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एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली, मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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स्वभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २७
पुद्गलपर्यायके स्वरूपका कथन ................... २८
पुद्गलद्रव्यके कथनका उपसंहार ................... २९
धर्म-अधर्म-आकाशका संक्षिप्त कथन ............. ३०
व्यवहारकालका स्वरूप और उसके
प्रतिज्ञा ................................................ १ मोक्षमार्ग और उसके फलके स्वरूप-
निरूपणकी सूचना ................................. २ स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप ............................... ३ रत्नत्रयके भेदकारण तथा लक्षण सम्बन्धी
कालादि अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुण-
कथन................................................. ४ व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप .......................... ५ अठारह दोषोंका स्वरूप................................ ६ तीर्थंकर परमदेवका स्वरूप ........................... ७ परमागमका स्वरूप ...................................... ८ छह द्रव्योंके पृथक् पृथक् नाम ...................... ९ उपयोगका लक्षण ...................................... १० ज्ञानके भेद .............................................. ११ दर्शनोपयोगका स्वरूप ................................ १३ अशुद्ध दर्शनकी शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी
निर्विकल्प तत्त्वके स्वरूपका कथन .............. ३९
प्रकृति आदि बंधस्थान तथा उदयके स्थानोंका
सूचना............................................... १४ स्वभावपर्यायें और विभावपर्यायें...................... १५ चारगतिका स्वरूप निरूपण......................... १६ कर्तृत्व-भोक्तृत्वके प्रकारका कथन................ १८ दोनों नयोंकी सफलता ................................ १९
पुद्गलद्रव्यके भेदोंका कथन ........................ २० विभावपुद्गलका स्वरूप ............................. २१ कारणपरमाणुद्रव्य और कार्यपरमाणुद्रव्यका
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कारणपरमात्माको समस्त पौद्गलिक विकार
व्यवहारचारित्र-अधिकारका उपसंहार और
संसारी और मुक्त जीवोंमें अन्तर न
कार्यसमयसार और कारणसमयसारमें अन्तर
निश्चय और व्यवहारनयकी उपादेयताका
हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणका स्वरूप
आत्म-आराधनामें वर्तते हुए जीवको ही
कथन............................................... ८४
अहिंसाव्रतका स्वरूप ................................. ५६ सत्यव्रतका स्वरूप .................................... ५७ अचौर्यव्रतका स्वरूप .................................. ५८ ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप ................................. ५९ परिग्रह-परित्यागव्रतका स्वरूप ...................... ६० ईर्यासमितिका स्वरूप ................................. ६१ भाषासमितिका स्वरूप ................................ ६२ एषणासमितिका स्वरूप .............................. ६३ आदाननिक्षेपणसमितिका स्वरूप .................... ६४ प्रतिष्ठापनसमितिका स्वरूप........................... ६५ व्यवहार मनोगुप्तिका स्वरूप .......................... ६६ वचनगुप्तिका स्वरूप ................................... ६७ कायगुप्तिका स्वरूप ................................... ६८ निश्चयमनो-वचनगुप्तिका स्वरूप...................... ६९ निश्चयकायगुप्तिका स्वरूप ............................ ७० भगवान अर्हत् परमेश्वरका स्वरूप .................. ७१ भगवन्त सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप .................. ७२ भगवन्त आचार्यका स्वरूप .......................... ७३ अध्यापक नामक परमगुरुका स्वरूप .............. ७४
आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके
से मुमुक्षुको निश्चयप्रतिक्रमण होता है,
तत्सम्बन्धी कथन ................................ ९१
ध्यान एक उपादेय है — ऐसा कथन ............ ९३
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व्यवहार प्रतिक्रमणकी सफलता कब कही
निश्चयनयके प्रत्याख्यानका स्वरूप .................. ९५ अनन्तचतुष्टयात्मक निज आत्माके ध्यानका
परमभावनाके सन्मुख है – ऐसे ज्ञानीको सीख ..... ९७
निश्चयकायोत्सर्गका स्वरूप ......................... १२१
बन्धरहित आत्माको भाने सम्बन्धी सीख .......... ९८ सकल विभावके संन्यासकी विधि ................. ९९ सर्वत्र आत्मा उपादेय है – ऐसा कथन ............ १००
समता बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको
संसारावस्था और मुक्तिमें जीव निःसहाय
कथन............................................. १२४
एकत्वभावनारूप परिणमित सम्यग्ज्ञानीका
आत्मगत दोषोंसे मुक्त होनेके उपायका
आत्मा ही उपादेय है — ऐसा कथन ............. १२७
परम तपोधनकी भावशुद्धिका कथन............. १०४ निश्चयप्रत्याख्यानके योग्य जीवका स्वरूप ....... १०५ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकारका उपसंहार......... १०६
निश्चय-आलोचनाका स्वरूप ....................... १०७ आलोचनाके स्वरूपके भेदोंका कथन ........... १०८
नौ नौ कषायकी विजय द्वारा प्राप्त होनेवाले
निश्चय-प्रायश्चित्तका स्वरूप......................... ११३ चार कषायों पर विजय प्राप्त करनेके उपायका
‘‘शुद्ध ज्ञानका स्वीकार करनेवालेको प्रायश्चित्त
व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्तिका स्वरूप .......... १३५
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निज परमात्माकी भक्तिका स्वरूप .............. १३६ निश्चययोगभक्तिका स्वरूप ......................... १३७ विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही
वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके
भक्ति अधिकारका उपसंहार ...................... १४०
परमावश्यक अधिकारका उपसंहार ............... १५८
११ – निश्चय-परमावश्यक अधिकार निरन्तर स्ववशको निश्चय-आवश्यक होने
अवश परम जिनयोगीश्वरको परम आवश्यक-
भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना
अन्यवश ऐसे अशुद्ध-अन्तरात्म जीवका लक्षण १४४ अन्यवशका स्वरूप ................................. १४५ साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरका
निश्चयनयसे स्वरूपका कथन ...................... १६५
शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका खण्डन १६६
केवलज्ञानका स्वरूप ................................ १६७
केवलदर्शनके अभावमें सर्वज्ञता नहीं होती
शुद्ध-निश्चय-आवश्यककी प्राप्तिके उपायका
शुद्धोपयोगोन्मुख जीवको सीख .................... १४८ आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता
बाह्य तथा अन्तर जल्पका निरास ................ १५० स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान-
‘‘जीव ज्ञानस्वरूप है’’ ऐसा वितर्क
कथन............................................. १५१
परमवीतरागचारित्रमें स्थित परम तपोधनका
समस्त वचनसम्बन्धी व्यापारका निरास .......... १५३
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केवलज्ञानीको बन्धके अभावके स्वरूप
परमतत्त्वके स्वरूपका विशेष कथन .......... १८१
भगवान सिद्धके स्वभावगुणोंके स्वरूपका
केवली भट्टारकके मनरहितपने सम्बन्धी
सिद्धक्षेत्रसे ऊ पर जीव-पुद्गलोंके गमनका
शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके
कारणपरमतत्त्वके स्वरूपका कथन .............. १७७ निरुपाधिस्वरूप जिसका लक्षण है ऐसे
भव्यको सीख ........................................ १८६
शास्त्रके नाम कथन द्वारा शास्त्रका उपसंहार .. १८
