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चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः
पुद्गलविकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है
करना ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं ) :
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स्वभाव है
परमाणुओंका बन्ध
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नहीं बँधता
साथ जुड़ा हुआ बँधता है
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पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि
स्वस्यात्मैव परमाणुः
(अर्थात् जिसके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें परमाणुका निज स्वरूप ही है ), [न एव
इन्द्रियैः ग्राह्यम् ] जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य (
निज स्वरूपसे अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचमभावकी अपेक्षासे परमाणुद्रव्यका
परमस्वभाव होनेसे परमाणु स्वयं ही अपनी परिणतिका आदि है, स्वयं ही अपनी परिणतिका
मध्य है और स्वयं ही अपना अन्त भी है (अर्थात् आदिमें भी स्वयं ही, मध्यमें भी स्वयं
ही और अन्तमें भी परमाणु स्वयं ही है, कभी निज स्वरूपसे च्युत नहीं है)
अविभागी है उसे, हे शिष्य ! तू परमाणु जान
सिद्धभगवन्त अपने चैतन्यात्मक स्वरूपमें क्यों नहीं रहेंगे ? (अवश्य रहेंगे
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मष्टानामन्त्यचतुःस्पर्शाविरोधस्पर्शनद्वयम्; एते परमाणोः स्वभावगुणाः जिनानां मते
स्वभावगुणवाला [भवेत् ] है; [विभावगुणः ] विभावगुणवालेको [जिनसमये ]
गंध; कठोर, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध (चिकना) और रूक्ष (रूखा)
इन आठ स्पर्शोंमेंसे अन्तिम चार स्पर्शोंमेंके अविरुद्ध दो स्पर्श; यह, जिनोंके मतमें परमाणुके
स्वभावगुण हैं
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न्निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः
सदैव सर्वसे भिन्न, शुद्ध एक द्रव्य है )
अपने गुणोंमें ही है, तो फि र उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता);
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व्यवहारनयात्मकः
[पुनः ] और [स्कन्धस्वरूपेण परिणामः] स्कन्धरूप परिणाम [सः ] वह
[विभावपर्यायः ] विभावपर्याय है
सादि-सान्त होने पर भी परद्रव्यसे निरपेक्ष होनेके कारण शुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक है
अथवा एक समयमें भी उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होनेसे सूक्ष्मऋृजुसूत्रनयात्मक है
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सति न च परमाणोः स्कन्धपर्यायशब्दः
न च भवति यथेयं सोऽपि नित्यं तथैव
उसीप्रकार परमाणु भी सदा अशब्द ही होता है (अर्थात् परमाणुको भी कभी शब्द नहीं
होता)
[स्कन्धस्य ] स्कन्धको [पुद्गलद्रव्यम् इति व्यपदेशः ] ‘पुद्गलद्रव्य’ ऐसा नाम [भवति ]
होता है
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त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ
सचेतने वा परमात्मतत्त्वे
भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम्
रहित) चित्चमत्कारमात्र परमतत्त्वको भजो
जिनका योग परिपक्व हुआ है उनको नहीं होती)
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विमुक्त स्य मुक्ति वामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशा-
वासपंचविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतुः धर्मः, अपि च षट्कापक्रम-
स्थितिका निमित्त है; [आकाशं ] आकाश [जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ] जीवादि सर्व द्रव्योंको
[अवगाहनस्य ] अवगाहनका निमित्त है
कहनेमें आता है
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लोकमात्र आकारवाला (
धर्मद्रव्यको शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं
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यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम्
प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः
सबको सम्यक् द्रव्यरूपसे अवलोककर (
वर्तमान और भविष्यके भेदसे) तीन भेद हैं
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ऋतुका अयन और दो अयनका वर्ष होता है
बराबर है
कहा है
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दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एषः
निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय
कालसे मुझे कुछ फल नहीं है
[लोकाकाशे संति ] जो (कालाणु) लोकाकाशमें हैं, [सः ] वह [परमार्थः कालः भवेत् ]
परमार्थ काल है
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है
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(शून्यका) प्रसंग आयेगा
निमित्त है । उसके बिना, पाँच अस्तिकायोंको वर्तना (
प्रतीति हो सकती है )
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विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत
भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः
लक्षण वर्तनाहेतुत्व है) ऐसा यहाँ कहा है
होतीं हैं
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(जिनदर्शनमें) [अस्तिकायाः इति ] ‘अस्तिकाय’ [निर्दिष्टाः ] कहे गये हैं
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महासत्ता है, प्रतिनियत एक रूपमें व्याप्त होनेवाली वह अवान्तरसत्ता है; अनन्त पर्यायोंमें
व्याप्त होनेवाली वह महासत्ता है, प्रतिनियत एक पर्यायमें व्याप्त होनेवाली वह अवान्तरसत्ता
है
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[पुनः जीवस्य ] तथा जीवको [खलु ] वास्तवमें [असंख्यातप्रदेशाः ] असंख्यात प्रदेश हैं
हैं । [कालस्य ] कालको [कायत्वं न ] कायपना नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [एकप्रदेशः ]
वह एकप्रदेशी [भवेत् ] है