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चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।’’
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३८।।
पुद्गलविकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।’’
और (इन गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विविध प्रकारके पुद्गलोंमें रति न करके चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामें रति करना ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार विविध भेदोंवाला पुद्गल दिखाई देने पर, हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम !) तू उसमें रतिभाव न कर । चैतन्यचमत्कारमात्रमें (अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामें) तू अतुल रति कर कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होगा ।३८।
गाथा : २५ अन्वयार्थ : — [पुनः ] फि र [यः ] जो [धातुचतुष्कस्य ] (पृथ्वी, जल, तेज और वायु — इन) चार धातुओंका [हेतुः ] हेतु है, [सः ] वह [कारणम् इति ज्ञेयः ] कारणपरमाणु जानना; [स्कन्धानाम् ] स्कन्धोंके [अवसानः ] अवसानको ( – पृथक्
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परमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः । स्निग्धरूक्षगुणा- नामनन्तत्वस्योपरि द्वाभ्याम् चतुर्भिः समबन्धः त्रिभिः पञ्चभिर्विषमबन्धः । अयमुत्कृष्ट- परमाणुः । गलतां पुद्गलद्रव्याणाम् अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणुः । अणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्टभेदैः । तस्य परमाणुद्रव्यस्य स्वरूपस्थितत्वात् विभावाभावात् परमस्वभाव इति ।
तथा चोक्तं प्रवचनसारे — हुए अविभागी अन्तिम अंशको) [कार्यपरमाणुः ] कार्यपरमाणु [ज्ञातव्य: ] जानना ।
पृथ्वी, जल, तेज और वायु यह चार धातुएँ हैं; उनका जो हेतु है वह कारणपरमाणु है । वही (परमाणु), एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होनेसे, सम या विषम बन्धके अयोग्य ऐसा जघन्य परमाणु है — ऐसा अर्थ है । एक गुण स्निग्धता या रूक्षताके ऊ पर, दो गुणवालेका और चार गुणवालेका ❃समबन्ध होता है तथा तीन गुणवालेका और पाँच गुणवालेका ❃विषमबन्ध होता है, — यह उत्कृष्ट परमाणु है । गलते अर्थात् पृथक् होते पुद्गलद्रव्योंके अन्तमें — अवसानमें (अन्तिम दशामें) स्थित वह कार्यपरमाणु है (अर्थात् स्कन्ध खण्डित होते - होते जो छोटेसे छोटा अविभाग भाग रहता है वह कार्यपरमाणु है ) । (इसप्रकार) अणुओंके ( – परमाणुओंके) चार भेद हैं : कार्य, कारण, जघन्य और उत्कृष्ट । वह परमाणुद्रव्य स्वरूपमें स्थित होनेसे उसे विभावका अभाव है, इसलिये (उसे) परम स्वभाव है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (१६५वीं तथा १६६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : — ❃समबन्ध अर्थात् सम संख्याके गुणवाले परमाणुओंका बन्ध और विषमबन्ध अर्थात् विषम संख्याके गुणवाले परमाणुओंका बन्ध । यहाँ (टीकामें) समबन्ध और विषमबन्धका एक – एक उदाहरण दिया है तदनुसार
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‘‘[गाथार्थः — ] परमाणु – परिणाम, स्निग्ध हों या रूक्ष हों, सम अंशवाले हों या विषम अंशवाले हों, यदि समानसे दो अधिक अंशवाले हों तो बँधते हैं; जघन्य अंशवाला नहीं बँधता ।