सांसारिक विकारसमूहके अभावके कारण
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीनियमसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रीजिनं वा ।।१।।
[प्रथम, ग्रन्थके आदिमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित प्राकृतगाथाबद्ध इस ‘नियमसार’ नामक शास्त्रकी ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामक संस्कृत टीकाके रचयिता मुनि श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोकों द्वारा मंगलाचरणादि करते हैं : — ]
[श्लोेकार्थ : — ] हे परमात्मा ! तेरे होते हुए मैं अपने जैसे (संसारियों जैसे) मोहमुग्ध और कामवश बुद्धको तथा ब्रह्मा-विष्णु-महेशको क्यों पूजूँ ? (नहीं पूजूँगा ।)
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तर्काब्जार्कं भट्टपूर्वाकलंकम् ।
तद्विद्याढयं वीरनन्दिं व्रतीन्द्रम् ।।३।।
जिसने भवोंको जीता है उसकी मैं वन्दना करता हूँ — उसे प्रकाशमान ऐसे श्री जिन कहो, १सुगत कहो, २गिरिधर कहो, ३वागीश्वर कहो या ४शिव कहो ।१।
[श्लोेकार्थ : — ] ५वाचंयमीन्द्रोंका ( – जिनदेवोंका) मुखकमल जिसका वाहन है और दो नयोंके आश्रयसे सर्वस्व कहनेकी जिसकी पद्धति है उस वाणीको ( – जिनभगवन्तोंकी स्याद्वादमुद्रित वाणीको) मैं वन्दन करता हूँ ।२।
[श्लोेकार्थ : — ] उत्तम सिद्धान्तरूपी श्रीके पति सिद्धसेन मुनीन्द्रको, ६तर्क कमलके सूर्य भट्ट अकलंक मुनीन्द्रको, ७शब्दसिन्धुके चन्द्र पूज्यपाद मुनीन्द्रको और तद्विद्यासे ( – सिद्धान्तादि तीनोंके ज्ञानसे) समृद्ध वीरनन्दि मुनीन्द्रको मैं वन्दन करता हूँ ।३। १बुद्धको सुगत कहा जाता है । सुगत अर्थात् (१) शोभनीकताको प्राप्त, अथवा (२) सम्पूर्णताको प्राप्त ।
श्री जिनभगवान (१) मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण शोभनीकताको प्राप्त हैं, और (२) केवलज्ञानादिको प्राप्त कर लिया है इसलिये सम्पूर्णताको प्राप्त हैं; इसलिये उन्हें यहाँ सुगत कहा है । २कृष्णको गिरिधर (अर्थात् पर्वतको धारण कर रखनेवाले) कहा जाता है । श्री जिनभगवान अनंतवीर्यवान
होनेसे उन्हें यहाँ गिरिधर कहा है । ३ब्रह्माको अथवा बृहस्पतिको वागीश्वर (अर्थात् वाणीके अधिपति) कहा जाता है । श्री जिनभगवान
दिव्यवाणीके प्रकाशक होनेसे उन्हें यहाँ वागीश्वर कहा है । ४महेशको (शंकरको) शिव कहा जाता है । श्री जिनभगवान कल्याणस्वरूप होनेसे उन्हें यहाँ शिव
कहा गया है । ५वाचंयमीन्द्र = मुनियोंमें प्रधान अर्थात् जिनदेव; मौन सेवन करनेवालोंमें श्रेष्ठ अर्थात् जिनदेव; वाक्- संयमियोंमें इन्द्र समान अर्थात् जिनदेव [वाचंयमी = मुनि; मौन सेवन करनेवाले; वाणीके संयमी ।] ६तर्ककमलके सूर्य = तर्करूपी कमलको प्रफु ल्लित करनेमें सूर्य समान ७शब्दसिन्धुके चन्द्र = शब्दरूपी समुद्रको उछालनेमें चन्द्र समान
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[श्लोेकार्थ : — ] भव्योंके मोक्षके लिये तथा निज आत्माकी शुद्धिके हेतु नियमसारकी ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामक टीका मैं कहूँगा ।४।
[श्लोेकार्थ : — ] गुणके धारण करनेवाले गणधरोंसे रचित और श्रुतधरोंकी परम्परासे अच्छी तरह व्यक्त किये गये इस परमागमके अर्थसमूहका कथन करनेमें हम मंदबुद्धि सो कौन ? ।५।
[श्लोेकार्थ : — ] आजक ल हमारा मन परमागमके सारकी पुष्ट रुचिसे पुनः पुनः अत्यन्त प्रेरित हो रहा है । [उस रुचिसे प्रेरित होनेके कारण ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामकी यह टीका रची जा रही है ।] ।६।
[श्लोेकार्थ : — ] सूत्रकारने पहले पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थ तथा प्रत्याख्यानादि सत्क्रियाका कथन किया है (अर्थात् भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने इस शास्त्रमें प्रथम पाँच अस्तिकाय आदि और पश्चात् प्रत्याख्यानादि सत्क्रियाका कथन किया है ) ।७।
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विक्रान्तः; वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीरः — श्रीवर्धमान-सन्मतिनाथ
