि अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुण-
निर्विकल्प तत्त्वके स्वरूपका कथन .............. ३९
प्रकृति आदि बंधस्थान तथा उदयके स्थानोंका
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सत्यव्रतका स्वरूप .................................... ५७
अचौर्यव्रतका स्वरूप .................................. ५८
ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप ................................. ५९
परिग्रह-परित्यागव्रतका स्वरूप ...................... ६०
ईर्यासमितिका स्वरूप ................................. ६१
भाषासमितिका स्वरूप ................................ ६२
एषणासमितिका स्वरूप .............................. ६३
आदाननिक्षेपणसमितिका स्वरूप .................... ६४
प्रतिष्ठापनसमितिका स्वरूप........................... ६५
व्यवहार मनोगुप्तिका स्वरूप .......................... ६६
वचनगुप्तिका स्वरूप ................................... ६७
कायगुप्तिका स्वरूप ................................... ६८
निश्चयमनो-वचनगुप्तिका स्वरूप...................... ६९
निश्चयकायगुप्तिका स्वरूप ............................ ७०
भगवान अर्हत् परमेश्वरका स्वरूप .................. ७१
भगवन्त सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप .................. ७२
भगवन्त आचार्यका स्वरूप .......................... ७३
अध्यापक नामक परमगुरुका स्वरूप .............. ७४
व्यवहारचारित्र-अधिकारका उपसंहार और
आत्म-आराधनामें वर्तते हुए जीवको ही
कथन............................................... ८४
आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके
से मुमुक्षुको निश्चयप्रतिक्रमण होता है,
तत्सम्बन्धी कथन ................................ ९१
ध्यान एक उपादेय है
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अनन्तचतुष्टयात्मक निज आत्माके ध्यानका
सकल विभावके संन्यासकी विधि ................. ९९
सर्वत्र आत्मा उपादेय है
निश्चयप्रत्याख्यानके योग्य जीवका स्वरूप ....... १०५
निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकारका उपसंहार......... १०६
आलोचनाके स्वरूपके भेदोंका कथन ........... १०८
चार कषायों पर विजय प्राप्त करनेके उपायका
निश्चयकायोत्सर्गका स्वरूप ......................... १२१
समता बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको
कथन............................................. १२४
आत्मा ही उपादेय है
नौ नौ कषायकी विजय द्वारा प्राप्त होनेवाले
व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्तिका स्वरूप .......... १३५
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निश्चययोगभक्तिका स्वरूप ......................... १३७
विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही
अन्यवशका स्वरूप ................................. १४५
साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरका
आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान-
कथन............................................. १५१
वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके
परमावश्यक अधिकारका उपसंहार ............... १५८
निश्चयनयसे स्वरूपका कथन ...................... १६५
शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका खण्डन १६६
केवलज्ञानका स्वरूप ................................ १६७
केवलदर्शनके अभावमें सर्वज्ञता नहीं होती
‘‘जीव ज्ञानस्वरूप है’’ ऐसा वितर्क
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निरुपाधिस्वरूप जिसका लक्षण है ऐसे
परमतत्त्वके स्वरूपका विशेष कथन .......... १८१
भगवान सिद्धके स्वभावगुणोंके स्वरूपका
सिद्धक्षेत्रसे ऊ पर जीव-पुद्गलोंके गमनका
भव्यको सीख ........................................ १८६
शास्त्रके नाम कथन द्वारा शास्त्रका उपसंहार .. १८
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीनियमसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रीजिनं वा
पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोकों द्वारा मंगलाचरणादि करते हैं :
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तर्काब्जार्कं भट्टपूर्वाकलंकम्
तद्विद्याढयं वीरनन्दिं व्रतीन्द्रम्
(
(२) केवलज्ञानादिको प्राप्त कर लिया है इसलिये सम्पूर्णताको प्राप्त हैं; इसलिये उन्हें यहाँ सुगत कहा है
संयमियोंमें इन्द्र समान अर्थात् जिनदेव [वाचंयमी = मुनि; मौन सेवन करनेवाले; वाणीके संयमी
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मंदबुद्धि सो कौन ?
इस शास्त्रमें प्रथम पाँच अस्तिकाय आदि और पश्चात् प्रत्याख्यानादि सत्क्रियाका कथन
किया है )
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कहा हुआ [ नियमसारं ] नियमसार [ वक्ष्यामि ] मैं कहूँगा
अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिकको जो जीत
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द्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनाभ्यां युक्तो यस्तं प्रणम्य
वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः
त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधैकराज्यः
समवसृतिनिवासः केवलश्रीनिवासः
द्रव्य
तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ, सकल भव्यसमूहको हितकर, ‘नियमसार’ नामका परमागम
मैं कहता हूँ
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करता है, जन्मवृक्षका बीज जिन्होंने नष्ट किया है, समवसरणमें जिनका निवास है और
केवलश्री (
है; [मार्गः मोक्षोपायः ] मार्ग मोक्षोपाय है और [तस्य फलं ] उसका फल [निर्वाणं भवति ]
निर्वाण है ।
मुक्तिरूपी स्त्रीके विशाल भालप्रदेशमें शोभा-अलङ्काररूप तिलकपना है (अर्थात् मार्गफल
मुक्तिरूपी स्त्रीको वरण करना है)
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स्वात्मोपलब्धिरिति
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः
प्राप्त होते हैं
फल शुद्ध आत्माकी पूर्ण प्राप्ति अर्थात् मोक्ष है
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निरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है
एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है
ज्ञानदर्शनचारित्र । [विपरीतपरिहारार्थं ] विपरीतके परिहार हेतुसे (ज्ञानदर्शनचारित्रसे विरुद्ध
भावोंका त्याग करनेके लिये) [खलु ] वास्तवमें [सारम् इति वचनम् ] ‘सार’ ऐसा वचन
[भणितम् ] कहा है
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वही दर्शन है
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[प्रत्येकप्ररूपणा ] भेद करके भिन्न-भिन्न निरूपण [भवति ] होता है
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जिसके अशेष (समस्त) दोष दूर हुए हैं ऐसा जो [सक लगुणात्मा ] सकलगुणमय पुरुष
[आप्तः भवेत् ] वह आप्त है
ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं
बुद्धवा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुः स भव्यः
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हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदोंके कारण सात
प्रकारके हैं
[रुजा ] रोग, [मृत्युः ] मृत्यु, [स्वेदः ] स्वेद (पसीना), [खेदः ] खेद, [मदः ] मद,
[रतिः ] रति, [विस्मयनिद्रे ] विस्मय, निद्रा, [जन्मोद्वेगौ ] जन्म और उद्वेग
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खानेकी इच्छारूप दुःख वह क्षुधा है)
जाक र करनेसे मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो पीनेकी इच्छारूप दुःख वह तृषा
है)
राजा सम्बन्धी, चोर सम्बन्धी तथा भोजन सम्बन्धी विकथा कहने तथा सुननेके
कौतूहलपरिणाम वह अप्रशस्त राग है
क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ श्रमण वे यति हैं; और सामान्य साधु वे अनगार हैं