स्निग्धरूपसे दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध (अथवा रूक्ष) परमाणुके साथ बन्धका अनुभव करता है; अथवा रूक्षतासे तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवालेके साथ जुड़ा हुआ बँधता है ।’’
और (२५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा पुद्गलकी उपेक्षा करके शुद्ध आत्माकी भावना करते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] उन छह प्रकारके स्कंधों या चार प्रकारके अणुओंके साथ मुझे क्या है ? मैं तो अक्षय शुद्ध आत्माको पुनः पुनः भाता हूँ । ३९ ।
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भावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्त म्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणुः । अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि ।
[आत्ममध्यम् ] स्वयं ही जिसका मध्य है और [आत्मान्तम् ] स्वयं ही जिसका अन्त है (अर्थात् जिसके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें परमाणुका निज स्वरूप ही है ), [न एव इन्द्रियैः ग्राह्यम् ] जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य ( – जाननेमें आने योग्य) नहीं है और [यद् अविभागि] जो अविभागी है, [तत् ] वह [परमाणुं द्रव्यं ] परमाणुद्रव्य [विजानीहि ] जान ।
जिसप्रकार सहज परम पारिणामिकभावकी विवक्षाका आश्रय करनेवाले सहज निश्चयनयकी अपेक्षासे नित्य और अनित्य निगोदसे लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जीवोंका निज स्वरूपसे अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचमभावकी अपेक्षासे परमाणुद्रव्यका परमस्वभाव होनेसे परमाणु स्वयं ही अपनी परिणतिका आदि है, स्वयं ही अपनी परिणतिका मध्य है और स्वयं ही अपना अन्त भी है (अर्थात् आदिमें भी स्वयं ही, मध्यमें भी स्वयं ही और अन्तमें भी परमाणु स्वयं ही है, कभी निज स्वरूपसे च्युत नहीं है) । जो ऐसा होनेसे, इन्द्रियज्ञानगोचर न होनेसे और पवन, अग्नि इत्यादि द्वारा नाशको प्राप्त न होनेसे, अविभागी है उसे, हे शिष्य ! तू परमाणु जान ।
[अब २६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] जड़ात्मक पुद्गलकी स्थिति स्वयंमें ( – पुद्गलमें ही) जानकर (अर्थात् जड़स्वरूप पुद्गल पुद्गलके निज स्वरूपमें ही रहते हैं ऐसा जानकर), वे सिद्धभगवन्त अपने चैतन्यात्मक स्वरूपमें क्यों नहीं रहेंगे ? (अवश्य रहेंगे ।) ४०।
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कृष्णवर्णेष्वेकवर्णः, सुगन्धदुर्गन्धयोरेकगंधः, कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाभिधाना- मष्टानामन्त्यचतुःस्पर्शाविरोधस्पर्शनद्वयम्; एते परमाणोः स्वभावगुणाः जिनानां मते । विभावगुणात्मको विभावपुद्गलः । अस्य द्वयणुकादिस्कंधरूपस्य विभावगुणाः सकल- करणग्रामग्राह्या इत्यर्थः ।
गाथा : २७ अन्वयार्थ : — [एकरसरूपगन्धः ] जो एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और [द्विस्पर्शः ] दो स्पर्शवाला हो, [सः ] वह [स्वभावगुणः ] स्वभावगुणवाला [भवेत् ] है; [विभावगुणः ] विभावगुणवालेको [जिनसमये ] १जिनसमयमें [सर्वप्रकटत्वम् ] सर्व प्रगट (सर्व इन्द्रियोंसे ग्राह्य) [इति भणितः ] कहा है ।