जाता है : —
गाथा : १ अन्वयार्थ : — [अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावं ] अनंत और उत्कृष्ट ज्ञानदर्शन जिनका स्वभाव है ऐसे ( – केवलज्ञानी और केवलदर्शनी) [ जिनं वीरं ] जिन वीरको [ नत्वा ] नमन करके [ केवलिश्रुतकेवलिभणितम् ] केवली तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ [ नियमसारं ] नियमसार [ वक्ष्यामि ] मैं कहूँगा ।
टीका : — यहाँ ‘जिनं नत्वा’ इस गाथासे शास्त्रके आदिमें असाधारण मंगल कहा है ।
‘नत्वा’ इत्यादि पदोंका तात्पर्य कहा जाता है : अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिकको जो जीत लेता है वह ‘जिन’ है । ‘वीर’ अर्थात् विक्रांत ( – पराक्रमी); वीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, वह ‘वीर’ है । ऐसे वीरको — जो कि श्री वर्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर – इन नामोंसे
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-महतिमहावीराभिधानैः सनाथः परमेश्वरो महादेवाधिदेवः पश्चिमतीर्थनाथः त्रिभुवनसचराचर- द्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनाभ्यां युक्तो यस्तं प्रणम्य वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः । कम्? नियमसारम् । नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते, नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म् । किंविशिष्टम् ? केवलिश्रुतकेवलि- भणितं — केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः, श्रुतकेवलिनः सकलद्रव्यश्रुतधरास्तैः केवलिभिः श्रुतकेवलिभिश्च भणितं — सकलभव्यनिकुरम्बहितकरं नियमसाराभिधानं परमागमं वक्ष्यामीति विशिष्टेष्टदेवतास्तवनानन्तरं सूत्रकृता पूर्वसूरिणा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुणा प्रतिज्ञातम् । इति सर्वपदानां तात्पर्यमुक्त म् ।
त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधैकराज्यः ।
समवसृतिनिवासः केवलश्रीनिवासः ।।८।।
युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं, अन्तिम तीर्थनाथ हैं, जो तीन भुवनके सचराचर, द्रव्य - गुण - पर्यायोंको एक समयमें जानने-देखनेमें समर्थ ऐसे सकलविमल ( – सर्वथा निर्मल) केवलज्ञानदर्शनसे संयुक्त हैं उन्हें — प्रणाम करके कहता हूँ । क्या कहता हूँ ? ‘नियमसार’ कहता हूँ । ‘नियम’ शब्द, प्रथम तो, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके लिये है । ‘नियमसार’ (‘नियमका सार’) ऐसा कहकर शुद्ध रत्नत्रयका स्वरूप कहा है । कैसा है वह ? केवलियों तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ है । ‘केवली’ वे सकलप्रत्यक्ष ज्ञानके धारण करनेवाले और ‘श्रुतकेवली’ वे सकल द्रव्यश्रुतके धारण करनेवाले; ऐसे केवलियों तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ, सकल भव्यसमूहको हितकर, ‘नियमसार’ नामका परमागम मैं कहता हूँ । इसप्रकार, विशिष्ट इष्टदेवताका स्तवन करके, फि र सूत्रकार पूर्वाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुने प्रतिज्ञा की ।
[अब पहली गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है :]
[श्लोेकार्थ : — ] शुद्धभाव द्वारा ✽मारका (कामका) जिन्होंने नाश किया है, तीन ✽ मार = (१) कामदेव; (२) हिंसा; (३) मरण ।
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मपुनर्भवपुरन्ध्रिकास्थूलभालस्थललीलालंकारतिलकता । द्विविधं किलैवं परमवीतरागसर्वज्ञशासने भुवनके जनोंको जो पूज्य हैं, पूर्ण ज्ञान जिनका एक राज्य है, देवोंका समाज जिन्हें नमन करता है, जन्मवृक्षका बीज जिन्होंने नष्ट किया है, समवसरणमें जिनका निवास है और केवलश्री ( – केवलज्ञानदर्शनरूपी लक्ष्मी) जिनमें वास करती है, वे वीर जगतमें जयवंत वर्तते हैं ।८ ।
गाथा : २ अन्वयार्थ : — [मार्गः मार्गफलम् ] मार्ग और मार्गफल [इति च द्विविधं ] ऐसे दो प्रकारका [जिनशासने ] जिनशासनमें [समाख्यातम् ] कथन किया गया है; [मार्गः मोक्षोपायः ] मार्ग मोक्षोपाय है और [तस्य फलं ] उसका फल [निर्वाणं भवति ] निर्वाण है ।
टीका : — यह, मोक्षमार्ग और उसके फलके स्वरूपनिरूपणकी सूचना ( – उन दोनोंके स्वरूपके निरूपणकी प्रस्तावना) है ।
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है )’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे, मार्ग तो शुद्धरत्नत्रय है और मार्गफल मुक्तिरूपी स्त्रीके विशाल भालप्रदेशमें शोभा-अलङ्काररूप तिलकपना है (अर्थात् मार्गफल मुक्तिरूपी स्त्रीको वरण करना है) । इस प्रकार वास्तवमें (मार्ग और मार्गफल ऐसा) दो प्रकारका, चतुर्थज्ञानधारी ( – मनःपर्ययज्ञानके धारण करनेवाले) पूर्वाचार्योंने परमवीतराग
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चतुर्थज्ञानधारिभिः पूर्वसूरिभिः समाख्यातम् । परमनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्- श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धरत्नत्रयात्मकमार्गो मोक्षोपायः, तस्य शुद्धरत्नत्रयस्य फलं स्वात्मोपलब्धिरिति ।
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः ।
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः ।।9।।
सर्वज्ञके शासनमें कथन किया है । निज परमात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप ❃
स्वात्मोपलब्धि ( – निज शुद्ध आत्माकी प्राप्ति) है ।
[अब दूसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] मनुष्य कभी कामिनीके प्रति रतिसे उत्पन्न होनेवाले सुखकी ओर गति करता है और फि र कभी धनरक्षाकी बुद्धि करता है । जो पण्डित कभी जिनवरके मार्गको प्राप्त करके निज आत्मामें रत हो जाते हैं, वे वास्तवमें इस मुक्तिको प्राप्त होते हैं ।९। ✽ शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निज परमात्मतत्त्वकी सम्यक् श्रद्धा, उसका सम्यक् ज्ञान और उसका सम्यक् आचरण
फल शुद्ध आत्माकी पूर्ण प्राप्ति अर्थात् मोक्ष है ।
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परिणामः स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् । ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्ते : सकाशात् निज-
गाथा : ३ अन्वयार्थ : — [सः नियमः ] नियम अर्थात् [नियमेन च ] नियमसे (निश्चित) [यत् कार्यं ] जो करनेयोग्य हो वह अर्थात् [ज्ञानदर्शनचारित्रम् ] ज्ञानदर्शनचारित्र । [विपरीतपरिहारार्थं ] विपरीतके परिहार हेतुसे (ज्ञानदर्शनचारित्रसे विरुद्ध भावोंका त्याग करनेके लिये) [खलु ] वास्तवमें [सारम् इति वचनम् ] ‘सार’ ऐसा वचन [भणितम् ] कहा है
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), ‘नियम’ शब्दको ‘सार’ शब्द क्यों लगाया है उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप कहा है ।
जो सहज १परम पारिणामिक भावसे स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक २शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम सो ३नियम ( – कारणनियम) है । नियम ( – कार्यनियम) अर्थात् निश्चयसे (निश्चित) जो करनेयोग्य — प्रयोजनस्वरूप — हो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र । उन तीनोंमेंसे प्रत्येकका स्वरूप कहा जाता है : (१) परद्रव्यका अवलंबन लिये बिना १- इस परम पारिणामिक भावमें ‘पारिणामिक’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित
निरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है । [विशेषके लिये हिन्दी समयसार गा० ३२०
श्री जयसेनाचार्यदेवकी संस्कृत टीका और बृहदद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टीका देखो ।] २- इस शुद्धज्ञानचेतनापरिणाममें ‘परिणाम’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित करनेके
लिये नहीं है और पर्यायार्थिक नयका विषय नहीं है; यह शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम तो उत्पादव्ययनिरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है । ३- यह नियम सो कारणनियम है, क्योंकि वह सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप कार्यनियमका कारण है ।