चरपरा, कड़वा, कषायला, खट्टा और मीठा इन पाँच रसोंमेंसे एक रस; सफे द, पीला, हरा, लाल और काला इन (पाँच) वर्णोंमेंसे एक वर्ण; सुगन्ध और दुर्गंधमेंकी एक गंध; कठोर, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध (चिकना) और रूक्ष (रूखा) इन आठ स्पर्शोंमेंसे अन्तिम चार स्पर्शोंमेंके अविरुद्ध दो स्पर्श; यह, जिनोंके मतमें परमाणुके स्वभावगुण हैं । विभावपुद्गल विभावगुणात्मक होता है । यह २द्वि-अणुकादिस्कन्धरूप विभावपुद्गलके विभावगुण सकल इन्द्रियसमूह द्वारा ग्राह्य (जाननेमें आने योग्य) हैं । — ऐसा (इस गाथाका) अर्थ है । १ – समय = सिद्धान्त; शास्त्र; शासन; दर्शन; मत । २ – दो परमाणुओंसे लेकर अनन्त परमाणुओंका बना हुआ स्कन्ध वह विभावपुद्गल है ।
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न्निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः ।
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः ।।४१।।
इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमयमें (८१वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थः — ] एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और दो स्पर्शवाला वह परमाणु शब्दका कारण है, अशब्द है और स्कन्धके भीतर हो तथापि द्रव्य है (अर्थात् सदैव सर्वसे भिन्न, शुद्ध एक द्रव्य है ) ।’’
स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध तथा एक रस समझना, अन्य नहीं ।’’
और (२७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा भव्य जनोंको शुद्ध आत्माकी भावनाका उपदेश करते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] यदि परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशते (ज्ञात होते) निज गुणसमूहमें हैं, तो उसमें मेरी (कोई) कार्यसिद्धि नहीं है, (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध आदि अपने गुणोंमें ही है, तो फि र उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता); — इसप्रकार निज हृदयमें मानकर परम सुखपदका अर्थी भव्यसमूह शुद्ध आत्माको एकको भाये ।४१।
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हानिवृद्धिरूपः अतिसूक्ष्मः अर्थपर्यायात्मकः सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूत- व्यवहारनयात्मकः । अथवा हि एकस्मिन् समयेऽप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वात्सूक्ष्मऋजुसूत्र- नयात्मकः । स्कन्धपर्यायः स्वजातीयबन्धलक्षणलक्षितत्वादशुद्ध इति ।
गाथा : २८ अन्वयार्थ : — [अन्यनिरपेक्षः ] अन्यनिरपेक्ष (अन्यकी अपेक्षा रहित) [यः परिणामः ] जो परिणाम [सः ] वह [स्वभावपर्यायः ] स्वभावपर्याय है [पुनः ] और [स्कन्धस्वरूपेण परिणामः] स्कन्धरूप परिणाम [सः ] वह [विभावपर्यायः ] विभावपर्याय है ।
परमाणुपर्याय पुद्गलकी शुद्धपर्याय है — जो कि परमपारिणामिकभावस्वरूप है, वस्तुमें होनेवाली छह प्रकारकी हानिवृद्धिरूप है, अतिसूक्ष्म है, अर्थपर्यायात्मक है और सादि-सान्त होने पर भी परद्रव्यसे निरपेक्ष होनेके कारण शुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक है अथवा एक समयमें भी उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होनेसे सूक्ष्मऋृजुसूत्रनयात्मक है ।
कहते हैं :]
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सति न च परमाणोः स्कन्धपर्यायशब्दः ।
न च भवति यथेयं सोऽपि नित्यं तथैव ।।४२।।
व्यवहारनयेन विभावपर्यायात्मनां स्कन्धपुद्गलानां पुद्गलत्वमुपचारतः सिद्धं भवति ।