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परमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति । दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्य शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति । चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियम- शब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति ।
निःशेषरूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमेंसे उपादेय ( – उपयोगको सम्पूर्णरूपसे अन्तर्मुख करके ग्रहण करनेयोग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्वका परिज्ञान ( – जानना) सो ज्ञान है । (२) भगवान परमात्माके सुखके अभिलाषी जीवको शुद्ध अन्तःतत्त्वके १विलासका जन्मभूमिस्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है । (३) निश्चयज्ञानदर्शनात्मक कारणपरमात्मामें अविचल स्थिति ( – निश्चलरूपसे लीन रहना) ही चारित्र है । यह ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप नियम निर्वाणका २कारण है । उस ‘नियम’ शब्दको ३विपरीतके परिहार हेतु ‘सार’ शब्द जोड़ा गया है ।
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार मैं विपरीत रहित ( – विकल्परहित) ४अनुत्तम रत्नत्रयका आश्रय करके मुक्तिरूपी स्त्रीसे उत्पन्न अनङ्ग ( – अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक) सुखको प्राप्त करता हूँ ।१०। १- विलास=क्रीड़ा, आनन्द, मौज । २- कारण जैसा ही कार्य होता है; इसलिये स्वरूपमें स्थिरता करनेका अभ्यास ही वास्तवमें अनन्त काल
३- विपरीत=विरुद्ध । [व्यवहाररत्नत्रयरूप विकल्पोंको — पराश्रित भावोंको — छोड़कर मात्र निर्विकल्प
४- अनुत्तम=जिससे उत्तम कोई दूसरा नहीं है ऐसा; सर्वोत्तम; सर्वश्रेष्ठ ।
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परिणतिस्तस्य महानन्दस्योपायः । अपि चैषां ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणां प्रत्येकप्ररूपणा भवति । कथम्, इदं ज्ञानमिदं दर्शनमिदं चारित्रमित्यनेन विकल्पेन । दर्शनज्ञानचारित्राणां लक्षणं वक्ष्यमाणसूत्रेषु ज्ञातव्यं भवति ।
गाथा : ४ अन्वयार्थ : — [नियमः ] (रत्नत्रयरूप) नियम [मोक्षोपायः ] मोक्षका उपाय है; [तस्य फलं ] उसका फल [परमनिर्वाणं भवति ] परम निर्वाण है । [अपि च ] पुनश्च (भेदकथन द्वारा अभेद समझानेके हेतु) [एतेषां त्रयाणां ] इन तीनोंका [प्रत्येकप्ररूपणा ] भेद करके भिन्न-भिन्न निरूपण [भवति ] होता है ।
टीका : — रत्नत्रयके भेद करनेके सम्बन्धमें और उनके लक्षणोंके सम्बन्धमें यह कथन है ।
समस्त कर्मोंके नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा आनन्दका लाभ सो मोक्ष है । उस महा आनन्दका उपाय पूर्वोक्त निरुपचार रत्नत्रयरूप परिणति है । पुनश्च (निरुपचार रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमें अन्तर्भूत रहे हुए) इन तीनका — ज्ञान, दर्शन और चारित्रका — भिन्न-भिन्न निरूपण होता है । किस प्रकार ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है — इसप्रकार भेद करके । (इस शास्त्रमें) जो गाथासूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें दर्शन-ज्ञान-चारित्रके लक्षण ज्ञात होंगे ।
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ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं द्रष्टिरन्याऽपि नैव ।
बुद्धवा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुः स भव्यः ।।११।।
विनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुरवचनसन्दर्भः । तत्त्वानि च बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्व-
[श्लोेकार्थ : — ] मुनियोंको मोक्षका उपाय शुद्धरत्नत्रयात्मक (शुद्धरत्नत्रय- परिणतिरूप परिणमित) आत्मा है । ज्ञान इससे कोई अन्य नहीं है, दर्शन भी इससे अन्य नहीं है और शील (चारित्र) भी अन्य नहीं है । — यह, मोक्षको प्राप्त करनेवालोंने (अर्हन्तभगवन्तोंने) कहा है । इसे जानकर जो जीव माताके उदरमें पुनः नहीं आता, वह भव्य है ।११।