[श्लोेकार्थ : — ] (परमाणु) परपरिणतिसे दूर शुद्धपर्यायरूप होनेसे परमाणुको स्कन्धपर्यायरूप शब्द नहीं होता; जिसप्रकार भगवान जिननाथमें कामदेवकी वार्ता नहीं होती, उसीप्रकार परमाणु भी सदा अशब्द ही होता है (अर्थात् परमाणुको भी कभी शब्द नहीं होता) ।४२।
गाथा : २९ अन्वयार्थ : — [निश्चयेन ] निश्चयसे [परमाणुः ] परमाणुको [पुद्गल- द्रव्यम् ] ‘पुद्गलद्रव्य’ [उच्यते ] कहा जाता है [पुनः ] और [इतरेण ] व्यवहारसे [स्कन्धस्य ] स्कन्धको [पुद्गलद्रव्यम् इति व्यपदेशः ] ‘पुद्गलद्रव्य’ ऐसा नाम [भवति ] होता है ।
शुद्धनिश्चयनयसे स्वभावशुद्धपर्यायात्मक परमाणुको ही ‘पुद्गलद्रव्य’ ऐसा नाम होता है । अन्य ऐसे व्यवहारनयसे विभावपर्यायात्मक स्कन्धपुद्गलोंको पुद्गलपना उपचार द्वारा
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त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च ।
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ ।।४३।।
सचेतने वा परमात्मतत्त्वे ।
भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम् ।।४५।।
सिद्ध होता है ।
[अब २९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार जिनपतिके मार्ग द्वारा तत्त्वार्थसमूहको जानकर पर ऐसे समस्त चेतन और अचेतनको त्यागो; अन्तरंगमें निर्विकल्प समाधिमें परविरहित (परसे रहित) चित्चमत्कारमात्र परमतत्त्वको भजो ।४३।
[श्लोेकार्थ : — ] पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है ऐसी जो कल्पना वह भी प्राथमिकोंको (प्रथम भूमिकावालोंको) होती है, निष्पन्न योगियोंको नहीं होती (अर्थात् जिनका योग परिपक्व हुआ है उनको नहीं होती) ।४४।
[श्लोेकार्थ : — ] (शुद्ध दशावाले यतियोंको) इस अचेतन पुद्गलकायमें द्वेषभाव नहीं होता या सचेतन परमात्मतत्त्वमें रागभाव नहीं होता; — ऐसी शुद्ध दशा यतियोंकी होती है ।४५।
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परिणतस्यायोगिनः पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्य भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षट्कापक्रम- विमुक्त स्य मुक्ति वामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशा- वासपंचविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतुः धर्मः, अपि च षट्कापक्रम-
गाथा : ३० अन्वयार्थ : — [धर्मः ] धर्म [जीवपुद्गलानां ] जीव-पुद्गलोंको [गमननिमित्तः ] गमनका निमित्त है [च ] और [अधर्मः ] अधर्म [स्थितेः ] (उन्हें) स्थितिका निमित्त है; [आकाशं ] आकाश [जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ] जीवादि सर्व द्रव्योंको [अवगाहनस्य ] अवगाहनका निमित्त है ।
यह धर्मास्तिकाय, बावड़ीके पानीकी भाँति, स्वयं गतिक्रियारहित है । मात्र (अ, इ, उ, ऋ, लृ — ऐसे) पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण जितनी जिनकी स्थिति है, जो ‘सिद्ध’ नामके योग्य हैं, जो छह १अपक्रमसे विमुक्त हैं, जो मुक्तिरूपी सुलोचनाके लोचनका विषय हैं (अर्थात् जिन्हें मुक्तिरूपी सुन्दरी प्रेमसे निहारती है ), जो त्रिलोकरूपी २शिखरीके शिखर हैं, जिन्होंने समस्त क्लेशके घररूप पंचविध संसारको ( – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके परावर्तनरूप पाँच प्रकारके संसारको) दूर किया है और जो पंचमगतिकी सीमा पर १ – संसारी जीवोंको अन्य भवमें उत्पन्न होनेके समय ‘छह दिशाओंमें गमन’ होता है उसे ‘छह अपक्रम’ कहनेमें आता है । २ – शिखरी = शिखरवन्त; पर्वत ।
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युक्तानां संसारिणां विभावगतिक्रियाहेतुश्च । यथोदकं पाठीनानां गमनकारणं तथा तेषां जीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः । सोऽयममूर्तः अष्टस्पर्शनविनिर्मुक्त : वर्णरसपंचकगंध- द्वितयविनिर्मुक्त श्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधारः लोकमात्राकारः अखण्डैकपदार्थः । सहभुवोः गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोर्धर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणाः शुद्धपर्याया भवन्ति । अधर्मद्रव्यस्य स्थितिहेतुर्विशेषगुणः । अस्यैव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति । आकाशस्यावकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः । इतरे धर्माधर्मयोर्गुणाः स्वस्यापि सद्रशा इत्यर्थः । लोकाकाशधर्माधर्माणां समानप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति । हैं — ऐसे अयोगी भगवानको स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणमित होने पर ❃
❃
वह धर्म उन जीव - पुद्गलोंको गमनका कारण (निमित्त) है । वह धर्म अमूर्त, आठ स्पर्श रहित, तथा पाँच वर्ण, पाँच रस और दो गंध रहित, अगुरुलघुत्वादि गुणोंके आधारभूत, लोकमात्र आकारवाला ( – लोकप्रमाण आकारवाला), अखण्ड एक पदार्थ है । ‘‘सहभावी गुण हैं और क्रमवर्ती पर्यायें हैं’’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे गतिके हेतुभूत इस धर्मद्रव्यको शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं ।
अधर्मद्रव्यका विशेषगुण स्थितिहेतुत्व है । इस अधर्मद्रव्यके (शेष) गुण-पर्यायों जैसे उस धर्मास्तिकायके (शेष) सर्व गुण - पर्याय होते हैं ।
आकाशका, अवकाशदानरूप लक्षण ही विशेषगुण है । धर्म और अधर्मके शेष गुण आकाशके शेष गुणों जैसे भी हैं ।
(यहाँ ऐसा ध्यानमें रखना कि) लोकाकाश, धर्म और अधर्म समान प्रमाणवाले होनेसे कहीं अलोकाकाशको न्यूनता — छोटापन नहीं है ( – अलोकाकाश तो अनन्त है) ।
[अब ३०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ] ❃ – स्वभावगतिक्रिया तथा विभावगतिक्रियाका अर्थ पृष्ठ – २३ पर देखें । १ – अपक्रमका अर्थ देखो पृष्ठ ६३में फु टनोट ।
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यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम् ।
प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ।।४६।।
व्यवहारकालः । ताद्रशैरसंख्यातसमयैः निमिषः, अथवा नयनपुटघटनायत्तो निमेषः ।
[श्लोेकार्थ : — ] यहाँ ऐसा आशय है कि — जो (द्रव्य) गमनका निमित्त है, जो (द्रव्य) स्थितिका कारण है, और दूसरा जो (द्रव्य) सर्वको स्थान देनेमें प्रवीण है, उन सबको सम्यक् द्रव्यरूपसे अवलोककर ( – यथार्थतः स्वतंत्र द्रव्य रूपसे समझकर) भव्यसमूह सर्वदा निज तत्त्वमें प्रवेश करो । ४६ ।
गाथा : ३१ अन्वयार्थ : — [समयावलिभेदेन तु ] समय और आवलिके भेदसे [द्विविकल्पः ] व्यवहारकालके दो भेद हैं [अथवा ] अथवा [त्रिविकल्पः भवति ] (भूत, वर्तमान और भविष्यके भेदसे) तीन भेद हैं । [अतीतः ] अतीत काल [संख्यातावलिहत- संस्थानप्रमाणः तु ] (अतीत) संस्थानोंके और संख्यात आवलिके गुणाकार जितना है ।