गाथा : ५ अन्वयार्थ : — [आप्तागमतत्त्वानां ] आप्त, आगम और तत्त्वोंकी [श्रद्धानात् ] श्रद्धासे [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व [भवति ] होता है; [व्यपगताशेषदोषः ] जिसके अशेष (समस्त) दोष दूर हुए हैं ऐसा जो [सक लगुणात्मा ] सकलगुणमय पुरुष [आप्तः भवेत् ] वह आप्त है ।
आप्त अर्थात् शंकारहित । शंका अर्थात् सकल मोहरागद्वेषादिक (दोष) । आगम अर्थात् आप्तके मुखारविन्दसे निकली हुई, समस्त वस्तुविस्तारका स्थापन करनेमें समर्थ ऐसी
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चतुर वचनरचना । तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्मतत्त्व ऐसे (दो) भेदोंवाले हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदोंके कारण सात प्रकारके हैं । उनका ( – आप्तका, आगमका और तत्त्वका) सम्यक् श्रद्धान सो व्यवहारसम्यक्त्व है ।
[श्लोेकार्थ : — ] भवके भयका भेदनकरनेवाले इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है ? तो तू भवसमुद्रके मध्यमें रहनेवाले मगरके मुखमें है ।१२।
गाथा : ६ अन्वयार्थ : — [क्षुधा ] क्षुधा, [तृष्णा ] तृषा, [भयं ] भय, [रोषः ] रोष (क्रोध), [रागः ] राग, [मोहः ] मोह, [चिन्ता ] चिन्ता, [जरा ] जरा, [रुजा ] रोग, [मृत्युः ] मृत्यु, [स्वेदः ] स्वेद (पसीना), [खेदः ] खेद, [मदः ] मद, [रतिः ] रति, [विस्मयनिद्रे ] विस्मय, निद्रा, [जन्मोद्वेगौ ] जन्म और उद्वेग — (यह अठारह दोष हैं ) ।
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समुपजाता तृषा । इहलोकपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदनाकस्मिकभेदात् सप्तधा भवति भयम् । क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च; दानशीलोपवासगुरुजनवैयावृत्त्या- दिसमुद्भवः प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्त विकथालापाकर्णनकौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः । चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं
(१) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र अथवा मंद क्लेशकी करनेवाली वह क्षुधा है (अर्थात् विशिष्ट — खास प्रकारके — असातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष जाकर मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो खानेकी इच्छारूप दुःख वह क्षुधा है) । (२) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र, तीव्रतर ( – अधिक तीव्र), मन्द अथवा मन्दतर पीड़ासे उत्पन्न होनेवाली वह तृषा है (अर्थात् विशिष्ट असातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष जाक र करनेसे मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो पीनेकी इच्छारूप दुःख वह तृषा है) । (३) इस लोकका भय, परलोकका भय, अरक्षाभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय तथा अकस्मातभय इसप्रकार भय सात प्रकारके हैं । (४) क्रोधी पुरुषका तीव्र परिणाम वह रोष है । (५) राग प्रशस्त और अप्रशस्त होता है; दान, शील, उपवास तथा गुरुजनोंकी वैयावृत्त्य आदिमें उत्पन्न होनेवाला वह प्रशस्त राग है और स्त्री सम्बन्धी, राजा सम्बन्धी, चोर सम्बन्धी तथा भोजन सम्बन्धी विकथा कहने तथा सुननेके कौतूहलपरिणाम वह अप्रशस्त राग है । (६)१चार प्रकारके श्रमणसंघके प्रति वात्सल्य सम्बन्धी मोह वह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त ही है । (७) धर्मरूप तथा शुक्लरूप चिन्तन ( – चिन्ता, विचार) प्रशस्त है और उसके अतिरिक्त (आर्तरूप तथा रौद्ररूप चिन्तन) अप्रशस्त ही है । (८) तिर्यंचों तथा मनुष्योंको वयकृत देहविकार १ श्रमणके चार प्रकार इसप्रकार हैंः — (१) ऋषि, (२) मुनि, (३) यति और (४) अनगार । ऋद्धिवाले
क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ श्रमण वे यति हैं; और सामान्य साधु वे अनगार हैं । — ऐसे चार प्रकारका श्रमणसंघ