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निमेषाष्टकैः काष्ठा । षोडशभिः काष्ठाभिः कला । द्वात्रिंशत्कलाभिर्घटिका । षष्टिनालिकमहोरात्रम् । त्रिंशदहोरात्रैर्मासः । द्वाभ्याम् मासाभ्याम् ऋतुः । ऋतु- भिस्त्रिभिरयनम् । अयनद्वयेन संवत्सरः । इत्यावल्यादिव्यवहारकालक्रमः । इत्थं समयावलिभेदेन द्विधा भवति, अतीतानागतवर्तमानभेदात् त्रिधा वा । अतीतकालप्रपंचो- ऽयमुच्यते — अतीतसिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकालः स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सद्रशत्वादनन्तः । अनागतकालो- ऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तैः सद्रश इत्यामुक्ते : मुक्ते : सकाशादित्यर्थः ।
तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये — काल वह समयरूप व्यवहारकाल है । ऐसे असंख्य समयोंका निमिष होता है, अथवा आँख मिंचे उतना काल वह निमेष है । आठ निमेषकी काष्ठा होती है । सोलह काष्ठाकी कला, बत्तीस कलाकी घड़ी, साँठ घड़ीका अहोरात्र, तीस अहोरात्रका मास, दो मासकी ऋतु, तीन ऋतुका अयन और दो अयनका वर्ष होता है । ऐसे आवलि आदि व्यवहारकालका क्रम है । इसप्रकार व्यवहारकाल समय और आवलिके भेदसे दो प्रकारका है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमानके भेदसे तीन प्रकारका है ।
यह (निम्नोक्तानुसार), अतीत कालका विस्तार कहा जाता है : अतीत सिद्धोंको सिद्धपर्यायके १प्रादुर्भावसमयसे पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल वह, उन्हें संसार - दशामें जितने संस्थान बीत गये उनके २जितना होनेसे अनन्त है । (अनागत सिद्धोंको मुक्ति होने तकका) अनागत काल भी अनागत सिद्धोंके जो मुक्तिपर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है ।
गाथा द्वारा) कहा है कि : — १ – प्रादुर्भाव = प्रगट होना वह; उत्पन्न होना वह । २ – सिद्धभगवानको अनन्त शरीर बीत गये हैं; उन शरीरोंकी अपेक्षा संख्यातगुनी आवलियाँ बीत गई हैं ।
कहा है ।
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दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एषः ।
निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय ।।४७।।
‘‘[गाथार्थः — ] समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष — इसप्रकार पराश्रित काल ( – जिसमें परकी अपेक्षा आती है ऐसा व्यवहारकाल) है ।’’
[श्लोेकार्थ : — ] समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात आदि भेदोंसे यह काल (व्यवहारकाल) उत्पन्न होता है; परन्तु शुद्ध एक निज निरुपम तत्त्वको छोड़कर, उस कालसे मुझे कुछ फल नहीं है ।४७।
गाथा : ३२ अन्वयार्थ : — [संप्रति ] अब, [जीवात् ] जीवसे [पुद्गलतः च अपि ] तथा पुद्गलसे भी [अनन्तगुणाः ] अनन्तगुने [समयाः ] समय हैं; [च ] और [लोकाकाशे संति ] जो (कालाणु) लोकाकाशमें हैं, [सः ] वह [परमार्थः कालः भवेत् ] परमार्थ काल है ।
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काशप्रदेशेषु पृथक् पृथक् तिष्ठन्ति, स कालः परमार्थ इति ।
जीवराशिसे और पुद्गलराशिसे अनन्तगुने हैं । कौन ? समय । कालाणु लोकाकाशके प्रदेशोंमें पृथक् पृथक् स्थित हैं, वह काल परमार्थ है ।
उसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (१३८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थः — ] काल तो अप्रदेशी है । प्रदेशमात्र पुद्गल - परमाणु आकाशद्रव्यके प्रदेशको मन्द गतिसे लाँघता हो तब वह वर्तता है अर्थात् निमित्तभूतरूपसे परिणमित होता है ।’’
इसमें (इस प्रवचनसारकी गाथामें) भी ‘समय’ शब्दसे मुख्यकालाणुका स्वरूप कहा है ।
और अन्यत्र (आचार्यवर श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित बृहद्द्रद्रव्यसङ्ग्रह में २२वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
[गाथार्थः — ] लोकाकाशके एक - एक प्रदेशमें जो एक – एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी भाँति वास्तवमें स्थित हैं, वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं ।
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‘‘[श्लोेकार्थ : — ] कालके अभावमें, पदार्थोंका परिणमन नहीं होगा; और परिणमन न हो तो, द्रव्य भी न होगा तथा पर्याय भी न होगी; इसप्रकार सर्वके अभावका (शून्यका) प्रसंग आयेगा ।’’
और (३२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] कुम्हारके चक्रकी भाँति (अर्थात् जिसप्रकार घड़ा बननेमें कुम्हारका चाक निमित्त है उसीप्रकार), यह परमार्थकाल (पाँच अस्तिकायोंकी) वर्तनाका निमित्त है । उसके बिना, पाँच अस्तिकायोंको वर्तना ( – परिणमन) नहीं हो सकती ।४८।
[श्लोेकार्थ : — ] सिद्धान्तपद्धतिसे (शास्त्रपरम्परासे) सिद्ध ऐसे जीवराशि, पुद्गलराशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी प्रतीतिगोचर हैं (अर्थात् छहों द्रव्योंकी प्रतीति हो सकती है ) ।४९।
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वर्तनलिङ्गमित्युक्त म् । अथ धर्माधर्माकाशकालानां स्वजातीयविजातीयबंधसम्बन्धाभावात् विभावगुणपर्यायाः न भवंति, अपि तु स्वभावगुणपर्याया भवंतीत्यर्थः । ते गुणपर्यायाः पूर्वं प्रतिपादिताः, अत एवात्र संक्षेपतः सूचिता इति ।
विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् ।
भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ।।५०।।
गाथा : ३३ अन्वयार्थ : — [जीवादिद्रव्याणाम् ] जीवादि द्रव्योंको [परिवर्तन- कारणम् ] परिवर्तनका कारण ( – वर्तनाका निमित्त) [कालः भवेत् ] काल है । [धर्मादि- चतुर्णां ] धर्मादि चार द्रव्योंको [स्वभावगुणपर्यायाः ] स्वभावगुणपर्यायें [भवन्ति ] होते हैं ।
टीका : — यह, कालादि शुद्ध अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुणपर्यायोंका कथन है ।
मुख्यकालद्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशकी ( – पाँच अस्तिकायोंकी) पर्यायपरिणतिका हेतु होनेसे उसका लिंग परिवर्तन है (अर्थात् कालद्रव्यका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है) ऐसा यहाँ कहा है ।
अब (दूसरी बात यह कि), धर्म, अधर्म, आकाश और कालको स्वजातीय या विजातीय बन्धका सम्बन्ध न होनेसे उन्हें विभावगुणपर्यायें नहीं होतीं, परन्तु स्वभावगुणपर्यायें होतीं हैं — ऐसा अर्थ है । उन स्वभावगुणपर्यायोंका पहले प्रतिपादन किया गया है इसीलिये यहाँ संक्षेपसे सूचन किया गया है ।
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द्रव्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां कायत्वमस्त्येव । बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः । काया इव कायाः । पंचास्तिकायाः । अस्तित्वं नाम सत्ता । सा किंविशिष्टा ? सप्रतिपक्षा, अवान्तरसत्ता रम्य दैदीप्यमान ( – स्पष्ट) विवरण विस्तारसे किया गया, वह जिनमुनियोंके चित्तको प्रमोद देनेवाला षट्द्रव्यविवरण भव्य जीवको सर्वदा भवविमुक्तिका कारण हो ।५०।
गाथा : ३४ अन्वयार्थ : — [कालं मुक्त्वा ] काल छोड़कर [एतानि षड्द्रव्याणि च ] इन छह द्रव्योंको (अर्थात् शेष पाँच द्रव्योंको) [जिनसमये ] जिनसमयमें (जिनदर्शनमें) [अस्तिकायाः इति ] ‘अस्तिकाय’ [निर्दिष्टाः ] कहे गये हैं । [बहुप्रदेशत्वम् ] बहुप्रदेशीपना [खलु कायाः ] वह कायत्व है ।
टीका : — इस गाथामें कालद्रव्यके अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय हैं ऐसा कहा है ।
यहाँ (इस विश्वमें) काल द्वितीयादि प्रदेश रहित (अर्थात् एकसे अधिक प्रदेश रहित) है, क्योंकि ‘समओ अप्पदेसाे (काल अप्रदेशी है )’ ऐसा (शास्त्रका) वचन है । इसे द्रव्यत्व ही है, शेष पाँचको कायत्व (भी) है ही ।
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महासत्तेति । तत्र समस्तवस्तुविस्तरव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैकरूपव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । अनन्तपर्यायव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । अस्तीत्यस्य भावः अस्तित्वम् । अनेन अस्तित्वेन कायत्वेन सनाथाः पंचास्तिकायाः । कालद्रव्यस्यास्तित्वमेव, न कायत्वं, काया इव बहुप्रदेशाभावादिति ।
अर्थात् बहुप्रदेशोंवाले) होते हैं । अस्तिकाय पाँच हैं ।
अस्तित्व अर्थात् सत्ता । वह कैसी है ? महासत्ता और अवान्तरसत्ता — ऐसी १सप्रतिपक्ष है । वहाँ, समस्त वस्तुविस्तारमें व्याप्त होनेवाली वह महासत्ता है, २प्रतिनियत वस्तुमें व्याप्त होनेवाली वह अवान्तरसत्ता है; समस्त व्यापक रूपमें व्याप्त होनेवाली वह महासत्ता है, प्रतिनियत एक रूपमें व्याप्त होनेवाली वह अवान्तरसत्ता है; अनन्त पर्यायोंमें व्याप्त होनेवाली वह महासत्ता है, प्रतिनियत एक पर्यायमें व्याप्त होनेवाली वह अवान्तरसत्ता है । पदार्थका ‘३अस्ति’ ऐसा भाव वह अस्तित्व है ।
इस अस्तित्वसे और कायत्वसे सहित पाँच अस्तिकाय हैं । कालद्रव्यको अस्तित्व ही है, कायत्व नहीं है, क्योंकि कायकी भाँति उसे बहुप्रदेशोंका अभाव है ।
[अब ३४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार जिनमार्गरूपी रत्नाकरमेंसे पूर्वाचार्योंने प्रीतिपूर्वक षट्द्रव्यरूपी रत्नोंकी माला भव्योंके कण्ठाभरणके हेतु बाहर निकाली है ।५१।
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गाथा : ३५-३६ अन्वयार्थ : — [मूर्तस्य ] मूर्त द्रव्यको [संख्यातासंख्यातानंत- प्रदेशाः ] संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश [भवन्ति ] होते हैं; [धर्माधर्मयोः ] धर्म, अधर्म [पुनः जीवस्य ] तथा जीवको [खलु ] वास्तवमें [असंख्यातप्रदेशाः ] असंख्यात प्रदेश हैं ।
[लोकाकाशे ] लोकाकाशमें [तद्वत् ] धर्म, अधर्म तथा जीवकी भाँति (असंख्यात प्रदेश) हैं; [इतरस्य ] शेष जो अलोकाकाश उसे [अनन्ताः देशाः ] अनन्त प्रदेश [भवन्ति ] हैं । [कालस्य ] कालको [कायत्वं न ] कायपना नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [एकप्रदेशः ] वह एकप्रदेशी [भवेत् ] है ।
टीका : — इसमें छह द्रव्योंके प्रदेशका लक्षण और उसके संभवका प्रकार कहा है (अर्थात् इस गाथामें प्रदेशका लक्षण तथा छह द्रव्योंको कितने - कितने प्रदेश होते हैं वह कहा है ) ।